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तर्क का उत्तर तर्क हो सकता है, उपहास नहीं..कमियाँ देखते हैं तो उपलब्धियों को स्वीकार भी कीजिए

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महाभारत को लेकर त्रिपुरा के मुख्यमंत्री का बयान सुर्खियों में है...मीडिया को एक नयी स्टोरी मिली...आधी हकीकत और आधा फसाना...जैसे कार्यक्रमों के लिए एक नया मसाला मिला....सोशल मीडिया पर  मजाक उड़ाया जाना जरूरी है मगर आप अपने प्राचीन ग्रंथों...और रामायण व महाभारत जैसे ग्रन्थों पर विश्वास करते हैं तो आप एक झटके से इनको खारिज नहीं कर सकते।  यह शोध का विषय है, उपहास का विषय नहीं है..यह मानसिकता कि सब कुछ हमें पश्चिम से मिला है..और अपनी उपलब्धियों का माखौल उड़ाना कहीं न कही हमारी पश्चिम पर निर्भरता के कारण है....आज जो चीजें परिवर्तित रूप में हमारे सामने हैं,वे किसी और रूप में पहले थीं...आपने उसे खोया है। भला यह कैसे सम्भव है कि कोई कल्पना के आधार पर एक या दो नहीं बल्कि पूरे एक लाख या उससे अधिक श्लोंकों की रचना कर डालें।  आप नाम भले इंटरनेट का न दें...मगर महाभारत और इसके पहले कुछ तो था जिसे हम और आप नहीं जानते...मुख्यमंत्री विप्लब देब अगर संजय ने महाराज धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र का आँखों देखा हाल सुनाया तो कोई तो तकनीक ऐसी रही होगी...जिससे ये सम्भव हुआ होगा जबकि उस समय में मोबाइल फ

इस गुनाह में आप बराबर के साझीदार हैं

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सबसे आसान है अखबारों..पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को घेरना..विज्ञापनों की भरमार के लिए उनको कोसना...उनके कार्टून बनाना...और उन पर यदा - कदा कविताएं और व्हाट्स ऐप स्टेटस बनाना। कहने का मतलब यह है कि मीडिया को घेरना सरकारों की आदत तो है ही मगर उसकी अदालत जनता में सबसे ज्यादा लगती है। तो अब लगा कि जनता की अदालत में पेशी होती ही रहती है तो अपना पक्ष भी रखा जाये...मगर पत्रकार अपने लिए न के बराबर बोलते हैं। चैनलों पर और अखबारों के चेहरे पर आपको उनके मालिक और सम्पादक...एंकर या संवाददाता दिखते हैं...वह नहीं दिखते जो नेपथ्य में होते हैं...जो कभी कैमरामैन..तो कभी वीडियो एडीटर तो कभी पेजमेकर होते हैं...वह भी नहीं दिखते जो मशीनों के बीच काम कर रहे होते हैं...जिनकी अपनी जिंदगी बेरंग होती है मगर आपकी जिंदगी में रंग भरना उनकी जिम्मेदारी होती है। कोई सेवानिवृत पत्रकार या कोई बेरोजगार मीडियाकर्मी जब भूखों मर रहा होता है...वह किसी अखबार के पन्ने पर नहीं छपता...वह किसी विमर्श का भी हिस्सा नहीं होता। कोई महिला पत्रकार जब भीड़ में गुंडों से जूझ रही होती है या कभी उसके दफ्तर में उसका उत्पीड़न होता है

खबरों को खबर रहने दीजिए...ज्यादा मसाले सेहत खराब कर देंगे

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सत्य तो यही है   अब आम जनता की तरह सुप्रीम कोर्ट मीडिया से परेशान है। यह मीडिया के लिए शर्म का विषय होना चाहिए मगर खाल मोटी है, लगता नहीं कि कोई असर भी पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने बड़ी टिप्पणी करते हुए मीडिया को जिम्मेदारी से काम करने की सलाह दी है। उन्होंने एक याचिका की सुनवाई के दौरान कहा कि हम प्रेस की आजादी का सम्मान करते हैं , लेकिन प्रेस को भी अपनी जिम्मेदारी से काम करना चाहिए। इलेक्ट्रोनिक मीडिया में बैठे कुछ लोग वो सोचते हैं कि वो कुछ भी लिखते हैं , कुछ लोग तख्त पर बैठकर क्या कुछ भी लिख सकते हैं. क्या ये पत्रकारिता है ? वैसे भी मीडिया ट्रायल इस देश में कोई नयी बात नहीं है मगर हाल के कुछ वर्षों में इसने खतरनाक शक्ल ले ली है और एक पत्रकार न चाहते हुए भी पिस रहा है। गालियाँ भी खा रहा है और यह मीडिया प्रबंधनों की मेहरबानी से हो रहा है जिनको टीआरपी चाहिए फिर चाहे वह किसी भी कीमत पर मिले। अदालत बनकर फैसले सुनाने की तरह किसी एक पक्ष को उभारना मीडिया का काम नहीं है मगर आप कोई भी मामला उठाकर देख लीजिए यही हो रहा है। ऐसा लगता है कि कोई मुद्दा मिठाई की तरह है जिसे एक

ये पब्लिक है, सब जानती है

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आपने एक गम्भीर क्षेत्र को सर्कस बनाकर छोड़ दिया है, शायद एक जोकर भी आपसे कहीं ज्यादा संवेदनशील होगा कहते हैं कि खबर तो खबर होती है मगर आज प्रशस्ति खबर बन रही है। मीडिया में अब ग्लैमर का राज है और पत्रकारों पर बेशर्म होने का दबाव...हम एक विचित्र युग देख रहे हैं। अपनी माँगों को लेकर धरतीपुत्र किसान नंगे पैर चलकर कई दिनों का सफर तय कर शहर पहुँचते हैं। उनका सम्मान करना तो दूर की बात है, उनको शहरी माओवादी बता दिया जाता है। नंगे और छिले हुए पैर...वाले किसान के खेतों से आपको अन्न मिलता है और आप उसका ही अपमान करते हैं। उसका जायज हक तक नहीं देते। किसान आन्दोलन पर और उसके कारणों को लेकर बहुत बातें हो रही हैं...देश भर में आन्दोलन हो रहे हैं मगर हमारा मीडिया बाथ टब की तहकीकात से बाहर नहीं निकल पा रहा है। सुन सकते हैं तो इन खामोश आँखों की चीख सुनिए एक या दो दिन दिन नहीं बल्कि कई – कई दिनों तक आप माया के महिमा गान से निकल नहीं पा रहे हैं और आप खुद को जनता और सच्चाई की आवाज बता रहे हैं। अमिताभ बच्चन का तबीयत खराब होना राष्ट्रीय समस्या बन जाता है और आप पल – पल की खबर दिखाते हैं...। म

भारतीय राजनीति के मुहावरे...खत्म होती गहराई और दम तोड़ता शिष्टाचार

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सुषमा त्रिपाठी नेताजी ने कहा था....तुम मुझे खून दो , मैं तुम्हें आजादी दूँगा। मोहनदास करमचंद गाँधी को देश ने महात्मा कहा और फिर बापू और इसके बाद कहते हैं कि घोर विरोधी होने के बावजूद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गाँधी को दुर्गा कहा। महात्मा गाँधी से मतभेद होने पर भी सुभाष चन्द्र बोस ने सौजन्यता बरकरार रखी। यहाँ तक कि व्यंग्य और कटाक्ष का शिकार होने पर भी आपसी व्यवहार पर इसका फर्क नहीं पड़ा। भारतीय राजनीति में मुहावरों का इस्तेमाल हमेशा से होता रहा है और साहित्य ने हमेशा राजनीति को नये - नये शब्द दिये हैं जिसका लाभ राजनेताओें को मिला है मगर वक्त बदल गया है तो अब मुहावरे भी बदल रहे हैं। हम इन बदलते मुहावरों की बात ही कर रहे हैं। बीबीसी हिन्दी की एक खबर के बारे पढ़ते हुए पता चला कि इंदिरा गाँधी अपना भाषण तैयार करती थीं , लेकिन उनके सूचना सलाहकार एचवाई शारदा प्रसाद उसे फाइन ट्यून कर देते थे। फिर अलग-अलग विभागों द्वारा अपने-अपने पॉइंट्स भेजने का चलन शुरू हुआ। विश्‍वनाथ प्रताप सिंह ने आरक्षण नीति की घोषणा स्वतंत्रता दिवस के भाषण से की। धीरे-धीरे सरकारी नीतियों की

अब मेरा लाइब्रेरी कार्ड अधूरा रह जायेगा

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ये तस्वीर सर ने साक्षात्कार के समय दी थी -सुषमा त्रिपाठी जीवन में आश्वस्ति हो तो संघर्ष आसान हो जाते हैं और पुस्तकालयाध्यक्ष आश्वस्त करने वाला हो तो किताबों तक पहुँचना आसान हो जाता है। जालान पुस्तकालय में वह आश्वस्त करने वाली कुर्सी सूनी हो गयी है...तिवारी सर नहीं हैं वहाँ पर। अब मुझसे कोई नहीं कहेगा – कहाँ हो आजकल। दिखायी नहीं पड़ती हो या कार्ड बनवा लिया....आज की दुनिया में ये शब्द बड़े अनमोल है, ऐसी दुनिया में जहाँ किसी के पास किसी के लिए कोई फुरसत नहीं है। मेरे जीवन में लाइब्रेरी का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है...वह मेरी शरणस्थली है और एक ऐसी जगह जहाँ मुझे आश्वस्त करने वाले, सही राह दिखाने वाले लोग मिले हैं....किताबों के बीच से जिन्दगी को जीने का रास्ता निकला है...जालान गर्ल्स कॉलेज में मैंने पास कोर्स किया था और ऑनर्स नहीं होने के कारण एम ए में मेरा दाखिला उस समय नहीं हो पा रहा था इसलिए उन दिनों स्पेशल ऑनर्स करना पड़ता था मगर मुझे कोई जानकारी नहीं थी। होती भी कहाँ से, मेरी दुनिया घर से कॉलेज और कॉलेज से घर तक सीमित थी...मधुलता मैम ने सावित्री गर्ल्स कॉलेज के बारे में बताया

हिन्दी मेला...नयी पीढ़ी का मंच और हम सबका ऑक्सीजन

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बस एक साल और पूरे 25 साल हो जाएंगे....हिन्दी मेले को। पहली बार आई तो प्रतिभागी के रूप में...सेठ सूरजमल जालान गर्ल्स कॉलेज में स्नातक की छात्रा थी और अब बतौर पत्रकार 15 साल होने जा रहे हैं और 20 साल हो रहे हैं मेले से जुड़े हुए। इन 20 सालों में उतार – चढ़ाव भी देखे मगर मेला और मेला परिवार हमेशा साथ रहा। सही है कि आज बहुत से लोग जा चुके हैं मगर मेला कल भी मिलवाता था और आज भी मिलवाता आ रहा है...मेले का तो काम ही यही है।  हमारे समय की बड़ी चुनौतियाँ भाषा और अपसंस्कृति तो है ही मगर उससे भी बड़ी चुनौती है युवाओं के साथ तमाम पीढ़ी को एक सृजनात्मक तथा संगठनात्मक राह पर लाना...मैं अपनी बात करूँ तो जब मेले में पहली बार आई तो ऐसे मोड़ पर थी जहाँ कोई राह नहीं सूझ रही थी..बहुत कुछ कहना था...बहुत कुछ करना था मगर कुछ भी समझ नहीं आ रहा था...कई बार ऐसे मोड़ भी आये....जहाँ लगा कि हर रास्ता बंद हो चुका है...निराश हुई मगर हारी नहीं तो इसके पीछे यह एक मंच था जिसने साहित्य को किताबों से निकालकर जीवन से जोड़ा। हिन्दी मेला ऐसी जगह है जिसने कभी किसी रिप्लेस नहीं किया, कभी अजनबी नहीं बनाया, कभी किस

मालदा...जिन्दगी की जद्दोजहद और हकीकत से एक मुलाकात

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हम पत्रकारों के काम की सबसे अच्छी बात यह है कि हमारी पत्रकारिता हमें कभी पुराना नहीं पड़ने देती। नए लोगों से मिलना, नये अनुभव और हर बार कुछ नया सीखना...हमें नया रखता है। नयी जगहों पर जाना होता है और हमारे दायरे में बंगलों से लेकर झोपड़ियां तक होती हैं। पहले भी कई जगहों पर जाना हुआ है और दूसरे शहरों में भी गयी हूँ मगर कुछ असाइनमेंट ऐसे होते हैं जिनको कभी भूला नहीं जा सकता। वहाँ जाकर आप देखते ही नहीं, कुछ नया सीखते हैं और निराश होते जीवन में एक नयी उम्मीद और जीजिविषा जाग उठती है।  यूनिसेफ और तलाश के बाल फिल्मोत्सव में जाना एक ऐसा ही अनुभव रहा। शहर की चकाचौंध से बाहर जिन्दगी से मुलाकात हुई और मुश्किल हालात में जी रहे लोगों को देखकर अब लग रहा है कि हमारी मुश्किलें तो कुछ भी नहीं हैं...जिन्दगी को देखने का नजरिया भी बदलता जा रहा है। शहरों में रह रहे लोगों के लिए गांव एक पिकनिक की तरह है और गाँव के लोग शहरों को खासी उत्सुकता से देखते हैं। उनके लिए कोलकाता से आने वाले लोग बहुत अद्भुत होते हैं और जब आप पत्रकार हों या मीडिया से हों तो यह उत्सुकता और बढ़ जाती है। एक दूरी सी बन गयी ह