गुरुवार, 11 मार्च 2021

जमाना थाली के बैंगन का है


बंगाल में चुनाव होने जा रहे हैं और दल - बदल का चलन अपने चरम पर है। किसी भी शासन से मुक्ति की चाह रखने वाले के लिए दल बदलने वाला नेता रातों -रात नायक और बेचारा, दोनों बन जाता है...सक्रिय पत्रकारिता में रहते हुए हम पत्रकार सब कुछ देखते हैं...मन ही मन हँसते हैं और ऐसा दिखाते हैं कि हमें कुछ फर्क ही नहीं पड़ा। फर्क तो पड़ता है...किसी नेता के पार्टी बदल लेने से बहुत फर्क पड़ता है। अब सवाल यह है कि दल -बदल होता क्यों है...अगर पुरानी पार्टी के समर्थकों की नजर से देखा जाये तो यह अवसरवादिता है...नेता ने पार्टी छोड़ी नहीं कि उसे घेरने की तैयारी होती है, उसे खत्म करने के लिए साजिशें की जाती हैं..मगर पार्टी हो या संस्थान, कोई भी ऐसे ही नहीं छोड़ता बल्कि कई बार उससे छुड़वा दिया जाता है...हम राजनीति को गालियाँ देते जरूर हैं मगर देखा जाये तो दल - बदल या यूँ कहें कि पाला बदल हर जगह है...अब इनको 'बेपेंदी का लोटा' कहिए या 'थाली के बैंगन'...ये किसी न किसी रूप में हर जगह हैं। थाली के बैंगन का चमत्कार कहिए या कुछ और...उसके पीछे सब बैंगन बन जाते हैं...एक के पीछे दूसरा बैंगन...और रसोई खत्म....वह इस बात की गारंटी लेकर जाता है कि दूसरी पार्टी अथवा संस्थान रूपी वॉशिंग मशीन में उसके अपराध धुल जाएंगे....गलती थाली के बैंगन की नहीं है...उसे इतना कीमती तो बनाया ही उन लोगों ने है, जो उसे खरीदते हैं....मसलन बैंगनों के लुढ़कने से आज जो पार्टी परेशान है...उसने भी तो बैंगन किसी और के बगीचे से ही खरीदे थे....और आज उससे भी बड़ा व्यापारी बगीचे में आ गया है तो थाली का बैंगन तो कीमती होना ही था...लेकिन कुछ बैंगन ऐसे भी होते हैं जो थाली में रहते आ रहे हैं...अपमान सहते आ रहे हैं, धौंस सहते आ रहे हैं और उनको इन्तजार सिर्फ ऐसे किसी बड़े व्यापारी की थाली का रहता है...जहाँ जाकर वह कुछ दिन आराम से फ्रिज में तो रह सके...तो जैसे ही मौका आता है...ऐसे छोटे - मोटे बैंगन लुढ़क आते हैं। आप कहते रहिए पाला बदल मगर कॅरियर है भाई...और राजनीति हो या सरकारी नौकरी....सेवा करने कौन आता है...? सब माल कमाने आते हैं, दाम कमाने आते हैं...और जब इनमें से कुछ भी कमाने का कोई स्कोप ही न हो...तो बेचारे करें क्या....तो उनको थाली के बड़े बैंगन के पीछे जाना ही पड़ता है।

अभी मौसम चुनाव का है मगर इस पालाबदल की प्रवृति और उसके कारणों की तह में जाने की जरूरत है...कुछ लोग लम्बे समय तक हाशिए में पड़े रहने के बाद एक नयी शुरुआत के लिए दल बदलते हैं...जैसे - ज्योतिराजे सिंधिया। कांग्रेस के लगभग हर युवा नेता ने पार्टी इसी वजह से छोड़ी और कांग्रेस नेतृत्व को इससे फर्क नहीं पड़ा...क्योंकि उनको चाटुकारिता और चाटुकार पसन्द हैं...। यह कॉरपोरेट संस्कृति में होता है यानी अगर आपका काम प्रबन्धन को पसन्द भी हो तो बीच के जो चाटुकार हैं, वह आपका पत्ता काट देते हैं। आपकी एक नकारात्मक छवि निर्मित की जाती है...ऐसा घेरा बनाया जाता है कि आप बोलते भी हैं तो आपकी आवाज दब जाती है और यकीन मानिए..यह हमारे - आपके घरों में भी होता है। हमने परिवारों को लेकर जबरदस्ती की सकारात्मक तस्वीर बना रखी है...भावनाओं का ऐसा जाल बना रखा है कि उसमें अपनों की मौकापरस्ती, धोखा.., छल..सब दब जाते हैं। पितृसत्ता या कोई भी सत्ता ऐसे ही संचालित नहीं होती...उसे चलायमान रखने के पीछे ऐसे ही थाली के बैंगन होते हैं....जो अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर सम्बन्ध बनाते भी हैं और सम्बन्ध निभाते भी यही देखकर हैं कि इसमें उनका कितना फायदा है..ऐसे लोग किसी के नहीं होते...ऐसी औरतें किसी की नहीं होतीं। मजे की बात यह है कि ऐसे 'अ' सिद्धांतवादी सिर्फ स्त्रियाँ ही नहीं होतीं बल्कि पुरुष भी होते हैं....उनका काम ही रहता है कि लड़कियों के खिलाफ षडयंत्र करना और लड़कियों की आवाज से लेकर उनका काम तक दबाना...ऐसे ही लोग घर में राज करते हैं क्योंकि उनको थाली का बैंगन बनने की कला आती है, समझौते के नाम पर वह हर अपराध करते हैं और देवता बने रहते हैं। उनकी छवि पर कोई असर नहीं पड़ता तो ऐसे लोगों के चेहरे पर से नकाब कौन उतारेगा...। ध्यान में रखिएगा कि ऐसे लोग हर जगह विकल्प तैयार रखते हैं...ठीक वैसे ही जैसे कोई राजनीतिक पार्टी रखती है....ठीक वैसे ही जैसे किसी संस्थान का शीर्ष अधिकारी रखता है...और ठीक उसी तरह ऐसे लोग भी यह देखते हैं कि प्रभाव किसका है...किसके सामने झुकना सही रहेगा...पत्नियों और माँओं को भावनात्मक ब्लैकमेलिंग से बरगलाया जा सकता है और बेटी तेज - तर्ऱार हुई तो उसके सामने झुकने में कोई बुराई नहीं...बेटी को भी अचानक उस व्यक्ति में दयालुता दिखने लगती है जो कभी उसके हर कष्ट का कारण था...बेटी की माँ...खुश...कि मेरा परिवार सम्भल गया और इन सबके बीच में पिस जाते हैं वह लोग...जो सही राह पर चलते हैं...। सूरत अच्छी होने का मतलब यह थोड़ी न है कि सीरत भी अच्छी ही होगी लेकिन जमाना पैकेजिंग का है तो यह जोड़ी उसमें माहिर रहती है.. लुढ़कने में इतने माहिर कि गिरगिट भी रंग बदलना भूल जाये तो लुढ़कने की प्रैक्टिस करने लगी। जमाना थाली के बैंगन का है...थाली का बैंगन सबको खुश रखता है....दूर से दूर के रिश्तेदार के जन्मदिन से लेकर सालगिरह तक..सब उसे याद रहते हैं....रिश्तेदार भले ही भूल जाये...थाली का बैंगन नहीं भूलता...हर बात पर बवाल काटता है....उसे हर चीज के लिए पंचायत चाहिए....वह अपनी थोथी से थोथी बात को झूठ और अहंकार के मुल्लमे से कीमती बनाना चाहता है...घर में बेटी का दूसरे लड़कों से बात करना पसन्द नहीं लेकिन अगर कोई उस पर भारी हुआ तो फोन पर यह समझाता है कि बच्चों को तो समझना होगा न....थाली का बैंगन हर जगह है...विश्वविद्यालय में जिधर विभागाध्यक्ष की कुर्सी होती है, बैंगन उधर ही लुढ़कता है...दफ्तरों में जो भी बॉस की कुर्सी पर है...बैंगन उसी की जी -हुजूरी करता है....मामला रुतबे का है तो बैंगन जितना सिर चढ़ता है...उसकी बॉसगिरी उतनी ही बढ़ती है...थाली का बैंगन....राज कर रहा है....और हम उस आग के सुलगने के इंतजार में हैं जिस पर किसी थाली का साथ उसे बचा न सके....और वह बैंगन भरता बन सके...आखिर.... बेपेंदी का लोटा हो या थाली का बैंगन...उनकी नियति तो टूटना और भरता बनना ही है...।