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हिन्दी और सिनेमा : किसी काम की नहीं...हट जाने दें ये दूरियाँ

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साहित्य औऱ अभिव्यक्ति के अन्य कई क्षेत्रों का एक बेहद अनूठा सम्बन्ध रहा है। खासकर हिन्दी साहित्य का सम्बन्ध पत्रकारिता से तो बहुत ही गहरा है। कहने की जरूरत नहीं है कि हिन्दी पत्रकारिता का आरम्भिक काल साहित्य को साथ लेकर चला है। भारतेन्दु जितने सफल लेखक हैं, उतने ही अच्छे पत्रकार भी हैं। उन्होंने 'बाल विबोधिनी' पत्रिका, 'हरिश्चंद्र पत्रिका' और 'कविवचन सुधा' पत्रिकाओं का संपादन किया। इस कड़ी में बाल मुकुन्द गुप्त, उपेन्द्र नाथ 'अश्क' अज्ञेय समेत अनगिनत साहित्यकारों का नाम आता है। कहने की जरूरत नहीं है कि हिन्दी साहित्य जब तक पत्रकारिता के साथ रहा, तब तक दोनों का ही स्वर्णिम काल रहा मगर हिन्दी की समस्या यह है कि इसे शुद्धतावादियों ने ऐसी अभिजात्यता से लाद दिया है कि हिन्दी का हाथ धीरे - धीरे सबसे छूटता गया। हिन्दी के बौद्धिक दिग्गजों ने इसकी सरलता को अपने अहंकार से काट डाला और हालत यह है कि असुरक्षा के बोध से लदे हिन्दी के साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवियों के अहंकार ने हिन्दी को उपेक्षित और अकेला कर दिया है।  पत्रकारिता जैसी ही स्थिति हिन्दी सिनेमा

काश...सुशांत आप अपने बेस्ट फ्रेंड होते...

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सुशांत सिंह राजपूत अब हमारे बीच नहीं हैं। वह सुशांत जो न जाने कितने युवाओं का आदर्श रहे और वह एक सफल जीवन जी रहे थे। आज यह कहा जा रहा है कि अवसाद ने उनकी जान ले ली। सुख की परिभाषा को लेकर नये मुहावरों से पूरा सोशल मीडिया पट गया है। यह सही है कि अवसाद की जड़ कहीं न कहीं अकेलेपन से उपजे विषाद में है मगर क्या सच इतना सा है....नहीं, सच इतना सा नहीं है। झाँकने की जरूरत है कि जिस समय आप सोशल मीडिया पर ज्ञान दे रहे हैं, आपके आस - पास और आपके अपने बच्चों को आपने कहाँ तक समझा है..समझा है या नहीं..। क्या आप उसकी जिद और जरूरतों का फर्क समझ रहे हैं? मुझे यह सवाल करने का बड़ा मन है कि जो लोग कह रहे हैं कि अभिभावकों से बात की जाये...क्या उन अभिभावकों ने संवाद के लिए माहौल बनाया है? बच्चे आपसे डरते हैं और वह डर प्रेम नहीं है...और उनका यह डर आपको अच्छा भी लगता है। क्या आप अपने बच्चों की असहमति को सुनने और समझने का दम रखते हैं? क्या अपने बच्चों में आपने इतना साहस भरा है कि वह आपके सामने वह सब कुछ कह सकें जो आपको पसन्द नहीं हो? सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि क्या भारतीय समाज में बच्चों के जन्म के पी

महामारी को मात दो...फिर अपनी धरती पर लौटो,,,माटी पुकार रही है

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21 दिनों के लॉकडाउन ने बहुत कुछ दिखाया...बुरे वक्त में अच्छे और बुरे कई तरह के लोग दिखे...घटनायें दिखीं....समय के साथ हर चीज आयेगी - जायेगी...मगर एक चीज कभी किसी सच्चे भारतीय खासकर बिहार, झारखंड या यूपी के रहने वालों के कलेजे में टीस बनकर रहेगी....रहनी चाहिए...यह वह आग है जिसका जिन्दा रहना बहुत जरूरी है मगर इसके लिए सुरक्षित और जिन्दा रहना जरूरी है....इसलिए तमाम दिक्कतों के बाद भी अपनी लड़ाई को जिन्दा रखने के लिए लॉकडाइन का पालन करो....मगर अपमान की इस आग को बुझने मत देना.....खुद को इसमें झोक  दो और कुन्दन बनकर लौटो..। लौटो कि यही आग इन राज्यों को, पूर्वान्चल की उस जनता को एक नया जन्म देगी...। जब कभी आप होली के रंगों में अपने परिवार के साथ डूबे रहते हैं....जब दिवाली पर दीये जला रहते हैं...तब ये लोग अपने घरों में नहीं रहते...वह आपके घरों में फूल सजा रहे होते हैं....वह एक प्यार भरी दुलार के लिए तरस जाते हैं...क्योंकि जबकी इसकी जरूरत होती है तब आप उनसे अपनी कम्पनी की बिक्री बढ़वाते हैं...। आपकी मशीनों पर काम करते हुए न जाने कितने मर जाते हैं...कितने अपाहिज हो जाते हैं...उनकी हड़ताल

वैचारिक लोकतन्त्र का मतलब अराजकता का समर्थन नहीं

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अचानक ही हर कोई छात्रों के हितों को लेकर सक्रिय हो उठा है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हमला क्या हुआ, सारे देश के बुद्धिजीवी और लेखक एक साथ सक्रिय हो उठे हैं। विश्वविद्यालयों में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए मगर क्या वैचारिक लोकतांत्रिक अधिकारों के नाम पर अराजकता का समर्थन किया जा सकता है। आप जब किसी संस्थान विशेष को लेकर कुछ अधिक ही द्रवित होते हैं तो उस समय अन्य संस्थानों और विद्यार्थियों के साथ अन्याय कर रहे होते हैं....मुझे लगता है कि इस समय देश में यही हो रहा है। क्या विरोध करने का एक बड़ा कारण यह नहीं है कि इस समय केन्द्र में जो सरकार है, वह आपको फूटी आँखों नहीं सुहाती? यह सर्वविदित सत्य है कि देश के बुद्धिजीवी वर्ग में 80 प्रतिशत वामपन्थ से प्रभावित है। साहित्य से लेकर सिनेमा और इतिहास में इनका दबदबा रहा है, इनके द्वारा गढ़ा गया इतिहास पढ़कर हम बड़े हुए हैं और वैचारिक आत्महीनता से त्रस्त रहे हैं मगर इस समय वामपन्थ को दक्षिण पन्थ से कड़ी चुनौती मिल रही है और हमेशा की तरह विद्यार्थियों को इस्तेमाल किया जा रहा है। जरा सोचिएगा, क्या हर विद्यार्थी आन्दोलन करना चा

ध्वज के एक रंग नहीं, तीन रंग चाहिए...एक रंग केसरिया भी है

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श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा पर कालिख पोती गयी इन दिनों बंगाल में लोकतंत्र की हवा बह रही है। हर कोई यहाँ लोकतंत्र का रक्षक बना हुआ है और लोकतंत्र की रक्षा का मतलब है यहाँ पर भगवा को रोकना और भाजपा को न आने देना। इसके लिए लोकतंत्र के तथाकथित समर्थक कुछ भी करने को तैयार हैं, किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं और कुछ भी भूलने को तैयार हैं। लोकतंत्र का मतलब होता है कि हर किसी का अधिकार है कि वह भारत के किसी भी राज्य में रहे और जब बात राजनीति की आती है तो हर एक राजनीतिक दल को प्रचार का, जनता तक पहुँचने का और अपनी बात रखने का अधिकार है। एक समय था जब हम वाममोर्चा सरकार की आलोचना इसलिए करते थे कि यह पार्टी हिंसा के बल पर वोट पाती आ रही थी। जब चुनाव प्रचार के समय पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की हत्या हुई सारा देश शोक में डूबा। जब गौरी लंकेश की हत्या हुई...बिलबिलाकर सारे प्रबुद्ध सोशल मीडिया पर टूट पड़े, रोहित वेमुला का शोक अब तक मनाया जा रहा है मगर इस चुनाव में छत्तीसगढ़ और कश्मीर में 2 भाजपा और एक आरएसएस नेता की हत्या कर दी गयी, कहीं कोई सुगबुगाहट तक नहीं हुई। 22 साल के सुदीप्त गुप

मीडिया में हम, कुछ अनुभव, कुछ बातें...जो केवल किस्से नहीं हैं

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देश भर की महिला पत्रकार एक दूसरे से जुड़ें..देखें कि हमारी खिड़कियों के बाहर भी एक दुनिया है चुनौतियाँ सबके सामने होती हैं..चाहे महिला हो या पुरुष...इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में यह फर्क और कम है हिन्दी के अखबारों को इस दायरे से निकलने में वक्त लगेगा। महिलाओं के लिए काम करना आसान नहीं होता..नयी लड़कियाँ भी जिस पृष्ठभूमि से आती हैं, वहाँ समय सीमा की पाबन्दी सबसे बड़ी सीमा है..पहला युद्ध तो यहीं पर है और मीडिया शिक्षा के क्षेत्र की तरह बँधा हुआ कोना नहीं है, यहाँ हम हर तरह के लोगों से मिलते हैं, हर तरह की चीजें देखते हैं। कभी पैदल चलते हैं तो कभी हवाई जहाज में, कभी होटल में जाते हैं तो कहीं फुटपाथ पर अड्डा जमता है..कभी वाई -फाई कनेक्शन तो कभी मोबाइल नेटवर्क तक नहीं मिलता...मध्यमवर्गीय परिवारों से आने वाले बच्चे इस स्थिति के लिए तैयार नहीं रहते, वे तैयार रहते हैं तो अभिभावकों की मंजूरी नहीं मिलती। बहुत सी प्रतिभाशाली लड़कियों ने असमय यह क्षेत्र इसी वजह से छोड़ दिया। मानसिकता बड़ी समस्या है...देर से आने वाले लड़कों से भले सवाल न हों, देर से आने वाली लड़कियाँ तो सन्देह की दृष्टि से देखी ह

अभिजात्यता के कवच से बाहर निकलिए...रोशनी दूर तक फैली है

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हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता का सम्मेलन समाप्त हो गया है। 18 साल के बाद इस तरह का आयोजन निश्चित रूप से एक अच्छी पहल है मगर इन दो दिनों में मुझे समझ में आ गया कि आज की साहित्यिक पत्रकारिता की लोकप्रियता कम क्यों हो रही है, (अगर वाकई ऐसा है)। जब से कॉलेज में गयी, विश्वविद्यालय पहुँची और पिछले 15 साल से पत्रकारिता के क्षेत्र में हूँ...एक ही राग सुनती आ रही हूँ...बड़ा संकट हैं, पत्रिकाएं सिमट रही हैं, लोग पढ़ना नहीं चाहते..अभिव्यक्ति का संकट है...मीडिया में साहित्य का परिदृश्य सिकुड़ रहा है..सरकार आजादी छीन रही है....और मजे की बात यह है कि ये राग अलापते हुए जो शोधार्थी थे, आज प्रोफेसर और देश के दिग्गज विद्वानों में शुमार हैं...अच्छा -खासा बैंक बैलेंस है...गाड़ी है, शोहरत है और सम्मान भी है...मगर सालों बाद भी कुछ नहीं बदला...क्योंकि ये बदलाव को देखना ही नहीं चाहते..या इनकी नजर में बदलाव सिर्फ उतना है जो उनकी दृष्टि को स्वीकार है। याद रहे कि सरकार अब भाजपा की है, ये रुदन मार्क्सवादियों के जमाने से चला आ रहा है। तब समझ में नहीं आता था मगर आज चीजों को समझ रही हूँ तो बतौर पत्रकार इन सारे आ

पुलवामा : आपसी द्वेष और टीआरपी का मोह छोड़कर एक साथ खड़े होने का वक्त है ये

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पुलवामा में इस कदर आतंकी हमला हुआ कि शहीद हुए 40 से अधिक जवानों के शव क्षत-विक्षत हो गए। उरी के बाद पुलवामा, हमारे सैनिकों ने शहादत दी..हम शहीद कहते जरूर हैं मगर सच तो यह है कि यह एक नृशंस हत्या है..एक कायराना हरकत। होना तो यह चाहिए कि हम एक साथ इस हमले के खिलाफ खड़े होते मगर ऐसी दुःखद और मार्मिक घड़ी में भी हम दो धड़ों में बँटे हैं। यह सही है कि सुरक्षा में चूक हुई है मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसके पीछे वह लोग भी हैं जो इस देश में रहते जरूर हैं मगर उनकी आत्म पाकिस्तान में गिरवी रखी है। आश्चर्यजनक तरीके से अब भी नवजोत सिंह सिद्धू बातचीत को लेकर दलीलें दे रहे हैं और महबूबा मुफ्ती व फारुक अब्दुल्ला जैसे नेता अब भी सर्जिकल स्ट्राइक और सेना की कार्रवाई की निन्दा करने में लगे हैं..। आखिर देश का बुद्धिजीवी वर्ग कब तक आतंकियों के मानवाधिकार का ढोल पीटता रहेगा..क्या किसी सैनिक का मानवाधिकार नहीं है या वह मानव ही नहीं है। आखिर हम क्यों इतने संवेदनहीन हो गए हैं...? इस बात की पूरी आशंका है कि इसमें स्थानीय लोगों के साथ नेताओं का भी हाथ है, सब जानते हैं कि महबूबा मुफ्ती से लेकर

झड़ गए सब पीले पात.

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सुषमा कनुप्रिया चले जाओ, अब यहाँ दोबारा कदम मत रखना....वह गिरते - गिरते बचे...चेहरे पर मायूसी थी...हसरत से उस आलीशान इमारत को देख रहे थे...जिसकी नींव उन्होंने खुद तैयार की थी...उनके लिए यह सिर्फ इमारत नहीं थी...एक तपस्या थी...यहाँ टिके रहने के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया था...सब कुछ छोड़ दिया था...घर...परिवार..रिश्ते...नाते....दोस्त...सालों तक अकेले रह गये और वह भी बगैर किसी शिकायत के...यह सिर्फ मकान नहीं था....पूरी जिन्दगी थी उनकी...। अक्सर लोग ताना मारते '....अरे...ये तो अंतिम साँस भी इसी मकान में लेने वाले हैं...दफ्तर थोड़ी न है...घर है इनका....।' ठाकुर साब के लिए यह भी उनका इनाम था...उनको इस उलाहने पर भी नाज होता....वह बड़े नाज से इस मकान को देखा करते थे...यह मकान जो शहर के बीचों - बीच खड़ा था...अब यहाँ सब कुछ बदला जा रहा था...कमरे...दीवारों के रंग...कारपेट और हाँ, लोग भी....ठाकुर साब आज उसी बदलाव की चपेट में थे जिसकी वकालत वे जिन्दगी भर करते रहे। 'अरे....हम तो कहते हैं कि आपको तो पहले ही रिटायर हो जाना चाहिए था...नये बच्चों को मौका दीजिए...लेकिन नह