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मीडिया में हम, कुछ अनुभव, कुछ बातें...जो केवल किस्से नहीं हैं

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देश भर की महिला पत्रकार एक दूसरे से जुड़ें..देखें कि हमारी खिड़कियों के बाहर भी एक दुनिया है चुनौतियाँ सबके सामने होती हैं..चाहे महिला हो या पुरुष...इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में यह फर्क और कम है हिन्दी के अखबारों को इस दायरे से निकलने में वक्त लगेगा। महिलाओं के लिए काम करना आसान नहीं होता..नयी लड़कियाँ भी जिस पृष्ठभूमि से आती हैं, वहाँ समय सीमा की पाबन्दी सबसे बड़ी सीमा है..पहला युद्ध तो यहीं पर है और मीडिया शिक्षा के क्षेत्र की तरह बँधा हुआ कोना नहीं है, यहाँ हम हर तरह के लोगों से मिलते हैं, हर तरह की चीजें देखते हैं। कभी पैदल चलते हैं तो कभी हवाई जहाज में, कभी होटल में जाते हैं तो कहीं फुटपाथ पर अड्डा जमता है..कभी वाई -फाई कनेक्शन तो कभी मोबाइल नेटवर्क तक नहीं मिलता...मध्यमवर्गीय परिवारों से आने वाले बच्चे इस स्थिति के लिए तैयार नहीं रहते, वे तैयार रहते हैं तो अभिभावकों की मंजूरी नहीं मिलती। बहुत सी प्रतिभाशाली लड़कियों ने असमय यह क्षेत्र इसी वजह से छोड़ दिया। मानसिकता बड़ी समस्या है...देर से आने वाले लड़कों से भले सवाल न हों, देर से आने वाली लड़कियाँ तो सन्देह की दृष्टि से देखी ह

अभिजात्यता के कवच से बाहर निकलिए...रोशनी दूर तक फैली है

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हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता का सम्मेलन समाप्त हो गया है। 18 साल के बाद इस तरह का आयोजन निश्चित रूप से एक अच्छी पहल है मगर इन दो दिनों में मुझे समझ में आ गया कि आज की साहित्यिक पत्रकारिता की लोकप्रियता कम क्यों हो रही है, (अगर वाकई ऐसा है)। जब से कॉलेज में गयी, विश्वविद्यालय पहुँची और पिछले 15 साल से पत्रकारिता के क्षेत्र में हूँ...एक ही राग सुनती आ रही हूँ...बड़ा संकट हैं, पत्रिकाएं सिमट रही हैं, लोग पढ़ना नहीं चाहते..अभिव्यक्ति का संकट है...मीडिया में साहित्य का परिदृश्य सिकुड़ रहा है..सरकार आजादी छीन रही है....और मजे की बात यह है कि ये राग अलापते हुए जो शोधार्थी थे, आज प्रोफेसर और देश के दिग्गज विद्वानों में शुमार हैं...अच्छा -खासा बैंक बैलेंस है...गाड़ी है, शोहरत है और सम्मान भी है...मगर सालों बाद भी कुछ नहीं बदला...क्योंकि ये बदलाव को देखना ही नहीं चाहते..या इनकी नजर में बदलाव सिर्फ उतना है जो उनकी दृष्टि को स्वीकार है। याद रहे कि सरकार अब भाजपा की है, ये रुदन मार्क्सवादियों के जमाने से चला आ रहा है। तब समझ में नहीं आता था मगर आज चीजों को समझ रही हूँ तो बतौर पत्रकार इन सारे आ

पुलवामा : आपसी द्वेष और टीआरपी का मोह छोड़कर एक साथ खड़े होने का वक्त है ये

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पुलवामा में इस कदर आतंकी हमला हुआ कि शहीद हुए 40 से अधिक जवानों के शव क्षत-विक्षत हो गए। उरी के बाद पुलवामा, हमारे सैनिकों ने शहादत दी..हम शहीद कहते जरूर हैं मगर सच तो यह है कि यह एक नृशंस हत्या है..एक कायराना हरकत। होना तो यह चाहिए कि हम एक साथ इस हमले के खिलाफ खड़े होते मगर ऐसी दुःखद और मार्मिक घड़ी में भी हम दो धड़ों में बँटे हैं। यह सही है कि सुरक्षा में चूक हुई है मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसके पीछे वह लोग भी हैं जो इस देश में रहते जरूर हैं मगर उनकी आत्म पाकिस्तान में गिरवी रखी है। आश्चर्यजनक तरीके से अब भी नवजोत सिंह सिद्धू बातचीत को लेकर दलीलें दे रहे हैं और महबूबा मुफ्ती व फारुक अब्दुल्ला जैसे नेता अब भी सर्जिकल स्ट्राइक और सेना की कार्रवाई की निन्दा करने में लगे हैं..। आखिर देश का बुद्धिजीवी वर्ग कब तक आतंकियों के मानवाधिकार का ढोल पीटता रहेगा..क्या किसी सैनिक का मानवाधिकार नहीं है या वह मानव ही नहीं है। आखिर हम क्यों इतने संवेदनहीन हो गए हैं...? इस बात की पूरी आशंका है कि इसमें स्थानीय लोगों के साथ नेताओं का भी हाथ है, सब जानते हैं कि महबूबा मुफ्ती से लेकर

झड़ गए सब पीले पात.

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सुषमा कनुप्रिया चले जाओ, अब यहाँ दोबारा कदम मत रखना....वह गिरते - गिरते बचे...चेहरे पर मायूसी थी...हसरत से उस आलीशान इमारत को देख रहे थे...जिसकी नींव उन्होंने खुद तैयार की थी...उनके लिए यह सिर्फ इमारत नहीं थी...एक तपस्या थी...यहाँ टिके रहने के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया था...सब कुछ छोड़ दिया था...घर...परिवार..रिश्ते...नाते....दोस्त...सालों तक अकेले रह गये और वह भी बगैर किसी शिकायत के...यह सिर्फ मकान नहीं था....पूरी जिन्दगी थी उनकी...। अक्सर लोग ताना मारते '....अरे...ये तो अंतिम साँस भी इसी मकान में लेने वाले हैं...दफ्तर थोड़ी न है...घर है इनका....।' ठाकुर साब के लिए यह भी उनका इनाम था...उनको इस उलाहने पर भी नाज होता....वह बड़े नाज से इस मकान को देखा करते थे...यह मकान जो शहर के बीचों - बीच खड़ा था...अब यहाँ सब कुछ बदला जा रहा था...कमरे...दीवारों के रंग...कारपेट और हाँ, लोग भी....ठाकुर साब आज उसी बदलाव की चपेट में थे जिसकी वकालत वे जिन्दगी भर करते रहे। 'अरे....हम तो कहते हैं कि आपको तो पहले ही रिटायर हो जाना चाहिए था...नये बच्चों को मौका दीजिए...लेकिन नह

समय की धूल में इतिहास को लपेटे मालदा का गौड़

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बच्चों द्वारा आयोजित मालदा बाल फिल्म महोत्सव मालदा बहुत विकसित जिला नहीं है। संरचना की कमी से परेशान इस जिले में विकास की जरूरत है। लोग मालदा को आम के लिए जानते हैं मगर पयर्टन के मानचित्र पर मालदा बहुत कम दिखता है। क्या पता इसकी वजह यह हो सकती है कि इस इलाके में अनुसन्धान की जरूरत जितनी थी, उतनी हुई नहीं है। ग्रामांचलों में जो संस्कृति छिपी है, उस पर ध्यान नहीं दिया गया और जो स्थल पर्यटन का केन्द्र बन सकते थे, वे राजनीति मतभेदों और वोटबैंक की राजनीति की भेंट चढ़ गये। अगर मालदा को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना है तो आपको गौड़ जाना चाहिए। दूसरी बाल फिल्म महोत्सव की कवरेज करने जब 22 अगस्त को मालदा पहुँचे तो हमें भी यह मौका मिला। होटल वही था मगर इस बार यात्रा ट्रेन से हुई। प्रकृति को अपनी आँखों में भरते, फरक्का की गर्जना सुनते हम रात को होटल पहुँचे थे। शम्पा अब बड़ी हो गयी और कॉलेज जाती है यह देखकर अच्छा लगा कि 2 साल पहले जिन बच्चों को स्कूल में देखा था, वह आज कॉलेज में जा चुके हैं। अपना बाल विवाह रोकने वाली शम्पा अब कॉलेज में पढ़ती है। कवरेज के बाद दूसरे दिन हमने गौड़ देख

गंगा की लहरें, मायूस चेहरे. विकास की बाट जोहते काकद्वीप से मुलाकात

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रविवार छुट्टी का दिन होता है मगर 15 जुलाई का दिन मेरे लिए छूट्टी का दिन नहीं था। वह दिन मैंने काम करके खुशी से बिताया और कारण था कि घूमने का मौका मिला था मुझे। हम काकद्वीप जा रहे थे जहाँ एक विद्यालय में वृक्षारोपण का कार्यक्रम क्रेडाई द्वारा आयोजित किया गया था। जो पत्रकार साथ गये थे, उसमें मैं भी शामिल हो गयी थी।  हम बस से जाने वाले थे। रविवार को सुबह 9 बजे प्रेस क्लब की जगह पार्क सर्कस स्थित क्रेडाई के कार्यालय पहुँचना था। समय पर पहुँचने के लिए मुझे टैक्सी लेनी पड़ी। अच्छी बात यह थी कि टैक्सी ने समय से पहले ही मुझे सही जगह पर पहुँचा दिया। यह पूरे कार्यक्रम की जिम्मेदारी कैंडिड पी आर एजेन्सी के कन्धों पर थी। मैं सुबह 8.30 बजे ही जिन्दल टावर पहुँच गयी थी। वहाँ पत्रकार रह चुकी पल्लवी से मुलाकात हुई। कुछ दिनों के लिए ही सही, हम साथ काम कर चुके थे तो एक जाना - पहचाना चेहरा साथ होना अच्छी बात थी। बस 9.05 बजे रवाना हुई और डी.एल खान रोड होते हुए सुन्दरवन की ओर चल पड़ी। 21 जुलाई को सत्ताधारी पार्टी की विख्यात शहीद रैली थी और पूरा इलाका ममता बनर्जी के पोस्टरों और बैनरों से पटा था। उस

संघ कट्टर है तो उतने ही कट्टर और एकांगी आप भी हैं...

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विरोध की अन्धी राजनीति के शिकार जब हम हो जाते हैं तो अच्छा और बुरा कुछ नहीं दिखता। हम सिर्फ बुराइयाँ देखते हैं और उसे नीचा दिखाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। भारतीय राजनीति इन दिनों इसी दौर से गुजर रही है जहाँ न सामन्जस्य दिखता है, न सौहार्द और न शिष्टाचार। काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी नाराज हैं कि भीमा कोरेगाँव मामले में 5 वरिष्ठ वामपंथी सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई। किसी को अघोषित आपातकाल नजर आ रहा है। इन बुद्धिजीवियों पर मेरा कुछ कहना सही नहीं है इसलिए इन पर कोई टिप्पणी नहीं करूँगी मगर उदारवाद की बात करने वाले कितने उदार हैं, ये उनको अपने अन्दर झाँकना चाहिए। आप साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों की जमात में तभी शामिल हो सकते हैं जब आप मोदी, भाजपा और आरएसएस का विरोध करें...तभी आपको जगह मिलेगी और आपको सुना जाएगा...। सोशल मीडिया पर कुछ ऐसे लोग और ऐसे समूह भी दिखे जो विचारधारा के विरोध से नीचे गिरकर इस गटर तक पहुँच गये हैं कि अब व्यक्तिगत हमलों पर उतर गये हैं और यह बीमारी दोनों तरफ है...फिर भी आप खुद को उदार और सामन्जस्य करने वाला कहते हैं तो शायद उदार मानसिकता का अर्थ भी

खौफनाक गुजरा अगस्त 2018, ‘अजातशत्रु’ अटल संग गये सोमनाथ व करुणानिधि

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सुषमा त्रिपाठी सोमनाथ चटर्जी और लालकृष्ण आडवाड़ी के साथ क्या खोया, क्या पाया जग में मिलते और बिछुड़ते मग में मुझे किसी से नहीं शिकायत यद्यपि छला गया पग-पग में एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें! ये अगस्त खौफनाक गुजरा....और अगस्त का यह सप्ताह भारतीय राजनीति का युगान्त साबित हुआ। देश ने एक के बाद, एक नहीं तीन दिग्गज नेताओं को खोया। गत 7 अगस्त को पहले करुणानिधि और फिर गत 13 अगस्त को पूर्व लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी गये। देश इस सदमे से उबर भी नहीं पाया कि स्वतन्त्रता दिवस के अगले दिन गत 16 अगस्त को ही युगपुरुष अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इस भौतिक जगत से नाता तोड़ लिया। हम शोक सन्तप्त हैं, निःशब्द हैं और रह - रहकर इतिहास अपने पन्ने पलट रहा है। हम भी पीछे मुड़कर देख रहे हैं...वह मैत्रीभाव...जिस पर न पार्टी की राजनीति हावी हो सकी और न विचारधाराओं की विभिन्नता बल्कि वहाँ तो नजर आती है परस्पर आदर की भावना..। भाजपा के वरिष्ठ नेता वाजपेयी पहली बार 1996 में 13 दिनों के लिए, 1998 में 13 महीने और फिर 1999 से 2004 तक भारत के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। वाजपेयी 1991, 1996