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सफलता के शिखर पर पहुँचकर उतरना और देते जाना भी एक कला है

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सफलता और शिखर भी एक दिन थकाने लगते हैं, तब शांति की तलाश होती है....कुछ नहीं चाहिए होता...हमने चढ़ना सीखा, पर सीढ़ियों से उतरना और सम्मान, संतोष और संतुष्टि लेकर उतरना, लौटना एक कला है, सच तो यह है कि यही जीवन है और ये तब होता है जब हम देना सीखते हैं, देना, लौटाना अपने में ही सबसे बड़ा शिखर है, अपने मन के भीतर, किसी की मुस्कान में ...तब लगता है और कुछ नहीं चाहिए....कुछ भी नहीं.... शिखर की तलाश कभी नहीं...बस चलते रहना....और फिर बैठना...शांति से, सुकून से... जब हम सफ़लता पा लेते हैं तो हमें याद नहीं रहता कि हमारी जगह कल कोई और था, हम छोड़ना नहीं चाहते, कसकर पकड़े रहते हैं कुर्सी को, पद को, धन को, और एक संघर्ष आरंभ होता है। वो लोग जो हमें यहाँ तक लाए थे, वही हमसे मुँह मोड़ लेते हैं, वही हमसे छीनने, हमें उतारने, दूर करने को तत्पर रहते हैं... थोड़ा याद करें तो हमने भी तो यही किया था..और यह स्थिति हमारे सामने भी आ रही होती है, हमें दंभ रहता है हमने ये किया, वो किया, और तमाम जटिलताओं के बाद भी हम नहीं झुकते ....अब सोचिए क्या यह समय के प्रवाह की राह में पत्थर बनना नही

मुफ्त वाली संस्कृति और दोहरेपन से पार पाये बगैर महंगाई से बचना सम्भव नहीं

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महंगाई ऐसा शब्द है जिससे जनता हमेशा से त्रस्त रही है, नेताओं के लिए यह अत्यन्त प्रिय मुद्दा है और सरकारों का सिरदर्द। महंगाई के कारण सरकारें गिरती भी रही हैं और माध्यमिक तक आते - आते तो महंगाई निबन्ध का विषय भी बनती रही है। कीमतें घटने - बढ़ने के कई कारण हो सकते हैं और दुनिया में चल रही गतिविधियों और बनती - बिगड़ती परिस्थितियों का महंगाई पर व्यापक प्रभाव रहता है। इनमें से कुछ परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिन पर वश नहीं चलता - जैसे - प्राकृतिक आपदा हो या युद्ध या ऐसा ही कोई कारण। इन सबके बीच एक सच भी है कि महंगाई को लेकर गम्भीर प्रयासों की कमी है और राजनीतिक पार्टियों की खुराक है इसलिए वे इस मुद्दे को जिन्दा भी रखना चाहती हैं। बात करें जनता की..तो जनता दो पाटन के बीच में पिसती है और सबसे अधिक त्रस्त है मध्यम, निम्न वर्ग..। अब एक सवाल हम खुद से पूछें कि क्या हम इस गम्भीर समस्या के समाधान के लिए वाकई गम्भीर हैं? अगर वाकई मैं अपनी बात कहूँ तो नहीं और इसका कारण है कि हमारा दोहरापन..हमें मुफ्त में चीजें चाहिए, सब्सिडी चाहिए..नेताओं ने वोट बैंक की राजनीति के लिए कर्जमाफी, सब्सिडी, फ्री की राजनीति त

अथ श्री श्वान प्रताड़ित कथा...

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  चित्र - गूगल से साभार डिस्क्लेमर - श्वान प्रेमी..इस पोस्ट से दूर रहें....वरना उनके कोमल हृदय पर लगे आघात के जिम्मेदार हम नहीं होंगे...कुत्ता सामने आकर भौकता है और काटता है तो क्या होता है, भुक्तभोगी रह चुके हैं और यह लेख उसी पीड़ा से जन्मा है...सुमित्रानन्दन पन्त ने कहा था...वियोगी होगा पहला कवि...हम कहते हैं..कुत्ता प्रताड़ित होंगे हम जैसे...तभी जन्मा ऐसा प्रतिवाद....और हाँ, हम कुत्ते को कुत्ता ही कहेंगे और कुतिया को कुतिया ही कहेंगे विदाउट किन्तु और परन्तु....जब भैंस को भैंस कहते हैं, गाय को गाय या गइया कहते हैं, बिल्ली को बिल्ली कह सकते हैं तो आपके कुत्ते में ऐसे कौन से सुरखाब की पूँछ लगी है....कुत्तों को नियंत्रण में रखने के लिए कानून होना ही चाहिए...इन्सान चाहे लाख बुरे हों पर उनको कुत्ते से कमतर तो मत मानिए ऐसा है कि आज जो कुछ भी हम लिखने जा रहे हैं...उससे बहुत से श्वान प्रेमियों....माने कुत्ता और जनावर प्रेमियों को बड़ी तकलीफ हो सकती है तो उनसे कृपया निवेदन है कि इस भुक्तभोगी से कृपया दूर रहें... अब कुत्ता -बिल्ली प्रेमी कहेंगे तो तकलीफ होगी और फिर वह लेकर बैठ जाए

काश दीदी... बगैर 'खेला किये' चुनाव की जगह जनता का दिल जीततीं

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नेताओं को अपने पुराने दिन और पुराने बयान नहीं भूलने चाहिए मगर कोई भी नेता इनको याद नहीं रखता। एक समय था जब भारत में नेताओं के बीच से सही नेतृत्व मिलता था। आजादी के बाद भी 60 और 70 के दशक तक नेता फिर भी मिल जाते थे। फिर 80 का दशक आया और संख्या सिमटती गयी और आज हमारे पास जो नेता हैं, उनको अपनी इमेज बनाने के लिए काम करना पड़ रहा है, पेशेवर सेवाएँ लेनी पड़ रही हैं, प्रचार पर पानी की तरह पैसा बहाना पड़ रहा है। वे स्वनिर्मित नेतृत्व का आभामण्डल तैयार जरूर करते हैं पर वह एक मृगतृष्णा के सिवाय कुछ भी नहीं है। जिस देश में देश पर व्यक्तित्व भारी पड़ने लगे..वहाँ हमें ठहरकर सोचने की जरूरत है कि आखिर हम किस दिशा में जा रहे हैं। लोग अपना दल बदलने से पहले हजार बार सोचते थे, आज हर चुनाव के पहले नेताओं की मंडी लगने लगी है। प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष रूप से, होटलों में विधायकों को बंद करना पड़ रहा है, रातों - रात सरकारें बदल जा रही हैं और आज की राजनीति कॉरपोरेट संस्कृति में ढलती जा रही है। अगर कॉरपोरेट कार्यसंस्कृति की कर्मठता, अनुशासन, परिणाम पर केन्द्रित होने तक बात सीमित रहती..तब तक फिर भी बात समझ में आत

एकतरफा प्यार और भाईचारा अब और नहीं निभाना हमें

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  क्या इससे बीमारी नहीं फैलेगी? आज एक ऐसे निषय को छूने जा रही हूँ जिस पर बात करने में भी लोगों को दिक्कत होती है। खुद मैंने भी नहीं सोचा था कि मैं इस मुद्दे पर कुछ कहूँगी। व्यक्तिगत तौर पर किसी धार्मिक मामले पर लिखने से मुझे परहेज ही रहा है मगर धार्मिक मामला जब राष्ट्रीय होने लगे। जब धर्मनिरपेक्षता और अनेकता में एकता जैसे शब्दों और वाक्यों का दुरुपयोग होने लगे और चालाकी से खामोशी को ढाल बना लिया जाये तो बोलना ही पड़ता है। यही कारण है कि एक वर्जित विषय पर बात करने की शुरुआत कर रही हूँ और वह भी भावनात्मक रूप से नहीं नहीं, किसी कुंठा के साथ नहीं बल्कि तथ्यों के साथ इतिहास में जाकर तलाशते हुए..। जी हाँ, इस्लाम और हिन्दू - मुस्लिम रिश्ते पर ही बात कर रही हूँ। भारत से विदेशों में गये और जाकर बसने वाले अप्रवासी भारतीय अर्द्ध भारतीय माने जाते हैं...इंडो - अमरीकी....इंडो चाइनीज जैसे शब्द उनके लिए हैं मगर भारत में वसुधैव कुटुम्बकम की परम्परा रही है। हमने सबको अपना लिया...उनको भी भारतीय मान लिया जिन्होंने हमारे इतिहास से खिलवाड़ किया, हमारे मंदिर तोड़े, हमारे पुस्तकालय जलाये...धर्मान्तरण के नाम प

देशप्रेम की सुगन्ध से होकर गुजरता है कवि गुरु का मानवीय विश्व प्रेम

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  रवीन्द्रनाथ...विश्वकवि...कवि गुरु और बंगाल के प्राण हैं रवीन्द्रनाथ ठाकुर। रवीन्द्रनाथ के एक विचार को लेकर कहा जाता है कि उन्होंने मानवता को देश प्रेम से अधिक महत्व दिया...लेकिन लोग यह बताना भूल जाते हैं कि कवि गुरु की मानवता और विश्व प्रेम देश प्रेम के मार्ग से होकर ही गुजरते हैं। रवीन्द्रनाथ ने कभी देश प्रेम का विरोध नहीं किया...जो लोग यह कहते हैं कि वे उग्र राष्ट्रवाद के विरोधी थे...उनको एक बार महाजाति सदन जरूर देखना चाहिए जिसका शिलान्यास उन्होंने किया था और इस महाजाति सदन की स्थापना के पीछे किसी और का नहीं बल्कि हमारे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की ही परिकल्पना और योगदान था। रवीन्द्रनाथ 12 वेलिंग्टन स्क्वायर पर स्थित राजा सुबोध मलिक बासु के घर आते थे और यहीं आया करते थे अरविंद घोष...जो कि उस समय क्रांतिकारी विचारधारा से ही प्रेरित थे और इसी दिशा में काम भी कर रहे थे। रवींद्रनाथ संभवतः ऐसे अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने दो देशों भारत और बांग्लादेश के लिए राष्ट्रीय गान लिखा। बचपन से कुशाग्र बुद्धि के रवींद्रनाथ ने देशी और विदेशी साहित्य दर्शन संस्कृति आदि को अपने अंदर समाहित कर लिया था और

जीता कोई भी हो...हारी तो बस जनता है

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  चुनाव खत्म हो चुके हैं....तीसरी बार तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने राज्य की कमान सम्भाल ली है..बड़े जोर - शोर से तृणमूल की जीत का डंका बजाया जा रहा है.....तमाम बड़े और आधुनिक बुद्धिजीवी...कलाकार...खिलाड़ी...पत्रकार...सब के सब दीदी की महिमा गाने में लगे हैं....सही भी है...क्योंकि दुनिया चढ़ते सूरज को सलाम करती है...समय गवाह है कि सत्ता जिसके पास रहती है...लोग वहीं जाते हैं....जाहिर सी बात है...सफलता किसे नहीं अच्छी लगती...जीतने वाले से सब नजदीकियाँ बनाकर रखते हैं...उनके सामने झुकते ही नहीं...चरण वंदना तक करने लगते हैं...लेकिन अपनी आत्मा से पूछिएगा तो....इसमें क्या सचमुच प्रेम है....या आतंक है...और यह आतंक..दोनों ही तरफ से है और बीच में पिस रहे हैं लोग...आम जनता...जिसका कोई अपराध नहीं...अपराध है तो बस इतना कि उसने अपने लोकतांत्रिक अधिकार का उपयोग किया...आधुनिक भारत में आज यही सबसे बड़ा अपराध है...न..मैं किसी का पक्ष नहीं ले रही...पर क्या यह सच नहीं कि तृणमूल ने भाजपा का भय दिखाकर तीसरी बार सत्ता हासिल की है....खासकर मुसलमानों को भाजपा का भय दिखाया...मुसलमानों ने तो भाजपा को रोकने के लि

कविगुरु और आपकी आत्ममुग्धता के आगे भी एक दुनिया है

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क्या हिन्दीभाषियों पर खुद को सत्ता के प्रति समर्पित साबित करने का दबाव है...क्या वे खुद को बंगाली से भी अधिक बंगाली साबित करने में लगे हैं...और इसके लिए वे किसी भी हद तक जा रहे हैं...सोचते - सोचते अब इस नतीजे पर पहुँचना पड़ रहा है कि ऐसा ही है और यह बीमारी पढ़े - लिखे बुद्धिजीवी वर्ग में अधिक है....यह असहज ही नहीं बल्कि नकली भी है...सोच का दायरा सिर्फ बंगाल तक सिमट गया है और क्योंकि सत्ता को खुश करना है तो उसके हर विरोधी पर अपनी कुंठा के तीर चलाए जा रहे हैं....एक समय था जब वाम का जोर था...आज बंगाल का हर दूसरा युवा वाम विचारधारा को वहन करता जा रहा है और राम उसके लिए एक अवशब्द लगने लगे हैं....बात व्यक्तित्व की हो तो भी अगर कोई विरोधी विचारधारा का मिल जाये तो लोग इनबॉक्स में जाकर भी उस पर अपना क्रोध निकालते हैं, उसे प्रभावित करने या नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। खुद में 72 छेद हों मगर सामने वाले के सामने अकड़ ऐसी कि पूछिए मत...अपमानजनक मीम साझा करने में कोई पक्ष पीछे नहीं है...हम समझते थे कि यह रोग बच्चों तक सीमित होगा मगर कई बच्चों के अभिभावक भी यही सब करने लगें तो उनको खुद से पूछना चाह

या मानवी सर्व भूतेषू - भाग -2 - मानवी का पत्र

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  ईश्वर के नाम खुला पत्र,    दयालु, करुणा निधान, भोले -भण्डारी...कृपा सिन्धु कहे जाने वाले ईश्वर....यह तुम्हारी ही सन्तान का पत्र है....जिसे तुमने ही एक उद्देश्य से धरती पर भेजा है....धरती को सन्दर बनाने का उद्देश्य है....तुम्हारा ही अंश हूँ मैं....वह धरती...जिसे तुमने रचा है और आज जिसके प्रति तुम निष्ठुर हो चले हो....वह भी तुम्हारी ही रचना है...तुम्हारी ही एक प्रिय सन्तान ठाकुर रामकृष्ण परमहंस ने कहा था...जतो मत...ततो पथ...मैं कट्टर नहीं हूँ...जो धरती तुम्हारे प्रकोप से कराह रही है...उस धरती की सभी सन्तानें भी बुरी नहीं हैं...मेरे लिए धर्म एक ही है मानवता....सन्तान को गढ़ना तो माता - पिता का काम है.....धरती का यही नियम है...सन्तान....अच्छी हो या बुरी हो....उसे मार्ग दिखाना...उसके सिर पर हाथ रखना तो उनका ही दायित्व है.....जब तुमने उसे ही बनाया है तो हे ईश्वर....उसके पाप - पुण्य, उसके सभी कर्म - दुष्कर्म का भागी भी तुमको ही बनना चाहिए...आज धरती पर जो हो रहा है, उसका कारण क्या तुम्हारी उदासीनता नहीं है....कैसे अभिभावक हो तुम प्रभु...जिसने बच्चों को उनके हाल पर छोड़ दिया और सुध तक नहीं ले

तो ए मंजीत बाबू ...

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   अब आप कहेंगे कि ठगा जाने के बाद ठग को कोई लिखता है भला...उसको तो कोसता है सब...अरे...रुकिये जरा...कोस तो हम भी रहे हैं...लेकिन थोड़ा कोसना तो हमको अपने लिए सुरक्षित रखना होगा...काहे कि गलती तो हमरा भी है...उ बटन टिपवाये...अउर हम टीपते चले गये...तो हम अपने को कोस चुके हैं...लेकिन लिख रहे हैं कि अब लगा कि बतियाना चाहिए...जाने किस जामताड़ा...अनारताड़ा से हैं इ लोग लेकिन ...कुछ बात करना ही है तो देखिए टोकियेगा मत....ओनली लिसेन...बूझे...तो हाँ तो...मंजीत और अनिल...अरे...आप तो इतने डरपोक हैं कि नमवो असली नहीं रखे हैं...उ तो पेटीएम का स्लिप देखकर पता चला कि एक ठो इरशाद है और दूसरा देवेन्दर...हमरे जैसे लोगों के लिए तो अव्वल दर्जे के छछंदूर.. .का लगा था आपको...आपसे ठगाकर हम मातम मनाएंगे...? देखिए...हम पहले ही बोले कि मीडिया से हैं...एक नम्बर के थेथर...ऊपर से हैं बिहारी...और लिखने का भी है बीमारी.....देख लीजिए विद् स्माइलिंग फेस आपके सामने हैं...हाँ तो हम का कह रहे थे...आपके माता - पिता ने आपका नाम कितना प्रेम से रखा होगा...मेरा नाम करेगा रोशन टाइप...अउर आप लोग का किये जी...मिट्टी में उनका ना

जमाना थाली के बैंगन का है

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बंगाल में चुनाव होने जा रहे हैं और दल - बदल का चलन अपने चरम पर है। किसी भी शासन से मुक्ति की चाह रखने वाले के लिए दल बदलने वाला नेता रातों -रात नायक और बेचारा, दोनों बन जाता है...सक्रिय पत्रकारिता में रहते हुए हम पत्रकार सब कुछ देखते हैं...मन ही मन हँसते हैं और ऐसा दिखाते हैं कि हमें कुछ फर्क ही नहीं पड़ा। फर्क तो पड़ता है...किसी नेता के पार्टी बदल लेने से बहुत फर्क पड़ता है। अब सवाल यह है कि दल -बदल होता क्यों है...अगर पुरानी पार्टी के समर्थकों की नजर से देखा जाये तो यह अवसरवादिता है...नेता ने पार्टी छोड़ी नहीं कि उसे घेरने की तैयारी होती है, उसे खत्म करने के लिए साजिशें की जाती हैं..मगर पार्टी हो या संस्थान, कोई भी ऐसे ही नहीं छोड़ता बल्कि कई बार उससे छुड़वा दिया जाता है...हम राजनीति को गालियाँ देते जरूर हैं मगर देखा जाये तो दल - बदल या यूँ कहें कि पाला बदल हर जगह है...अब इनको 'बेपेंदी का लोटा' कहिए या 'थाली के बैंगन'...ये किसी न किसी रूप में हर जगह हैं। थाली के बैंगन का चमत्कार कहिए या कुछ और...उसके पीछे सब बैंगन बन जाते हैं...एक के पीछे दूसरा बैंगन...और रसोई खत्म...

अपनी दुनिया में मगन बड़ाबाजार को अब बाखबर होने की जरूरत है

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  क्या आप जानते हैं की शहर कोलकाता कभी ब्लैक कोलकाता और वाइट कोलकाता में विभाजित था। दक्षिण कोलकाता और मध्य कोलकाता का दक्षिणी भाग वाइट था और बड़ाबाज़ार और उत्तर कोलकाता ब्लैक कोलकाता था। अंग्रेज पहले सूतानाटी में आये क्योंकि यह सुरक्षित था और बाद में दक्षिण की तरफ गये इसलिए तमाम अंग्रेजी इमारतें दक्षिण और मध्य कोलकाता में हैं और ब्लैक कोलकाता में बसाए गये भारतीय इसलिए यह काला रह गया। सेठ और बसाक और बाद में मारवाड़ी समुदाय का गढ़। और ये भी बड़ाबाजार का बड़ा दरअसल बूड़ो है, बूड़ो बांग्ला में शिव को कहते हैं और मारवाड़ी समुदाय ने इसे बड़ा बनाया। बड़ाबाजार आज भी ब्लैक ही है, स्याह। बांग्ला में पढ़िये तो सेठ, बसाक, ठाकुर का गुणगान है और इसके बाद मोटिया मजदूरों का गढ़, जिसे वो हिकारत से देखते हैं, बड़ाबाजार ने जिनको पनाह दी, दूर देश से आये जिन लोगों की शरणस्थली बना, वो भी पुष्पित पल्लवित होते ही इसे छोड़ गये। अब ये इलाका उनके लिये इतिहास की पंक्ति भर है बड़ाबाजार ने सबको पनाह दी और सबने बड़ाबाजार को त्यागा और अब हिंदीभाषियों का वोट बैंक तोड़ने के लिये इसे स्थानांतरित करने की तैयारी है। कोई राजारहाट बड़ाबाजार