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नीतिश ने वही किया जो ऐसी स्थिति में हम और आप करते

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नीतिश को शायद अंदाजा है कि उनकी राह इतनी आसान नहीं हैै टॉपर और रिजल्ट घोटाले के बाद बिहार इन दिनों फिर से चर्चा में है। चर्चा में तो पहले से ही था मगर वहाँ के अत्प्रत्याशित राजनीतिक घटनाक्रम ने जो मोड़ लिया है, उसने बिहार की राजनीति को राष्ट्रीय अखबारों की सुर्खियों में लाकर खड़ा कर दिया। सुशासन बाबू धोखेबाज बन गए और लालू के साथ बेवफाई पर चुटकुले गढ़े जाने लगे, वो लोग उंगली उठाने लगे जो अपनी अवसरवादिता के लिए बदनाम हैं। वो लोग तंज कसने लगे जिन्होंने खुद गठबंधन की राजनीति को धता बताकर मनमाने फैसले लिए। बिहार की राजनीति शोध करने के लायक विषय बन गयी है। आप सिर्फ कल्पना कीजिए लालू और उनके परिवार, खासकर बेटों के हाव – भाव और बॉडी लैंग्वेज पर....और फिर बताइए कि जो व्यक्ति राज्य की कमान 5 बार सम्भाल चुका हो, जिसके नेतृत्व में राज्य की दशा सुधरी हो, वह उसे क्यों बर्दाश्त करेगा ? लालू के परिवार में शिष्टाचार नहीं है, तमीज भी नहीं है और जिस तरीके से आधी रात को पैदल मार्च करके तेजस्वी और तेजप्रताप राजभवन निकल पड़े, उसे देखकर यही स्पष्ट हो रहा था कि बिहार की सत्ता उनके लिए पैतृक सम्पत्त

हिन्दी पत्रकारिता के प्रोफेशनल जादूगर एस पी और खबरों की बेरहम दुनिया

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- सुषमा त्रिपाठी हिन्दी का कोई पत्रकार मीडिया के फलक पर तरह छाए कि चकाचौंध भरे इस समय में उसे भुलाया न जा सके,तो आज के समय में यह एक बड़ा आश्चर्य है,  एक बड़ी घटना है। दूरदर्शन के मेट्रो पर आज तक के प्रस्तोता के रूप में ही सुरेन्द्र प्रताप सिंह को देखा था और मेरी तरह न जाने कितने पत्रकारों का रिश्ता खबरों की दुनिया से जुड़ गया। तब चैनलों की भीड़ नहीं थीं, दूरदर्एशन सरकार दर्शन अधिक लगता था, एेसे समय में एस पी का नाम और उनकी सच्चाई भरी सादगी पर हमारा भरोसा था और आज यह भरोसा आदर्श में बदल गया है, हालाँकि पुख्ता आदर्श जैसा शब्द अब शब्द जाल ही लगता है। आज के समय में पत्रकारिता एक व्यवसाय है और ये एस पी ही थे जिन्होंने पहली बार अखबार को उद्योग माना था। वे पत्रकारिता में मिशनरी की बातें नहीं करते मगर ये जरूर मानते हैं कि पेशे के प्रति प्रतिबद्धता होनी जरूरी है। आज वे जीवित होते तो पत्रकारिता को धंधा बनाने की वकालत कभी नहीं करते। आज भी मेरी तरह अधिकतर लोग उनको आज तक के माध्यम से पहचानते हैं मगर सच तो यह है कि सुरेन्द्र प्रताप सिंह की एक अकादमिक और बौद्धिक पृष्ठभूमि थी जिसने उनको

नेता नहीं, अनुगामी और बाउंसर बना रही है आज की छात्र राजनीति

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छात्र अगर इस देश का भविष्य हैं तो छात्र राजनीति उस भविष्य की दिशा निर्धारित करती है। शिक्षा के क्षेत्र में पत्रकारिता करते हुए बहुत से छात्र नेताओं से पाला पड़ा है और कुछ अनुभव ऐसे हुए कि लगता है कि अब इस पर बात होनी चाहिए क्योंकि देश भर में और बंगाल में तो युवाओं पर सबसे अधिक प्रभाव इन छात्र नेताओं का पड़ता है। यही कारण है कि कोई भी राजननीतिक पार्टी लिंग्दोह कमिशन की सिफारिशें लागू करने में कतराती है मगर बंगाल की छात्र राजनीति उस हिंसक मोड़ पर आ चुकी है कि सत्ताधारी पार्टी को अपने ही छात्र संगठन की गतिविधियों को लेकर सोचना पड़ रहा है। हालत यह है कि खुद मुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री भी छात्र संसद की जगह छात्र परिषद को लेकर गम्भीर हैं और सेंट जेवियर्स का मॉडल राज्य भर में लागू करना चाहते हैं।  छात्र राजनीति ने देश को बड़े – बड़े नेता दिए हैं मगर तब और आज में  अन्तर है, कहते हुए दुःख हो रहा है मगर अधिकतर छात्र नेताओं ने अपना गौरव, स्वाभिमान, ईमानदारी और साहस ताक पर रख दिया है, उनका सारा वक्त मीडिया को मैनेज करने में और पार्टी हाई कमान को खुश करने में बीत रहा है, वे अब गलतियों पर

मन्त्री जी का अनशन

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-         सुषमा त्रिपाठी फलकपुर में बड़ी हलचल थी..आज जिले के डीएम के पास जाना था...सरपंच जी आकर सब किसानों को कह गए थे, अबकी रैली में भीड़ करनी थी। प्रजातंत्र का हाथ पार्टी के जिलाध्यक्ष हुक्काम सिंह की जीप भी हरिया के खेतों के बीच से खड़ी फसल को रौंदती हुई रैली का प्रचार करती गुजर गयी थी। हरिया को भी सरपंच साहेब का धमकी भरा अनुरोध मिल गया था और आज तो सांझ को सारे छोटे – बड़े किसानों को बुलाया भी था। कड़ी धूप में काम करते हुए हरिया हलकान था, खेत से घर दूर था....भागो के लिए कितने दिन से बाजार से साड़ी लेने का मन बनाया था मगर जीप से कुचली फसल को जब भी देखता...आह भरकर बैठ जाता। 4 दिन से कुछ खाया नहीं था, ऊपर से ये बवाल, फसल मंडी तक जाए नहीं तो घर कैसे चले। घर में अन्न का एक दाना न बचा था और साहूकार था कि उधार देने को तैयार न था। पेड़ की छाव के नीचे पसरे हरिया के माथे से पसीना पानी बनकर बह आया था....आदमी 2 दिन भूखा रहे तो चल भी जाए मगर घर में बच्चों के पेट में तो अन्न डालना ही था...भागो की फटी साड़ी देखकर मन भर आता मगर मन बेजार था। सरपंच जी ने कहा था कि प्रजातन्त्र पार्टी से हु

सरकार सुधरे मगर हमें भी मुफ्तखोरी छोड़नी होगी, तभी बचेंगे किसान

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मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद किसान आन्दोलन की आग पंजाब और राजस्थान तक पहुँच रही है। किसान हमारे लिए मौसम हैं, अन्नदाता, हर अखबार, हर मीडिया, हर ब्लॉग, जहाँ देखिए अन्नदाता को श्रद्धा अर्पित की जा रही है। सोशल मीडिया पर आँसू बहाए जा रहे हैं, तमिलनाडु के किसान जब जंतर – मंतर में धरना दे रहे थे, तब भी बहाए जा रहे थे, आगे भी बहाए जाते रहेंगे। सरकार को घेरने वालों को एक मुद्दा मिल गया है, बाकी सब कुछ ज्वलनशील बनाना तो उनके बाएँ हाथ का खेल है। दरअसल, समस्या की जड़ कहीं और नहीं हमारे भीतर है। जस्टिन बीबर के शो पर 100 करोड़ खर्च करने वाला यह देश, 76 हजार रुपए में एक टिकट खरीदने वाले हम शहरी, शिक्षित, सभ्य, सम्भ्रांत और बुद्धिजीवी जब पहले तो फुटपाथ पर फल और सब्जियाँ बेचने वालों से तो कुछ खरीदते नहीं हैं, खरीदते हैं तो 18 रुपए किलो प्याज को 5 रुपए में खरीदते हैं, दूध का भाव 1 रुपए लीटर भी बढ़ गया तो आन्दोलन से लेकर  आगजनी करते हैं और फिर किसान को उसकी फसल की लागत नहीं मिलती तो छाती पीटते हैं। हर गृहिणी या गृह स्वामी जब आधे से कम दम दरों पर राशन खरीद कर लाता है तो उसे विजेता घोषित कर दिय

दीदी, आपके राज्य में हिन्दी माध्यम विद्यालय उपेक्षित बच्चे हैं

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प्रधानमन्त्री मोदी की तरह दीदी भी इन दिनों मूड में हैं....प्रधानमंत्री जी रेडियो पर चौपाल जमाते हैं  और दीदी ? वह तो जहाँ जा रही हैं, चौपाल वहीं बैठ जा रही है। कभी डॉक्टरों की, कभी प्रोफेसरों की, कभी प्रिंसिपलों की तो कभी अधिकारियों के बाद हाल में शोधार्थियों की क्लास लगा दे रही हैं और हर क्लास का अपना कनेक्शन है। ये ध्यान देने वाली बात है कि दीदी की क्लास में अधिकतर दीदी बोलती हैं, बाकी लोग सुनते हैं, यदा – कदा बोलते भी हैं तो डरते हुए बोलते हैं। गलती से एक या दो शब्द भी इधर – उधर हो जाए तो बस वहीं झाड़ पड़ जाएगी..पता नहीं क्या – क्या सुनना पड़ जाए। दीदी राजनीतिक निष्पक्षता की कायल हैं, शिक्षण संस्थानों में राजनीतिक भाषण सुनाया जाए उनको गवारा नहीं है मगर उनके हर मन्त्री के कार्यालय और शिक्षण संस्थानों के यूनियन रूम में दीदी की तस्वीर होनी ही चाहिए। दीदी कहती हैं कि शिक्षण संस्थानों में किसी राजनेता का राजनीतिक भाषण नहीं सुनाया जाना चाहिए (वैसे कहा जा रहा है कि शायद वह भाषण मन की बात जैसा कार्यक्रम था) मगर उनकी रैलियों में जो युवा जाते हैं, उनको कान में रुई लगाकर जानी चाहिए, ये