मीडिया में हम, कुछ अनुभव, कुछ बातें...जो केवल किस्से नहीं हैं

देश भर की महिला पत्रकार एक दूसरे से जुड़ें..देखें कि हमारी खिड़कियों के बाहर भी एक दुनिया है

चुनौतियाँ सबके सामने होती हैं..चाहे महिला हो या पुरुष...इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में यह फर्क और कम है हिन्दी के अखबारों को इस दायरे से निकलने में वक्त लगेगा। महिलाओं के लिए काम करना आसान नहीं होता..नयी लड़कियाँ भी जिस पृष्ठभूमि से आती हैं, वहाँ समय सीमा की पाबन्दी सबसे बड़ी सीमा है..पहला युद्ध तो यहीं पर है और मीडिया शिक्षा के क्षेत्र की तरह बँधा हुआ कोना नहीं है, यहाँ हम हर तरह के लोगों से मिलते हैं, हर तरह की चीजें देखते हैं। कभी पैदल चलते हैं तो कभी हवाई जहाज में, कभी होटल में जाते हैं तो कहीं फुटपाथ पर अड्डा जमता है..कभी वाई -फाई कनेक्शन तो कभी मोबाइल नेटवर्क तक नहीं मिलता...मध्यमवर्गीय परिवारों से आने वाले बच्चे इस स्थिति के लिए तैयार नहीं रहते, वे तैयार रहते हैं तो अभिभावकों की मंजूरी नहीं मिलती। बहुत सी प्रतिभाशाली लड़कियों ने असमय यह क्षेत्र इसी वजह से छोड़ दिया। मानसिकता बड़ी समस्या है...देर से आने वाले लड़कों से भले सवाल न हों, देर से आने वाली लड़कियाँ तो सन्देह की दृष्टि से देखी ही जाती हैं। इस पर जिसने परिवार की मर्जी के खिलाफ जाकर यह क्षेत्र चुना...वह तो तलवार की धार पर चलती है..एक मानसिक तनाव 24 घंटे रहता है.....इस तनाव से हर महिला मीडियाकर्मी जूझती है। शादीशुदा लड़कियों के सामने समय प्रबन्धन बड़ी समस्या है और बच्चे हुए तो उनको सम्भालना भी एक चुनौती है। हम महिलाओं के अन्दर एक संस्कारजनित जड़ता है...सच यह है कि हमें एडजस्ट करने में दिक्कत होती है और हमें कोई सही रास्ता बताने वाला नहीं होता..एक बेहद आर्थिक जरूरतमंद लड़की के लिए ग्लैमर की चकाचौंध बड़ी चीज होती है मगर उसे उन चुनौतियों का अहसास नहीं होता जो इस क्षेत्र में हैं। सन्मार्ग को इस बात का श्रेय जरूर जाता है कि हिन्दी अखबारों में लड़कियों को बहुतायत से लाया गया मगर यह भी सच है कि इनमें से बहुत सी लड़कियों का सफर कुन्द हुआ। हम एक दूसरे से मुकाबला करती रहीं...एक दूसरे से असुरक्षित रहीं और इसका फायदा भी उठाने वालों ने खूब उठाया। इस प्रोत्साहन में जो पक्षपात रहा, उसने असन्तोष बढ़ाया और इससे मीडिया में महिलाओं को लेकर सन्देह बढ़ा। विडम्बना यह है कि हम लड़कियों ने ही दूसरी लड़कियों को कमजोर किया, उनका रास्ता रोका...और अन्त में धकेल दिये गये..। लड़कियों को आगे बढ़ाने के नाम पर लड़कों को पीछे रखने का नतीजा यह हुआ कि पुरुष पत्रकारों में प्रतिस्पर्द्धा बढ़ी..हम एक दूसरे के शत्रु नहीं हैं...। हम मीडियाकर्मी एक दूसरे से प्रतियोगिता करके कभी आगे नहीं बढ़ सकते..हमें एक दूसरे का हाथ आगे बढ़ना होगा। लम्बे अरसे से बहुत से लोग काम करते रहे हैं जिनको देखकर सीखा है..माधवी दी, वनिता दी, भारती दी, आफरीन दी, मधुछन्दा दी ऐसी तमाम महिला पत्रकार हैं जिनके अनुभवों का लाभ अब नयी पीढ़ी को मिलना चाहिए। पत्रकारिता के क्षेत्र में सन्मार्ग, प्रभात खबर, ताजा खबर और सलाम दुनिया में अच्छे -बुरे अनुभवों के बीच कई ऐसे लोग रहे जिन्होंने पक्षपात नहीं किया और वह आज भी बोलते हैं। मौका भले ही सन्मार्ग में सुरेन्द्र सर ने दिया मगर प्रोत्साहन हमेशा आनन्द भइया, ओझा भइया, गोपाल भइया, लोकनाथ भइया, रवीन्द्र भइया, अनिल राय भइया और रामकेश भइया से अधिक मिला। जिन्दगी आगे बढ़ चुकी है..। पांडेय सर और प्रसाद सर से भी स्नेह मिला..। मैं ऐसी पत्रकार रही जिसने कभी विभाग में बँधकर काम करना पसन्द नहीं किया और न ही किया...इसलिए मेरे सामने मुश्किलें भी बहुत रहीं मगर इन मुश्किलों ने मजबूत ही बनाया है। कई बार जरूरी मौकों पर बड़ों की चुप्पी खली और कई बार उनका व्यवहार समझ में नहीं आया मगर यह भी अनुभव का एक हिस्सा है..। अगर पत्रकारिता को बेहतर बनाना है तो हमारे अन्दर प्रतिरोध की क्षमता होनी चाहिए...और वरिष्ठों को आगे आना चाहिए..। विश्वम्भर नेवर सर से मैंने जमीन पर रहना सीखा है और यह कि व्यवहार बड़ी चीज है। सलाम दुनिया के सम्पादक सन्तोष सिंह से सीखने वाली बात यह है कि दिमाग शान्त रखकर ही मजबूत फैसले लिए जा सकते हैं और टीम वर्क बड़ी चीज है। आज मैं कह सकती हूँ कि काम करने का जितना शानदार माहौल सलाम दुनिया में है, वह अपनी नजर में मैंने और कहीं नहीं देखा..। मेरे कॅरियर के जो 5 साल यहाँ पर गुजरे हैं..उसने यह बात प्रमाणित की है कि अवसर मिले और अपने सपनों को जीने का मौका मिले तो भी कोई पत्रकार अपने हाउस के प्रति ईमानदारी से काम कर सकता है। आज के नये पत्रकारों में बहुत से युवा होनहार हैं और उनको आगे बढ़ने में पूरी मदद की जानी चाहिए। लड़कियाँ अपने सपनों को बड़े आराम से छोड़ने के लिए तैयार हो जाती हैं...निराशा होती है।
अधिकतर हाउस महिलाओं को समय पर छोड़ते हैं..नाइट करने की जिम्मेदारी न के बराबर है और है तो परिवहन की सुविधा नहीं है....पूरा शेड्यूल गड़बड़ हो जाता है। इसकी वजह भी है। लड़कियों पर घर - बाहर की जिम्मेदारी है और हिन्दीभाषी परिवार इतने खुले विचारवाले नहीं हैं इसलिए नाइट करना एक समस्या है मगर इससे लड़कियों के उत्साह, जोश और जुनून पर कोई फर्क नहीं पड़ा। जरूरी है कि हम युवाओं को मौका दें।
मुझे लगता है कि समय आ गया है कि कोलकाता प्रेस क्लब को एक अलग से महिलाओं के लिए विंग बनानी चाहिए और उसमें मान्यता की शर्त को दरकिनार करना चाहिए क्योंकि अधिकतर महिला पत्रकारों के पास सरकारी मान्यता वाला कार्ड नहीं है..मेरे पास भी नहीं है और अब मुझे लगता है कि इसकी जरूरत भी नहीं है...। मैं जब आयी थी तो इन्टरनेट नहीं था, फैक्स की मशीनें थीं...कम्प्यूटर की जानकारी नहीं थी मगर यह सब आज है और मैंने भी थोड़ा -बहुत तो सीखा ही है...आज एक वेबपत्रिका चला लेना और दो किताबें लिख लेना...यह सब इसी वजह से सम्भव हुआ है...सीखते रहने की जरूरत है क्योंकि जानकारी कभी पुरानी नहीं होती। अभिभावकों को अपनी बेटियों पर भरोसा करना होगा...क्योंकि परिवार का साथ उसकी शक्ति ही नहीं बढ़ाता बल्कि आवाज को मजबूती भी देता है..आपको शक्ति बनना चाहिए...कमजोरी नहीं।
बहुत तकलीफ होती है जब काम न मिलने के कारण या किसी और कारण से हमारा कोई पत्रकार साथी शहर छोड़कर दिल्ली का रुख करता है। खासकर उमेश और पूर्णिमा का जाना बहुत अखरा..अभी भी राजेश, विनय, दीपक जैसे युवा पत्रकार अच्छा काम कर रहे हैं और कुछ ऐसे युवा हैं जिनको माँजने की जिम्मेदारी उठायी जाए..ये वह लोग हैं जिनको मैं देख रही हूँ..सूची में और भी युवा शामिल हो सकते हैं।
अपने शहर में पत्रकारिता को मजबूती देने के लिए साझा प्रयास हों

एक बात तो तय है कि हिन्दी पत्रकारिता को मजबूत करने के लिए या फिर पत्रकारों के हितों की सुरक्षा के लिए कोई बाहर से नहीं आने वाला है। ऐसे में कितना अच्छा हो कि मीडिया के नामों से ऊपर उठकर, छोटे - बड़े का भेद भूलकर ऐसा कोई मंच हो जो हिन्दी पत्रकारिता के लिए काम करे..व्याख्यान हो, बाहर से लोग आएं, विचारों का आदान -प्रदान हो, एक हाउस का कोई वरिष्ठ पत्रकार दूसरे हाउस में जाकर प्रशिक्षण दे, अनुभव साझा करे। लड़कियों के लिए शक्ति के माध्यम से पिछले 4 सालों में हम बहुत सी महिला मीडियाकर्मियों को साथ ला सके हैं मगर अब वक्त है कि हम इसे आगे बढ़ाएं। मुझे पता है कि आज के दौर में जो हालात हैं, मेरी यह बात बहुत लोगों को गप या चुटकुला लग रही होगा। मगर कोई भी बदलाव पहले चुटकुला ही कहा जाता है। कम से कम हाल ही में प्रेस क्लब ने तीन दिवसीय कार्यशाला आयोजित कर एक उम्मीद तो जगायी है मगर क्या हर बात के लिए निर्भर रहना जरूरी है। ऐसे आयोजन हर महीने नहीं हो सकते मगर 3 -4 महीने या 6 महीने में तो हो ही सकते हैं। अगर मेरे वरिष्ठ पत्रकार इस बाबत कदम बढ़ाएं तो बहुत कुछ सही हो सकता है।
आज बबीता, स्वीटी, अनु, निधि, मौमिता जैसी लड़कियाँ बेहद खूबसूरती से अपने हिस्से का काम सम्भाल रही हैं...बस इतनी इच्छा है कि ये लगातार ऐसी ही बढ़ती रहें क्योंकि इनके बढ़ने में ही महिला मीडियाकर्मियों के उज्ज्वल भविष्य की कामना है...गुजारिश है बहनों...यह क्षेत्र मत छोड़ना...एक पत्रकार के पीछे हटने का मतलब है कि कई सपनों का पीछे हट जाना। यह एक मिथक है कि रिपोर्टिंग ही पत्रकारिता है..इस मिथक को तोड़ना बहुत जरूरी है तभी हमारा हस्तक्षेप बढ़ेगा...क्योंकि नियन्त्रण सह सम्पादन में हैं। आप जब काम करेंगी तो मीडिया में महिलाओं के प्रति नजरिया बदलेगा...क्योंकि आप जैसे देखेंगी..वैसे कई बार कोई और नहीं देख सकता...हमें कोई जरूरत नहीं है कि हम लड़कों से प्रतियोगिता करें या उन पर बेवजह ध्यान दें...क्योंकि फील्ड में हम लड़का या लड़की देखकर काम नहीं करते...बड़े से बड़ा पत्रकार फील्ड में आपका सहकर्मी ही होता है। रिपोर्टिंग पत्रकारिता का बुनियादी हिस्सा है मगर आप इसी में सीमित रहीं तो हिन्दी अखबारों में महिला सम्पादक का सपना अधूरा रह जायेगा। रिपोर्टिंग के बाद कैमरा, डेस्क, पेज मेकिंग और विज्ञापन से लेकर विपणन में भी लड़कियों की जरूरत है..। पेज मेकिंग में मैंने अब तक एकमात्र रेखा दी को देखा है। बंगाल में एक भी हिन्दीभाषी लड़की के हाथ में कैमरा नहीं देखा...। राजस्थान पत्रिका की कमलजीत को छोड़कर मार्केटिंग में और कोई हिन्दीभाषी लड़की नहीं दिखती...ऐसे कैसे कुछ भी बदलेगा...? मेरी आँखों में अब भी एक सपना तैर रहा है, किसी हिन्दी मीडिया या अखबार में किसी महिला को इस शहर में बतौर सम्पादक देखने का..जिसके ऊपर कोई ठप्पा न हो और वह पूरी मजबूती से अपने दम पर खड़ी हो और दूसरों को खड़ा करे।
यह सब वह जगहें हैं जहाँ पर हमें काम करने की जरूरत है और यह बदलाव सिर्फ आपके हाथों में है। यही कारण है कि अब मेरा पूरा ध्यान सम्पादन पर है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि मैंने रिपोर्टिंग छोड़ दी है मगर फोकस जरूर बदला है...यह वह जगह है जहाँ से हम हस्तक्षेप कर सकते हैं...यहाँ मेरी पत्रकार बहनों को ध्यान देना चाहिए।
हमारा समय कुछ और रहा और आने वाला समय कुछ और है...बस इतनी गुजारिश है कि जब भी आप कदम रखें, मजबूती के साथ रखें...यह जगह उतनी बुरी भी नहीं है मगर हम और आप इसे और अच्छा बना सकते हैं...।

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