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अपने हिस्से की दुनिया तलाशतीं - वाह! ये औरतें

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सुषमा त्रिपाठी इंसान चला जाए , अपनी गलियों को अपने भीतर सहेजे रखता है और बाहर की दुनिया में भी अपने हिस्से का कोना तलाश लेता है। लेखिका माधवीश्री के उपन्यास में नायिका के चरित्र में यह कोना नजर आता है। मां को समर्पित यह उपन्यास कल्पना पर आधारित हैं मगर लेखिका माधवी श्री के मुताबिक ही इसमें सभी कुछ कल्पना नहीं है। लेखिका के अनुसार उपन्यास कोलकाता में लिखा गया था मगर इसे पढ़ने पर आपको आने वाले कल की औरतें दिखती हैं जो उनके जेहन में कहीं छुपी थीं और वक्त आते ही उपन्यास की शक्ल में जिंदा हो उठीं।   वाह ये औरतें , तीन सहेलियों की कहानी है। ऐसी औरतें जो हम अपने आस – पास देखते हैं मगर उनके अंदर का विद्रोह अनदेखा रह जाता है। चरित्र को नैतिकता के पलड़े पर न तोलकर सिर्फ उसे एक मानवीय पहलू से देखा जाए तो बात समझ में आती है। रमा उस कामकाजी औरत का चेहरा है जो सोशल गैदरिंग में खुशमिजाज और आत्मनिर्भर होने का दावा करती है और अपने टूटेपन को आत्मविश्वास के सहारे जोड़ने की कोशिश करती है। उमा लेखिका है , जो स्त्री विमर्श की बातें करने वाली आधुनिक स्त्री है। पूनम है , जो गृहस्थी की दुनिय

अपने हिस्से का आसमान समेटती अकेली औरतें

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- सुषमा त्रिपाठी अकेली महिला , जब भी ये शब्द जेहन में आता है तो महिला की लाचार छवि बहुतों के दिमाग में कौंध उठती होगी। साहित्य से लेकर सिनेमा और समाज में भी महिला का अकेली होना अभिशाप ही माना जाता रहा है और इस बात की परवाह किए बगैर कि वह खुद इस बारे में क्या सोचती है। औरत अकेली क्या हुई , लोग उसे अपनी सम्पत्ति समझ बैठते हैं और यह भी कड़वी हकीकत है कि महज अकेले होने के कारण उसे आपत्तिजनक और कुछ हद तक बेहूदे प्रेम प्रस्तावों से गुजरना पड़ता है।  इनकार किया तो चरित्र पर उँगलियाँ उठेंगी और हाँ कर दी तो उस पर एक एहसान लाद दिया गया मगर अब ये पन्ने पलट रहे हैं क्योंकि अब अकेली होने का मतलब लाचारी नहीं है बल्कि एक ऐसी सशक्त महिला की छवि सामने आती है जो अपने फैसले खुद करती है , जो अपना सम्मान करना जानती है और मातृत्व का सुख प्राप्त करने के लिए उसे किसी पर निर्भर होने की जरूरत नहीं पड़ती और सबसे अच्छी बात यह है कि उनके बच्चे उनका सम्मान करते हैं और उनको समझते हैं। यकीन न हो तो नीना गुप्ता और मसाबा गुप्ता पर नजर डालिए। विवियन रिचर्ड्स से उनकी शादी नहीं हुई थी मगर नीता ने मसाबा को न सिर्फ

आज के समय में पत्रकारिता, पत्रकार और स्त्री

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  आज 30 मई है। पत्रकारिता दिवस। सोचती हूँ कि बीते एक दशक में पत्रकारों की स्थिति में क्या बदलाव आया है तो लगता है कि कुछ और नहीं सोचने का तरीका बदला है। हम दो धड़ों में बँट चुके हैं। एक वर्ग निष्पक्षता और उदासीनता में फर्क करना भूल चुका है तो दूसरा प्रबंधन को खुश करने की कला को पत्रकारिता का नाम देकर खुश है और इन सबके बीच में पिस रहा है ईमानदारी से काम करने वाला संवाददाता। दूर से देखने पर ग्लैमर मगर भीतर जाओ तो आपको पूरी जिंदगी में जितना अनुभव नहीं होगा, उतना अनुभव आप साल भर का म करके कमा सकते हैैं। अब बात औरतोॆं की करें तो अधिकतर स्वनाम धन्य अखबारों के लिए वह मसाला हैै, उससे जुड़ी खबरों में इतना मिर्च डाल दिया जाता है कि स्वाद ही कड़वा हो जाता है। सनी लियोनी को गालियाँ देने वाले उनकी अंतरंग तस्वीरों को प्रमुखता से स्थान देते हैं। खबर का स्तर यह है कि अब मीडिया अबराम का जन्मदिन भी मना रहा है। बाकायदा नग्न होती महिलाओं के वीडियो अपलोड किए जाते हैं औऱ इसमें महिलाओं के साथ महिला पत्रकारों की भी छीछालेदर हो रही है। खबरों का शीर्षक वह आशिक के साथ भाग गयी, तो सड़क पर लड़ पड़ी और इससे भी

बंगाल के चुनाव, औपचारिकता है मगर गायब है जनता की उम्मीदें

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चुनाव लगभगवखत्म। पहले से कहीं अधिक शांतिपूर्ण। बम, गोली, खून इस बार कम है। निश्चित रूप से चुनाव आयोग और केंद्रीय वाहिनी की भूमिका की तारीफ़ की जानी चाहिए मगर मतदान के प्रतिशत में फिर भी गिरावट है। सबसे दुखद और मार्मिक सत्य ये रहा कि कुर्सी की भूख अब बच्चों पर भी रहम करना भूल चुकी है। हालिशहर के बाद हावड़ा में भी बच्चों को हिंसा का शिकार होना पड़ा। नतीजों को लेकर भी अजीब सा सन्नाटा है मगर लोगों का कम मतदान करना विकल्प न होने के कारण है जिसमें हताशा और उदासीनता भी है। ये दूर होगी या नहीं अब भी कहना कठिन है। कोलकाता पोर्ट में जो सन्नाटा दिखा, वह एक डर को दर्शाता है। महिलाओं के साथ लोगों में भी अजीब सी उदासीनता दिखा। ऐसा लगता है कि मतदान अब एक औपचारिकता भर रह गया है विकल्पहीन बंगाल में।  नतीजे चाहे जो भी हों मगर आम जनता के हिस्से में शायद ही कुछ आए। क्या पता सत्ता बदले या न बदले। 34 साल के वामपंथी शासन और 5 साल के तृणमूल के शासन में बंगाल की झोली खाली ही रही है। उत्सव हुए तो पलायन अधिक हुआ। लोकतांत्रिक औऱ बुद्धिजीवी बंगाल में आम आदमी को बाहर लाने के लिए केन्द्रीय वाहिनी और144 धारा

सशक्तिकरण की राह तो हमारे घर से ही निकलती है

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महिला सशक्तिकरण की बातें यूँ तो साल भर चलती रहती हैं मगर मार्च आते ही इसमें अनायास तेजी आ जाती है। साल में एक दिन महिलाओं के सम्मान को लेकर बड़े – बड़े दावे और बड़ी – बड़ी बातें की जाती हैं और 8 मार्च बीतते ही एक बार फिर घड़ी की सुई पुराने समय पर लौट आती है। समय बदला है और महिलाओं की स्थिति भी बदली है मगर क्या जमीनी हकीकत बदली है ? यह सच है कि महिलाएं आगे बढ़ रही हैं और आवाज भी उठा रही हैं और बढ़ती चुनौतियों या यूँ कहें कि बढ़ते महिला अपराधों का एक बड़ा कारण यह है कि अब पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बड़ी चुनौती मिल ही है। दिल्ली का निर्भया कांड हो या पार्क स्ट्रीट का सुजैट जॉर्डन कांड, अभियुक्त इन दोनों महिलाओं को सबक सिखाना चाहते थे। आज भी फतवे, पाबंदी और नसीहतों के साथ बयानबाजी सब महिलाओं के हिस्से आ रही है। महिलाओं को लेकर सोच आज भी नहीं बदली है। आज भी दोहरी मानसिकता महिलाएं हो रही हैं। एक ओर उनको परदे पर सराहा जाता है, इंटरनेट पर खोजा जाता है तो दूसरी ओर उनको अछूत मानकर लोग किनारा भी करते हैं। जाट आरक्षण के नाम पर आंदोलन में महिलाओं को शिकार बनाया जाता है तो दूसरी ओर विश्वविद्य

राजनीति के शिकंजे में जेएनयू,पिस रहे छात्र

जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय इन दिनों सुर्खियों में है। खबरों में या यूँ कहें कि विवादों में रहना इस विश्वविद्यालय की खासियत है मगर अच्छी बात यह थी कि विचारधारा के टकराव के साथ सृजनात्मकता के लिए इस विश्ववि्द्यालय की अपनी पहचान थी मगर अब इसे राजनीतिक पार्टियों की नजर लगती जा रही हैै। सच तो यह है कि राजनीतिक दल कोई भी हो, विश्वविद्यालय उसके लिए एक पॉलिटिकल वोट बैंक से अधिक कुछ भी नहीं है और हर कोई इन पर कब्जा जमाने में लगा है। जेयू से लेकर जेएनयू तक, हर जगह एक ही कहानी हैै मगर इन सब में जो पिस रहा है, वह एक आम छात्र और शिक्षक (अगर वह सचमुच शिक्षक है) के साथ अभिभावक है। अब यह विश्वविद्यालयों को तय और सुनिश्चित करना होगा कि उनके होते संस्थानों को राजनीति का जहर न डसे। बहुत हुआ, अब किसी राजनीतिक पार्टी की छाया शिक्षण संस्थानों पर नहीं पड़नी चाहिए, पर अभी यह होगा, इस पर भी संशय है और यही खतरा है।

इतिहास ने सिखाया - स्त्री को एक दूसरे के लिए लड़ना सीखना होगा

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पन्ने चाहे इतिहास के हों या धर्म के, औरतों के लिए मापदण्ड हमेशा से ही अधिक कठोर रहे हैं। बाजीराव मस्तानी देखी  और मस्तानी से अधिक काशीबाई की खामोशी और व्यथा परेशान कर गयी। इतिहास के पन्नों में काशीबाई के साथ न्याय नहीं हुआ। अपनी पत्नी का विश्वास तोड़कर भी बाजीराव नायक बने रहे और प्रेम के नाम पर दीवानगी दिखाने वाली मस्तानी भी अपनी छाप छोड़ गयी मगर इन दोनों की निशानी पर अपनी ममता लुुटाने वाली काशीबाई को कहीं जगह नहीं मिली। जो छूट बाजीराव को मिली, क्या वह छूट उस समय में काशीबाई को मिलने की कल्पना भी की जा सकती है। फिल्म में प्रियंका चोपड़ा ने उस पीड़ा को जिस तरह से जीया है, वह वाकई झकझोर देने वाला है। प्रेम की बातें करने वाले समाज ने दो औरतों को हमेशा लड़वाया है। नियमों को अपनी सुविधा के लिए और पुरुषप्रधान समाज ने हमेशा से तोडा और मरोड़ा है। संसार के हित का हवाला देकर द्रौपदी को पांच पांडवो से विवाह कर उनको अपनाने पर यह व्यवस्था विवश करती है। उसे न्यायसंगत भी ठहराती है तो दूसरी तरफ कर्ण से अपमानित भी करवाती है। जब भी महाभारत की कहानियां सुनती हूं, हजारों सवाल परेशान कर जाते हैं। हर पां

हर धर्म की असहिष्णुता की शिकार है औरत

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हर धर्म की असहिष्णुता की शिकार हैं औरत -     सुषमा त्रिपाठी असहिष्णुता को लेकर देश का माहौल काफी गर्म रहा। गाय को बचाने वाले भी आगे रहे और गाय को महज जानवर बताकर खुद को धर्मनिरपेक्ष बताने वालों ने बीफ खाकर को शांतिप्रिय साबित करने की काफी कोशिश की। वैसे सभी धर्मों के नुमाइंदों और समाज के स्वयंभू पहरेदारों में एक बात को लेकर समानता तो है कि इनमें से हर कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं को अपने तलवों के नीचे रखने में यकीन रखता है और यह समानता अमेरिका, ब्रिटेन से लेकर अरब और भारत में भी है। पश्चिमी देशों के शो बिज की दुनिया में महिला कलाकारों का अंग प्रदर्शन और एक्सपोजर वहाँ की विकसित महिलाओं का शोषण और मजबूरी है। अपने देश में ही किसी को मोबाइल रखने से औरत के बिगड़ने का डर है तो कोई देर रात तक सड़क पर घूमने वाली महिलाओं को अपराध की सजा दुष्कर्म करके देता रहता है। अरब में तो महिला को बलात्कार साबित करने के लिए भी चार पुरुषों की जरूरत पड़ती है और गाड़ी चलाने वाली महिलाओं के खिलाफ तो फतवे जारी कर दिये जाते हैं। रही बात भारत की तो यहाँ आज भी डायन बताकर महिलाओं की हत

सुजैट - पीड़ा जो बनी प्रेरणा

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सुजैट जॉर्डन, जब भी आप यह नाम लेते हैं तो उसका जिक्र पार्क स्ट्रीट पीड़िता के रूप में होता है मगर यह जाँबाज महिला, खुद को पीड़ित नहीं सरवाइवर, कहती थी और जिस हिम्मत के साथ उसने इंसाफ की लड़ाई बगैर किसी के साथ  के लड़ी, वह काबिलेतारीफ थी मगर कहीं न कहीं कम से कम मैंने समाज और शख्सियतों एक खौफनाक चेहरा देखा। जज ने फैसले में कहा है कि ये सजायाफ्ता तीन आरोपी सुजैट को सबक सिखाना चाहते थे, निर्भया के साथ दरिंदगी का खेल खेलने वालों ने भी उसे सबक सिखाने के लिए ही अपनी हैवानियत दिखायी। जाहिर है कि समाज के नुमाइंदों को औरतों के आगे बढ़ने और देर रात तक बाहर रहने से परेशानी है क्योंकि दुनिया के 80 प्रतिशत मर्द तो औरतों को अपनी सम्पत्ति ही समझते हैं जिसकी जिंदगी के कायदे - कानून वह खुद तय करना अपना अधिकार समझते हैं और गाहे - बगाहे हमारे देश के स्वयंभू नेताओं ने भी अपने बयानों से महिलाओं की अस्मिता की धज्जियाँ उड़ाने में अपनी शान ही समझी हैं इसलिए मुलायम सिंह यादव को बलात्कारी भी बच्चे नजर आते हैं। 16 दिसम्बर आने वाला है और निर्भया की मौत के एक साल और गुजर जाएंगे मगर सुजैट ने तो वह जहर पीया और उ

वाइ ओनली मेन

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वाई ओनली मेन डांस इन इंडिया। फ्राँस से आयी शारर्टाल ने जब ये सवाल मुझसे पूछा तो मेरे पास कोई जवाब नहींं था। मैंने हमारी सभ्यता और संस्कृति की लफ्फाजी में उनको घुमाने की कोशिश की मगर छठ के हर गीत पर झूमती शार्टाल के लिए नृत्य उल्लास की अभिव्यक्ति है जो स्त्री और पुरुष का फर्क नहीं देखती मगर यह भारत है जहाँ खुलकर अभिव्यक्ति करने की छूट पितृसत्तात्मक समाज को है। स्त्रियाँ फिल्मों में पेड़ के इर्द - गिर्द नायक से गलबहियाँ करती तो अच्छी लगती हैं मगर वास्तविक जीवन में अगर कोई स्त्री इस तरह से अभिव्यक्ति करे तो सीधे उसकी परवरिश से लेकर चरित्र  पर ही सवाल उठेंगे। प्रकृति से मिले अधिकार भी लाज - संकोच और शर्म की बेड़ियों में बाँधकर हम खुद को सभ्य कहते है औऱ यही हिचक हम स्त्रियों में भी है। तुम्हारे सवाल का जवाब हमारे पास अभी नहीं है शार्टाल, उसकी तलाश जरूर कर रहे हैं हम
आइसक्रीम खाएंगे, जब मैंने रस्सी पर खेल दिखाती गौरी से बतियाने की कोशिश की तो गौरी का पहला वाक्य यही था। नीचे भीड़ खड़ी उसका तमाशा देख रही थी, पास ही कानून के पहरेदार भी थे मगर आँखों के सामने बालश्रम या यूँ कहें, कि बच्ची की जान को दाँव कर लगाकर तमाशा देखने वाले अधिक थे। गौरी 2 साल से ही सयानी हो चुकी है, घर चलाने के लिए और भाई के इलाज के लिए अपने भाई -बहनों के साथ खेल दिखाती है मगर उसकी छोटी सी आँखों में बचपन पाने की चाह को छोड़कर मैं कुछ नहीं देख पायी। माँ कहती है कि उसकी बेटी सब कर लेती है, बेटी जब खेल दिखाती है तो माँ और भाई नीचे चलतेे दिखे, भाई ऊपर जाता तो गौरी नीचे चलती। ऊँची पतली रस्सी पर खड़ी गौरी पता नहीं दुनिया को तमाशा दिखा रही थी या नीचे खड़े तमाशबीनों का तमाशा देख रही थी, पता नहीं मगर मन बहुत परेशान हो गया। गौरी मानों अब तक मेरा पीछा कर रही है, मैं उसकी कहानी पहुँचा सकूँ, इसके अलावा फिलहाल और कुछ नहीं कर सकती। माँ को भी दोष कैसे दूँ मगर दोषी फिर कौन है, गरीबी, व्यवस्था या कुछ और। पता नहीं मगर उसकी आवाज गूँज रही है - आइसक्रीम खाएंगे
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ऐसा लगता है कि पुरस्कार वापसी की रेल निकल पड़ी है जिसमें एक के बाद एक डिब्बे जुड़ते चले जा  रहे हैं। हर कोई खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करने में जुटा है, वैसे ही जैसे बच्चे कक्षा में प्रथम आने की तैयारी कर रहा हो। हर कोई रूठा है, हर किसी को शिकायत है मगर जख्म पर मरहम लगाने की अदा ही शायद लोग भूल गये हैं। दादरी से लेकर दिल्ली तक, हर जगह माँ भारती कराह रही है। पुरस्कारों से तौबा करने की जगह शायद नफरत से तौबा होती तो कोई राह भी निकलती। काश, लोग समझ पाते कि राम और रहीम, दोनों इस जमीन के ही बेटे हैं। खून किसी का भी बहे, चोट तो माँ को ही लगनी है।