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महापुरुषों पर गर्व करते हैं तो उनकी विरासत को सहेजना भी सीख लेते

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मेरे एक शिक्षक कहा करते थे...मनुष्य दो परम्पराओं में जीवित रहता है...वंश परम्परा और शिष्य परम्परा। आमतौर पर वंश परम्परा में विश्वास बहुत ज्यादा रहता है...हमारे समाज में विवाह और परिकल्पना के पीछे यह एक मजबूत कारण है लेकिन कई उदाहरण ऐसे सामने आ रहे हैं जिसे देखकर सोचना पड़ रहा है..क्या वाकई वंश परम्परा इतनी मजबूत होती है...? कई ऐसे उदाहरण हैं जिसे देखकर कहा जा सकता है कि शिष्य परम्परा की डोर वंश परम्परा की तुलना में कहीं अधिक मजबूत होती है क्योंकि परिवार अधिकतर मामलों में बाधक की भूमिका में ही अधिक रहता है और यह दावा नहीं किया जा सकता है कि किसी भी परिवार में व्यक्ति की सफलता से घर का एक सदस्य प्रसन्न ही होगा या इसे स्वीकार किया भी जायेगा। शिक्षण का क्षेत्र भी इसी वजह से चिर लोकप्रिय है। कई बार आपके बच्चों को और आपके परिवार को आपकी कद्र नहीं होती लेकिन आपके विद्यार्थी आपके लिए खड़े होते हैं...तब भी जब आपने उनसे ऐसी कोई शर्त या उम्मीद नहीं रखी होती...वह आपसे प्रेम करते हैं....और दिल से प्रेम करते हैं...जहाँ कोई तुलना न के बराबर ही रहती है...याद रखिए कि मैं अकादमिक स्तर पर किसी साधारण शिक

खुद से पूछिए, विवेकानंद चाहिए तो क्या परमहंस बनने को तैयार हैं?

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12 जनवरी आ रही है और देश में युवा दिवस मनाया जायेगा। युवाओं के साथ मैं कई सालों से काम कर रही हूँ, पत्रकारिता करते हुए युवाओं के साथ ही बात भी होती रही है और उनको समझना थोड़ा सा आसान हो गया है। हर बार मंच पर सबको यही कहते सुना है कि युवाओं को मौका मिलना चाहिए या देना चाहिए लेकिन युवाओं से हम उम्मीद यही रखते हैं कि वह आज्ञाकारी बने रहें, उनके सवालों के लिए हम तैयार नहीं रहते। जो करते हैं, वह खानापूर्ति से अधिक कुछ नहीं होता। उदाहरण के लिए अगर हम अपने कार्यक्रमों को लेकर ही बात करें तो वहाँ पर केन्द्रीय भाव इतना अधिक रहता है कि बाकी चीजें पीछे छूट जाती हैं। कहने का मतलब यह है कि कोई साहित्य पढ़े तो उसे विज्ञान से मतलब नहीं रखना चाहिए या कोई विज्ञान का विद्यार्थी है तो उसके लिए साहित्य पढ़ना एक अजूबा माना जाता है जबकि हकीकत यह है कि दोनों ही क्षेत्र से जुड़े लोगों की पसन्द उनकी शिक्षा या पाठ्यक्रम के विपरीत हो सकती है। जैसा कि पहले भी कहती रही हूँ कि हिन्दी में विशेष रूप से भाषा को सुधारने की बात होती है, भाषा को रोजगार से जोड़ने की बात होती है मगर साहित्य को रोजगार से जोड़ने की बात कम ही

पैर की जमीन है इतिहास, खो मत दीजिए

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हम वर्तमान में जीने वाले और इतिहास से डरने वाले लोग हैं...लोग तो ईश्वर से भी डरते हैं...कई बार भक्ति में प्रेम की जगह डर ले लेता है और हम जिससे डरते हैं, उसे याद नहीं करना चाहते। इतिहास एक बड़ा दायित्व है मगर इतिहास लेखन में ईमानदारी बरतने से पहले ही उसमें जब धर्म का मसाला कुछ अधिक डाल दिया जाए तो वह विद्रूप लगने लगता है। इतिहास का चयन भी तो अपनी सुविधानुसार करने की परिपाटी है...कौन सा महापुरुष कितने वोट दिलवा सकता है... इस समीकरण ने इतिहास में उन लोगों के साथ अन्याय करवाया जो नींव की ईंट थे। वरना क्या वजह रही होगी कि जिस दरभंगा राज परिवार ने भारत को रेलवे दी, विमानन सेवा दी, देश का पहला भूकम्प प्रतिरोधी भवन दिया...आज उनकी धरोहरों के संरक्षण की जिम्मेदारी सरकारें नहीं लेना चाहतीं। क्यों कलकत्ता विश्वविद्यालय अपने दानदाता रामेश्वर सिंह को बस रिकॉर्ड तक समेट बैठा है...आखिर जिस परिसर की जमीन उनसे ?मिली, वहाँ उनकी एक भी प्रतिमा क्यों नहीं है...क्यों उनके नाम पर आयोजन नहीं होते और कैसे एक विशाल प्रासाद को, जो कि हेरिटेज था. उसे ढहाकर इस शहर की बड़ी इमारत खड़ी कर दी गयी।  क्यों 500 साल से अध

छठ पूजा : आधुनिकता, समानता, प्रकृति के रंग से सजी परम्परा

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छठ पूजा को पर्यावरण की दृष्टि से सबसे अनुकूल माना गया है। परम्परा और प्रकृति से जोड़ने वाला यह पर्व अनूठा है और अभी हाल ही में मनाया भी गया मगर दुःखद है कि कुछ आधुनिक और बुद्धिजीवी अंग्रेजीदां अखबार और पत्रकार अपने निजी हितों और सस्ती लोकप्रियता के लिए हमारी परम्परा को निशाना बना रहे हैं...कहा जा रहा है कि छठ पूजा के कारण रवीन्द्र सरोवर और सुभाष सरोवर में प्रदूषण फैल रहा है...ये तथाकथित आधुनिक भूल जाते हैं कि इस पूजा में जो अवयव हैं, उसमें केमिकल नहीं है, प्रतिमा नहीं है इसलिए लेड भी नहीं है...जो है...वह है फूल, और पत्तियों जैसे अवयव जो पानी में घुल जाते हैं और इनसे खाद भी बनायी जाती है...ऐसे लोगों को छठ के बारे में ज्ञान नहीं है...इसलिए उनके जैसे लोगों के लिए ही यह लेख हैं...हमें नहीं पता कि इसका कितना असर पड़ेगा मगर समय आ गया है कि ऐसे लोगों को बताया जाए कि उनकी हद कहाँ तक है और उनकी सीमा क्या है...फिलहाल छठ पर यह लेख... कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि के दिन छठ पूजा की जाती है। इस पूजा का आयोजन पूरे भारत वर्ष में एक साथ किया जाता है। भगवान सूर्य को समर्पित इस पूजा में सूर्य

सरंचना चाहिये तो खर्च करिये, बहाने मत बनाइये

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हम सब न बड़े कनफ़्यूज़ लोग हैं, वेतन ज्यादा से ज्यादा चाहिये, भत्तों में कमी बर्दाश्त नहीं, सुविधायें ए क्लास चाहिये, हमें स्टेटस की ऐसी लत लगी है की बजट न हो, तब भी कर्ज लेकर, खर्च कम करके बच्चों को महंगे निजी स्कूलों में पढ़ायेंगे मगर सरकारी स्कूलों को सुधारने पर ध्यान नहीं देंगे। अब जरा आपत्तिजनक बात करती हूँ। इनमें से कई गरीब और जरूरतमंदों को धरने देते समय ऐसी सिगरेट पीते देखी है, जिसका एक पैकेट ही 100-150 रुपये का आता होगा, हॉस्टल्स से शराब की बोतलें भी पकड़ी गईं हैं, आउटसाइडर आते हैं, पड़े भी रहते हैं, मैने ऐसे भी विद्यार्थी देखे हैं जो कड़े परिश्रम से पढ़ते और पढ़ाते हैं, नौकरी करते हैं, और अपने सपने पूरे करते हैं। हमें सरंचना चाहिये और 10 रुपये किराये में रहना है। इस देश में गरीब हैं मगर गरीबी बाधा नहीं बनती तभी यहाँ ए पी जे कलाम हुए जिन्होने अखबार बेचकर पढ़ाई की। अगर आप अपनी वेतन वृद्घि के लिए 40 साल इन्तजार नहीं कर सकते तो किसी संस्थान को इस कड़ी प्रतियोगिता और महंगाई के बीच क्यों फीस बढ़ाने के लिए इन्तजार करना चाहिये, क्या ये बेहतर नहीं होगा की विद्यार्थियो के लिए आंशिक कार्य की व्यव्

भारत के पर्व सांस्कृतिक और आर्थिक चेतना का उल्लास हैं....समझिए

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पर्व और त्योहार ,,,,हमारी सांस्कृतिक चेतना और आर्थिक प्रगति की आवश्यकता है। इनको निशाना बनाकर अपना उल्लू सीधा करना गलत है मगर हो यही रहा है।  पशुओं में भी जीव है, कुत्तों में तो जान बसती है, गाय तो फिर भी काम की नहीं और बकरा भी, इनकी जान की कोई कीमत नहीं है। पशुओं से भी भेदभाव, कुत्ता क्लास बढ़ाता है, गाड़ियों में घूम सकता है, गाय का गोबर गन्दा है और अमेज़न ऑर्गेनिक होकर बिकता है, फिर भी गाय की सेवा करने वाले दकियानूसी हैं। कुत्ता आपसे सेवा करवाता है, आप भी उसका मल उठाते हैं मगर फिर भी आप अभिजात्य हैं, कई दर्जा ऊपर हैं एक जगह पढ़ा था जानवर कहलाना इन्सान की अपमान लगता है, और शेर कहा जाये तो उछलता है, शेर में जानवर ही न या कोई अलग श्रेणी है। कुछ लोग तो इसलिये नाराज हो जाते हैं की कुत्ता को कुत्ता क्यों कहा, कुतिया को कुतिया क्यों कहा, अब ये न कहें तो क्या कहें। जब बिल्ली को बिल्ली, बैल को बैल कह सकते हैं तो भला कुत्ते को कुत्ता क्यों न कहें? क्या ये अन्य जानवरों से अन्याय नहीं है? कुत्ते को ज्यादा भाव देकर आप उसका तुष्टिकरण कर रहे हैं वैसे गाय मरने के बाद भी खाल दे जाती है, वह दम्भी और पागल

बॉलीवुड को धकेल कर एक दूसरे के घाव हरे होने से बचाइए...बस यही सौहार्द है

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क्या यह जरूरी था...एकता दिखाने का क्या यह एकमात्र रास्ता है जबकि हम मानसिक तौर पर तैयार ही नहीं है जब मुझसे कोई बुरे लहजे से बात करता है..या किसी के साथ कड़वे अनुभव हों...तो मैं नजरअन्दाज कर भी दूँ तो उसे माफ नहीं कर पाती...यह आपके साथ भी होता होगा...परिवार बँट जाते हैं तो उनको अलग होना पड़ता है...वह दूर हो जाते हैं....मगर दूर होकर भी पास रहते हैं। अगर दूर नहीं भी होते तो एक सीमा बन ही जाती है....अपने - अपने दायरे में अपनी - अपनी दुनिया में हम जी रहे होते हैं....अब सवाल है कि आज यह किस्सा छिड़ा ही क्यों....सवाल तो मतभेद और असहमतियों के बीच साथ रहने का है...। बस यही वजह है...अब इस निजी घटना को देश और धर्म के चश्मे से दूर रखकर देखिए...। गंगा - जमुनी तहजीब की बात की जाती है...रोटी - बेटी के रिश्ते की बात की जाती है...(बेटे की बात क्यों नहीं होती...ये तो अब भी नहीं पता है)...और यह सब कहते हुए यह बात भुला दी जाती है कि गंगा का भी अपना अस्तित्व है और जमुना यानी यमुना का भी....तो ये दोनों नदियाँ अपना अस्तित्व खोकर एक दूसरे में मिल जाएं,..क्या यह इतना जरूरी है औऱ सबसे बड़ी बात कि क्या हम मानसि