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आंदोलन की आग में राख होती बंगाल की शिक्षा व्यवस्था बंगाल इन दिनों जल रहा है। राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक स्थिति के लिहाज से राज्य इन दिनों सुर्खियों में है मगर यह तो वतर्मान है। बात जब भविष्य की होती है तो प्रगतिशील, आधुनिकता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात करने वालों की हरकतें इन सभी चीजों की परिभाषा पर ही रोक लगा देती हैं जिसे वे आंदोलन का नाम देते हैं। अब यहां रुककर देखने आंदोलन की परिभाषा पर ही विचार करने की जरूरत है क्योंकि जब आप गहराई में जाते हैं तो पता यह चलता है कि इस आंदोलन का कोई सार्वभौमिक उद्देश्य ही नहीं है। जिसे देखो, वही अपनी डफली, अपना राग अलाप रहा है, अपनी बात मनवाना उसकी जीत का प्रमाण है और इसके लिए वह किसी भी प्रकार का रास्ता अपनाने को तैयार है। कक्षाओं में उपस्थिति देने का विरोध, वाइस चांसलर या प्रिंसिपल उनकी मर्जी से नियुक्त न हो तो विरोध और अब सार्वजनिक तौर पर प्रेम या चुम्बन की इजाजत न मिलने का विरोध। गौर करने वाली बात यह है कि कल को यही विद्यार्थी जब शिक्षक बनेंगे तो अपने कारनामे भूल जाएंगे और कल इनके बच्चे ऐसा ही विरोध करेंगे तो उनको सबसे पहले रोकने वाले
यह तकनीक की दुनिया में धीरे से उठने वाला कदम है। एक छोटी सी कोशिश निजी अनुभूतियों को इस तरह अभिव्यक्त करने की, उससे कुछ नया और सृजनात्मक हो सकें। यह कोशिश तो समाचार लिखते समय भी रहती है मगर प्रोफेशनल भागदौड़ में अपने विचार बहुत पीछे छूट जाते हैं। बहुत कुछ देखकर लगता है कि इस पर बात होनी चाहिए, बहुत कुछ ऐसा कि उसे देखकर लगता है अब तो कुछ किया ही जाना चाहिए, मगर यह चाहत बहुत बार एक कसक बनकर रह जाती है, यह कोशिश उसे कुछ को सामने लाने की है, बगैर किसी जिद के औऱ बगैर किसी शर्त के, कुछ अच्छा करने की कोशिश।