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देशप्रेम की सुगन्ध से होकर गुजरता है कवि गुरु का मानवीय विश्व प्रेम

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  रवीन्द्रनाथ...विश्वकवि...कवि गुरु और बंगाल के प्राण हैं रवीन्द्रनाथ ठाकुर। रवीन्द्रनाथ के एक विचार को लेकर कहा जाता है कि उन्होंने मानवता को देश प्रेम से अधिक महत्व दिया...लेकिन लोग यह बताना भूल जाते हैं कि कवि गुरु की मानवता और विश्व प्रेम देश प्रेम के मार्ग से होकर ही गुजरते हैं। रवीन्द्रनाथ ने कभी देश प्रेम का विरोध नहीं किया...जो लोग यह कहते हैं कि वे उग्र राष्ट्रवाद के विरोधी थे...उनको एक बार महाजाति सदन जरूर देखना चाहिए जिसका शिलान्यास उन्होंने किया था और इस महाजाति सदन की स्थापना के पीछे किसी और का नहीं बल्कि हमारे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की ही परिकल्पना और योगदान था। रवीन्द्रनाथ 12 वेलिंग्टन स्क्वायर पर स्थित राजा सुबोध मलिक बासु के घर आते थे और यहीं आया करते थे अरविंद घोष...जो कि उस समय क्रांतिकारी विचारधारा से ही प्रेरित थे और इसी दिशा में काम भी कर रहे थे। रवींद्रनाथ संभवतः ऐसे अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने दो देशों भारत और बांग्लादेश के लिए राष्ट्रीय गान लिखा। बचपन से कुशाग्र बुद्धि के रवींद्रनाथ ने देशी और विदेशी साहित्य दर्शन संस्कृति आदि को अपने अंदर समाहित कर लिया था और

जीता कोई भी हो...हारी तो बस जनता है

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  चुनाव खत्म हो चुके हैं....तीसरी बार तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने राज्य की कमान सम्भाल ली है..बड़े जोर - शोर से तृणमूल की जीत का डंका बजाया जा रहा है.....तमाम बड़े और आधुनिक बुद्धिजीवी...कलाकार...खिलाड़ी...पत्रकार...सब के सब दीदी की महिमा गाने में लगे हैं....सही भी है...क्योंकि दुनिया चढ़ते सूरज को सलाम करती है...समय गवाह है कि सत्ता जिसके पास रहती है...लोग वहीं जाते हैं....जाहिर सी बात है...सफलता किसे नहीं अच्छी लगती...जीतने वाले से सब नजदीकियाँ बनाकर रखते हैं...उनके सामने झुकते ही नहीं...चरण वंदना तक करने लगते हैं...लेकिन अपनी आत्मा से पूछिएगा तो....इसमें क्या सचमुच प्रेम है....या आतंक है...और यह आतंक..दोनों ही तरफ से है और बीच में पिस रहे हैं लोग...आम जनता...जिसका कोई अपराध नहीं...अपराध है तो बस इतना कि उसने अपने लोकतांत्रिक अधिकार का उपयोग किया...आधुनिक भारत में आज यही सबसे बड़ा अपराध है...न..मैं किसी का पक्ष नहीं ले रही...पर क्या यह सच नहीं कि तृणमूल ने भाजपा का भय दिखाकर तीसरी बार सत्ता हासिल की है....खासकर मुसलमानों को भाजपा का भय दिखाया...मुसलमानों ने तो भाजपा को रोकने के लि

कविगुरु और आपकी आत्ममुग्धता के आगे भी एक दुनिया है

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क्या हिन्दीभाषियों पर खुद को सत्ता के प्रति समर्पित साबित करने का दबाव है...क्या वे खुद को बंगाली से भी अधिक बंगाली साबित करने में लगे हैं...और इसके लिए वे किसी भी हद तक जा रहे हैं...सोचते - सोचते अब इस नतीजे पर पहुँचना पड़ रहा है कि ऐसा ही है और यह बीमारी पढ़े - लिखे बुद्धिजीवी वर्ग में अधिक है....यह असहज ही नहीं बल्कि नकली भी है...सोच का दायरा सिर्फ बंगाल तक सिमट गया है और क्योंकि सत्ता को खुश करना है तो उसके हर विरोधी पर अपनी कुंठा के तीर चलाए जा रहे हैं....एक समय था जब वाम का जोर था...आज बंगाल का हर दूसरा युवा वाम विचारधारा को वहन करता जा रहा है और राम उसके लिए एक अवशब्द लगने लगे हैं....बात व्यक्तित्व की हो तो भी अगर कोई विरोधी विचारधारा का मिल जाये तो लोग इनबॉक्स में जाकर भी उस पर अपना क्रोध निकालते हैं, उसे प्रभावित करने या नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। खुद में 72 छेद हों मगर सामने वाले के सामने अकड़ ऐसी कि पूछिए मत...अपमानजनक मीम साझा करने में कोई पक्ष पीछे नहीं है...हम समझते थे कि यह रोग बच्चों तक सीमित होगा मगर कई बच्चों के अभिभावक भी यही सब करने लगें तो उनको खुद से पूछना चाह

या मानवी सर्व भूतेषू - भाग -2 - मानवी का पत्र

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  ईश्वर के नाम खुला पत्र,    दयालु, करुणा निधान, भोले -भण्डारी...कृपा सिन्धु कहे जाने वाले ईश्वर....यह तुम्हारी ही सन्तान का पत्र है....जिसे तुमने ही एक उद्देश्य से धरती पर भेजा है....धरती को सन्दर बनाने का उद्देश्य है....तुम्हारा ही अंश हूँ मैं....वह धरती...जिसे तुमने रचा है और आज जिसके प्रति तुम निष्ठुर हो चले हो....वह भी तुम्हारी ही रचना है...तुम्हारी ही एक प्रिय सन्तान ठाकुर रामकृष्ण परमहंस ने कहा था...जतो मत...ततो पथ...मैं कट्टर नहीं हूँ...जो धरती तुम्हारे प्रकोप से कराह रही है...उस धरती की सभी सन्तानें भी बुरी नहीं हैं...मेरे लिए धर्म एक ही है मानवता....सन्तान को गढ़ना तो माता - पिता का काम है.....धरती का यही नियम है...सन्तान....अच्छी हो या बुरी हो....उसे मार्ग दिखाना...उसके सिर पर हाथ रखना तो उनका ही दायित्व है.....जब तुमने उसे ही बनाया है तो हे ईश्वर....उसके पाप - पुण्य, उसके सभी कर्म - दुष्कर्म का भागी भी तुमको ही बनना चाहिए...आज धरती पर जो हो रहा है, उसका कारण क्या तुम्हारी उदासीनता नहीं है....कैसे अभिभावक हो तुम प्रभु...जिसने बच्चों को उनके हाल पर छोड़ दिया और सुध तक नहीं ले

तो ए मंजीत बाबू ...

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   अब आप कहेंगे कि ठगा जाने के बाद ठग को कोई लिखता है भला...उसको तो कोसता है सब...अरे...रुकिये जरा...कोस तो हम भी रहे हैं...लेकिन थोड़ा कोसना तो हमको अपने लिए सुरक्षित रखना होगा...काहे कि गलती तो हमरा भी है...उ बटन टिपवाये...अउर हम टीपते चले गये...तो हम अपने को कोस चुके हैं...लेकिन लिख रहे हैं कि अब लगा कि बतियाना चाहिए...जाने किस जामताड़ा...अनारताड़ा से हैं इ लोग लेकिन ...कुछ बात करना ही है तो देखिए टोकियेगा मत....ओनली लिसेन...बूझे...तो हाँ तो...मंजीत और अनिल...अरे...आप तो इतने डरपोक हैं कि नमवो असली नहीं रखे हैं...उ तो पेटीएम का स्लिप देखकर पता चला कि एक ठो इरशाद है और दूसरा देवेन्दर...हमरे जैसे लोगों के लिए तो अव्वल दर्जे के छछंदूर.. .का लगा था आपको...आपसे ठगाकर हम मातम मनाएंगे...? देखिए...हम पहले ही बोले कि मीडिया से हैं...एक नम्बर के थेथर...ऊपर से हैं बिहारी...और लिखने का भी है बीमारी.....देख लीजिए विद् स्माइलिंग फेस आपके सामने हैं...हाँ तो हम का कह रहे थे...आपके माता - पिता ने आपका नाम कितना प्रेम से रखा होगा...मेरा नाम करेगा रोशन टाइप...अउर आप लोग का किये जी...मिट्टी में उनका ना

जमाना थाली के बैंगन का है

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बंगाल में चुनाव होने जा रहे हैं और दल - बदल का चलन अपने चरम पर है। किसी भी शासन से मुक्ति की चाह रखने वाले के लिए दल बदलने वाला नेता रातों -रात नायक और बेचारा, दोनों बन जाता है...सक्रिय पत्रकारिता में रहते हुए हम पत्रकार सब कुछ देखते हैं...मन ही मन हँसते हैं और ऐसा दिखाते हैं कि हमें कुछ फर्क ही नहीं पड़ा। फर्क तो पड़ता है...किसी नेता के पार्टी बदल लेने से बहुत फर्क पड़ता है। अब सवाल यह है कि दल -बदल होता क्यों है...अगर पुरानी पार्टी के समर्थकों की नजर से देखा जाये तो यह अवसरवादिता है...नेता ने पार्टी छोड़ी नहीं कि उसे घेरने की तैयारी होती है, उसे खत्म करने के लिए साजिशें की जाती हैं..मगर पार्टी हो या संस्थान, कोई भी ऐसे ही नहीं छोड़ता बल्कि कई बार उससे छुड़वा दिया जाता है...हम राजनीति को गालियाँ देते जरूर हैं मगर देखा जाये तो दल - बदल या यूँ कहें कि पाला बदल हर जगह है...अब इनको 'बेपेंदी का लोटा' कहिए या 'थाली के बैंगन'...ये किसी न किसी रूप में हर जगह हैं। थाली के बैंगन का चमत्कार कहिए या कुछ और...उसके पीछे सब बैंगन बन जाते हैं...एक के पीछे दूसरा बैंगन...और रसोई खत्म...

अपनी दुनिया में मगन बड़ाबाजार को अब बाखबर होने की जरूरत है

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  क्या आप जानते हैं की शहर कोलकाता कभी ब्लैक कोलकाता और वाइट कोलकाता में विभाजित था। दक्षिण कोलकाता और मध्य कोलकाता का दक्षिणी भाग वाइट था और बड़ाबाज़ार और उत्तर कोलकाता ब्लैक कोलकाता था। अंग्रेज पहले सूतानाटी में आये क्योंकि यह सुरक्षित था और बाद में दक्षिण की तरफ गये इसलिए तमाम अंग्रेजी इमारतें दक्षिण और मध्य कोलकाता में हैं और ब्लैक कोलकाता में बसाए गये भारतीय इसलिए यह काला रह गया। सेठ और बसाक और बाद में मारवाड़ी समुदाय का गढ़। और ये भी बड़ाबाजार का बड़ा दरअसल बूड़ो है, बूड़ो बांग्ला में शिव को कहते हैं और मारवाड़ी समुदाय ने इसे बड़ा बनाया। बड़ाबाजार आज भी ब्लैक ही है, स्याह। बांग्ला में पढ़िये तो सेठ, बसाक, ठाकुर का गुणगान है और इसके बाद मोटिया मजदूरों का गढ़, जिसे वो हिकारत से देखते हैं, बड़ाबाजार ने जिनको पनाह दी, दूर देश से आये जिन लोगों की शरणस्थली बना, वो भी पुष्पित पल्लवित होते ही इसे छोड़ गये। अब ये इलाका उनके लिये इतिहास की पंक्ति भर है बड़ाबाजार ने सबको पनाह दी और सबने बड़ाबाजार को त्यागा और अब हिंदीभाषियों का वोट बैंक तोड़ने के लिये इसे स्थानांतरित करने की तैयारी है। कोई राजारहाट बड़ाबाजार

महापुरुषों पर गर्व करते हैं तो उनकी विरासत को सहेजना भी सीख लेते

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मेरे एक शिक्षक कहा करते थे...मनुष्य दो परम्पराओं में जीवित रहता है...वंश परम्परा और शिष्य परम्परा। आमतौर पर वंश परम्परा में विश्वास बहुत ज्यादा रहता है...हमारे समाज में विवाह और परिकल्पना के पीछे यह एक मजबूत कारण है लेकिन कई उदाहरण ऐसे सामने आ रहे हैं जिसे देखकर सोचना पड़ रहा है..क्या वाकई वंश परम्परा इतनी मजबूत होती है...? कई ऐसे उदाहरण हैं जिसे देखकर कहा जा सकता है कि शिष्य परम्परा की डोर वंश परम्परा की तुलना में कहीं अधिक मजबूत होती है क्योंकि परिवार अधिकतर मामलों में बाधक की भूमिका में ही अधिक रहता है और यह दावा नहीं किया जा सकता है कि किसी भी परिवार में व्यक्ति की सफलता से घर का एक सदस्य प्रसन्न ही होगा या इसे स्वीकार किया भी जायेगा। शिक्षण का क्षेत्र भी इसी वजह से चिर लोकप्रिय है। कई बार आपके बच्चों को और आपके परिवार को आपकी कद्र नहीं होती लेकिन आपके विद्यार्थी आपके लिए खड़े होते हैं...तब भी जब आपने उनसे ऐसी कोई शर्त या उम्मीद नहीं रखी होती...वह आपसे प्रेम करते हैं....और दिल से प्रेम करते हैं...जहाँ कोई तुलना न के बराबर ही रहती है...याद रखिए कि मैं अकादमिक स्तर पर किसी साधारण शिक

खुद से पूछिए, विवेकानंद चाहिए तो क्या परमहंस बनने को तैयार हैं?

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12 जनवरी आ रही है और देश में युवा दिवस मनाया जायेगा। युवाओं के साथ मैं कई सालों से काम कर रही हूँ, पत्रकारिता करते हुए युवाओं के साथ ही बात भी होती रही है और उनको समझना थोड़ा सा आसान हो गया है। हर बार मंच पर सबको यही कहते सुना है कि युवाओं को मौका मिलना चाहिए या देना चाहिए लेकिन युवाओं से हम उम्मीद यही रखते हैं कि वह आज्ञाकारी बने रहें, उनके सवालों के लिए हम तैयार नहीं रहते। जो करते हैं, वह खानापूर्ति से अधिक कुछ नहीं होता। उदाहरण के लिए अगर हम अपने कार्यक्रमों को लेकर ही बात करें तो वहाँ पर केन्द्रीय भाव इतना अधिक रहता है कि बाकी चीजें पीछे छूट जाती हैं। कहने का मतलब यह है कि कोई साहित्य पढ़े तो उसे विज्ञान से मतलब नहीं रखना चाहिए या कोई विज्ञान का विद्यार्थी है तो उसके लिए साहित्य पढ़ना एक अजूबा माना जाता है जबकि हकीकत यह है कि दोनों ही क्षेत्र से जुड़े लोगों की पसन्द उनकी शिक्षा या पाठ्यक्रम के विपरीत हो सकती है। जैसा कि पहले भी कहती रही हूँ कि हिन्दी में विशेष रूप से भाषा को सुधारने की बात होती है, भाषा को रोजगार से जोड़ने की बात होती है मगर साहित्य को रोजगार से जोड़ने की बात कम ही

पैर की जमीन है इतिहास, खो मत दीजिए

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हम वर्तमान में जीने वाले और इतिहास से डरने वाले लोग हैं...लोग तो ईश्वर से भी डरते हैं...कई बार भक्ति में प्रेम की जगह डर ले लेता है और हम जिससे डरते हैं, उसे याद नहीं करना चाहते। इतिहास एक बड़ा दायित्व है मगर इतिहास लेखन में ईमानदारी बरतने से पहले ही उसमें जब धर्म का मसाला कुछ अधिक डाल दिया जाए तो वह विद्रूप लगने लगता है। इतिहास का चयन भी तो अपनी सुविधानुसार करने की परिपाटी है...कौन सा महापुरुष कितने वोट दिलवा सकता है... इस समीकरण ने इतिहास में उन लोगों के साथ अन्याय करवाया जो नींव की ईंट थे। वरना क्या वजह रही होगी कि जिस दरभंगा राज परिवार ने भारत को रेलवे दी, विमानन सेवा दी, देश का पहला भूकम्प प्रतिरोधी भवन दिया...आज उनकी धरोहरों के संरक्षण की जिम्मेदारी सरकारें नहीं लेना चाहतीं। क्यों कलकत्ता विश्वविद्यालय अपने दानदाता रामेश्वर सिंह को बस रिकॉर्ड तक समेट बैठा है...आखिर जिस परिसर की जमीन उनसे ?मिली, वहाँ उनकी एक भी प्रतिमा क्यों नहीं है...क्यों उनके नाम पर आयोजन नहीं होते और कैसे एक विशाल प्रासाद को, जो कि हेरिटेज था. उसे ढहाकर इस शहर की बड़ी इमारत खड़ी कर दी गयी।  क्यों 500 साल से अध

छठ पूजा : आधुनिकता, समानता, प्रकृति के रंग से सजी परम्परा

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छठ पूजा को पर्यावरण की दृष्टि से सबसे अनुकूल माना गया है। परम्परा और प्रकृति से जोड़ने वाला यह पर्व अनूठा है और अभी हाल ही में मनाया भी गया मगर दुःखद है कि कुछ आधुनिक और बुद्धिजीवी अंग्रेजीदां अखबार और पत्रकार अपने निजी हितों और सस्ती लोकप्रियता के लिए हमारी परम्परा को निशाना बना रहे हैं...कहा जा रहा है कि छठ पूजा के कारण रवीन्द्र सरोवर और सुभाष सरोवर में प्रदूषण फैल रहा है...ये तथाकथित आधुनिक भूल जाते हैं कि इस पूजा में जो अवयव हैं, उसमें केमिकल नहीं है, प्रतिमा नहीं है इसलिए लेड भी नहीं है...जो है...वह है फूल, और पत्तियों जैसे अवयव जो पानी में घुल जाते हैं और इनसे खाद भी बनायी जाती है...ऐसे लोगों को छठ के बारे में ज्ञान नहीं है...इसलिए उनके जैसे लोगों के लिए ही यह लेख हैं...हमें नहीं पता कि इसका कितना असर पड़ेगा मगर समय आ गया है कि ऐसे लोगों को बताया जाए कि उनकी हद कहाँ तक है और उनकी सीमा क्या है...फिलहाल छठ पर यह लेख... कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि के दिन छठ पूजा की जाती है। इस पूजा का आयोजन पूरे भारत वर्ष में एक साथ किया जाता है। भगवान सूर्य को समर्पित इस पूजा में सूर्य

सरंचना चाहिये तो खर्च करिये, बहाने मत बनाइये

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हम सब न बड़े कनफ़्यूज़ लोग हैं, वेतन ज्यादा से ज्यादा चाहिये, भत्तों में कमी बर्दाश्त नहीं, सुविधायें ए क्लास चाहिये, हमें स्टेटस की ऐसी लत लगी है की बजट न हो, तब भी कर्ज लेकर, खर्च कम करके बच्चों को महंगे निजी स्कूलों में पढ़ायेंगे मगर सरकारी स्कूलों को सुधारने पर ध्यान नहीं देंगे। अब जरा आपत्तिजनक बात करती हूँ। इनमें से कई गरीब और जरूरतमंदों को धरने देते समय ऐसी सिगरेट पीते देखी है, जिसका एक पैकेट ही 100-150 रुपये का आता होगा, हॉस्टल्स से शराब की बोतलें भी पकड़ी गईं हैं, आउटसाइडर आते हैं, पड़े भी रहते हैं, मैने ऐसे भी विद्यार्थी देखे हैं जो कड़े परिश्रम से पढ़ते और पढ़ाते हैं, नौकरी करते हैं, और अपने सपने पूरे करते हैं। हमें सरंचना चाहिये और 10 रुपये किराये में रहना है। इस देश में गरीब हैं मगर गरीबी बाधा नहीं बनती तभी यहाँ ए पी जे कलाम हुए जिन्होने अखबार बेचकर पढ़ाई की। अगर आप अपनी वेतन वृद्घि के लिए 40 साल इन्तजार नहीं कर सकते तो किसी संस्थान को इस कड़ी प्रतियोगिता और महंगाई के बीच क्यों फीस बढ़ाने के लिए इन्तजार करना चाहिये, क्या ये बेहतर नहीं होगा की विद्यार्थियो के लिए आंशिक कार्य की व्यव्

भारत के पर्व सांस्कृतिक और आर्थिक चेतना का उल्लास हैं....समझिए

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पर्व और त्योहार ,,,,हमारी सांस्कृतिक चेतना और आर्थिक प्रगति की आवश्यकता है। इनको निशाना बनाकर अपना उल्लू सीधा करना गलत है मगर हो यही रहा है।  पशुओं में भी जीव है, कुत्तों में तो जान बसती है, गाय तो फिर भी काम की नहीं और बकरा भी, इनकी जान की कोई कीमत नहीं है। पशुओं से भी भेदभाव, कुत्ता क्लास बढ़ाता है, गाड़ियों में घूम सकता है, गाय का गोबर गन्दा है और अमेज़न ऑर्गेनिक होकर बिकता है, फिर भी गाय की सेवा करने वाले दकियानूसी हैं। कुत्ता आपसे सेवा करवाता है, आप भी उसका मल उठाते हैं मगर फिर भी आप अभिजात्य हैं, कई दर्जा ऊपर हैं एक जगह पढ़ा था जानवर कहलाना इन्सान की अपमान लगता है, और शेर कहा जाये तो उछलता है, शेर में जानवर ही न या कोई अलग श्रेणी है। कुछ लोग तो इसलिये नाराज हो जाते हैं की कुत्ता को कुत्ता क्यों कहा, कुतिया को कुतिया क्यों कहा, अब ये न कहें तो क्या कहें। जब बिल्ली को बिल्ली, बैल को बैल कह सकते हैं तो भला कुत्ते को कुत्ता क्यों न कहें? क्या ये अन्य जानवरों से अन्याय नहीं है? कुत्ते को ज्यादा भाव देकर आप उसका तुष्टिकरण कर रहे हैं वैसे गाय मरने के बाद भी खाल दे जाती है, वह दम्भी और पागल