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बीएचयू के वीसी,शिक्षकों, छात्रों और वहाँ के लोगों के नाम खुला पत्र

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महानुभव, आदरणीय तो आप हैं ही नहीं और सम्मान देने के लायक नहीं हैं इसलिए बात सीधे शुरू कर दें। मैं बंगाल से हूँ और कलकत्ता विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा हूँ और मुझे इस बात का गर्व है। आपको देखकर अपने शिक्षकों, वाइस चांसलरों और बंगाल की जनता के प्रति गर्व और बढ़ गया है। बीएचयू का नाम बहुत सुना था, जब भी कोई बीएचयू की बात करता तो उसमें एक अकड़ होती कि वह सर्वश्रेष्ठ है।  केन्द्रीय विश्वविद्यालय है, विशाल परिसर है, अनुदान की कमी न हीं है तो नाम तो होना ही है। आप महामना के सम्मान को लेकर चिन्तित हैं और अपनी कारगुजारियों को ढकने की कोशिश में जुटे हैं। मैं एक बात कहूँ, उनका सम्मान पूरा देश करता है मगर एक बात सत्य है कि आप अपनी छात्राओं के साथ जो कर रहे हैं, उसे देखकर वे सबसे पहले आपको पद से हटाते। त्रिपाठी जी, आपने शायद नहीं सिखा मगर किसी भी शिक्षक, प्रिंसिपल और वाइस चांसलर के लिए उसके विद्यार्थी बच्चों की तरह होते हैं, गुलाम नहीं जैसा कि आप समझ रहे हैं।  आपमें यह गुण है ही नहीं। आपने कहा कि " अगर हम हर लड़की की हर मांग को सुनने लगें तो हम विश्वविद्यालय नहीं चला पाएंगे। मैं क

इतिहास का काला अध्याय है ‘गोरखपुर बालसंहार’

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 उत्तर प्रदेश इन दिनों बेशर्म बेरहमी का अखाड़ा बना हुआ है। एक मरघट लगा है जहाँ सिर्फ वे रौंदे हुए फूल पड़े हैं जिनको असमय तोड़ दिया गया और माली बिलख रहे हैं....जो हालात हैं, उसे देखकर कहना पड़ रहा है कि यह क्रन्दन खत्म नहीं होने वाला है। क्या हमारी मानसिकता इतनी वीभत्स हो गयी है कि संवेदना मात्र के लिए जगह नहीं बची। गोरखपुर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का क्षेत्र है जो इन दिनों झाड़ू लगाकर अपने गुनाहों पर परदा डालने में लगे हैं। जी, हाँ ये गुनाह ही है और इन मौतों को बालसंहार ही कहना अधिक सही शब्द है। आश्चर्य है कि यहाँ बच्चों की मौत पर भी राजनीति और लीपापोती हो रही है। मोदी ने सत्ता सम्भालते ही स्वच्छ भारत अभियान चला दिया था। झाड़ू अच्छी चीज है मगर क्या झाडू ही काफी है ? गोरखपुर तो शायद पहली कड़ी है और मीडिया की नजर भी वहाँ इसलिए पड़ी क्योंकि वह खुद मुख्यमंत्री का बतौर सांसद लोकसभा क्षेत्र है, न जाने ऐसी कितनी गुमनाम मौतें रोज हो रही हैं। मोदी जी, आपका न्यू इंडिया कैसे बनेगा जब भविष्य कहलाने वाले हमारे नौनिहाल यूँ आपकी सरकार और प्रशासन की लापरवाही के हाथों असमय अपनी

नीतिश ने वही किया जो ऐसी स्थिति में हम और आप करते

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नीतिश को शायद अंदाजा है कि उनकी राह इतनी आसान नहीं हैै टॉपर और रिजल्ट घोटाले के बाद बिहार इन दिनों फिर से चर्चा में है। चर्चा में तो पहले से ही था मगर वहाँ के अत्प्रत्याशित राजनीतिक घटनाक्रम ने जो मोड़ लिया है, उसने बिहार की राजनीति को राष्ट्रीय अखबारों की सुर्खियों में लाकर खड़ा कर दिया। सुशासन बाबू धोखेबाज बन गए और लालू के साथ बेवफाई पर चुटकुले गढ़े जाने लगे, वो लोग उंगली उठाने लगे जो अपनी अवसरवादिता के लिए बदनाम हैं। वो लोग तंज कसने लगे जिन्होंने खुद गठबंधन की राजनीति को धता बताकर मनमाने फैसले लिए। बिहार की राजनीति शोध करने के लायक विषय बन गयी है। आप सिर्फ कल्पना कीजिए लालू और उनके परिवार, खासकर बेटों के हाव – भाव और बॉडी लैंग्वेज पर....और फिर बताइए कि जो व्यक्ति राज्य की कमान 5 बार सम्भाल चुका हो, जिसके नेतृत्व में राज्य की दशा सुधरी हो, वह उसे क्यों बर्दाश्त करेगा ? लालू के परिवार में शिष्टाचार नहीं है, तमीज भी नहीं है और जिस तरीके से आधी रात को पैदल मार्च करके तेजस्वी और तेजप्रताप राजभवन निकल पड़े, उसे देखकर यही स्पष्ट हो रहा था कि बिहार की सत्ता उनके लिए पैतृक सम्पत्त

हिन्दी पत्रकारिता के प्रोफेशनल जादूगर एस पी और खबरों की बेरहम दुनिया

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- सुषमा त्रिपाठी हिन्दी का कोई पत्रकार मीडिया के फलक पर तरह छाए कि चकाचौंध भरे इस समय में उसे भुलाया न जा सके,तो आज के समय में यह एक बड़ा आश्चर्य है,  एक बड़ी घटना है। दूरदर्शन के मेट्रो पर आज तक के प्रस्तोता के रूप में ही सुरेन्द्र प्रताप सिंह को देखा था और मेरी तरह न जाने कितने पत्रकारों का रिश्ता खबरों की दुनिया से जुड़ गया। तब चैनलों की भीड़ नहीं थीं, दूरदर्एशन सरकार दर्शन अधिक लगता था, एेसे समय में एस पी का नाम और उनकी सच्चाई भरी सादगी पर हमारा भरोसा था और आज यह भरोसा आदर्श में बदल गया है, हालाँकि पुख्ता आदर्श जैसा शब्द अब शब्द जाल ही लगता है। आज के समय में पत्रकारिता एक व्यवसाय है और ये एस पी ही थे जिन्होंने पहली बार अखबार को उद्योग माना था। वे पत्रकारिता में मिशनरी की बातें नहीं करते मगर ये जरूर मानते हैं कि पेशे के प्रति प्रतिबद्धता होनी जरूरी है। आज वे जीवित होते तो पत्रकारिता को धंधा बनाने की वकालत कभी नहीं करते। आज भी मेरी तरह अधिकतर लोग उनको आज तक के माध्यम से पहचानते हैं मगर सच तो यह है कि सुरेन्द्र प्रताप सिंह की एक अकादमिक और बौद्धिक पृष्ठभूमि थी जिसने उनको