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आखिरकार धमाकों और गोलियों के बीच निगम का चुनाव खत्म हुआ, अब नतीजों का इंतजार है मगर कल जो नजारा था, उसे लोकतंत्र के अनुकूल तो नहीं कहा जा सकता। लोकसभा चुनावों में जो उत्साह था और लगता तो ऐसा ही है कि बंगाल में चुनाव औपचारिकता मात्र ही हैं क्योंकि स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा जैसा शब्द राजनीति में अब प्रासंगिक नहीं रहा, एक ही टीम बैटिंग भी करती है, गेंदबाजी भी करती है, कैच भी पकड़ती है और फिर चोरी का रोना भी रोती है। इस टीम को विरोधी नही, लगता है कि उसके खिलाड़ी ही मात देंगे। एक साल में काफी कुछ बदल गया। बहरहाल जिंदगी ने मानों नया मोड़ लिया है और खुद से जूझने के बाद आखिरकार मैं कह सकती हूँ जो होता है, अच्छा होता है, काश यह बात हमारे राज्यवासियों पर और देश पर भी लागू हो पाती, पता नहीं अच्छे दिन कहाँ थम गये,
हो सकता है कि जो लिखने जा रही हूँ वह बहुतों को नागवार गुजरे , यह भी कहा जा सकता है कि कुछ नियम ही ऐसे हैं मगर नियम जब आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने लगे , तब ऐसा ही  होता है , कहकर खुद को समझाना बहुत कठिन होता है , कुछ पेशेवर तकाजा भी है और हो सकता है कि यह दूतावासों से लेकर हवाई अड़्ों की संस्कृति हो। बात अमेरिकन सेंटर की हो रही है , जहाँ कई सालों से आना जाना होता रहा है। सुरक्षा के लिए जाँच भी तकाजा है , यह भी स्वीकार कर लिया जाए इसका तरीका बाध्य कर देता है कि यह सोचा जाए कि क्या हम अपने ही देश में हैं। और हाँ , तो दूसरों के बनाए नियम हम पर क्यों लागू होंगे। जाँच के नाम पर आपका सामान बिखेरकर तलाशी लेना , और फिर आपको आपको पानी पीने को बाध्य करना , अनचाहे ही शक का दायरा खड़ा करता है। सवाल यह है कि विदेशों में तो हमारे पूर्व राष्ट्रपति से लेकर अभिनेताओं तक को तलाशी के नाम पर अपमान सहना   पड़ा है तो फिर मैं क्यों शिकायत कर रही हूँ। वैसे क्या बराक ओबामा को भी भारत आने पर  तलाशी देनी पड़ी होगी। हद तो तब हो जाती है जब कई बार आपको असमय दवा खाने को कह दिया जाता है। बात विश्वास की है और जब विश्व
महिला सशक्तीकरण का मतलब पुुरुषों का नहीं उस पितृसत्तात्मकता का विरोध करना है जो परंपरा के नाम पर स्त्रियों को कमतर समझकर उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित रखती है। कहने को स्त्री और पुरुष समाज के दो पहिए हैं मगर स्त्री वह पहिया है जिसे जिम्मेदारियों के नाम पर घिसा तो गया मगर अधिकारों का तेल नहीं लगने दिया गया। जो लोग परदा प्रथा और देवी बनाकर स्त्री से आज भी मध्ययुगीन सभ्यता में जीने की उम्मीद रखते हैं, जो स्त्री को उपभोग की सामग्री मानकर उस पर अधिकार जताते हैं, दहेज या प्रेम मे ं ठुकराए जाने पर उस पर तेजाब फेंकते है और बलात्कार या हिंसा को लड़कियों की नियति मानते हैं उनसे ही यह सवाल है, क्या आप शादी के नाम पर अपनी ससुराल को दहेज देना पसंद करेंगे, और वहां रहना पसंद करेंगे। कैेसे लगेगा जब दहेज के साथ आपको वह तमाम काम करने पड़ेे जो आपकी पत्नी करती है। क्या करेंगे जब धोखेबाजी की शिकार कोई प्रेमिका आपके चेहरे पर तेजाब फेंके। क्या होगा जब यौन हिंसा की घटनाएं आपके साथ हों। घर की इज्जत के नाम पर लड़कियों की जान लेने वालों को कैसा लगेगा जब ऐसी घटिया हरकतों के लिए लड़कियां हिंसक हो उठें, लड़कों क
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यह कहानी सलाम दुनिया में प्रकाशित हो चुकी है

                          मोहरा                                                      - सुषमा त्रिपाठी " प्रदीप्त मुखर्जी , हमारी जोनल कमेटी के नये अध्यक्ष। पार्टी ने इनको यह जिम्मेदारी सौंपी है। उम्मीद है कि प्रदेश के दूसरे नेता भी उसी ईमानदारी से पार्टी को आगे बढ़ाएंगे , जिस तरह से प्रदीप्त बढ़ा रहे हैं। " तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूंज उठा। सभागार के बीच से एक दुबला - पतला सांवला लड़का मंच की ओर बढ़ा। उसके गले में हार डाला गया और वह संकोच से मानो दबा जा रहा था। तालियों के बीच मंच के नीचे दो हाथ अपनी मुट्ठियों को भींचे तने जा रहे थे , कभी इन हाथों ने इसी पार्टी के लिए चोटें भी खायीं थीं और ये हाथ किसी और के नहीं , उसी सुभाष के थे जिसकी जगह प्रदीप्त को दे दी गयी थी। सुभाष से और रहा नहीं गया , कुछ सोचता , तभी मोबाइल की घंटी बजी और वह बाहर आ गया। - " ए सुभाष दा , के होलो प्रेसिडेंट तोमादेर ?" - " नतून छेले , प्रदीप्त मुखर्जी। " - " प्रदीप्त , तुम ही तो लाए थे , दादा उसे। " सुभाष ने फोन काट दिया। एक - एक करके पुरानी बातें य
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एनडीटीवी को बॉय कहा बरखा दत्त ने , अपनी मीडिया कंपनी स्थापित करेंगी , पढ़ें प्रणय और राधिका का पत्र ·          February 18, 2015 ·          Written by B4M Reporter ·          Published in  आवाजाही-कानाफूसी User Rating: 5 / 5 Top of Form Please rate          Vote 1 Vote 2 Vote 3 Vote 4 Vote 5    Bottom of Form बरखा दत्त का नाम एनडीटीवी के लिए पर्याय हो चुका है. पर ये नाता अब टूट रहा है. बरखा दत्त अपनी मीडिया कंपनी बनाएंगी. बरखा की एनडीटीवी से विदाई पर चैनल के मालिक-मालकिन प्रणय राय और राधिका राय ने अपने सभी कर्मियों को एक आंतरिक मेल किया है , जो इस प्रकार है...     From: Prannoy Roy     To: Everyone in NDTV Group     Subject: The very best     Dear All     Barkha Dutt was only 23 when she joined NDTV as a young reporter cum producer. NDTV was the first place she ever worked in and for two decades we have seen her evolve into one of our most prolific reporters. She has been a key member of the NDTV family and a big part of our memorable journey fr

महिला पत्रकारों की स्थिति को दर्शाता लेख

(1) CHAPTER-1 EXECUTIVE SUMMARY STATUS OF WOMEN JOURNALISTS IN THE PRINT MEDIA   By Pamela Bhagat INTRODUCTION The project on the ‘Status of Women Journalists in the Print Media’ was initiated by the National Commission for Women to look into issues affecting the role of women working in the print media.  As part of a broader study on working women in India, it was executed by the Press Institute of India (PII), through empirical data that was collected from almost all the States and Union Territories of the country. The objective of the research was to examine the problems and issues confronting women working in the media, to gauge the extent of direct and indirect discrimination in the workplace and to identify contemporary issues that need to be addressed.  METHODOLOGY The research was coordinated by me with the support of media representatives from various regions - Linda Chhakchhuak from Shillong, Rajashri Dasgupta from Calcutta, Sushmita Malaviya from Bhopal, R. Akhileshwari fro

पत्रकारिता, कोलकाता, स्त्री

मीडिया में महिलाओं के लिए बेहतर काम करना चुनौती नहीं है मगर उसके लिए सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते जाना टेढ़ी खीर है। पत्रिकाओं में महिला संपादक आपको मिल सकती है लेकिन अखबारों में, फिलहाल इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। वहीं हिन्दी अखबारों में सम्पादक बनना तो दूर की बात है, महत्वपूर्ण क्षेत्र भी मिल जाए तो यह भी बड़ी बात है, विशेषकर राजनीति और अपराध से लेकर कोर्ट में, जहाँ भद्रता नही है। तो फिर क्या होना चाहिए, और इस बारे में सोचा क्यों नहीं गया, खासकर बौद्धिक स्तर पर महान कोलकाता में, यह हैरत की बात है, यह लेख जो सामने है, इस विषय पर मानों आँखें खोलने का काम करता है

पुस्तक मेले का बदलता चेहरा

जब भी कोई हिन्दी पाठक पुस्तक मेले में जाता है तो उसके लिए पहली चुनौती तो हिन्दी के स्टॉल खोजना है। हिन्दी के चुनिंदा स्टॉल आनंद प्रकाशन,ज्ञानपीठ, राजकमल, जैसे नामों को छोड़ दिया जाए तो हिन्दी प्रकाशकों की रुचि पुस्तक मेले में दिख नहीं रही है। समस्या यह है कि हिन्दी तो साहित्य तक सिमटती जा रही है तो साहित्य में रुचि नहीं रखने वाले पाठकों के लिए लेखकों के पास कुछ खास नहीं रहता और है भी तो पाठकों तक वह पहुँच नहीं रहा। ऐसा नहीं है कि हिन्दी में पाठक नहीं है, पाठक जरूर हैं मगर ऊंची कीमतों पर किसी बड़े साहित्यकार की रचना को खरीदने और सजाने की उसकी स्थिति नहीं है। वह चाहे तो हजार रुपए का संकलन नहीं खरीद सकता और ये पुस्तकें पुस्तकालयों की शोभा बनकर रह जाती हैं। वैसे कड़वी सच्चाई यह है कि बंगाल की पुस्तक प्रेम वाली मानसिकता हिंदी की आम जनता नहीं है या इसे लेखकों की विफलता माना जाए कि वे सरल और रोचक शैली में गंभीर बात नहीं कह पा रहे हैं। अंग्रेजी का पाठक भी संभ्रांत वर्ग ही है और उसमें से अधिकतर युवा ही हैं। क्या वजह है कि हिन्दी का प्रसार केवल शिक्षण संस्थानों या गोष्ठियों तक सिमट गया है। कहीं
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सहने की नहीं, कुछ करने की जरूरत है -     सुषमा त्रिपाठी हमारी जिंदगी में बहुत से पल ऐसे होते हैं जब हमें सख्त कदम उठाने की जरूरत पड़ती है मगर हम ऐसा नहीं करते। खासकर हम लड़कियों को तो यही सिखाकर बड़ा ही किया जाता है कि वह हमेशा दूसरों के बारे में सोचे। हमेशा यही फिक्र की जाती है कि लोग क्या कहेंगे मगर एक बार भी कोई यह सोचने की जहमत नहीं उठाता कि लड़कियां किन स्थितियों में जी रही हैं। हम मानें या न मानें आज भी भारतीय परिवार अपनी बेटियों की ख्वाइशों के साथ समझौता करने को तैयार रहते हैं। दुनिया बड़ी अजीब है क्योंकि यहां उसे खामोश रहने को कहा जाता है जो खुद पीड़ित है मगर एक बार भी अपराधियों पर लगाम कसने की कोशिश नहीं की जाती। इस पत्रिका में मैं बतौर पत्रकार नहीं, सावित्री गर्ल्स कॉलेज की पूर्व छात्रा के रूप में भी नहीं बल्कि आप सबकी तरह नयी पीढ़ी के सामने अपनी बात रखने की कोशिश कर रही हूं। मेरा मानना है कि अगर आप अपना सम्मान नहीं कर सकते तो दूसरों का सम्मान करना कभी नहीं सीखेंगे। दूसरों के बारे में सोचना अच्छी बात है मगर अपने आत्मसम्मान की बलि देकर आप किसी का भला नहीं करते बल्क

हिन्दी मेले का युगल किशोर सुकुल पत्रकारिता सम्मान

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