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अब मेरा लाइब्रेरी कार्ड अधूरा रह जायेगा

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ये तस्वीर सर ने साक्षात्कार के समय दी थी -सुषमा त्रिपाठी जीवन में आश्वस्ति हो तो संघर्ष आसान हो जाते हैं और पुस्तकालयाध्यक्ष आश्वस्त करने वाला हो तो किताबों तक पहुँचना आसान हो जाता है। जालान पुस्तकालय में वह आश्वस्त करने वाली कुर्सी सूनी हो गयी है...तिवारी सर नहीं हैं वहाँ पर। अब मुझसे कोई नहीं कहेगा – कहाँ हो आजकल। दिखायी नहीं पड़ती हो या कार्ड बनवा लिया....आज की दुनिया में ये शब्द बड़े अनमोल है, ऐसी दुनिया में जहाँ किसी के पास किसी के लिए कोई फुरसत नहीं है। मेरे जीवन में लाइब्रेरी का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है...वह मेरी शरणस्थली है और एक ऐसी जगह जहाँ मुझे आश्वस्त करने वाले, सही राह दिखाने वाले लोग मिले हैं....किताबों के बीच से जिन्दगी को जीने का रास्ता निकला है...जालान गर्ल्स कॉलेज में मैंने पास कोर्स किया था और ऑनर्स नहीं होने के कारण एम ए में मेरा दाखिला उस समय नहीं हो पा रहा था इसलिए उन दिनों स्पेशल ऑनर्स करना पड़ता था मगर मुझे कोई जानकारी नहीं थी। होती भी कहाँ से, मेरी दुनिया घर से कॉलेज और कॉलेज से घर तक सीमित थी...मधुलता मैम ने सावित्री गर्ल्स कॉलेज के बारे में बताया

हिन्दी मेला...नयी पीढ़ी का मंच और हम सबका ऑक्सीजन

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बस एक साल और पूरे 25 साल हो जाएंगे....हिन्दी मेले को। पहली बार आई तो प्रतिभागी के रूप में...सेठ सूरजमल जालान गर्ल्स कॉलेज में स्नातक की छात्रा थी और अब बतौर पत्रकार 15 साल होने जा रहे हैं और 20 साल हो रहे हैं मेले से जुड़े हुए। इन 20 सालों में उतार – चढ़ाव भी देखे मगर मेला और मेला परिवार हमेशा साथ रहा। सही है कि आज बहुत से लोग जा चुके हैं मगर मेला कल भी मिलवाता था और आज भी मिलवाता आ रहा है...मेले का तो काम ही यही है।  हमारे समय की बड़ी चुनौतियाँ भाषा और अपसंस्कृति तो है ही मगर उससे भी बड़ी चुनौती है युवाओं के साथ तमाम पीढ़ी को एक सृजनात्मक तथा संगठनात्मक राह पर लाना...मैं अपनी बात करूँ तो जब मेले में पहली बार आई तो ऐसे मोड़ पर थी जहाँ कोई राह नहीं सूझ रही थी..बहुत कुछ कहना था...बहुत कुछ करना था मगर कुछ भी समझ नहीं आ रहा था...कई बार ऐसे मोड़ भी आये....जहाँ लगा कि हर रास्ता बंद हो चुका है...निराश हुई मगर हारी नहीं तो इसके पीछे यह एक मंच था जिसने साहित्य को किताबों से निकालकर जीवन से जोड़ा। हिन्दी मेला ऐसी जगह है जिसने कभी किसी रिप्लेस नहीं किया, कभी अजनबी नहीं बनाया, कभी किस

मालदा...जिन्दगी की जद्दोजहद और हकीकत से एक मुलाकात

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हम पत्रकारों के काम की सबसे अच्छी बात यह है कि हमारी पत्रकारिता हमें कभी पुराना नहीं पड़ने देती। नए लोगों से मिलना, नये अनुभव और हर बार कुछ नया सीखना...हमें नया रखता है। नयी जगहों पर जाना होता है और हमारे दायरे में बंगलों से लेकर झोपड़ियां तक होती हैं। पहले भी कई जगहों पर जाना हुआ है और दूसरे शहरों में भी गयी हूँ मगर कुछ असाइनमेंट ऐसे होते हैं जिनको कभी भूला नहीं जा सकता। वहाँ जाकर आप देखते ही नहीं, कुछ नया सीखते हैं और निराश होते जीवन में एक नयी उम्मीद और जीजिविषा जाग उठती है।  यूनिसेफ और तलाश के बाल फिल्मोत्सव में जाना एक ऐसा ही अनुभव रहा। शहर की चकाचौंध से बाहर जिन्दगी से मुलाकात हुई और मुश्किल हालात में जी रहे लोगों को देखकर अब लग रहा है कि हमारी मुश्किलें तो कुछ भी नहीं हैं...जिन्दगी को देखने का नजरिया भी बदलता जा रहा है। शहरों में रह रहे लोगों के लिए गांव एक पिकनिक की तरह है और गाँव के लोग शहरों को खासी उत्सुकता से देखते हैं। उनके लिए कोलकाता से आने वाले लोग बहुत अद्भुत होते हैं और जब आप पत्रकार हों या मीडिया से हों तो यह उत्सुकता और बढ़ जाती है। एक दूरी सी बन गयी ह

बीएचयू के वीसी,शिक्षकों, छात्रों और वहाँ के लोगों के नाम खुला पत्र

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महानुभव, आदरणीय तो आप हैं ही नहीं और सम्मान देने के लायक नहीं हैं इसलिए बात सीधे शुरू कर दें। मैं बंगाल से हूँ और कलकत्ता विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा हूँ और मुझे इस बात का गर्व है। आपको देखकर अपने शिक्षकों, वाइस चांसलरों और बंगाल की जनता के प्रति गर्व और बढ़ गया है। बीएचयू का नाम बहुत सुना था, जब भी कोई बीएचयू की बात करता तो उसमें एक अकड़ होती कि वह सर्वश्रेष्ठ है।  केन्द्रीय विश्वविद्यालय है, विशाल परिसर है, अनुदान की कमी न हीं है तो नाम तो होना ही है। आप महामना के सम्मान को लेकर चिन्तित हैं और अपनी कारगुजारियों को ढकने की कोशिश में जुटे हैं। मैं एक बात कहूँ, उनका सम्मान पूरा देश करता है मगर एक बात सत्य है कि आप अपनी छात्राओं के साथ जो कर रहे हैं, उसे देखकर वे सबसे पहले आपको पद से हटाते। त्रिपाठी जी, आपने शायद नहीं सिखा मगर किसी भी शिक्षक, प्रिंसिपल और वाइस चांसलर के लिए उसके विद्यार्थी बच्चों की तरह होते हैं, गुलाम नहीं जैसा कि आप समझ रहे हैं।  आपमें यह गुण है ही नहीं। आपने कहा कि " अगर हम हर लड़की की हर मांग को सुनने लगें तो हम विश्वविद्यालय नहीं चला पाएंगे। मैं क