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महिला पत्रकारों की स्थिति को दर्शाता लेख

(1) CHAPTER-1 EXECUTIVE SUMMARY STATUS OF WOMEN JOURNALISTS IN THE PRINT MEDIA   By Pamela Bhagat INTRODUCTION The project on the ‘Status of Women Journalists in the Print Media’ was initiated by the National Commission for Women to look into issues affecting the role of women working in the print media.  As part of a broader study on working women in India, it was executed by the Press Institute of India (PII), through empirical data that was collected from almost all the States and Union Territories of the country. The objective of the research was to examine the problems and issues confronting women working in the media, to gauge the extent of direct and indirect discrimination in the workplace and to identify contemporary issues that need to be addressed.  METHODOLOGY The research was coordinated by me with the support of media representatives from various regions - Linda Chhakchhuak from Shillong, Rajashri Dasgupta from Calcutta, Sushmita Malaviya from Bhopal, R. Akhileshwari fro

पत्रकारिता, कोलकाता, स्त्री

मीडिया में महिलाओं के लिए बेहतर काम करना चुनौती नहीं है मगर उसके लिए सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते जाना टेढ़ी खीर है। पत्रिकाओं में महिला संपादक आपको मिल सकती है लेकिन अखबारों में, फिलहाल इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। वहीं हिन्दी अखबारों में सम्पादक बनना तो दूर की बात है, महत्वपूर्ण क्षेत्र भी मिल जाए तो यह भी बड़ी बात है, विशेषकर राजनीति और अपराध से लेकर कोर्ट में, जहाँ भद्रता नही है। तो फिर क्या होना चाहिए, और इस बारे में सोचा क्यों नहीं गया, खासकर बौद्धिक स्तर पर महान कोलकाता में, यह हैरत की बात है, यह लेख जो सामने है, इस विषय पर मानों आँखें खोलने का काम करता है

पुस्तक मेले का बदलता चेहरा

जब भी कोई हिन्दी पाठक पुस्तक मेले में जाता है तो उसके लिए पहली चुनौती तो हिन्दी के स्टॉल खोजना है। हिन्दी के चुनिंदा स्टॉल आनंद प्रकाशन,ज्ञानपीठ, राजकमल, जैसे नामों को छोड़ दिया जाए तो हिन्दी प्रकाशकों की रुचि पुस्तक मेले में दिख नहीं रही है। समस्या यह है कि हिन्दी तो साहित्य तक सिमटती जा रही है तो साहित्य में रुचि नहीं रखने वाले पाठकों के लिए लेखकों के पास कुछ खास नहीं रहता और है भी तो पाठकों तक वह पहुँच नहीं रहा। ऐसा नहीं है कि हिन्दी में पाठक नहीं है, पाठक जरूर हैं मगर ऊंची कीमतों पर किसी बड़े साहित्यकार की रचना को खरीदने और सजाने की उसकी स्थिति नहीं है। वह चाहे तो हजार रुपए का संकलन नहीं खरीद सकता और ये पुस्तकें पुस्तकालयों की शोभा बनकर रह जाती हैं। वैसे कड़वी सच्चाई यह है कि बंगाल की पुस्तक प्रेम वाली मानसिकता हिंदी की आम जनता नहीं है या इसे लेखकों की विफलता माना जाए कि वे सरल और रोचक शैली में गंभीर बात नहीं कह पा रहे हैं। अंग्रेजी का पाठक भी संभ्रांत वर्ग ही है और उसमें से अधिकतर युवा ही हैं। क्या वजह है कि हिन्दी का प्रसार केवल शिक्षण संस्थानों या गोष्ठियों तक सिमट गया है। कहीं
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सहने की नहीं, कुछ करने की जरूरत है -     सुषमा त्रिपाठी हमारी जिंदगी में बहुत से पल ऐसे होते हैं जब हमें सख्त कदम उठाने की जरूरत पड़ती है मगर हम ऐसा नहीं करते। खासकर हम लड़कियों को तो यही सिखाकर बड़ा ही किया जाता है कि वह हमेशा दूसरों के बारे में सोचे। हमेशा यही फिक्र की जाती है कि लोग क्या कहेंगे मगर एक बार भी कोई यह सोचने की जहमत नहीं उठाता कि लड़कियां किन स्थितियों में जी रही हैं। हम मानें या न मानें आज भी भारतीय परिवार अपनी बेटियों की ख्वाइशों के साथ समझौता करने को तैयार रहते हैं। दुनिया बड़ी अजीब है क्योंकि यहां उसे खामोश रहने को कहा जाता है जो खुद पीड़ित है मगर एक बार भी अपराधियों पर लगाम कसने की कोशिश नहीं की जाती। इस पत्रिका में मैं बतौर पत्रकार नहीं, सावित्री गर्ल्स कॉलेज की पूर्व छात्रा के रूप में भी नहीं बल्कि आप सबकी तरह नयी पीढ़ी के सामने अपनी बात रखने की कोशिश कर रही हूं। मेरा मानना है कि अगर आप अपना सम्मान नहीं कर सकते तो दूसरों का सम्मान करना कभी नहीं सीखेंगे। दूसरों के बारे में सोचना अच्छी बात है मगर अपने आत्मसम्मान की बलि देकर आप किसी का भला नहीं करते बल्क

हिन्दी मेले का युगल किशोर सुकुल पत्रकारिता सम्मान

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आंदोलन की आग में राख होती बंगाल की शिक्षा व्यवस्था बंगाल इन दिनों जल रहा है। राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक स्थिति के लिहाज से राज्य इन दिनों सुर्खियों में है मगर यह तो वतर्मान है। बात जब भविष्य की होती है तो प्रगतिशील, आधुनिकता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात करने वालों की हरकतें इन सभी चीजों की परिभाषा पर ही रोक लगा देती हैं जिसे वे आंदोलन का नाम देते हैं। अब यहां रुककर देखने आंदोलन की परिभाषा पर ही विचार करने की जरूरत है क्योंकि जब आप गहराई में जाते हैं तो पता यह चलता है कि इस आंदोलन का कोई सार्वभौमिक उद्देश्य ही नहीं है। जिसे देखो, वही अपनी डफली, अपना राग अलाप रहा है, अपनी बात मनवाना उसकी जीत का प्रमाण है और इसके लिए वह किसी भी प्रकार का रास्ता अपनाने को तैयार है। कक्षाओं में उपस्थिति देने का विरोध, वाइस चांसलर या प्रिंसिपल उनकी मर्जी से नियुक्त न हो तो विरोध और अब सार्वजनिक तौर पर प्रेम या चुम्बन की इजाजत न मिलने का विरोध। गौर करने वाली बात यह है कि कल को यही विद्यार्थी जब शिक्षक बनेंगे तो अपने कारनामे भूल जाएंगे और कल इनके बच्चे ऐसा ही विरोध करेंगे तो उनको सबसे पहले रोकने वाले
यह तकनीक की दुनिया में धीरे से उठने वाला कदम है। एक छोटी सी कोशिश निजी अनुभूतियों को इस तरह अभिव्यक्त करने की, उससे कुछ नया और सृजनात्मक हो सकें। यह कोशिश तो समाचार लिखते समय भी रहती है मगर प्रोफेशनल भागदौड़ में अपने विचार बहुत पीछे छूट जाते हैं। बहुत कुछ देखकर लगता है कि इस पर बात होनी चाहिए, बहुत कुछ ऐसा कि उसे देखकर लगता है अब तो कुछ किया ही जाना चाहिए, मगर यह चाहत बहुत बार एक कसक बनकर रह जाती है, यह कोशिश उसे कुछ को सामने लाने की है, बगैर किसी जिद के औऱ बगैर किसी शर्त के, कुछ अच्छा करने की कोशिश।