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झड़ गए सब पीले पात.

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सुषमा कनुप्रिया चले जाओ, अब यहाँ दोबारा कदम मत रखना....वह गिरते - गिरते बचे...चेहरे पर मायूसी थी...हसरत से उस आलीशान इमारत को देख रहे थे...जिसकी नींव उन्होंने खुद तैयार की थी...उनके लिए यह सिर्फ इमारत नहीं थी...एक तपस्या थी...यहाँ टिके रहने के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया था...सब कुछ छोड़ दिया था...घर...परिवार..रिश्ते...नाते....दोस्त...सालों तक अकेले रह गये और वह भी बगैर किसी शिकायत के...यह सिर्फ मकान नहीं था....पूरी जिन्दगी थी उनकी...। अक्सर लोग ताना मारते '....अरे...ये तो अंतिम साँस भी इसी मकान में लेने वाले हैं...दफ्तर थोड़ी न है...घर है इनका....।' ठाकुर साब के लिए यह भी उनका इनाम था...उनको इस उलाहने पर भी नाज होता....वह बड़े नाज से इस मकान को देखा करते थे...यह मकान जो शहर के बीचों - बीच खड़ा था...अब यहाँ सब कुछ बदला जा रहा था...कमरे...दीवारों के रंग...कारपेट और हाँ, लोग भी....ठाकुर साब आज उसी बदलाव की चपेट में थे जिसकी वकालत वे जिन्दगी भर करते रहे। 'अरे....हम तो कहते हैं कि आपको तो पहले ही रिटायर हो जाना चाहिए था...नये बच्चों को मौका दीजिए...लेकिन नह

समय की धूल में इतिहास को लपेटे मालदा का गौड़

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बच्चों द्वारा आयोजित मालदा बाल फिल्म महोत्सव मालदा बहुत विकसित जिला नहीं है। संरचना की कमी से परेशान इस जिले में विकास की जरूरत है। लोग मालदा को आम के लिए जानते हैं मगर पयर्टन के मानचित्र पर मालदा बहुत कम दिखता है। क्या पता इसकी वजह यह हो सकती है कि इस इलाके में अनुसन्धान की जरूरत जितनी थी, उतनी हुई नहीं है। ग्रामांचलों में जो संस्कृति छिपी है, उस पर ध्यान नहीं दिया गया और जो स्थल पर्यटन का केन्द्र बन सकते थे, वे राजनीति मतभेदों और वोटबैंक की राजनीति की भेंट चढ़ गये। अगर मालदा को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना है तो आपको गौड़ जाना चाहिए। दूसरी बाल फिल्म महोत्सव की कवरेज करने जब 22 अगस्त को मालदा पहुँचे तो हमें भी यह मौका मिला। होटल वही था मगर इस बार यात्रा ट्रेन से हुई। प्रकृति को अपनी आँखों में भरते, फरक्का की गर्जना सुनते हम रात को होटल पहुँचे थे। शम्पा अब बड़ी हो गयी और कॉलेज जाती है यह देखकर अच्छा लगा कि 2 साल पहले जिन बच्चों को स्कूल में देखा था, वह आज कॉलेज में जा चुके हैं। अपना बाल विवाह रोकने वाली शम्पा अब कॉलेज में पढ़ती है। कवरेज के बाद दूसरे दिन हमने गौड़ देख

गंगा की लहरें, मायूस चेहरे. विकास की बाट जोहते काकद्वीप से मुलाकात

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रविवार छुट्टी का दिन होता है मगर 15 जुलाई का दिन मेरे लिए छूट्टी का दिन नहीं था। वह दिन मैंने काम करके खुशी से बिताया और कारण था कि घूमने का मौका मिला था मुझे। हम काकद्वीप जा रहे थे जहाँ एक विद्यालय में वृक्षारोपण का कार्यक्रम क्रेडाई द्वारा आयोजित किया गया था। जो पत्रकार साथ गये थे, उसमें मैं भी शामिल हो गयी थी।  हम बस से जाने वाले थे। रविवार को सुबह 9 बजे प्रेस क्लब की जगह पार्क सर्कस स्थित क्रेडाई के कार्यालय पहुँचना था। समय पर पहुँचने के लिए मुझे टैक्सी लेनी पड़ी। अच्छी बात यह थी कि टैक्सी ने समय से पहले ही मुझे सही जगह पर पहुँचा दिया। यह पूरे कार्यक्रम की जिम्मेदारी कैंडिड पी आर एजेन्सी के कन्धों पर थी। मैं सुबह 8.30 बजे ही जिन्दल टावर पहुँच गयी थी। वहाँ पत्रकार रह चुकी पल्लवी से मुलाकात हुई। कुछ दिनों के लिए ही सही, हम साथ काम कर चुके थे तो एक जाना - पहचाना चेहरा साथ होना अच्छी बात थी। बस 9.05 बजे रवाना हुई और डी.एल खान रोड होते हुए सुन्दरवन की ओर चल पड़ी। 21 जुलाई को सत्ताधारी पार्टी की विख्यात शहीद रैली थी और पूरा इलाका ममता बनर्जी के पोस्टरों और बैनरों से पटा था। उस

संघ कट्टर है तो उतने ही कट्टर और एकांगी आप भी हैं...

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विरोध की अन्धी राजनीति के शिकार जब हम हो जाते हैं तो अच्छा और बुरा कुछ नहीं दिखता। हम सिर्फ बुराइयाँ देखते हैं और उसे नीचा दिखाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। भारतीय राजनीति इन दिनों इसी दौर से गुजर रही है जहाँ न सामन्जस्य दिखता है, न सौहार्द और न शिष्टाचार। काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी नाराज हैं कि भीमा कोरेगाँव मामले में 5 वरिष्ठ वामपंथी सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई। किसी को अघोषित आपातकाल नजर आ रहा है। इन बुद्धिजीवियों पर मेरा कुछ कहना सही नहीं है इसलिए इन पर कोई टिप्पणी नहीं करूँगी मगर उदारवाद की बात करने वाले कितने उदार हैं, ये उनको अपने अन्दर झाँकना चाहिए। आप साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों की जमात में तभी शामिल हो सकते हैं जब आप मोदी, भाजपा और आरएसएस का विरोध करें...तभी आपको जगह मिलेगी और आपको सुना जाएगा...। सोशल मीडिया पर कुछ ऐसे लोग और ऐसे समूह भी दिखे जो विचारधारा के विरोध से नीचे गिरकर इस गटर तक पहुँच गये हैं कि अब व्यक्तिगत हमलों पर उतर गये हैं और यह बीमारी दोनों तरफ है...फिर भी आप खुद को उदार और सामन्जस्य करने वाला कहते हैं तो शायद उदार मानसिकता का अर्थ भी

खौफनाक गुजरा अगस्त 2018, ‘अजातशत्रु’ अटल संग गये सोमनाथ व करुणानिधि

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सुषमा त्रिपाठी सोमनाथ चटर्जी और लालकृष्ण आडवाड़ी के साथ क्या खोया, क्या पाया जग में मिलते और बिछुड़ते मग में मुझे किसी से नहीं शिकायत यद्यपि छला गया पग-पग में एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें! ये अगस्त खौफनाक गुजरा....और अगस्त का यह सप्ताह भारतीय राजनीति का युगान्त साबित हुआ। देश ने एक के बाद, एक नहीं तीन दिग्गज नेताओं को खोया। गत 7 अगस्त को पहले करुणानिधि और फिर गत 13 अगस्त को पूर्व लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी गये। देश इस सदमे से उबर भी नहीं पाया कि स्वतन्त्रता दिवस के अगले दिन गत 16 अगस्त को ही युगपुरुष अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इस भौतिक जगत से नाता तोड़ लिया। हम शोक सन्तप्त हैं, निःशब्द हैं और रह - रहकर इतिहास अपने पन्ने पलट रहा है। हम भी पीछे मुड़कर देख रहे हैं...वह मैत्रीभाव...जिस पर न पार्टी की राजनीति हावी हो सकी और न विचारधाराओं की विभिन्नता बल्कि वहाँ तो नजर आती है परस्पर आदर की भावना..। भाजपा के वरिष्ठ नेता वाजपेयी पहली बार 1996 में 13 दिनों के लिए, 1998 में 13 महीने और फिर 1999 से 2004 तक भारत के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। वाजपेयी 1991, 1996

दैवीय भाव से मुंशी जी को देख रहे हैं तो अन्य साहित्यकारों से अन्याय कर रहे हैं आप

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मुंशी प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य के प्राण पुरुष माने जाते हैं और जब उनको लेकर कुछ भी लिखा जाता है तो एक भक्ति भाव उस लेखन में समाहित होता है। हम सकारात्मक बातों को खींच - खींचकर लिखते हैं मगर उनके विरोध में जाने वाली हर बात को नजरअन्दाज करते हैं जिसके कारण उस अलौकिक छवि को आघात पहुँचे या फिर उन स्थापित मान्यताओं को चोट पहुँचे जिसका पालन हम करते आ रहे हैं। जहाँ तक मेरी समझ है, वह यही कहती है कि इस तरीके से आप चारण काव्य लिख सकते हैं मगर उसे इतिहास या आलोचना नहीं कहा जा सकता। जिन लेखकों और नायकों को हमने भगवान बना लिया है, हम उनकी खामियों को लगातार नजरअन्दाज करते हैं और उन्हीं खामियों को जब दूसरे लेखकों में या दूसरे नायकों में देखते हैं तो बाल की खाल निकालकर उनको दोयम दर्जे का ठहरा देते हैं। यह निष्पक्षता तो नहीं है अपितु अन्याय जरूर है और एक बड़ा कारण है कि आज हिन्दी, बांग्ला और अँग्रेजी साहित्य विकल्पहीनता से जूझता हुआ सिमटता जा रहा है क्योंकि कोई और नाम हमें याद आता ही नहीं है। कोई भी चरित नायक या लेखक शत - प्रतिशत खरा नहीं होता। कमल किशोर गोयनका प्रेमचन्द के बड़े अध्येता माने जाते

ठहरे हुए पानी में कंकड़ तो पड़ गया, लहरें उठती भी रहनी चाहिए

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गुजरे हुए तीन दिन कोलकाता की हिन्दी पत्रकारिता के तालाब में कंकड़ डाल गये। कोलकाता प्रेस क्लब और हिन्दी...अब तक यह रिश्ता कभी समझ ही नहीं आता था। हिन्दी के पत्रकार एक साथ और वह भी तीन दिन...ये भी इस शहर के लिए आश्चर्य वाली बात थी। कटु सत्य तो यह है कि प्रेस क्लब के चुनावों को छोड़ दिया जाए तो हिन्दी के पत्रकार अब तक एक साथ बगैर किसी भेदभाव के साथ आये हों...ऐसा दिन गत 15 साल की पत्रकारिता में मेरे सामने तो नहीं आया और आया भी हो तो वह सिर्फ मान्यता प्राप्त अधिकारी पत्रकारों के लिए था मगर ये तीन दिन ऐसे नहीं थे। कोलकाता प्रेस क्लब के अध्यक्ष स्नेहाशीष दा को साधुवाद कि वे प्रेस क्लब की वर्तमान संस्कृति से उतने ही परेशान हैं जितने कि हम आम पत्रकार। इससे भी बढ़कर उनका यह सोचना कि अब तक हिन्दी पत्रकारों को कौशल प्रशिक्षण नहीं मिला और कोलकाता प्रेस क्लब की ओर से उन्होंने यह अवसर उपलब्ध करवाया, यह मेरी नजर में कोलकाता की हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में एक क्रांति हैं। एक ऐसी जगह और एक ऐसा अवसर हम सभी नये और पुराने पत्रकारों को मिला जिसके लिए न जाने हम कब से तरस रहे थे। दूसरे शहरों के पत

समय और सदियों का निर्णायक रहा है ‘भाई’ का रिश्ता

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परिवार से समाज बनता है मगर परिवार और उसके संबंध और उनके बीच होने वाले संघर्ष युगों का भविष्य भी निर्धारित कर देते हैं। भाई और भाई या भाई और बहन के संबंधों ने कई बार इतिहास बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस संबंधों की कड़ी के बीच भाई एक निर्णायक संबंध रहा है और भारतीय पुराणों और महाकाव्यों में भी उनकी सकारात्मक और नकारात्मक संबंधों की छाया पड़ी है। भाई - बहन के संबंधों को मजबूत करने के लिए भारतीय संस्कृति में रक्षा बंधन और भइया-दूज जैसे पर्व तो हैं मगर भाई और भाई के संबंध को मजबूत करने के लिए कोई पर्व या त्योहार रखा गया है, इसका जिक्र नहीं मिलता या ऐसा कोई व्रत नहीं दिखता जो भाई अपने भाई के लिए करे। इस आलेख में प्राचीन भारत से लेकर आधुनिक भारत में भाई - बहन और भाई -भाई के संबंधों पर एक नजर डालने का प्रयास किया गया है क्योंकि आज भी पारिवारिक विवादों में जितनी हिंसा और जितने अपराध व्याप्त हैं, वह इस संबंध के इर्द - गिर्द घूमते हैं - फिर चाहे वह जमीन और सम्पत्ति का बँटवारा हो या फिर माता - पिता को रखने का मामला। आमतौर पर भारतीय फिल्में भी इस संबंध के चारों और घूमती हैं..जहाँ आपको