शुक्रवार, 17 मई 2019

ध्वज के एक रंग नहीं, तीन रंग चाहिए...एक रंग केसरिया भी है

श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमा पर कालिख पोती गयी

इन दिनों बंगाल में लोकतंत्र की हवा बह रही है। हर कोई यहाँ लोकतंत्र का रक्षक बना हुआ है और लोकतंत्र की रक्षा का मतलब है यहाँ पर भगवा को रोकना और भाजपा को न आने देना। इसके लिए लोकतंत्र के तथाकथित समर्थक कुछ भी करने को तैयार हैं, किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं और कुछ भी भूलने को तैयार हैं। लोकतंत्र का मतलब होता है कि हर किसी का अधिकार है कि वह भारत के किसी भी राज्य में रहे और जब बात राजनीति की आती है तो हर एक राजनीतिक दल को प्रचार का, जनता तक पहुँचने का और अपनी बात रखने का अधिकार है। एक समय था जब हम वाममोर्चा सरकार की आलोचना इसलिए करते थे कि यह पार्टी हिंसा के बल पर वोट पाती आ रही थी। जब चुनाव प्रचार के समय पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की हत्या हुई सारा देश शोक में डूबा। जब गौरी लंकेश की हत्या हुई...बिलबिलाकर सारे प्रबुद्ध सोशल मीडिया पर टूट पड़े, रोहित वेमुला का शोक अब तक मनाया जा रहा है मगर इस चुनाव में छत्तीसगढ़ और कश्मीर में 2 भाजपा और एक आरएसएस नेता की हत्या कर दी गयी, कहीं कोई सुगबुगाहट तक नहीं हुई। 22 साल के सुदीप्त गुप्त की जान गयी, कोई फर्क नहीं पड़ा। आसिफा के लिए देश आँसू बहाने वाले भूल गये कि इसी राज्य में मध्यमग्राम में एक किशोरी के साथ 2 बार बलात्कार हुआ और प्रताड़ना से तंग आकर उसने जान दे दी, बिहार के रहने वाले टैक्सी चालक पिता ने तो राज्य ही छोड़ दिया...शोर हुआ और सजा भी मिली  मगर राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बना...पता है, इन सब का कसूर क्या था....इनका खून हरा नहीं था...।
याद कीजिए कि उस समय खुद ममता बनर्जी केन्द्रीय वाहिनी चाहती थीं और आज जब सरकार इनकी है तो वही केन्द्रीय वाहिनी बाधक है। ये वही ममता बनर्जी हैं जिन्होंने तापसी मलिक की जली हुई लाश की तस्वीरें दिखाकर सहानुभूति की लहर हासिल की थीं, जिन्दा तो जिन्दा, इन्होंने एक बच्ची की मौत का फायदा उठाया।
हमारे महापुरुष किसी एक राज्य या पार्टी के रंग के मोहताज नहीं

ये वहीं ममता बनर्जी हैं जिन्होंने अपने कार्यकाल में हुए पार्क स्ट्रीट बलात्कार कांड को साजानो घटना बताया...और जब एक काबिल अपसर ने इस मामले की तह तक जाकर जाँच की तो उनको पद से हटा दिया...जी हाँ, मैं दमयन्ती सेन की ही बात कह रही हूँ। यूपी, बिहार व झारखंड के लोग इनको कभी नहीं सुहाए, वोट बैंक की मजबूरी न होती तो ये हिन्दीभाषियों को टिकट तक नहीं देतीं और आज हिन्दीभाषियों का एक धड़ा...इनको महामहिम मानने में जुटा है...खैर हिन्दीवालों को तो किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, बिहार और भोजपुरी के नाम पर दुकानें चलाने वाले भी चुप बैठे हैं..डर से या किसी लालच से...। जो महिला खुद मुख्यमंत्री होकर एक भ्रष्टाचारी पुलिस अधिकारी को बचाने के लिए धरने पर बैठ जाती है...वह लोकतंत्र की रक्षा कैसे करती हैं...ये तो आप ही जानते हैं...हम नहीं जानते।
अनुदान और ओहदा बड़ी चीजें होती हैं। पाठ्यक्रम में इन्द्रधनुष के लिए प्रयुक्त बांग्ला शब्द में राम होने के कारण उसे बदल दिया गया और उसे रंग बना दिया गया...सिंगुर आन्दोलन को तो अब पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया है...। स्थिति यह है कि आज नन्दीग्राम और सिंगुर के लोग खुद कहते हैं कि उनको ठगा गया है मगर अन्धभक्तों को यह बात समझ नहीं आएगी। यदि बंगाल में लोकतंत्र है तो सबको इस बात की आजादी होनी चाहिए कि वह अपने तरीके से अपना जीवन जीए मगर बंगाल में क्या ऐसा है...? कौन सा लोकतंत्र ये इजाजत देता है कि कोई दल किसी राज्य में नहीं आ सकता। जब हर सभा के बाद भाजपा समर्थकों की हत्या कर पेड़ से लटकाया गया तो लोकतंत्र खतरे में नहीं पड़ा। जब मोहम्मद सलीम से लेकर बाबुल सुप्रियो तक की गाड़ी में तोड़फोड़ की गयी...तब भी लोकतंत्र खतरे में नहीं पड़ा। जब श्यामा प्रसाद की मुखर्जी की प्रतिमा को तोड़ा गया और कालिख लगायी गयी तब बंगाली अस्मिता खतरे में नहीं पड़ी थी और न ही बंगाली समाज को फर्क पड़ा था..मगर आज विद्यासागर को बंगाली अस्मिता का प्रतीक बताया जा रहा है जो शायद खुद वे भी नहीं चाहते। इसके पहले भी नेताजी, नेहरु जी की प्रतिमाओं को निशाना इसी बंगाल में बनाया गया मगर त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति के गिरने पर हाहाकार मचाने वालों को यह सब नहीं दिखता। ये लोग तब भी मौन रहे जब टीएमसीपी के गुंडों ने तीन साल पहले सीयू में प्रोफेसरों पर हाथ उठाया और उनके कपड़े फाड़े...मैं खुद उस समय थी वहाँ पर इसलिए ये नजारा मेरी नजर के सामने आज भी आ जाता है। इनके मुँह में तब भी दही जमा रहा जब मी़डियाकर्मियों को इनकी लोकतांत्रिक सरकार ने पिटवाया।   महापुरुषों का सम्मान भी क्या पार्टी का रंग देखकर तय होता है? कहते हैं कि कविगुरु रवीन्द्रनाथ की मानवता ही उनका दर्शन है, ये कौन सा मानवतावाद है जो अभिजात्यता के दम्भ में देश के दूसरे हिस्सों से आए लोगों पर हँसने की इजाजत देता है और उनको निकाल बाहर करने को उकसाता है? आपकी संस्कृति को तब खतरा क्यों नहीं पहुँचा जब प्रेसिडेंसी में वीसी की मेज पर अर्न्तवस्त्र पहनकर विद्यार्थियों ने प्रदर्शन किया...इसमें कौन सी शालीनता नजर आती है..इसका उत्तर तो मुझे हिन्दी समाज से भी चाहिए और भद्रलोक कहे जाने वाले बुद्धिजीवियों से भी। आपकी आत्मा को तब कष्ट क्यों नहीं पहुँचा जब तापस पाल ने खुद को चन्दननगर का माल बताकर विरोधियों के घरों में घुसकर स्त्रियों का बलात्कार कहने की बात कही। आपकी भुजाएँ तब क्यों नहीं फड़कतीं जब अनुब्रत जैसे लोग हिंसा की धमकी नकुलदाना खिलाकर देने की बात कहते हैं? इस राज्य में तो राहुल गाँधी तक का हेलिकॉप्टर नहीं उतरने दिया गया...अमित शाह, मोदी और योगी क्या अब इस राज्य में पासपोर्ट लेकर आएंगे? बंगाल के मनीषी...इस देश का गौरव हैं, अपनी तिजोरियों में बंद करना छोड़िए...आपको यह अधिकार ही नहीं है...और वे आपकी सम्पत्ति नहीं हैं।
नेहरु जी को कैसे भूल गये आप


आखिर क्या कारण है कि हिन्दी माध्यम स्कूलों के बच्चे बांग्ला से अनूदित पाठ्यपुस्तकें पढ़ने को विवश रहे और आपके उदार शिक्षा जगत में किसी को आपत्ति नहीं हुई। कितने शिक्षाविद् और बुद्धिजीवी इसे लेकर जागरुक हुए। अब बात विद्यासागर जी की प्रतिमा की...पहले तो लोकतंत्र में सबको प्रचार का अधिकार है तो फिर अमित शाह से आपको परेशानी क्यों है? अगर आपकी जमीन इतनी पुख्ता है तो एक रोड शो या सभा से आपका क्या बिगड़ने वाला है, वह आते और चले जाते? चलिए मान लिया कि लोकतंत्र में विरोध का भी अधिकार है, काले झंडे दिखाने पर भी आपत्ति नहीं है मगर ये रोड शो की शुरुआत में आपने क्यों नहीं दिखाए...जब वे बंगाल में उतरे तब क्यों नहीं दिखाए..? आखिर हमला किसकी तरफ से हुआ...उकसाया किसने और शाम को 7 बजे इतने विद्यार्थी कॉलेज में या सीयू के पास कर क्या रहे थे...सीसीटीवी डेढ़ माह से खराब है तो बनवाया क्यों नहीं गया...आपने जो जगह चुनी और जो तरीका चुना..वह बताता है कि दाल में काला नहीं बल्कि पूरी दाल ही काली थी...सब जानते हैं कि विद्यासागर से स्वामी विवेकानन्द का घर बस कुछ कदम की दूरी पर है..दरअसल, आपकी मंशा ही यही थी कि रोड शो के दौरान विरोध के नाम पर कुछ ऐसा करना है कि न सिर्फ इसमें खलल पड़े बल्कि भाजपा को बदनाम भी किया जा सके और आपने यह काम सफलतापूर्वक किया है।
विद्यासागर की मूर्ति पर हमला हर भारतीय पर प्रहार है..जिसने भी किया उसे कड़ी सजा दीजिए मगर इन पर राजनीति करना भी इनका अपमान है और इस समय बंगाल में यही हो रहा है

 उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड के जिन गुंडों की बात की जा रही है, अगर वे नहीं होते तो शायद शाह पर हमले की कालिख भी इस राज्य पर लग चुकी होती...मगर प्रतिक्रिया में भी विद्यासागर की प्रतिमा पर हमले और उसे तोड़ने का समर्थन किसी भी रूप में नहीं किया जा सकता...हम नहीं करते....कोई भी पार्टी हो...भाजपा हो या आपके समर्थक...सख्त कार्रवाई होनी चाहिए...चुनाव में जिस तरह खून बह रहा है...उसे देखकर तो सब समझ रहे हैं कि बंगाल में क्लबों को 2 -2 लाख देने का कारण क्या है और वह भी तब, जब आपके ही अनुसार राज्य कर्ज में डूबा है...जनता बेवकूफ नहीं है....उसे बरगलाने की कोशिश मत करिए....जिस तरह तिरंगा आपके हरे रंग के बगैर अधूरा है, वैसे ही वह केसरिया के बगैर भी अधूरा है...धर्मनिरपेक्षता का मतलब ध्वज के एक रंग को खारिज करना नहीं होता, उसे उसके मूल धार्मिक अधिकारों से वंचित करना नहीं होता....। जिस भगवा रंग को आपने आतंक का रंग बनाया है, मत भूलिए कि वह भगवा ही हमारे पूर्वजों का रंग है...राम और कृष्ण ने पहना, महात्मा बुद्ध ने पहना, भगवान महावीर ने पहना,  स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द ने पहना...सच तो यह है कि बंगाल ही नहीं, इस देश की आत्मा के रंग में यह रंग गहराई से शामिल है...आप इसे खारिज नहीं कर सकते..।.

गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

मीडिया में हम, कुछ अनुभव, कुछ बातें...जो केवल किस्से नहीं हैं

देश भर की महिला पत्रकार एक दूसरे से जुड़ें..देखें कि हमारी खिड़कियों के बाहर भी एक दुनिया है

चुनौतियाँ सबके सामने होती हैं..चाहे महिला हो या पुरुष...इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में यह फर्क और कम है हिन्दी के अखबारों को इस दायरे से निकलने में वक्त लगेगा। महिलाओं के लिए काम करना आसान नहीं होता..नयी लड़कियाँ भी जिस पृष्ठभूमि से आती हैं, वहाँ समय सीमा की पाबन्दी सबसे बड़ी सीमा है..पहला युद्ध तो यहीं पर है और मीडिया शिक्षा के क्षेत्र की तरह बँधा हुआ कोना नहीं है, यहाँ हम हर तरह के लोगों से मिलते हैं, हर तरह की चीजें देखते हैं। कभी पैदल चलते हैं तो कभी हवाई जहाज में, कभी होटल में जाते हैं तो कहीं फुटपाथ पर अड्डा जमता है..कभी वाई -फाई कनेक्शन तो कभी मोबाइल नेटवर्क तक नहीं मिलता...मध्यमवर्गीय परिवारों से आने वाले बच्चे इस स्थिति के लिए तैयार नहीं रहते, वे तैयार रहते हैं तो अभिभावकों की मंजूरी नहीं मिलती। बहुत सी प्रतिभाशाली लड़कियों ने असमय यह क्षेत्र इसी वजह से छोड़ दिया। मानसिकता बड़ी समस्या है...देर से आने वाले लड़कों से भले सवाल न हों, देर से आने वाली लड़कियाँ तो सन्देह की दृष्टि से देखी ही जाती हैं। इस पर जिसने परिवार की मर्जी के खिलाफ जाकर यह क्षेत्र चुना...वह तो तलवार की धार पर चलती है..एक मानसिक तनाव 24 घंटे रहता है.....इस तनाव से हर महिला मीडियाकर्मी जूझती है। शादीशुदा लड़कियों के सामने समय प्रबन्धन बड़ी समस्या है और बच्चे हुए तो उनको सम्भालना भी एक चुनौती है। हम महिलाओं के अन्दर एक संस्कारजनित जड़ता है...सच यह है कि हमें एडजस्ट करने में दिक्कत होती है और हमें कोई सही रास्ता बताने वाला नहीं होता..एक बेहद आर्थिक जरूरतमंद लड़की के लिए ग्लैमर की चकाचौंध बड़ी चीज होती है मगर उसे उन चुनौतियों का अहसास नहीं होता जो इस क्षेत्र में हैं। सन्मार्ग को इस बात का श्रेय जरूर जाता है कि हिन्दी अखबारों में लड़कियों को बहुतायत से लाया गया मगर यह भी सच है कि इनमें से बहुत सी लड़कियों का सफर कुन्द हुआ। हम एक दूसरे से मुकाबला करती रहीं...एक दूसरे से असुरक्षित रहीं और इसका फायदा भी उठाने वालों ने खूब उठाया। इस प्रोत्साहन में जो पक्षपात रहा, उसने असन्तोष बढ़ाया और इससे मीडिया में महिलाओं को लेकर सन्देह बढ़ा। विडम्बना यह है कि हम लड़कियों ने ही दूसरी लड़कियों को कमजोर किया, उनका रास्ता रोका...और अन्त में धकेल दिये गये..। लड़कियों को आगे बढ़ाने के नाम पर लड़कों को पीछे रखने का नतीजा यह हुआ कि पुरुष पत्रकारों में प्रतिस्पर्द्धा बढ़ी..हम एक दूसरे के शत्रु नहीं हैं...। हम मीडियाकर्मी एक दूसरे से प्रतियोगिता करके कभी आगे नहीं बढ़ सकते..हमें एक दूसरे का हाथ आगे बढ़ना होगा। लम्बे अरसे से बहुत से लोग काम करते रहे हैं जिनको देखकर सीखा है..माधवी दी, वनिता दी, भारती दी, आफरीन दी, मधुछन्दा दी ऐसी तमाम महिला पत्रकार हैं जिनके अनुभवों का लाभ अब नयी पीढ़ी को मिलना चाहिए। पत्रकारिता के क्षेत्र में सन्मार्ग, प्रभात खबर, ताजा खबर और सलाम दुनिया में अच्छे -बुरे अनुभवों के बीच कई ऐसे लोग रहे जिन्होंने पक्षपात नहीं किया और वह आज भी बोलते हैं। मौका भले ही सन्मार्ग में सुरेन्द्र सर ने दिया मगर प्रोत्साहन हमेशा आनन्द भइया, ओझा भइया, गोपाल भइया, लोकनाथ भइया, रवीन्द्र भइया, अनिल राय भइया और रामकेश भइया से अधिक मिला। जिन्दगी आगे बढ़ चुकी है..। पांडेय सर और प्रसाद सर से भी स्नेह मिला..। मैं ऐसी पत्रकार रही जिसने कभी विभाग में बँधकर काम करना पसन्द नहीं किया और न ही किया...इसलिए मेरे सामने मुश्किलें भी बहुत रहीं मगर इन मुश्किलों ने मजबूत ही बनाया है। कई बार जरूरी मौकों पर बड़ों की चुप्पी खली और कई बार उनका व्यवहार समझ में नहीं आया मगर यह भी अनुभव का एक हिस्सा है..। अगर पत्रकारिता को बेहतर बनाना है तो हमारे अन्दर प्रतिरोध की क्षमता होनी चाहिए...और वरिष्ठों को आगे आना चाहिए..। विश्वम्भर नेवर सर से मैंने जमीन पर रहना सीखा है और यह कि व्यवहार बड़ी चीज है। सलाम दुनिया के सम्पादक सन्तोष सिंह से सीखने वाली बात यह है कि दिमाग शान्त रखकर ही मजबूत फैसले लिए जा सकते हैं और टीम वर्क बड़ी चीज है। आज मैं कह सकती हूँ कि काम करने का जितना शानदार माहौल सलाम दुनिया में है, वह अपनी नजर में मैंने और कहीं नहीं देखा..। मेरे कॅरियर के जो 5 साल यहाँ पर गुजरे हैं..उसने यह बात प्रमाणित की है कि अवसर मिले और अपने सपनों को जीने का मौका मिले तो भी कोई पत्रकार अपने हाउस के प्रति ईमानदारी से काम कर सकता है। आज के नये पत्रकारों में बहुत से युवा होनहार हैं और उनको आगे बढ़ने में पूरी मदद की जानी चाहिए। लड़कियाँ अपने सपनों को बड़े आराम से छोड़ने के लिए तैयार हो जाती हैं...निराशा होती है।
अधिकतर हाउस महिलाओं को समय पर छोड़ते हैं..नाइट करने की जिम्मेदारी न के बराबर है और है तो परिवहन की सुविधा नहीं है....पूरा शेड्यूल गड़बड़ हो जाता है। इसकी वजह भी है। लड़कियों पर घर - बाहर की जिम्मेदारी है और हिन्दीभाषी परिवार इतने खुले विचारवाले नहीं हैं इसलिए नाइट करना एक समस्या है मगर इससे लड़कियों के उत्साह, जोश और जुनून पर कोई फर्क नहीं पड़ा। जरूरी है कि हम युवाओं को मौका दें।
मुझे लगता है कि समय आ गया है कि कोलकाता प्रेस क्लब को एक अलग से महिलाओं के लिए विंग बनानी चाहिए और उसमें मान्यता की शर्त को दरकिनार करना चाहिए क्योंकि अधिकतर महिला पत्रकारों के पास सरकारी मान्यता वाला कार्ड नहीं है..मेरे पास भी नहीं है और अब मुझे लगता है कि इसकी जरूरत भी नहीं है...। मैं जब आयी थी तो इन्टरनेट नहीं था, फैक्स की मशीनें थीं...कम्प्यूटर की जानकारी नहीं थी मगर यह सब आज है और मैंने भी थोड़ा -बहुत तो सीखा ही है...आज एक वेबपत्रिका चला लेना और दो किताबें लिख लेना...यह सब इसी वजह से सम्भव हुआ है...सीखते रहने की जरूरत है क्योंकि जानकारी कभी पुरानी नहीं होती। अभिभावकों को अपनी बेटियों पर भरोसा करना होगा...क्योंकि परिवार का साथ उसकी शक्ति ही नहीं बढ़ाता बल्कि आवाज को मजबूती भी देता है..आपको शक्ति बनना चाहिए...कमजोरी नहीं।
बहुत तकलीफ होती है जब काम न मिलने के कारण या किसी और कारण से हमारा कोई पत्रकार साथी शहर छोड़कर दिल्ली का रुख करता है। खासकर उमेश और पूर्णिमा का जाना बहुत अखरा..अभी भी राजेश, विनय, दीपक जैसे युवा पत्रकार अच्छा काम कर रहे हैं और कुछ ऐसे युवा हैं जिनको माँजने की जिम्मेदारी उठायी जाए..ये वह लोग हैं जिनको मैं देख रही हूँ..सूची में और भी युवा शामिल हो सकते हैं।
अपने शहर में पत्रकारिता को मजबूती देने के लिए साझा प्रयास हों

एक बात तो तय है कि हिन्दी पत्रकारिता को मजबूत करने के लिए या फिर पत्रकारों के हितों की सुरक्षा के लिए कोई बाहर से नहीं आने वाला है। ऐसे में कितना अच्छा हो कि मीडिया के नामों से ऊपर उठकर, छोटे - बड़े का भेद भूलकर ऐसा कोई मंच हो जो हिन्दी पत्रकारिता के लिए काम करे..व्याख्यान हो, बाहर से लोग आएं, विचारों का आदान -प्रदान हो, एक हाउस का कोई वरिष्ठ पत्रकार दूसरे हाउस में जाकर प्रशिक्षण दे, अनुभव साझा करे। लड़कियों के लिए शक्ति के माध्यम से पिछले 4 सालों में हम बहुत सी महिला मीडियाकर्मियों को साथ ला सके हैं मगर अब वक्त है कि हम इसे आगे बढ़ाएं। मुझे पता है कि आज के दौर में जो हालात हैं, मेरी यह बात बहुत लोगों को गप या चुटकुला लग रही होगा। मगर कोई भी बदलाव पहले चुटकुला ही कहा जाता है। कम से कम हाल ही में प्रेस क्लब ने तीन दिवसीय कार्यशाला आयोजित कर एक उम्मीद तो जगायी है मगर क्या हर बात के लिए निर्भर रहना जरूरी है। ऐसे आयोजन हर महीने नहीं हो सकते मगर 3 -4 महीने या 6 महीने में तो हो ही सकते हैं। अगर मेरे वरिष्ठ पत्रकार इस बाबत कदम बढ़ाएं तो बहुत कुछ सही हो सकता है।
आज बबीता, स्वीटी, अनु, निधि, मौमिता जैसी लड़कियाँ बेहद खूबसूरती से अपने हिस्से का काम सम्भाल रही हैं...बस इतनी इच्छा है कि ये लगातार ऐसी ही बढ़ती रहें क्योंकि इनके बढ़ने में ही महिला मीडियाकर्मियों के उज्ज्वल भविष्य की कामना है...गुजारिश है बहनों...यह क्षेत्र मत छोड़ना...एक पत्रकार के पीछे हटने का मतलब है कि कई सपनों का पीछे हट जाना। यह एक मिथक है कि रिपोर्टिंग ही पत्रकारिता है..इस मिथक को तोड़ना बहुत जरूरी है तभी हमारा हस्तक्षेप बढ़ेगा...क्योंकि नियन्त्रण सह सम्पादन में हैं। आप जब काम करेंगी तो मीडिया में महिलाओं के प्रति नजरिया बदलेगा...क्योंकि आप जैसे देखेंगी..वैसे कई बार कोई और नहीं देख सकता...हमें कोई जरूरत नहीं है कि हम लड़कों से प्रतियोगिता करें या उन पर बेवजह ध्यान दें...क्योंकि फील्ड में हम लड़का या लड़की देखकर काम नहीं करते...बड़े से बड़ा पत्रकार फील्ड में आपका सहकर्मी ही होता है। रिपोर्टिंग पत्रकारिता का बुनियादी हिस्सा है मगर आप इसी में सीमित रहीं तो हिन्दी अखबारों में महिला सम्पादक का सपना अधूरा रह जायेगा। रिपोर्टिंग के बाद कैमरा, डेस्क, पेज मेकिंग और विज्ञापन से लेकर विपणन में भी लड़कियों की जरूरत है..। पेज मेकिंग में मैंने अब तक एकमात्र रेखा दी को देखा है। बंगाल में एक भी हिन्दीभाषी लड़की के हाथ में कैमरा नहीं देखा...। राजस्थान पत्रिका की कमलजीत को छोड़कर मार्केटिंग में और कोई हिन्दीभाषी लड़की नहीं दिखती...ऐसे कैसे कुछ भी बदलेगा...? मेरी आँखों में अब भी एक सपना तैर रहा है, किसी हिन्दी मीडिया या अखबार में किसी महिला को इस शहर में बतौर सम्पादक देखने का..जिसके ऊपर कोई ठप्पा न हो और वह पूरी मजबूती से अपने दम पर खड़ी हो और दूसरों को खड़ा करे।
यह सब वह जगहें हैं जहाँ पर हमें काम करने की जरूरत है और यह बदलाव सिर्फ आपके हाथों में है। यही कारण है कि अब मेरा पूरा ध्यान सम्पादन पर है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि मैंने रिपोर्टिंग छोड़ दी है मगर फोकस जरूर बदला है...यह वह जगह है जहाँ से हम हस्तक्षेप कर सकते हैं...यहाँ मेरी पत्रकार बहनों को ध्यान देना चाहिए।
हमारा समय कुछ और रहा और आने वाला समय कुछ और है...बस इतनी गुजारिश है कि जब भी आप कदम रखें, मजबूती के साथ रखें...यह जगह उतनी बुरी भी नहीं है मगर हम और आप इसे और अच्छा बना सकते हैं...।

रविवार, 17 फ़रवरी 2019

अभिजात्यता के कवच से बाहर निकलिए...रोशनी दूर तक फैली है




हिन्दी साहित्यिक पत्रकारिता का सम्मेलन समाप्त हो गया है। 18 साल के बाद इस तरह का आयोजन निश्चित रूप से एक अच्छी पहल है मगर इन दो दिनों में मुझे समझ में आ गया कि आज की साहित्यिक पत्रकारिता की लोकप्रियता कम क्यों हो रही है, (अगर वाकई ऐसा है)। जब से कॉलेज में गयी, विश्वविद्यालय पहुँची और पिछले 15 साल से पत्रकारिता के क्षेत्र में हूँ...एक ही राग सुनती आ रही हूँ...बड़ा संकट हैं, पत्रिकाएं सिमट रही हैं, लोग पढ़ना नहीं चाहते..अभिव्यक्ति का संकट है...मीडिया में साहित्य का परिदृश्य सिकुड़ रहा है..सरकार आजादी छीन रही है....और मजे की बात यह है कि ये राग अलापते हुए जो शोधार्थी थे, आज प्रोफेसर और देश के दिग्गज विद्वानों में शुमार हैं...अच्छा -खासा बैंक बैलेंस है...गाड़ी है, शोहरत है और सम्मान भी है...मगर सालों बाद भी कुछ नहीं बदला...क्योंकि ये बदलाव को देखना ही नहीं चाहते..या इनकी नजर में बदलाव सिर्फ उतना है जो उनकी दृष्टि को स्वीकार है। याद रहे कि सरकार अब भाजपा की है, ये रुदन मार्क्सवादियों के जमाने से चला आ रहा है। तब समझ में नहीं आता था मगर आज चीजों को समझ रही हूँ तो बतौर पत्रकार इन सारे आरोपों पर घोर आपत्ति है। मजे की बात यह है कि जिन साहित्यकारों के नाम पर उपेक्षा का रोना रो रहे हैं, आपने भी उनके लिए क्या किया? आप सरकार से बात नहीं करेंगे क्योंकि यह आपकी शान के खिलाफ है..और यह साहित्य का काम नहीं है आपकी नजर में....साहित्य का स्थान ऊँचा है और इतना ऊँचा हो गया है कि जमीन पर कदम रखने में उसे परेशानी होने लगी है। इतना याद रखना चाहिए कि निराला, प्रसाद या नागार्जुन से लेकर प्रेमचन्द समेत तमाम कवियों को किसी साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक ने महान नहीं बनाया। ये सब महान बने क्योंकि इनको जनता ने अपनाया और जब जनता ने अपनाया तब जाकर आलोचकों और आप जैसे दिग्गजों ने इनको पूजा। इन सभी ने पहले आम आदमी की तकलीफों को जीया, भोगा, सरकार के प्रति इनका विद्रोह जन मन की अभिव्यक्ति था क्योंकि इन जैसा हर साहित्यकार जनता के बीच रहा। आटा, नमक और तेल की चिन्ता ने इनके साहित्य को कमतर नहीं बनाया। आज के अधिकतर सम्पादकों में जनता तक जाने की इच्छा ही नहीं है और न ही वे कोशिश करते हैं। आपको रेडिमेड वातावरण चाहिए और रेडिमेड पाठक से लेकर लोकप्रियता भी रेडिमेड चाहिए। आपका संघर्ष पत्रिका निकालने तक सीमित है..मगर कहानी, आलेख और कविता से इतर आपकी पत्रिकाएं किस सरोकार से जुड़ती हैं। आप किसानों पर बात करते हैं, किसानों के प्रति नीतियों को लेकर सरकार को कोसते हैं मगर कृषि सम्बन्धित एक भी आलेख या एक भी कार्यशाला या उससे सम्बन्धित जानकारी आपकी पत्रिकाओं में नहीं रहती..आप पत्रिका के कार्यालय में उन पर बात करते हैं जबकि जरूरत तो एक किसान तक जाने की है। किसानों की आत्महत्या का रोना बहुत रोया जाता है, कितने लेखक और सम्पादक किसानों की मदद करने पहुँचे? आपको शिकायत है कि युवा साहित्य नहीं पढ़ रहे, भाषा उनकी सही नहीं है, कितनी पत्रिकाओं ने शिक्षण संस्थानों तक ये प्रस्ताव रखा कि वे विद्यार्थियों तक जाएंगे और उनको भाषा व व्याकरण का ज्ञान देंगे...उनको साहित्यकारों से सम्बन्धित जगहें दिखाएंगे? अव्वल तो हर सम्पादक कह देगा कि यह साहित्यिक पत्रकारिता का काम ही नहीं है, इस पर वह कोशिश करेगा तो उसके दरवाजे शहरों के पॉश स्कूल, कॉलेजों या निजी शिक्षण संस्थानों के लिए खुलते हैं। हकीकत यह है कि किसी साधारण स्कूल का शिक्षक उसकी दृष्टि में कोई मायने नहीं रखता है। आप युवाओं की बात करते हैं मगर आपके लेखन में न तो युवाओं के मुद्दे हैं और न उनके लिए किसी तरह की व्यावहारिक जमीन पर उतर सकने वाली कोई पहल। अगर आप संगठन या पत्रिका से जुड़े हैं तो जरूर अपने विद्यार्थियों को इमोशनली ब्लैकमेल कर अपनी सभाओं में ले जाते हैं। भला हो यूजीसी का जिसने प्रमाणपत्र का जिसकी वजह से बच्चे आज लिख रहे हैं। आपको रेडिमेड लेखक चाहिए जो गलतियाँ न करें मगर आप युवाओं को तराशने के लिए तैयार नहीं हैं, उन पर परिश्रम नहीं करना चाहते इसलिए नए लेखकों और नए बच्चों के लिए तक आप तक पहुँच पाना ही बड़ी उपलब्धि है।
आज का मीडिया अगर टीआरपी से चल रहा है तो आप भी विवादों का सहारा लेकर और कई बार उसे गढ़कर टीआरपी चाहते हैं। ऐसा हाल ही में विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के मामले में हुआ, भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार को लेकर हुआ, जागरण संवादी को लेकर हुआ..साहित्य की इमेज आपके लिए मायने नहीं रखती। हर गलत चीज का बहिष्कार करने वाले आयोजक ऐसे विवाद खड़े करने वाले सम्पादकों का बहिष्कार कभी नहीं करते। वो बाकायदा सम्मानित अतिथि के रूप में आपके मंच पर उपस्थित हैं, आप दूसरों को क्या आदर्श सिखाएंगे और बच्चे आपसे क्या सीखेंगे। आप शोषण के खिलाफ लिखते हैं और अधिकांश साहित्यिक पत्रिकाएं अवैतनिक कार्यकर्ताओं के भरोसे चल रही हैं, क्या ये शोषण नहीं है? आप चाहते हैं कि लोग आपकी पत्रिका खरीदकर पढ़ें मगर आपकी इच्छा है कि लेखक अपनी किताबें बाकायदा डाक से अपने खर्च तक आप तक पहुँचाएं, क्या ये दोहरापन नहीं है? आज क्यों युवाओं से नहीं लिखवाया जा रहा है, अगर आपको मैथिलीशरण गुप्त चाहिए तो पहले महावीर प्रसाद द्विवेदी तो बनिए। साहित्य में कोई वाद नहीं होना चाहिए, अगर साहित्य समावेशी है तो वहाँ खेमेबाजी का क्या काम, मगर सम्पादकों में खेमेबाजी है, वामपंथ, दक्षिणपंथ और एक दूसरे को खारिज करने की प्रवृत्ति भी है तो आप कौन सी स्वायत्तता सिखा रहे हैं जब आपके अन्दर अपने से भिन्न मत वालों को स्वीकार करने और उनको सुनने की शक्ति नहीं है।
अपनी पत्रिका जनता तक पहुँचाने के लिए आप संघर्ष करते हैं,समझौते भी करते हैं तो आप आम मीडिया से अलग कैसे हैं..जबकि आप भी वही कर रहे हैं। अब बात जब मीडिया की है तो आपको पता होना चाहिए कि जो अभिजात्यता बोध और  उसका अहं साहित्यिक पत्रकारिता में चल सकता है, मीडिया में उसके लिए कोई जगह नहीं है। हम पत्रकार जरूरत पड़ने पर झोपड़ों से लेकर फुटपाथ तक पर भी काम कर सकते हैं और मुझे नहीं लगता कि किसी भी सम्पादक को इसमें शर्म आती होगी। साहित्यिक पत्रकारिता में खर्च वह नहीं है जो किसी आम मीडिया में है। हम लेखकों और प्रकाशकों तक, संस्थाओं तक और कई बार शिक्षण संस्थानों से लेकर साहित्यिक पत्रिकाओं तक जाते हैं। कुछ एक संस्थाओं को छोड़ दूँ तो याद नहीं आता कि किसी उपरोक्त माध्यमों के किसी भी प्रतिनिधि ने कोई इच्छा जतायी हो कि वह किताबों से इतर व्यावहारिक स्तर पर कुछ करना चाहता है। सच तो यह है कि सबकी नजर बड़े संचार माध्यमों और बड़े अखबारों पर रहती है, वे छोटे संचार माध्यमों से जुड़ना पसन्द नहीं करते और न ही किसी बड़े अखबार से अपने रिश्ते बिगाड़ना चाहते हैं। सम्पादकों में यह समझौतावादी रवैया ही मीडिया में साम्राज्यवाद का पोषक है। ऐसे में आप सभी अखबारों को दोष नहीं दे सकते और न आपको देना चाहिए। अगर छोटे स्तर पर कोई काम कर रहा हो तो भी 2 -3 रुपए का अखबार खरीदना आपको अपने पैसे की बर्बादी लगता है और आप चाहते हैं कि कोई आपकी 15 से 200 रुपए आपकी पत्रिका पर खर्च करे और वह भी विवाद और कुछ कहानियाँ पढ़ने के लिए..साहब ऐसा नहीं होता। आपकी नजर में जनसत्ता ही अखबार हैं और आप तमाम आकलन उसे आधार मानकर करते हैं तो आपका आकलन अधूरा भी है और एकांगी भी है। दुनिया सिर्फ बड़े अखबारों तक नहीं है।
हकीकत यह है कि आज साहित्य जनता तक जा रहा है तो उसी मीडिया के कारण जा रहा है जिसे आप गालियाँ देते नहीं थकते। हम साहित्य को हिस्सा बना सकते हैं मगर हमारे सरोकार आपकी तरह सीमित नहीं है, हमारी दुनिया आपकी तरह छोटी नहीं है। हमारे लिए संगोष्ठी जितनी महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण नल में पानी न आने से परेशान लोग हैं, कक्षाओं में टूटी बेंच है, पुलवामा के शहीद हैं, और सोने का भाव है, जाहिर है कि जगह की कमी तो होगी और इस स्थानाभाव के बावजूद हम आपके कार्यक्रमों, आपकी गतिविधियों, प्रयासों, समीक्षाओं को जगह देते हैं। आपके लिए विज्ञापन महत्व नहीं रखते मगर मीडिया में पत्रकारों से लेकर ग्रुप डी के स्टाफ व हॉकर तक को रोजगार मिलता है...उसके लिए वेतन की जरूरत पड़ती है, हमारे लिए साहित्य एक हिस्सा है, अनिवार्य हिस्सा है..हमारे लिए जनता ही सबसे बड़ा साहित्य है। आपको किसी रिक्शे वाले या पान विक्रेता को पत्रिका पढ़वाने में शर्म आती होगी, हमें नहीं आती...हर घर - घर तक जाते हैं, किताबें पढ़वाते हैं, अपने अंक पढ़वाते हैं, उनकी समस्याओं को सामने रखते हैं, डंडे खाते हैं, तब जाकर हमें वह सम्मान मिलता है। एक लेखक की हत्या हो गयी तो आपने अवार्ड वापसी शुरू कर दी मगर न जाने कितने पत्रकार पिटते और मारे जाते हैं, कई भूखे रह जाते हैं...वह आपके साहित्य के लिए अछूत हैं। आपके तमाम आयोजनों की सफलता में मीडिया का बड़ा योगदान है और एक लम्बी यात्रा तय करने में भी। आप  पत्रकारों  की मुश्किलों पर बात नहीं करते क्योंकि उनमें आपकी तरह अभिजात्यता नहीं है...वह साहित्य और साहित्यिक पत्रकारिता का हिस्सा नहीं है..तो यह दूरी आपने बनायी है, हमने नहीं।

हर पत्रिका व माध्यम में साहित्य है और बाकायदा साहित्यिक महोत्सव भी हैं मगर आप उसे देखना नहीं चाहते। आजतक में साहित्य है, समीक्षाएं, कई दिग्गज लेखक लिखते हैं, अमर उजाला काव्य है। कोलकाता में सलाम दुनिया में 2 दिन, रविवार और बुधवार को साहित्य परिशिष्ट निकलता है, जागरण में सप्तरंग है। प्रभात खबर से लेकर वेबदुनिया तक के साहित्यिक परिशिष्ट हैं मगर आपको साहित्य नहीं दिखता। अखबारों में हर दिन साहित्यिक गतिविधियों की खबरें छपती हैं। आप खुद नियमित तौर पर खबरें भेजते हैं मगर आपको साहित्य नहीं दिखता। कई शहरों में तो रोज कला और साहित्य का एक पेज निकलता है और ये तो मैंने भोपाल में देखा है। बाकायदा साहित्य और कला के संवाददाता हैं, छपते -छपते पिछले 30 साल से सैकड़ों पन्नों का साहित्य विशेषांक निकाल रहा है। हर अखबार की पत्रिका में साहित्य है। जागरण और आजतक से लेकर तमाम बड़े - छोटे अखबार तो साहित्यिक आयोजन करते हैं। नाटकों की समीक्षाएं भी छपती हैं। इंडिया टुडे से लेकर आउट लुक जैसी पत्रिकाओं में भी साहित्य के लिए पन्ने सुरक्षित हैं। इंडिया टुडे के साहित्यिक विशेषांक तो इतने बेस्ट सेलर रहे कि वे खत्म भी हो गये। जागरण संवादी, आजतक साहित्य, अमर उजाला का आयोजन तो बस उदाहरण हैं। एबीपी न्यूज ने बाकायदा साहित्यकारों पर तर्पण नामक श्रृंखला चलायी। आपको रवीश कुमार एनडीटीवी पर केदारनाथ सिंह नहीं दिखते। संसद में धूमिल और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना पढ़े जाते नहीं दिखते। आपको उनकी मौजूदगी की खुशी नहीं बल्कि नेताओं के मुँह से सुनने का अफसोस है, नेता क्या किसी और समाज से आते हैं? हम यह नहीं कहते कि मीडिया में सब कुछ अच्छा है मगर सब कुछ इतना बुरा भी नहीं है कि आप इससे जुड़ न सकें..जनता इतनी कमतर नहीं कि आप उसे अपनी यात्रा में शामिल करने से परहेज करें।
हम पत्रकार ही साहित्य को जनता तक ले जा रहे हैं और ले जाएंगे..तब तक ले जाएंगे क्योंकि किताबें और साहित्य किसी की सम्पत्ति नहीं है जो एक कमरे में कैद रहे, वह जनता की धरोहर है, जनता तक जाएगी, जरूर जाएगी।
सच तो यह है कि अन्धेरे को आपने अपना कवच बना लिया है। यही अन्धेरा और आपकी इसी अभिजात्यता का गौरव बोध आपको विशिष्ट बनाता है, आप अपने सम्पादक होने का अहं छो़ड़ नहीं पाते और इसलिए जो अच्छा है, उसे न तो देख पाते हैं और न ही देखना चाहते हैं...अगर यही आपका सत्य है तो...आपके प्रमाणपत्र की जरूरत किसी को नहीं है। आप अगर किसी से ईमानदारी से नहीं जुड़ते, उसका कृतित्व स्वीकार नहीं करते तो आप किसी मायने में आम मीडिया से बेहतर नहीं है।
हम आपको खारिज करते हैं।

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2019

पुलवामा : आपसी द्वेष और टीआरपी का मोह छोड़कर एक साथ खड़े होने का वक्त है ये


पुलवामा में इस कदर आतंकी हमला हुआ कि शहीद हुए 40 से अधिक जवानों के शव क्षत-विक्षत हो गए। उरी के बाद पुलवामा, हमारे सैनिकों ने शहादत दी..हम शहीद कहते जरूर हैं मगर सच तो यह है कि यह एक नृशंस हत्या है..एक कायराना हरकत। होना तो यह चाहिए कि हम एक साथ इस हमले के खिलाफ खड़े होते मगर ऐसी दुःखद और मार्मिक घड़ी में भी हम दो धड़ों में बँटे हैं। यह सही है कि सुरक्षा में चूक हुई है मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसके पीछे वह लोग भी हैं जो इस देश में रहते जरूर हैं मगर उनकी आत्म पाकिस्तान में गिरवी रखी है। आश्चर्यजनक तरीके से अब भी नवजोत सिंह सिद्धू बातचीत को लेकर दलीलें दे रहे हैं और महबूबा मुफ्ती व फारुक अब्दुल्ला जैसे नेता अब भी सर्जिकल स्ट्राइक और सेना की कार्रवाई की निन्दा करने में लगे हैं..। आखिर देश का बुद्धिजीवी वर्ग कब तक आतंकियों के मानवाधिकार का ढोल पीटता रहेगा..क्या किसी सैनिक का मानवाधिकार नहीं है या वह मानव ही नहीं है। आखिर हम क्यों इतने संवेदनहीन हो गए हैं...? इस बात की पूरी आशंका है कि इसमें स्थानीय लोगों के साथ नेताओं का भी हाथ है, सब जानते हैं कि महबूबा मुफ्ती से लेकर फारुक अब्दुल्ला की सरकार सेना और सैनिकों के साथ किस तरह का व्यवहार करते हैं...आखिर जब कश्मीर जब भारत का हिस्सा है तो वहाँ के लिए अलग कानून क्यों है अब तक। हम क्यों इतनी सुविधाएं दे रहे हैं, ऐसे नेताओं को...इनकी सुरक्षा के पीछे क्यों अपने जवानों की जान दाँव पर लगा रहे हैं। यह वक्त है कि देश से अलग - थलग पड़े कश्मीर को देश की मुख्य धारा में लाया जाए..ऐसे नेताओं पर नकेल कसी जाए जो आतंकियों के प्रति हमदर्दी रखते हैं..और पाकिस्तानपरस्तों से सरकार सारी सुविधाएं और सुरक्षा छीन ले। यह तब होगा जब हम सब मिलकर इनका हर जगह से बहिष्कार करें...अगर कश्मीर में किसी और राज्य के लोग नहीं रह सकते, जमीनें नहीं खरीद सकते तो कश्मीरियों को भी इस देश के किसी हिस्से में जमीनें नहीं मिलनी चाहिए। हम जिनकी सुरक्षा के लिए अपने जाँबाज सैनिकों को तैनात कर रहे हैं, क्या वे इस लायक हैं कि इन जवानों की सुरक्षा में रहें। सरकार विपक्ष का मुँह देखकर नहीं चल सकती। केजरीवाल और राहुल गाँधी जैसे लोग सेना से सबूत माँगते रहेंगे तो क्या हम इनकी तुष्टि के लिए बैठे रहेंगे। पूरा देश कश्मीर को लेकर बहुत सोच सका है, किसी भी राज्य को अलग ध्वज की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए..कश्मीर जब भारत से अलग नहीं है तो उसके लिए अलग कानून क्यों स्वीकार किए जा रहे हैं?
पाक मीडिया का आलम तो ये है कि पाकिस्‍तान के अखबार 'द नेशन' ने इस हमले को 'फ्रीडम फाइटर' द्वारा किया गया हमला बताया है। वहीं 'द डाउन' ने इसको लेकर एक छोटी सी खबर को प्रकाशित किया है। इसको लेकर जहां भारत के लोगों में जबरदस्‍त गुस्‍सा दिखाई दे रहा है वहीं पाकिस्‍तान ने इसको लेकर भारत के आरोपों को खारिज कर दिया है। आलम ये है कि पाकिस्‍तान के प्रधानमंत्री इमरान खान जो भारत के साथ दोस्‍ती बनाए रखने का राग अलापते दिखाई देते हैं, ने हमले को लेकर कोई अफसोस तक जाहिर नहीं किया है। इतना ही नहीं इस हमले में संवेदना तक जताने के लिए पाकिस्‍तान सरकार का कोई मंत्री तक सामने नहीं आया। वहीं विदेश मंत्रालय के प्रवक्‍ता की तरफ से एक ट्वीट कर इसकी खानापूर्ति का काम जरूर कर दिया गया। अपने एक ट्वीट में विदेश मंत्रालय के प्रवक्‍ता डॉक्‍टर मोहम्‍मद फैजल ने घटना की निंदा की है और भारत के उन आरोपों को खारिज किया है जिसमें भारत ने इसके लिए पाकिस्‍तान को जिम्‍मेदार ठहराया था। प्रवक्‍ता का कहना है कि इसमें पाकिस्‍तान का कोई हाथ नहीं है। क्या ऐसे लोगों से भारत दोस्ती करने जा रहा है?
टीवी चैनलों पर इसको लेकर आक्रामक तरीके से कवरेज जारी है। इसे मोदी सरकार ने संज्ञान में लेते हुए निजी टीवी चैनलों को आगाह किया है। सरकार की तरफ से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने जम्मू कश्मीर के पुलवामा में गुरुवार को हुए आतंकवादी हमले की पृष्ठभूमि में सभी टीवी चैनलों से ऐसी सामग्री पेश करने से बचने को कहा है, जिससे हिंसा भड़क सकती हो अथवा देश विरोधी रुख को बढ़ावा मिलता हो। मंत्रालय की ओर से जारी परामर्श में कहा गया, ‘‘हालिया आतंकवादी हमले को देखते हुए टीवी चैनलों को सलाह दी जाती है कि वे ऐसी किसी भी ऐसी सामग्री के प्रति सावधान रहें जो हिंसा को भड़का अथवा बढ़ावा दे सकती हैं अथवा जो कानून व्यवस्था को बनाने रखने के खिलाफ जाती हो या देश विरोधी रुख को बढ़ावा देती हो या फिर  देश की अखंडता को प्रभावित करती हो।''मंत्रालय ने कहा कि सभी निजी चैनलों को इसका सख्ती से पालन करने का अनुरोध किया जाता है। मीडिया की बड़ी भूमिका है और जिम्मेदारी है। मैं हमेशा से कहती आ रही हूँ कि सुरक्षा सम्बन्धी मामलों में कवरेज के दौरान संवेदनशीलता और गोपनीयता की जरूरत है। आपका दुश्मन भी टीवी देखता है। हमें कोई जरूरत नहीं कि टीआरपी बढ़ाने के नाम पर अपनी सैन्य क्षमता, हथियारों और ठिकानों का प्रदर्शन करें...ऐसे साक्षात्कार तो प्रसारित ही नहीं होने चाहिए। विस्फोट की तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा न करें...यह रक्षा मंत्रालय और सेना की अपील है। अब सरकार को इस बारे में गम्भीरता से कदम उठाने की जरूरत है। आज पाकिस्तान और आतंकी संगठन मीडिया का प्रिय विषय हैं, क्या ये अच्छा नहीं है कि पड़ोसी देश के गदहे दिखाने की जगह हम उन किसानों और उन लोगों को दिखाएं जो जमीन पर अच्छा काम कर रहे हैं। मीडिया को संवेदनशील होने की जरूरत है क्योंकि कोई टीआरपी देश की सुरक्षा से बड़ी नहीं हो सकती है।
यह वक्त दुःख का नहीं है, क्रोध का मगर इस क्रोध को बरकरार रखते हुए भी हमें एक होकर तमाम धार्मिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक मतभेदों से ऊपर उठकर साथ खड़ा होना होगा। इस देश पर, देश की सेना पर भरोसा रखिए और उन सबका बहिष्कार करिए जो इस मौके का इस्तेमाल राजनीति के लिए कर रहे हैं....हम जरूर जीतेंगे...कश्मीर हमारा था, है और रहेगा...जरूरत इस बात की है कि अब इसे भारत का हिस्सा मौखिक तौर पर नहीं, बल्कि समान कानून लागू करके बनाया जाए। हम जरूर जीतेंगे...तय है।

बुधवार, 16 जनवरी 2019

झड़ गए सब पीले पात.


सुषमा कनुप्रिया

चले जाओ, अब यहाँ दोबारा कदम मत रखना....वह गिरते - गिरते बचे...चेहरे पर मायूसी थी...हसरत से उस आलीशान इमारत को देख रहे थे...जिसकी नींव उन्होंने खुद तैयार की थी...उनके लिए यह सिर्फ इमारत नहीं थी...एक तपस्या थी...यहाँ टिके रहने के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया था...सब कुछ छोड़ दिया था...घर...परिवार..रिश्ते...नाते....दोस्त...सालों तक अकेले रह गये और वह भी बगैर किसी शिकायत के...यह सिर्फ मकान नहीं था....पूरी जिन्दगी थी उनकी...। अक्सर लोग ताना मारते '....अरे...ये तो अंतिम साँस भी इसी मकान में लेने वाले हैं...दफ्तर थोड़ी न है...घर है इनका....।' ठाकुर साब के लिए यह भी उनका इनाम था...उनको इस उलाहने पर भी नाज होता....वह बड़े नाज से इस मकान को देखा करते थे...यह मकान जो शहर के बीचों - बीच खड़ा था...अब यहाँ सब कुछ बदला जा रहा था...कमरे...दीवारों के रंग...कारपेट और हाँ, लोग भी....ठाकुर साब आज उसी बदलाव की चपेट में थे जिसकी वकालत वे जिन्दगी भर करते रहे।
'अरे....हम तो कहते हैं कि आपको तो पहले ही रिटायर हो जाना चाहिए था...नये बच्चों को मौका दीजिए...लेकिन नहीं....पकड़े रहेंगे...कुर्सी...अरे क्या कुर्सी लिए श्मशान तक जाएंगे..?.' पान चबाते हुए ठाकुर साब के मुँह से जब भी ये उद्गार फूटते...लोग समझ जाते...कि दफ्तर के पेड़ से आज फिर कोई पुराना पत्ता झड़ने वाला है....ठाकुर साब को पुरानी चीजें पसन्द नहीं थीं...उम्र तो 55 की थी मगर हाव - भाव और बालों के रंग तक भी इस कदर सहेजते रहे कि उमर 35 को पार न कर सके। जिसने भी गलती से एक बार भी बुढ़ापे का एहसास कराया....समझ लीजिए कि वह ठाकुर साब के राडार पर आ गया....वह झल्लाकर पहले तो किसी बहाने बेचारे की मिट्टी पलीद कर देते.....और फिर कहते....'ठाकुर कभी बूढ़े नहीं होते....समझ लीजिए, हम आज भी रोज 500 दंड बैठक कर सकते हैं...दिल से जवान हैं हम...।' इसके बाद उनका पूरा सप्ताह अपनी तोंद को छुपाने के लिए पेट सीधे करने में बीतता.....कुछ दिन तक तो टी -शर्ट और जीन्स छोड़कर कुछ और पहनते तक नहीं थे...जीन्स और वह भी लो वेस्ट...आखिर एक दिन सेठ जी ने टोक दिया....ठाकुर साब प्रोफेशनल नहीं लगता....बस उस दिन से उन्होंने प्रोफेशनल बनने की तैयारी भी कर ली थी।
पूरे दफ्तर पर उनका राज था....सेठ जी भी बगैर उनकी परमिशन के कोई कदम नहीं उठाते थे...सब जानते थे कि सेठ जी तक पहुँचना हो तो ठाकुर साब को खुश रखो...और इसके लिए वे किसी भी हद तक जाकर उनको खुश रखते...दफ्तर में रिटायरमेंट के करीब आ पहुँचे... चौधरी जी की उम्र भले ही 70 पार हो मगर वे ठाकुर साब को भइया कहकर ही पुकारते और पुकारते समय आवाज में इतनी चीनी घोल देते कि सामने वाले को डायबिटिज होने का खतरा था। चौधरी जी के बाल धूप में सफेद नहीं हुए थे...वे हवा का रुख देखकर बात करते...जिस कर्मचारी को ठाकुर साब पसन्द करते...चौधरी जी भी उसे तेल लगाने का कोई मौका नहीं छोड़ते और जिस कर्मचारी के बारे में भनक लग जाती कि वह ठाकुर साब के निशाने पर है.....उसकी खोट एक - एक करके चींटियों की तरह बताते कि चीटियाँ भी सोच में पड़ जातीं....जाहिर सी बात है कि चौधरी जी और ठाकुर साब की अच्छी बनने लगी थी....बात ऐसी नहीं थी कि चौधरी जी को ठाकुर साब से प्रेम था....बल्कि वह भी जान रहे थे कि वह भी सूखों पत्तों की तरह हो गए हैं...और ठाकुर साब उनके लिए मजबूत तना भर थे...।
कुल मिलाकर पूरा दफ्तर भारतीय लोकतंत्र पार्टी में तब्दील हो चुका था और ठाकुर साब यहाँ के प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष, दोनों थे...सेठ जी की भूमिका राष्ट्रपति भर की तरह ही थी...जो अनुशंसा न आने तक न तो कुछ देखते थे, न सुनते थे....मगर कभी - कभार लगता कि बोलना जरूरी है तो अपने अस्तित्व का एहसास दिलाने के लिए बोला करते थे। सेठ जी देखते और सुनते भी उतना ही थे...जितना ठाकुर साब दिखाया करते थे...सेठ जी को ताकत, सत्ता और लोकप्रियता, तीनों की जरूरत थी और ठाकुर साब उनके लिए वह चाबी थे...जो इन तीनों का ताला खोल सकते थे...।
नतीजा यह हुआ कि दफ्तर में बस वही लोग रह गये जो कि दुम हिला भर सकते या फिर गाँधी जी के तीन बन्दरों की तरह तमाशा देखते...विरोध और प्रतिरोध करना तो दफ्तर की संस्कृति से खत्म ही हो गया था...अब तो दफ्तर की सीढ़ियों पर चढ़ने के लिए ठाकुर साब की इजाजत चाहिए थी...। एक बार झड़ा हुआ पत्ता गलती से राह भटककर दफ्तर रूपी पेड़ में झडने की कगार पर पहुँचा और ठाकुर साब ने उसे पटककर गिरवा दिया....तब से किसी पत्ते की हिम्मत न हुई कि वह मुँह भी खोले। बाहर का मौसम भले ही कुदरत तय करती हो मगर अन्दर का तापमान तो ठाकुर साब का मिजाज ही तय करता था। ठाकुर साब अपनी इस प्रतिभा को जानते थे और उनका ख्वाब इस देश का प्रधानमंत्री भर था...राजनीति में औपचारिक तौर पर उनकी इन्ट्री भले न हुई हो मगर ये काम तो वे पिछले 30 साल से करते ही आ रहे थे।
दफ्तर में उनकी नियुक्ति हुई तो लिपिक के तौर पर थी...मगर सीखने की क्षमता और मेहनत के साथ...तिल का ताड़ बनाने की कला उनको दफ्तर में शिखर पर लायी थी...उनको देखकर उनके वरिष्ठ और वयोवृद्ध सहयोगी कुढ़ते...कई तो पीठ -पीछे गालियाँ भी देते मगर ठाकुर साब के सामने जाने पर ऐसे रंग बदलते कि गिरगिट भी शर्मा जाए...ठाकुर साब की एक खासियत थी कि जिस पर दिल आ जाए...उस पर जान छिड़कते...उसके लिए पलक - पाँवड़े बिछाया करते...उसका सामान ढोया करते मगर तभी तक जब तक कि वह शख्स उनकी जी हुजूरी करता रहे...उनका स्नेह और प्रेम तभी तक सलामत रहता जब तक उनकी कुर्सी को कोई खतरा न हो...।
ठाकुर साब के जमाने से ही महिलाओं की नियुक्ति दफ्तर में होने लगी थी....अगर आपको लगता है कि ठाकुर साब महिलाओं को सशक्त बनाने में विश्वास रखते थे...तो असल कारण भी जान लीजिए..कारण यह था कि महिलाएं वेतन को लेकर ज्यादा....तोल - मोल नहीं करती थीं....दूसरे जबान नहीं खोलती थीं...खोलती भी तो इसलिए चाय - पानी पूछने....या किसी सफर से ठाकुर साब की पसन्द की कोई चीज या लंच परोसने के लिए। दफ्तर खूबसूरत चेहरों से भरा रहता था और बाहर से आने वाले लोग ठाकुर साब को महिला सशक्तीकरण का पुरोधा मान बैठते...। एक - दो बार इन्टरव्यू भी दे चुके थे और महिलाओं की नियुक्ति के पीछे उनकी वफादारी और निष्ठा के कसीदे काढ़ चुके थे। अब ये अलग बात है कि किसी पत्रकार ने ये नहीं पूछा कि दफ्तर में अनुभवी लोग क्यों काम नहीं करते.....6 महीने में ही उनके विभाग के दर्जन भर कर्मचारियों ने उनका साथ क्यों छोड़ दिया था, छोड़ते जा रहे थे।
तो हम बता रहे थे कि महिला कर्मी कान की कच्ची थीं..हर सुबह नियमित तौर पर पूरे विभाग के कर्मियों का रोजनामचा रखतीं....शिकायतें करतीं....और विशेष होने का तमगाा प्राप्त कर लेतीं। हालांकि यह पद भी अवधि विशेष के लिए था और कई महिलाएं इस पद की शोभा बढ़ाने के बाद दाल में मक्खी की तरह फेंकी जा चुकी थीं मगर कोई खास असर अब तक नहीं पड़ा था। ठाकुर साब की गालियों को मिश्री समझकर पचा लिया करती थीं। लड़कों के साथ ऐसा कुछ मुमकिन नहीं था...वे समझदार थे...और उनकी सियासत का हिस्सा नहीं बने थे...गए भी साथ गए और साथ काम करते भी रहे मगर लड़कियों के मामले में ठाकुर साब को सफलता हासिल थी....कुछ सनकी लड़कियों ने चीजों को बदलने की कोशिश की...कई साल उनको धता बताकर टिकी रहीं पर अन्ततः उनको भी जाना पड़ा।
दफ्तर में कभी कर्मियों के हित के लिए सोसायटी हुआ करती थी मगर निजी स्वार्थों में वह भी खत्म हो गयी थी। नतीजा यह था कि कर्मियों के हक के लिए लड़ने वाला अंतिम सहारा भी खत्म हो गया था। एक बार छंटनी हुई थी तो दफ्तर में नारे लगे थे....ठाकुर साब भी जाते....और घड़ी पर नजर रखते....जैसे ही सेठ जी के आने का समय होता....चुपके से अपनी कुर्सी पर बैठ जाते और काली पट्टियाँ ड्रॉअर में चली जातीं। उन्होंने बाकायदा दूसरे कर्मियों को निकलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी और विश्वस्त बनते चले गये।
दफ्तर में विभाग के अन्य लोग सब कुछ देखते और खामोश रहते...सहानुभूति के नाम पर समझौते की सलाह देते....ठंडी सांस भरते और शायद अपनी बारी आने का इन्तजार करते रहे। वफादारी और गुलामी के बीच जो रेखा है....वह बहुत महीन है.... कई बार लोग गुलामी को वफादारी समझकर अपना विवेक, आत्मा सब गिरवी रख देते हैं...पलायन और हीनता है...दफ्तर में दशकों से यह चला आ रहा है। सबका दम घुटता था मगर कोई आवाज नहीं उठती थी....एक बार वरिष्ठ मुनीम को भी धक्के देकर निकाला गया था और तब भी सब चुप रहे थे....कहते हैं कि कम्पनी को खड़ा करने में उन मुनीम जी की बड़ी भूमिका रही थी....उन्होंने कातरता से अपने उन सभी साथियों को देखा था कि कोई उनके लिए खड़ा हो....पर सभी पत्थर बने रहे। ऐसे बहुत से कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया गया था जो गलती से भी किसी और कम्पनी के दफ्तर में देख लिए गए। यहाँ तक कि अपने पुराने साथियों से मिलने की इजाजत भी नहीं थी...।
दफ्तर के बाहर किसी को बोलने की आजादी नहीं थी..। हुआ यह था कि...अपनी पूरी जिन्दगी एक कम्पनी को देने वाले एक वयोवृद्ध मुनीम जी......अपनी पुरानी टेक पर, आत्मसम्मान की जिद पर अड़े रहते थे...जाहिर था कि ठाकुर साब उनको फूटी आँख से भी देखना पसन्द न करते थे....बहाने की तलाश में थे...। इन पुराने मुनीम साब के अधीन काम करने वाला कर्मचारी भी प्रमोशन की राह देख रहा था तो एक दूसरी कम्पनी में काम कर रहे एक दूसरे कर्मचारी की नजर इस पद पर थी....दोनों के हित मिल रहे थे और राह का काँटा भी एक था...बस, मौका भी मिल गया.....।
उस बुजर्ग मुनीम की दिल से इज्जत करने वाला एक शख्स दूसरी कम्पनी में था....उसने एक रिपोर्टर से बात की और इन पर पूरा आलेख एक राष्ट्रीय पत्रिका में छपवा दिया...होता तो यह कि कम्पनी...उन बुजुर्ग के योगदान को सराहती जिनकी वजह से इनकी कम्पनी को पहचान गए थे....दूर - दूर से बधाइयाँ आ रही थीं....मगर उलटबाँसी बोलकर कोई चीज होती है.....ठाकुर साब समेत कई कर्मियों को यह तरक्की रास न आई। इन सबने सेठ जी को यह समझा दिया कि इस लेख में मुनीम ने अपनी जय जयकार करवा दी है और दूसरी कम्पनी से मिले हैं.....नतीजा यह हुआ कि बुर्जुग मुनीम जी को ठाकुर साब समेत अन्य कर्मियों की मेहरबानी से उस मकान से बाहर किया गया....जिसकी बुनियाद गढ़ने में उनकी पूरी मेहनत थी.....और पाठकों.....जैसा कि हमने बताया....यहाँ मौन व्रतधारी थे....जिनमें न तो आत्मा बची थी और न ही रीढ़ की हड्डी....वे अब भी तमाशा देखते रहे......किसी ने आवाज न उठायी....सबको अपनी नौकरी बचानी थी.....वे बुजुर्ग नम आँखों में दिल में आह लिए.....चले गए.....बस....कई बार पुरानी तस्वीरों को देखकर दिल भर लेते थे।
10 साल बाद.....वक्त भी पलटता है
मकान बदलता है तो वक्त भी बदलता है...इस कम्पनी का प्रबन्धन भी बदला...पुराने तरीके काम न आए....ठाकुर साब को खड़ा करने वाले लोग....उनके लिए आँसू बहाने वाले लोग कब के उनकी जिन्दगी से जा चुके हैं.....आज बदलाव की आँधी में ठाकुर साब खुद सूखे पत्ते की तरह झड़ चुके हैं....सेठ जी की नयी पीढ़ी ने कम्पनी के साथ मकान भी बेच दिया है और ठाकुर साब को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया....उमर हो चुकी है....ठीक से चला भी नहीं जाता.....। कहते हैं कि ईश्वर के घर में देर है, अन्धेर नहीं है....उसकी लाठी में आवाज नहीं होती....पर वह न्याय जरूर करता है।
जिस मकान में ठाकुर साब की मर्जी के बगैर एक पत्ता तक न हिलता था...आज उसी मकान से उनको धक्के देकर निकाला गया है। उन्होंने जब सुरक्षाकर्मी को नसीहत दी कि वह बुजुर्गों का लिहाज करना सीखे.....उनकी कहानियाँ सुन चुके उस कर्मी ने पलटकर कह दिया.....आपने सीखा था....? .इतनों की हाय ली है....जब बोया पेड़ बबूल का........ठाकुर साब के सारे हथियार खत्म हो चुके हैं....शरीर भला किसका हमेशा जवान रहा है.....ठाकुर साब अशक्त हो चुके हैं....रोज आते हैं.....उस मकान को देखते हैं.....जो कभी उनका था....जो उनकी जिन्दगी हुआ करता था....अब जब अकेले होते हैं...कलेजे में हूक सी उठती है, आवाज आती है. वह सब चेहरे दिखते हैं जिनको वह सूखा पीला पत्ता बताकर बाहर करते आ रहे हैं। आईने के सामने ठाकुर साब खुद को एक पीले पत्ते में तब्दील होते देखते हैं...घबराकर खुद को देखते हैं..वही हैं...सब तो ठीक है..मगर आईने के सामने ऐसा लग रहा है कि वह वह पत्ता बन चुके हैं....पीला पत्ता....सूखा पत्ता। आवाज आती है....बोया पेड़ बबूल का....तो आम कहाँ से होय।