मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

हिन्दी मेला...नयी पीढ़ी का मंच और हम सबका ऑक्सीजन



बस एक साल और पूरे 25 साल हो जाएंगे....हिन्दी मेले को। पहली बार आई तो प्रतिभागी के रूप में...सेठ सूरजमल जालान गर्ल्स कॉलेज में स्नातक की छात्रा थी और अब बतौर पत्रकार 15 साल होने जा रहे हैं और 20 साल हो रहे हैं मेले से जुड़े हुए। इन 20 सालों में उतार चढ़ाव भी देखे मगर मेला और मेला परिवार हमेशा साथ रहा। सही है कि आज बहुत से लोग जा चुके हैं मगर मेला कल भी मिलवाता था और आज भी मिलवाता आ रहा है...मेले का तो काम ही यही है। 
हमारे समय की बड़ी चुनौतियाँ भाषा और अपसंस्कृति तो है ही मगर उससे भी बड़ी चुनौती है युवाओं के साथ तमाम पीढ़ी को एक सृजनात्मक तथा संगठनात्मक राह पर लाना...मैं अपनी बात करूँ तो जब मेले में पहली बार आई तो ऐसे मोड़ पर थी जहाँ कोई राह नहीं सूझ रही थी..बहुत कुछ कहना था...बहुत कुछ करना था मगर कुछ भी समझ नहीं आ रहा था...कई बार ऐसे मोड़ भी आये....जहाँ लगा कि हर रास्ता बंद हो चुका है...निराश हुई मगर हारी नहीं तो इसके पीछे यह एक मंच था जिसने साहित्य को किताबों से निकालकर जीवन से जोड़ा। हिन्दी मेला ऐसी जगह है जिसने कभी किसी रिप्लेस नहीं किया, कभी अजनबी नहीं बनाया, कभी किसी को बाँधा नहीं और बगैर भेद भाव के सबकी बातें सुनीं और अपनाया।
मतभेद हुए मगर मनभेद नहीं बल्कि सब एक दूसरे की जरूरत में खड़े रहे...तमाम दिक्कतों और मतभेदों के बावजूद...परिवार इसे ही तो कहते हैं न। पत्रकारिता में जब मैं आयी तो स्पष्ट तौर पर कह सकती हूँ कि साहित्य को बेहद उपेक्षा से देखा जाता था...साहित्यिक विज्ञप्तियों की जगह कचरे के डब्बे में होती थी...साहित्यिक खबरें न के बराबर होती थीं और साहित्य का मतलब कहानियाँ भर होता था। कई बार मुझे कहा जाता कि साहित्य पढ़ने वाले अच्छे पत्रकार नहीं हो सकते क्योंकि वे संवेदनशील होते हैं और संवेदना के लिए अखबारों की खबरों में जगह नहीं होती...जाहिर है कि यह एक भी संघर्ष था। इस पर ये भी सच है कि ऐसे अखबार कम बेहद कम थे। अधिकतर अखबारों और मीडिया के बड़े  वर्ग का सहयोग हिन्दी मेले को मिला है। फिर भी जद्दोजहद और उपेक्षा के बीच पूरा एक दशक गुजरा और ऐसे मे हिन्दी मेला और मिशन मेरा ऑक्सीजन बने रहे और मेरी संवेदना और जीजिविषा अगर जिन्दा भी है तो इसका श्रेय हिन्दी मेले को जाता है। 

 अपनापन ही हिन्दी मेले  की संस्कृति है। आपको यहाँ भले ही तामझाम न मिले...बहुते ज्यादा सुविधाएं भी न मिलें मगर जो लगाव और अपनापन मिलेगा....वह आपको ऑक्सीजन देता है....मुझे भी मिला। हिन्दी मेले ने ऐसा परिवार दिया है जो तमाम शिकवे शिकायतों के बीच आपको एक अपनेपन की मिठास देता है...आपकी सृजनात्मकता को मंच देता है। 

सर, राजेश भइया, ऋतेश भइया....मनोज भइया..ममता.....कितने नाम लूँ.....जगह कम पड़ जाएगी....। एक ऐसी जगह जो अपरिचित को भी परिचित बनाती है....जहाँ छोटे से छोटा और नये से नया व्यक्ति भी अपनी बात रख सकता है और सबसे अच्छी बात कि उसे न सिर्फ सुना जाता है बल्कि जरूरत पड़े तो अपनाया भी जाता है। आज संवेदनशीलता ने मेरी कलम को मजबूत बनाया है क्योंकि वह सोच सकती है...उपेक्षाओं के बीच लड़ने और जीतने की जिद भी हिन्दी मेले से मिली है...अभिव्यक्तिगत स्वतंत्रता युवाओं की ही नहीं सबकी जरूरत है। वो यहाँ मिलती है। 

एक ऐसा उत्सव जो कोलकाता के पूरे साहित्यिक जगत को एक छत के नीचे ला देता है...मरुस्थल में हरीतिमा जैसा है। यहाँ छोटों की बात सुनी जाती है तो बड़ों को भी सम्मान मिलता है... अखबार जब प्रमुखता से मेले की खबरों को स्थान देते हैं तो अजीब सा संतोष मिलता है। मेले ने हर कार्यक्षेत्र को प्रतिभाएं दी हैं और वे हर जगह अपनी छाप छोड़ रहे हैं। पत्रकारिता तो है ही मगर हमारी एक अटूट पहचान य़ह है कि हम हिन्दी मेले से बोल रहे हैं और यह पहचान काफी है। मीडिया और सांस्कृतिक जगत में बगैर मान्यताप्राप्त पत्रकारों के लिए जगह तो है मगर पहचान नहीं...हिन्दी मेले की ओर से दिया जाने वाला पत्रकारिता, शिक्षा और नाट्य सम्मान इस कमी को पूरा करता है। 

लगभग 20 साल तो हो रहे हैं मगर समाज को एक स्वस्थ और संवेदनात्मक वातावरण देना है तो ऐसे एक नहीं कई मेलों की जरूरत है। कम से कम इस मुहिम को मजबूत बनाना समय की ही नहीं हमारी भी जरूरत है....आइए न हाथ बढ़ाएं। जो जा चुके हैं....एक बार फिर लौटें....अपना मेला तो अपना ही है न तो आइए एक बार.....फिर अपनी जड़ों की ओर...

मंगलवार, 7 नवंबर 2017

मालदा...जिन्दगी की जद्दोजहद और हकीकत से एक मुलाकात


हम पत्रकारों के काम की सबसे अच्छी बात यह है कि हमारी पत्रकारिता हमें कभी पुराना नहीं पड़ने देती। नए लोगों से मिलना, नये अनुभव और हर बार कुछ नया सीखना...हमें नया रखता है। नयी जगहों पर जाना होता है और हमारे दायरे में बंगलों से लेकर झोपड़ियां तक होती हैं। पहले भी कई जगहों पर जाना हुआ है और दूसरे शहरों में भी गयी हूँ मगर कुछ असाइनमेंट ऐसे होते हैं जिनको कभी भूला नहीं जा सकता। वहाँ जाकर आप देखते ही नहीं, कुछ नया सीखते हैं और निराश होते जीवन में एक नयी उम्मीद और जीजिविषा जाग उठती है।

 यूनिसेफ और तलाश के बाल फिल्मोत्सव में जाना एक ऐसा ही अनुभव रहा। शहर की चकाचौंध से बाहर जिन्दगी से मुलाकात हुई और मुश्किल हालात में जी रहे लोगों को देखकर अब लग रहा है कि हमारी मुश्किलें तो कुछ भी नहीं हैं...जिन्दगी को देखने का नजरिया भी बदलता जा रहा है। शहरों में रह रहे लोगों के लिए गांव एक पिकनिक की तरह है और गाँव के लोग शहरों को खासी उत्सुकता से देखते हैं। उनके लिए कोलकाता से आने वाले लोग बहुत अद्भुत होते हैं और जब आप पत्रकार हों या मीडिया से हों तो यह उत्सुकता और बढ़ जाती है। एक दूरी सी बन गयी है जिसे पाटना जरूरी है मगर यह इतना आसान नहीं है। 
एक अच्छी जिन्दगी के लिए सुविधाएं जरूरी है या खुश रहने का सलीका होना जरूरी है। मुश्किल जिन्दगी के बीच से अपने हिस्से का रास्ता निकाल लेना और उस पर चलना इतना आसान नहीं है। कम सेे कम लड़कियों के लिए तो बिलकुल नहीं, जिनको हर कदम पर दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ती हैं मगर ये लड़कियां लड़ भी रही हैं, जीत भी रही हैं और जी भी रही हैं। बच्चों को हर आगंतुक का इंतजार रहता है। चॉकलेट, कैैमरा और स्टेशनरी भी इनको खुश कर देने के लिए काफी है। टूटा स्कूल और झूले इनको नेमत लगते हैं और वेे खिलखिलाकर हंस पड़ते हैं तो मुश्किलें भी शरमा जाती होंगी। एक ऐसी जगह जहाँ विकास की हवा पहुँची न हो..जहाँ पर एक पक्का मकान एक लक्जरी लग रहा हो...टूटे स्कूल और टूटी सड़कें हों....और हों धान के खेत....हरे – भरे खेत....क्या हम ऐसी जिन्दगी गुजार सकते हैं...इंटरनेट से दूर...मोबाइल से दूर...एफ एम (जिसके बिना कम से कम मेरा तो रहना मुश्किल है)....और वहाँ कोई निराशा नहीं...ये मेरे लिए सुखद आश्चर्य था...।
गांव को करीब से देखना था। वैसे यह मेरी पहली ऐसी यात्रा नहीं थी मगर इस बार मैंने उस जिन्दगी को जरा और करीब से देखा जिसे अब तक किताबों में पढ़ती आ रही थी। फिर भी ये सच तो था कि थोड़े दिन के लिए आना और बगैर किसी सुविधा के इन बच्चों तक पहुँचना, पूरे ग्रामीण समाज को समझाना, बच्चों को साथ लाना, ये सब इतना आसान नहीं था...तो मुझे ऐसे किसी सफर का इंतजार था। ऐसे में जब मौका मिला तो यह मनचाही मुराद के पूरी होने जैसा था। कोलकाता के प्रेस क्लब के पास हम एक साथ आए।
आखिरकार रविवार 29 अक्टूबर की दोपहर को हमारी यात्रा आरम्भ हुई। इस कार्यक्रम का मीडिया प्रभार लॉन्चर्ज के हाथ में था...शगुफ्ता और राजीव से अच्छी दोस्ती है..और इतने सालों में एक अच्छी समझ भी बनी है। वे पी आर प्रोफेशनल से कहीं अधिक दोस्तों जैसे हैं इसलिए असुविधा तो नहीं थी...इस पूरी मीडिया टीम में मैं अकेली लड़की थी और इसी वजह से रिया को भी लॉन्चर्ज ने भेजा जो मेरी रूम मेट थी...मैं जितनी बक –बक करती...वह लड़की उतनी ही शांत...थी...उम्मीद थी कि रात 10 बजे तक हम होटल पहुँच जाएंगे....मगर ये उम्मीद ही थी। 
हम उत्तर 24 परगना जिले से होते हुए ही जा रहे थे...शाम का ढलता सूरज कार से बेहद खूबसूररत लग रहा था....रास्ते में धान के खेत...नदी....छोटे हाट – बाजार...हाई वे से गुजरते हुए ग्रामीण जीवन का नजारा देखा मगर दूर से। शाम को 5 बजे कार रुकी और वहाँ पर सब चाय पीने उतरे...मेरा मन नहीं था...इसलिए बैठी रही...। रात 8 बजे एक और होटल में चाय के साथ समोसे मिले...थकान थोड़ी दूर हुई।

इतने खूबसूरत प्राकृतिक दृश्य महानगर में कहां मिलते हैं? एक अलग ही दुनिया थी और मुर्शिदाबाद की गलियों में नाइट वॉक करना तो एक अलग ही अनुभव था...रात को सड़कों पर टहलना भी लड़कियों के लिए एक आजादी ही है और वह आजादी मुझे महानगर में नहीं...शोर – शराबे से दूर जिले की गली में मिली। एक पल को लगा कि वही ये सड़क मेरी है...जैैसा कुछ हो। सच तो यह है कि सड़कें और रातें तभी सुरक्षित हो सकती हैं जब लड़कियां भी सड़कों पर उतनी ही आजादी से उतरें...लड़कियों के लिए अगल कैब परिसेेवा हो तो उनकी भागीदारी और बढ़ेगी मगर जिलों में कैब नहीं मिलती। टैक्सी भी नहीं मिलती तो होटल तो समय पर पहुँचना था मगर उस समय लगा कि वक्त थोड़ी देर और थम जाता....वह रोमांच भूलना मुश्किल है...और सच तो यह है कि अपने हिस्से की यह रात मैं भूल भी नहीं पाऊंगी....वह रात वाला अड्डा।
इस एक लम्हे को खुलकर जीया...क्या पता ऐसी वॉक फिर मिले या न मिले...मन में आया बस घूमते ही रहें मगर....होटल जाना था...और भूख भी लग गयी थी...किसी तरह एक ढाबा मिला और मैं ठहरी शाकाहारी...रात के 11.30 बजे रोटी और पनीर मिलना हमारे लिए छप्पन भोग मिलने के बराबर था। रात को 1.30 बजे फरक्का बाँध के पास से जब कार गुजरी तो अंधेरा और सन्नाटा, दोनों हमारा इंतजार कर रहे थे...रोमांच....पानी का तेज बहाव और उसकी दहाडती आवाज सन्नाटे को चीर रही थी...अंधेरे में सिर्फ सुना...देखना तब नहीं हो पाया..। खोजते – खोजते भोर 3 बजे हम होटल पहुँचे...।

 हम होटल कलिंगा में ठहरे थे...मैं और रिया एक साथ थे..और बाकी लोग अलग – अलग कमरों में। भूख लगी थी मगर खाना कुछ ज्यादा था...सेहत का ख्याल था...जितना खाया जा सका..उतना खाकर सो गयी। मालदा का विकास अब तक नहीं हो पाया है...जबकि यहाँ बड़े – बड़े नेताओं को प्रतिनिधि बनने का मौका मिला है मगर विकास की राह से यह जिला बहुत दूर है। मालदा के जनप्रतिनिधि सत्ता में भी रहे हैं मगर इसका फायदा यहाँ की जनता को कम से कम अब तक तो नहीं मिला। टाउन की सड़कें पर गायें खूब घूमती हैं और जिन काली ऑटो पर कोलकाता में प्रतिबंध है....उनका यहाँ एकछत्र राज्य  है...वहाँ कोई टैक्सी और कैब हमें नहीं मिली। कहीं जाना हो तो टोटो भी चलती है। 

हमारा होटल एन एच 34 के पास रामकृष्ण पल्ली पर था...वहाँ हमारा ठहरना भर ही हुआ क्योंकि भोजन तो कहीं और ही करना था। अच्छी बात यह थी कि वहाँ शाकाहारी भोजन मिलता है और लॉन्चर्ज की ओर से राजीव ने इसका पूरा ख्याल भी रखा...वैसे वह खुद भी शाकाहारी ही है...नाश्ते की तलाश में हम सोमवार 31 अक्टूबर की सुबह 9.30 बजे होटल से बाहर निकले..। थोड़ी दूर जाने पर हमें सपन दा की लुची आलूदम की दुकान क्या मिली..मनचाही मुराद मिल गयी..सपन पोद्दार की दुकान पर हमने लूची आलूदम खाया...जो बेहद स्वादिष्ट था...बगैर मसाले की आलू की सब्जी भी लाजवाब हो सकती है....।


हम जिस बाल फिल्मोत्सव में आए थे...वह मालदा टाउन के मालदा कॉलेज सभागार में दोपहर 12 बजे होना था मगर उसका समय दोपहर 2 बजे हो गया था। आराम करने का पूरा वक्त मिला तो था मगर मालदा में एक सहेली से मिलना था और मैं जुगाड़  लगाने में लगी रही। हम कार्यक्रम स्थल पर आ गए और फिर खाने की तलाश में मालदा परिभ्रमण शुरू हुआ पर ज्यादा नहीं घूमना पड़ा। हाथ में घंटे भर का समय था और काम आ गए गूगल अंकल...पास ही 420 मोड़ मिला और थोड़ी दूर जाने पर मिस्टर एंड मिसेज इडली...।

यह एक रेस्तरां था और ऐसा रेस्तरां मिलना हमारे लिए खुशखबरी ही था। इसका इंटीरियर और सर्विस अच्छी थी..और डोसा मजेदार...खाने का इंतजाम हुआ और हमने छककर खाया...नाम ने ही हमारा मूड अच्छा कर दिया था..खैर समय पर आ गए और कार्यक्रम शुरू होने से पहले..।
 यह फिल्मोत्सव बहुत अच्छा और नया था क्योंकि सारी व्यवस्था बच्चों ने की थी और 30 बच्चों की कमेटी थी जो ये सब सम्भाल रही थी। कार्यक्रम संयोग से दोपहर 3.30 बजे ही समाप्त हो गया और पास से ही मैंने गाजोल की बस ले ली...। 
रास्ते में अपर्णा से मिली...और गौड़बंग विश्वविद्यालय की स्थिति का पता चला। बस महानंदा नदी के ऊपर से गुजरी...नदी का हृदय कितना विशाल होता है...इंसानों का बोझ अपने सीने पर लिए बहती रहती है....बस चलती रही और घंटे भर में मैं गाजोल पहुँची। 
अपनी दोस्त की ससुराल....ये डेढ़ घंटे का समय समूची यात्रा की उपलब्धि बन गया। होटल पहुँचते हुए रात के 8 बज गए थे। शाम को नाश्ता इतना किया  था कि खाने का मन नहीं हुआ...सुबह उठना था तो निद्रा देवी को बुला लिया। 
अगले दिन हम ओल्ड मालदा के नारायणपुर स्थित झांझरा जाने वाले थे...मंगलवार की सुबह 8 बजे....हम तैयार थे। 
ये जगह हमारे होटल से ज्यादा दूर नहीं थी..। सुबह का मंजर...और मालदा का ट्रैफिक जाम भी कुछ ऐसा ही था..यहाँ कैब नहीं बल्कि बड़े ट्रक थे..बसें थीं और बसों की छतों पर सवार लोग थे...। किसी भी जगह के विकास में परिवहन व्यवस्था का मजबूत होना कितना जरूरी है..वह मुझे पता चल रहा था। जगह पास भले हो.मगर रास्ता उबड़ – खाबड़ था.....मिट्टी के घर  थे...गाएं थीं...बच्चों के तन पर कपड़े नहीं थे...झांझरा में वह एक स्कूल था जिसकी हालत खस्ता थी..। हम यहाँ मिले विभिन्न ब्लॉकों से आए बच्चों से जो अपने साथ पूरे समाज की लड़ाई लड़ रहे थे। लड़कियां थीं जिन्होंने अपने बाल विवाह रुकवाए और लड़के थे जो दूसरे लड़कों को जागरुक बना रहे थे...तलाश और यूनिसेफ ने बदलाव की शुरू की थी। वह दूसरे लड़कों को समझा रहे थे...कुछ ने नाम नहीं बताए मगर अपनी कहानी बतायी,,,अपना संघर्ष साझा किया..वहीं पर शम्पा मिली जिसने खुद अपनी शादी रुकवाई। अपनी पढ़ाई का खर्च निकाला और अपने पैरों पर खड़े होने का सपना लिए काम किए जा रही है। अभी वह तलाश से जुड़ी है। शम्पा को राज्य सरकार की ओर से वीरांगना पुरस्कार मिला था...कुल मिलाकर अनोखा और प्रेरक अनुभव...ऐसे बच्चों के लिए आदर और बढ़ गया जो शहर की तमाम सुविधाओं से वंचित थे मगर उनमें हताशा कहीं नहीं थी...वे बस बदलने का सपना देख रहे थे और उसे पूरा भी कर रहे थे। हमने ढेर सारी तस्वीरें खिंचवाईं।

वापस लौटने की तैयारी तो कर ही चुके थे। होटल में सामान पैक हो चुका था..बस अब तो मालदा को विदा कहना था...दोपहर को एक रेस्तरां में भोजन हुआ...और हम निकल पड़े वापस उसी दुनिया में जहाँ हमें लौटना था....जो हमारी कर्मस्थली थी और जहां हम अपने हिस्से का काम कर रहे थे। हम निकले और हाई वे के साथ जाम में भी फंसे...सड़क एक लेन वाली थी और अलग से निकलने का तो कई रास्ता ही नहीं था मगर उस दौरान भी काफी कुछ देखा...शरारतेें देखीं....मस्ती देखी और उस जाम की खीझ में भी हंसी आ गयी। पेड़ पर बैठते...बेपरवाही से छुट्टी के बाद घर भागते बच्चे....वहाँ मोटरसाइकिल थी मगर जिलों में हेलमेट बहुत कम दिखते हैं और सेफ ड्राइव और सेफ लाइफ.....वह तो कोलकाता में भी कहां हैं...लोग निकलते रहे...और जाम हटने के बाद हम भी चल पड़े।

बुधवार, 27 सितंबर 2017

बीएचयू के वीसी,शिक्षकों, छात्रों और वहाँ के लोगों के नाम खुला पत्र

महानुभव,

आदरणीय तो आप हैं ही नहीं और सम्मान देने के लायक नहीं हैं इसलिए बात सीधे शुरू कर दें। मैं बंगाल से हूँ और कलकत्ता विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा हूँ और मुझे इस बात का गर्व है। आपको देखकर अपने शिक्षकों, वाइस चांसलरों और बंगाल की जनता के प्रति गर्व और बढ़ गया है। बीएचयू का नाम बहुत सुना था, जब भी कोई बीएचयू की बात करता तो उसमें एक अकड़ होती कि वह सर्वश्रेष्ठ है। 

केन्द्रीय विश्वविद्यालय है, विशाल परिसर है, अनुदान की कमी नहीं है तो नाम तो होना ही है। आप महामना के सम्मान को लेकर चिन्तित हैं और अपनी कारगुजारियों को ढकने की कोशिश में जुटे हैं। मैं एक बात कहूँ, उनका सम्मान पूरा देश करता है मगर एक बात सत्य है कि आप अपनी छात्राओं के साथ जो कर रहे हैं, उसे देखकर वे सबसे पहले आपको पद से हटाते। त्रिपाठी जी, आपने शायद नहीं सिखा मगर किसी भी शिक्षक, प्रिंसिपल और वाइस चांसलर के लिए उसके विद्यार्थी बच्चों की तरह होते हैं, गुलाम नहीं जैसा कि आप समझ रहे हैं। 
आपमें यह गुण है ही नहीं। आपने कहा कि "अगर हम हर लड़की की हर मांग को सुनने लगें तो हम विश्वविद्यालय नहीं चला पाएंगे। मैं कहती हूँ तो फिर आप कुर्सी पर बैठे कर क्या रहे हैं? जब आप इस पद पर हैं तो हर एक विद्यार्थी की बात सुनना, समझना और उनका ख्याल रखना आपका पहला दायित्व है। अपनी योग्यता का प्रमाणपत्र देते हुए आपको थोड़ी सी शर्म आई होती तो अच्छा था। आपको पता है हमारे यहाँ विद्यार्थियों के प्रदर्शन आए दिन होते रहते हैं।
 वाइस चांसलरों को ताले में बंद कर दिया जाता है मगर इस अति के बावजूद आज तक किसी वीसी ने विद्यार्थियों के इस अधिकार को चुनौती नहीं दी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर थे सुरंजन दास, आपको पता है...यहाँ के राजाबाजार साइंस कॉलेज में जब प्रदर्शन हुआ और झड़प हुई तो वे रात भर विद्यार्थियों के साथ रहे, उनसे बात की और उनकी माँगें पूरी करके ही निकले। सीयूू में एक और वीसी थे सुगत मार्जित, बेहला के एक कॉलेज में जब प्रदर्शन हुआ तो उस गर्ल्स कॉलेज में गए और वहाँ एक छात्रा ने उनको धक्का दिया। जाहिर है कि छात्रा की ये हरकत निंदनीय थी। वीसी चाहते तो उसके खिलाए कार्रवाई कर सकते थे मगर पता है, उन्होंने ऐसा कुुछ नहीं किया और बोले कि वह बच्चे हैं, बच्चों को समझने की जरूरत है। 

आप तो ये सोच ही नहीं सकते क्योंकि आपकी नजर में वाइस चांसलर एक शासक है और विद्यार्थी उसके गुलाम। आप ही की तरह एक हिटलर यहाँ हुए, अभिजीत चक्रवर्ती....उन्होंने विद्याथिर्यों पर आधी रात को लाठियाँ भंजवायी थीं, इसके बाद पता है क्या हुआ....सारे शिक्षकों ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया, प्रो. वाइस चांसलर सिद्धार्थ दत्त ने वीसी के विरोध में अपने पद से इस्तीफा दे दिया...ये होता है वह शिक्षक जो अपने बच्चों पर अन्याय होते नहीं देख सकता। जेयू में महीनों आन्दोलन चला और होक कलरव बंगाल का जन आन्दोलन बन गया....मुझे तो लगता है कि न तो आपके शिक्षकों में और न ही बनारस की जनता में अन्याय के प्रतिकार का साहस बचा है....बंगाल इसलिए ही बंगाल है.....मुझे लगता है कि शिक्षकों के गुण सीखने हों तो आपको बंगाल आकर यहाँ के शिक्षकों से सीखना चाहिए कि विद्यार्थियों को किस तरह समझा जाता है और धैर्य के साथ उनकी गलतियों को कैसे रोका जाता है। 
आपने अपने छात्रों को नहीं रोका बल्कि लड़कियों को ही समय बता दिया...हद है त्रिपाठी जी.... "यह अच्छा है कि एमएमवी और त्रिवेणी लड़कियों के हॉस्टल के लिए कर्फ्यू समय रात 8 बजे है, एक अन्य लड़कियों के छात्रावास में तो यह शाम 6 बजे है। आपको शर्म नहीं आयी, मैं तो बस कल्पना ही कर रही हूँ कि आप अपने घर में स्त्रियों के साथ कैसा बर्ताव करते होंगे...और ये भी समझ में आया कि बनारस में महिलाओं के पीछे रह जाने के पीछे आप जैसे कईयों की ऐसी जड़ मानसिकता ही है। शर्म कीजिए कि आप अपने परिसर को इस लायक नहीं बना सके कि लड़कियाँ ही नहीं बल्कि हर कोई आपके परिसर में बेखौफ होकर घूम सके। रैंगिंग हमारे यहाँ भी होती है मगर यहाँ अपराधी छात्रों का मनोबल नहीं बढ़ाया जाता बल्कि कार्रवाई होती है...कैसे होती है...ये भी सीखना चाहिए आपको। माफ कीजिएगा....हम सबकी नजर में आप एक शैक्षणिक डिग्री प्राप्त पिछड़े हुए जाहिल इन्सान हैं।  
आपने कहा कि "लड़कों और लड़कियों के लिए सुरक्षा कभी भी समान नहीं हो सकती।" आप अब भी उसी पुरातन युग में जी रहे हैं और आउटडेड मानसिकता वाले हैं....इस लोकतांत्रितक देश में लड़कियों के भी उतने ही अधिकार हैं और आपकी लंका (बीएचयू में जो हरकतें हुई हैं, उसके बाद यही नाम सही है) के असुर इस देश की सीमा में ही आते हैं, जरा सा संविधान पढ़िए....वैसे इस देश की रक्षामंत्री एक महिला ही हैं तो क्या आप ये दिव्य ज्ञान क्या उनको भी देने वाले हैं...महानुभव आगे बढ़ने का अधिकार देवियों को भी है। वैसे हम बता दें कि होक कलरव आन्दोलन भी रैंगिंग और 2 लड़कियों के साथ छेड़छाड़ की घटना को लेकर ही शुरू हुआ था। 
आपने कहा कि "सबसे पहले, यह यौन उत्पीड़न की घटना नहीं है, यह एक छेड़छाड़ का मामला है।"  त्रिपाठी जी अनचाहे स्पर्श का दंश और दहशत क्या होता है....आपको शायद ही पता हो मगर एक सवाल तो बनता है कि आपकी बेटी के सामने कोई जींस खोलकर खड़ा हो जाए और उसके कुरते में हाथ डाले तो भी क्या आप यही फार्मूला लागू करेंगे....मुझे संदेह है कि आपमें पिता वाली संवेदना शेष है या नहीं। आप बोले कि ­ "कभी-कभी मुद्दे होते हैं और कुछ मुद्दे पैदा होते हैं. यह मुद्दा बनाया गया था. मुझे लगता है कि यह समस्या बाहरी लोगों द्वारा बनाई गई थी और जो इस मामले ने अंत में जो आकार लिया वह प्रारंभिक घटना से भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है।" 

जब लोग बाहरी थे तो 1200 छात्राओं के खिलाफ एफआईआर क्यों वीसी साहेब?

बीएचयू की छात्राओं ने दावा किया है कि विश्वविद्यालय में कोई लड़की नहीं है जिसे परिसर में परेशान ना किया गया हो या फिर उसके साथ छेड़छाड़ ना हुई हो. लेकिन, आपके पास एक अलग ही कहानी है। दरअसल, आप ही अनोखे हैं। छेड़छाड़ और उत्पीड़न आपके लिए सामान्य घटना है तो बलात्कार तो बिलकुल तुच्छ घटना होगी...जरा सोचिए अगर आपको पीट देना भी विद्यार्थियों के लिए अति सामान्य घटना हो जाए तो आप क्या करेंगे...इतना अहंकार किस बात का....?
आपने कहा कि सिंह द्वार पर धरने की आड़ में मदन मोहन मालवीय  की प्रतिमा पर कालिख डालने का कुछ अराजक तत्वों ने प्रयास किया है. यह कृत्य राष्‍ट्र द्रोह से कम नहीं है। अब जरा ये बताइए कि जिस देश में स्त्री शक्ति हो, वहाँ महामना के नाम पर बने परिसर में लड़कियों का उत्पीड़न, सामूहिक छेड़छाड़ किस श्रेणी के राष्ट्रप्रेम में आता है। 

मुझे तो सन्देह है कि मामले पर परदा डालने के लिए ये कांड आप ही ने करवाया है कि लाठीचार्ज के आरोपों को दबा सके....मगर इतना जान लीजिए कि इतना आसान नहीं है  कि आप आवाजों को दबा सकें। पता है, इस देश की समस्या ही यही है, मूर्तियों की पूजा करते हैं और जीवित लड़कियों को या तो जलाते हैं या फिर उनका बलात्कार होता है....अगर करना ही है तो इन लड़कियों को बंधन से आजाद कर सुरक्षा दीजिए....क्या पता आपके थोड़े पाप धुल ही जाएँ।

आप कहते हैं कि प्रोफेसर त्रिपाठी ने यह भी कहा कि परिसर में पर्याप्त सुरक्षा के उपाय हैं। फिर भी लड़कों और लड़कियों की सुरक्षा कभी भी समान नहीं हो सकती। लड़कियों के लिए बाहर निकलने का समय रात 8 बजे तक है और लड़कों के लिए रात 10 बजे लेकिन यह दोनों की सुरक्षा के लिए है। अगर हम हर लड़की की हर मांग को सुनेंगे तो हम विश्वविद्यालय को चलाने में सक्षम नहीं होंगे। ये सभी नियम उनकी सुरक्षा के लिए हैं। सभी छात्राओं के पक्ष में हैं।' 

सड़कें और विश्वविद्यालय परिसर किसी एक की सम्पत्ति नहीं हैं....आपने कैसे तय कर लिया कि लड़के 10 बजे तक और लड़कियाँ 8 बजे तक पढ़ेंगी....आप भूल गए कि यह देश आजाद है और हम लड़कियों को समय सीमा में बाँधने का अधिकार आपको नहीं है.....अगर नियम हैं तो सबके लिए एक जैसे होने चाहिए। कभी बंगाल आइए और देखिए कि किस तरह अड्डा जमता है और लड़कियाँ बेखौफ होकर बात करती हैं.....किस तरह अपनी जिन्दगी को जीती हैं....आपको सीखने की जरूरत है। आपको किसने हक दे दिया कि आप समय की बंदिशों में आजादी को बाँधें।
आप बोले -'प्रधानमंत्री आने वाले थे इसलिए मुझे लगता है कि ये सब कराया गया है।' उन्होंने कहा कि इस मुद्दे ने जो आकार लिया, वह प्रारंभिक घटना से भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है।" अगर ऐसा है तो यह निहायत शर्मनाक बात है क्योंकि अगर प्रधानमन्त्री अपने संसदीय क्षेत्र में रहकर भी लड़कियों से नहीं मिलते तो यह निहायत दुर्भाग्यपूर्ण है।

अगर योगी आदित्यनाथ के पास अपने ही राज्य की जनता की बात सुनने का समय नहीं है तो उनको पद छोड़ देना चाहिए....मैं ममता बनर्जी को पसन्द नहीं करती मगर ये बात तो है कि वे मिलती हैं विद्यार्थियों से, शिक्षकों से, उनकी बात सुनती हैं और जेयू पहुँचकर खुद बात करती हैं। मुझे विश्वास है कि अगर पीएम जाते तो लड़कियों को एक हौसला मिलता और जब वे बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ की बात करते हैं तो यह और जरूरी हो जाता है मगर अफसोस उन्होंने ऐसा नहीं किया। आप बंगाल आइए क्योंकि आपको ट्यूटोरियल की सख्त जरूरत है। ये भी है - 
http://www.thelallantop.com/jhamajham/some-more-issues-are-related-with-prof-girish-chandra-tripathi-who-is-vice-chancellor-of-bhu/
शिक्षकों से
आप तभी बचेंगे जब आपके विद्यार्थी बचेंगे....महामना के सम्मान के लिए मोमबत्ती लेकर खड़े हैं, अगर छात्राओं के लिए खड़े होते तो यह नौबत ही न आती....हो सके तो इन छात्राओं में अपनी बेटियों का भविष्य देखिए...कहीं ऐसा न हो कि आप अपने बच्चों से ही नजर मिलाकर बात करने के लायक न बचें। शिक्षक वो होता है जो अन्याय का प्रतिकार करना सिखाता है...झुकना नहीं। हमारे शिक्षक हमारी प्रतिभा को सामने लाने के लिए पढ़ना लड़ना सिखा रहे हैं, क्या आपने विद्यार्थियों को ऐसा कुछ सिखाया है या फिर तलवे चाटना और अभद्रता ही सिखा रहे हैं।

बेहद बदतमीज छात्रों
अपनी प्रियतमाओं को मिनी स्कर्ट और बहनों को दस हाथ के घूँघट में देखने के आँकाक्षी तुम, तुम्हारे मनुष्य होने पर संशय है....मत भूलो कि जो तुमने किया...उसका फल तुम्हारे ही सामने आएगा जब तुम खुद पिता बनोगे.....उसी दर्द से गुजरोगे, जिस दर्द से लड़कियाँ गुजर रही हैं। सोशल मीडिया पर जो अश्लील बयानवीरता तुम दिखाते हो....वह बताती है कि तुम्हारे संस्कार क्या हैं...छात्र तो तुम सब हो नहीं अपराधी ही हो। मर्दानगी का मतलब जानते भी हो या सारी मर्दानगी लड़कियों कुरते के भीतर हाथ डालने और अपने अंग प्रदर्शन में निकाल दी.....किसी एक बयानवीर का बयान पढ़ रही थी.....लड़कियाँ गिरती हैं....टाइप बोलूँगी नहीं....मगर इतना जरूर कहूँगी कि जब लड़कियाँ गिरती हैं तो उसकी कोख से ही तुम सबका जन्म होता है....जिन छातियों को निहारते और दबोचते हो.....उनका ही दूध पीकर माँ का दूध टाइप कसमें खाते हो....और तुम्हारे मर्द बनने के लिए भी कोई लड़की अपनी पूरी जिन्दगी बलिदान देती है। अगर तुम्हारी मर्दानगी तुम्हारे शरीर के किसी खास अंग के प्रदर्शन और लड़कियों को दबोचने तक सीमित है...तो अभागे और कायर हो तुम। लड़कियों के बगैर तुम कुछ भी नहीं हो.....मर्द वह नहीं होता जो खुलकर कामुकता का प्रदर्शन करता है....वह होता है कि जो लड़कियों की इज्जत करता है...अगर तुम कृष्ण को पूजते होगे तो इसलिए कि उन्होंने द्रोपदी को बचाया, जिस राष्ट्रवाद की कहानियाँ पढ़ते हो, उसे थोड़ा और गहराई से पढ़ो....पता चलेगा कि पुरुषों ने स्त्रियों के सम्मान की आधारशिला भी रखी है...राजा राममोहन राय, ईश्वरचँद्र विद्यासागर....भगत सिंह...महाराणा प्रताप....इनमें से कौन तुम सबकी तरह बेहूदा हरकतें करता था जरा बताना। आज जो तुम कर रहे हो....कल तुम्हारे साथ होगा....तब चुल्लू भर पानी में डूब मरने के लिए जगह नहीं होगी। हर विचारधारा में अच्छी या बुरी बातें होती हैं....अच्छी बातें भी सीखो और इन्सान बनो। वैसे इन दिनों प्रेसिडेंसी के विद्यार्थी प्रमोद दा का कैंटीन बचाने के लिए आन्दोलन कर रहे हैं...तुम सबने कभी ऐसा कुछ किया हो तो बताना।
 https://www.bhaskar.com/news/UP-VAR-reality-and-ground-report-of-bhu-5705195-PHO.html
बनारस के लोगों से

आपके लिए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता.....

 देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता





यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है।

देश कागज पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां, पर्वत, शहर, गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है।

इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।

जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अंधा है
जो शासन
चल रहा हो बंदूक की नली से
हत्यारों का धंधा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है।

याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।

ऐसा खून बहकर
धरती में जज्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है।
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे खून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो-
तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।

आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार।



बुधवार, 16 अगस्त 2017

इतिहास का काला अध्याय है ‘गोरखपुर बालसंहार’

 उत्तर प्रदेश इन दिनों बेशर्म बेरहमी का अखाड़ा बना हुआ है। एक मरघट लगा है जहाँ सिर्फ वे रौंदे हुए फूल पड़े हैं जिनको असमय तोड़ दिया गया और माली बिलख रहे हैं....जो हालात हैं, उसे देखकर कहना पड़ रहा है कि यह क्रन्दन खत्म नहीं होने वाला है। क्या हमारी मानसिकता इतनी वीभत्स हो गयी है कि संवेदना मात्र के लिए जगह नहीं बची। गोरखपुर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का क्षेत्र है जो इन दिनों झाड़ू लगाकर अपने गुनाहों पर परदा डालने में लगे हैं। जी, हाँ ये गुनाह ही है और इन मौतों को बालसंहार ही कहना अधिक सही शब्द है। आश्चर्य है कि यहाँ बच्चों की मौत पर भी राजनीति और लीपापोती हो रही है। मोदी ने सत्ता सम्भालते ही स्वच्छ भारत अभियान चला दिया था। झाड़ू अच्छी चीज है मगर क्या झाडू ही काफी है? गोरखपुर तो शायद पहली कड़ी है और मीडिया की नजर भी वहाँ इसलिए पड़ी क्योंकि वह खुद मुख्यमंत्री का बतौर सांसद लोकसभा क्षेत्र है, न जाने ऐसी कितनी गुमनाम मौतें रोज हो रही हैं। मोदी जी, आपका न्यू इंडिया कैसे बनेगा जब भविष्य कहलाने वाले हमारे नौनिहाल यूँ आपकी सरकार और प्रशासन की लापरवाही के हाथों असमय अपनी जान गँवाते रहेंगे। जिस प्रदेश ने बहुमत से आपकी पसन्द को चुना, क्या उसके प्रति आपका दायित्व नहीं है। योगी तो संवेदना का प्रतीक होता है, मानवता की बातें करता है, पता नहीं योगी जी कैसे संत हैं जो डंडे से हाँककर लोकतंत्र चलाना चाहते हैं। अब स्वच्छ उत्तर प्रदेश, स्वस्थ उत्तर प्रदेश का नारा दिया है और गोरखपुर में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ झाड़ू लगाकर शुरुआत करने जा रहे हैं। मुख्यमंत्री को लगता है कि सिर्फ झाड़ू लगाने से इंसेफ्लाइटिस और पूरे स्वास्थ्य महकमे में मौत बांटने वाली लापरवाही को साफ किया जा सकता है। आपने सत्ता सम्भालते ही कदम क्यों नहीं उठाया और ऑक्सीजन मुहैया करवाने वाली कम्पनी का बकाया भरा क्यों नहीं गया?
 राजनीति अपनी जगह है मगर बच्चों की लाश से होकर गुजरने वाली राजनीति चांडालों का कर्म है। पिछले साल अगर मौतें हुईं तो उससे आपके गुनाहों का परदा नहीं पड़ने वाला क्योंकि जनता ने आपको चुना ही इसलिए था कि आप वो नहीं करेंगे जो पिछली सरकार ने किया। गोरखपुर में पिछले दो दिनों में 35 और बच्चों की मौत हो चुकी है. मेडिकल कॉलेज में 10 से 12 अगस्त के बीच 48 घंटे में 36 बच्चों की मौत पर डीएम की जांच रिपोर्ट सामने आ गई है। कुछ बातों पर सोचने के लिए नेता नहीं बल्कि एक मनुष्य होकर सोचने की जरूरत है। अमित शाह जी, क्या आपके घर में अगर ऐसा होता तो क्या आप यही राग अलापते जो अभी अलाप रहे हैं। आपके कान में वे हृदय विदारक चीखें नहीं गूँज रहीं, क्या आपकी आँखों के सामने दम तोड़ते बच्चे नहीं दिख रहे? यह सही है कि राजनीति क्रूर बना देती है, आपको चाणक्य कहा जाता है, चाणक्य भी निर्मम थे मगर वे संवेदनहीन कतई नहीं थे। आपकी राजनीति संवेदनहीनता की पराकाष्ठा पार कर चुकी है। हो सकता है कि सत्ता में जोड़तोड़ कर आप फिर सरकारें बनवा लें मगर इतिहास में आपका नाम क्रूरता के लिए दर्ज होगा। सत्ता को किसी तरह हासिल करना मात्र आपकी सफलता का मानक नहीं हो सकता क्योंकि शासन में एक दायित्व भी होता है। अगर शासन के साथ आप अपनी सरकारों में दायित्व बोध और लोकतांत्रिक नेतृत्व क्षमता नहीं भरते तो यह आपकी सरकारों से अधिक आपकी विफलता है। उत्तर प्रदेश के सीएम से लेकर स्वास्थ्य मंत्री तक ये कह चुके हैं कि बच्चों की मौत ऑक्सीजन की सप्लाई रुकने से नहीं हुई है, लेकिन डीएम की रिपोर्ट इन दावों पर गंभीर सवाल उठा रही है। 
गोरखपुर के मेडिकल कॉलेज में 36 बच्चों की मौत पर डीएम की बनाई कमेटी की जांच रिपोर्ट में कई खुलासे हुए हैं। ऑक्सीजन सप्लाई कंपनी पुष्पा सेल्स ने लिक्विड ऑक्सीजन की आपूर्ति बाधित की, जिसके लिए वो जिम्मेदार है। लिक्विड ऑक्सीजन की सप्लाई लगातार होती रहे, इसके प्रभारी डॉक्टर सतीश हैं, जो अपना कर्तव्य ना निभाने के पहली नजर में दोषी हैं। ऑक्सीजन सिलेंडर का स्टॉक संभालने की जिम्मेदारी भी डॉक्टर सतीश पर हैं, जिन्होंने लॉग बुक में एंट्री ठीक समय से नहीं की. ना ही प्रिंसिपल ने इसे गंभीरता से लिया। प्रिंसिपल डॉक्टर राजीव मिश्रा को पहले ही कंपनी ने ऑक्सीजन सप्लाई रोकने की जानकारी दी थी, लेकिन दस तारीख को वो मेडिकल कॉलेज से बाहर थे। प्रिंसिपल के बाहर रहने पर सीएमएस, कार्यवाहक प्राचार्य, बाल रोग विभाग के प्रमुख डॉ कफील खान के बीच समन्वय की कमी थी। लिक्विड ऑक्सीजन कंपनी के भुगतान के बारे में आगाह करने के बावजूद और 5 अगस्त को बजट मिल जाने के बाद भी प्रिंसिपल को जानकारी ना देने के लिए लेखा अनुभाग के कर्मचारी दोषी हैं। मतलब यह है कि सारा ठीकरा अधिकारियों के सिर पर मढ़कर खुद को पाक – साफ घोषित कर दिया। दोष तो है, दोष पूर्व अखिलेश सरकार का भी है जिन्होंने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया।
इस बीच पिछले 48 घंटे में गोरखपुर के मेडिकल कॉलेज में 35 और बच्चों की मौत हुई है। मीडिया के यह पूछे जाने पर कि इन बच्चों की मौत किस कारण हुई, जब ये सवाल प्रिंसिपिल पी के सिंह से पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘’बीते दिन 24 बच्चों की मौत हुई है.जब इनसे पूछा गया कि क्या आपके पास इंसेफेलाइटिस को लेकर कोई डाटा है तो उन्होंने कहा, ”नहीं मेरे पास टोटल वॉर्ड का डाटा है।
अब यहां पहला सवाल उठता है कि जब बच्चों की मौत के जो नए मामले आए हैं, उनकी सीधी वजह प्रिंसिपल तक नहीं बता पा रहे हैं तो स्वास्थ्य मंत्री और मुख्यमंत्री ने किस मशीन से जांच लिया था कि 36 बच्चों की जान ऑक्सीजन के ठप होने से नहीं हुई।
दूसरा सवाल खड़ा होता है कि अगर सरकार कहती है कि ऑक्सीजन सप्लाई ठप होने से बच्चों की मौत हुई नहीं तो डीएम की जांच रिपोर्ट में सीधे पहला दोषी ऑक्सीजन देने वाली कंपनी को क्यों माना गया ?
ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली कंपनी को दोषी क्यों माना जा रहा है,जबकि वो 6 महीने से गोरखपुर से लखनऊ तक बकाया भुगतान की जानकारी दे रही थी?  जांच रिपोर्ट में सिर्फ ऑक्सीजन सप्लाई कंपनी, प्रिंसिपल और डॉक्टर ही दोषी क्यों, जबकि स्वास्थ्य मंत्रालय के सचिव तक को बकाया बाकी होने की जानकारी थी ? जांच रिपोर्ट कहती है कि ऑक्सीजन की आपूर्ति जीवन रक्षक कार्य है, तो क्या कोई कंपनी अपने घर से ऑक्सीजन देगी, जबकि छह महीने से कंपनी 63 लाख के बकाए की जानकारी दे रही थी।
गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल में 10 अगस्त की शाम ऑक्सीजन सप्लाई का रुक गई थी. जिसकी वजह से 36 बच्चों की मौत हो गई थी। बताया गया कि जब अस्पताल में ऑक्सीजन की सप्लाई रुकी थी और बच्चों की जान सिर्फ एक पंप के सहारे टिकी हुई थी। अस्पताल में ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली कंपनी का 66 लाख रुपए से ज्यादा बकाया था। इस मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन सप्लाई का जिम्मा लखनऊ की निजी कंपनी पुष्पा सेल्स का है। यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि तय अनुबंध के मुताबिक मेडिकल कॉलेज को दस लाख रुपए तक के उधार पर ही ऑक्सीजन मिल सकती थी। एक अगस्त को ही कंपनी ने गोरखपुर के मेडिकल कॉलेज चिट्ठी लिखकर ये तक कह दिया था, कि अब तो हमें भी ऑक्सीजन मिलना बंद होने वाली है।
सरकारी दावे और पीड़ितों के बयान में अंतर
 महज 5 दिनों में ऑक्सीजन की कमी से जिन बच्चों की मौत हुई उनमें से कई तो कुछ दिन पहले ही पैदा हुए थे. इनमें से एक थी कुशीनगर की सारिका जो कई दिनों से यहां ज़िंदगी और मौत से लड़ रही थी. सारिका और जान गंवाने वाले कई बच्चों के माता-पिता ने सरकार के इस दावे को ग़लत बताया है कि ऑक्सीजन की कमी की समस्या एक ही बार हुई जो 10 अगस्त की शाम से शुरू हुई और अगली सुबह तक ठीक कर ली गई.

बता दें कि बेबी सारिका का जन्म गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में हुआ लेकिन समय से पहले, लिहाज़ा उसे अस्पताल की निगरानी में रखना पड़ा. बीते सत्रह दिन से वो अस्पताल के जनरल वॉर्ड और आईसीयू के बीच घूमती रही, लेकिन परिवार ने फिर भी उम्मीद नहीं छोड़ी. मगर गुरुवार की शाम पांच बजकर दस मिनट पर कार्डियो रेस्पिरेटरी फेल्योर से उसकी मौत हो गई. इसके ठीक दो घंटे बाद ही बाल्य रोग विभाग में ऑक्सीजन की कमी की दिक्कत सामने आई. सरकार ने कहा, ऐसा एक ही बार हुआ जिसपर कुछ घंटे में ही काबू पा लिया गया लेकिन अस्पताल के आईसीयू में कई दिन से परेशान सारिका के पिता और अन्य रिश्तेदार इस दावे को झुठला रहे हैं। उनका कहना है कि दो दिन पहले भी ऑक्सीजन की सप्लाई में काफ़ी कमी आ गई थी। बेबी सारिका के पिता अजय शुक्ला ने बताया दो दिन पहले एनआईसीयू वार्ज के ठीक बगल में 8 अगस्त को ऑक्सीजन सप्लाई बोर्ड पर लाल लाइट बीप कर  रही थी. उन्होंने कहा कि मेरे भतीजे ने मुझसे यह पूछा भी था कि यह क्या है। हमें बाद में पता चला कि यह ऑक्सीजन कम होने का अलार्म है.

दूसरे पीड़ित अभिनीत शुक्ला ने बताया कि वहां पर पूरा अफरातफरी का माहौल था. सुबह से ही कई मौतों की खबरें आ रही थीं। हर मरीज का रिश्तेदार इस बात को लेकर चिंतित था कि आखिर इतनी मौतें क्यों हो रही हैं। गुरुवार को आधी रात और सुबह साढ़े छह बजे के बीच छह बच्चों ने दम तोड़ा. इसके बाद दोपहर डेढ़ बजे से अगले साढ़े तीन घंटे में पांच और बच्चों की जान चली गई.


29
साल के सुनील प्रसाद की साढ़े तीन साल की बेटी थी. नाम शालू था. शालू बच्चों के आईसीयू में गई तो बाहर नहीं आई. शुक्रवार तड़के जब अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी थी तो उसने दम तोड़ दिया। परिवार उन आख़िरी दर्दभरे लम्हों को कभी भूल नहीं पाएगा जब वो एक एक सांस के लिए संघर्ष कर रही थी। सुनील प्रसाद का कहना है कि अगर उन्हें पता होता कि ऑक्सीजन की कमी है तब वह कभी भी यहां पर बेटी को लेकर नहीं आते। उनका कहना है कि जब मुझे बाद में पता चला कि ऑक्सीजन की कमी थी तब मैं कुछ समझ पाया.
यह अलग बात है कि यूपी सरकार और अस्पताल प्रशासन इस बात से इनकार कर रहा है कि वहां पर किसी प्रकार से ऑक्सीजन की कमी थी, वहीं पीड़ितों का कहना है कि सरकार इस मामले में जल्द से जल्द निष्पक्ष जांच कराए

जले पर नमक छिड़कने का काम राज्य के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह कर रहे हैं तो दूसरी ओर विपक्ष के लिए बिसात बिछाने का तरीका है। बच्चों की मौत की कुछ घंटों के बाद उत्तर प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ ने ऐसी बात कही जो हर लाचार भारतीय को जख्म देने के लिए काफी है। सिद्धार्थ सिंह ने कहा कि अगस्त के महीने पहले भी ऐसी मौत होती रही है. सिंह ने 2014, 2015 और 2016 के अगस्त के महीने में हुई मौत का संख्या गिनवाया. वे यह साबित करना चाहते कि सिर्फ भाजपा सरकार नहीं समाजवादी पार्टी के सरकार के दौरान भी ऐसे मौत हुई है। शायद यह भूल गए समाजवादी पार्टी के विफलता को देखते हुए आपको जनता ने सत्ता सौंपी। 
इसके बाद सीएम योगी आदित्यनाथ ने अपने प्रेस कांफ्रेंस में पूरी तरह साफ कर दिया कि ऑक्सीजन की कमी से बच्चों की मौत नहीं हुई है मगर ताजा रिपोर्ट के बाद ये दोनों दावे ही खोखले नजर आ रहे हैं।
सवाल यह भी है कि कुछ दिन पहले योगी ने इस अस्पताल का दौरा किया था तो योगी जी को ऑक्सीजन के कमी के बारे में प्रशासन ने क्यों नहीं बताया। योगी जी को अब अपने ही अधिकारियों के भरोसे रहना छोड़ देना चाहिए।
कहा जा रहा है कि घटना होने से एक दिन पहले ही यह साफ हो गया था कि ऑक्सीजन गैस सिलेंडर की कमी है लेकिन फिर भी उन्हें मंगाया नहीं गया था। अधिकारियों ने सिलेंडर गोरखपुर से 350 किमी. दूर इलाहाबाद से मंगाने चाहे, क्योंकि यह सब एक टेंडर प्रक्रिया के जरिए होता है। अगर अधिकारी इस चक्कर में ना पड़ते और लोकल इलाके से ही सिलेंडर ले लेते तो शायद लगभग 30 बच्चों की जान बचाई जा सकती थी। अधिकारियों ने इलाहाबाद और फैजाबाद से सिलेंडर मंगाए, जब घटना हुई तो सिलेंडर रास्ते में ही थे और बच्चे मौत से जूझ रहे थे। एक रिपोर्ट के मुताबिक इस साल जापानी बुखार के कारण लगभग 500 मौतें हो चुकी हैं। 1 जनवरी से लेकर 13 अगस्त तक लगभग 1208 तीव्र एन्सेफलाइटिस सिंड्रोम (AES) के केस आए, जिनमें से 152 की मौत हुई।

भ्रष्टाचार से गई बच्चों की जान
इस खुलासे से साफ है कि कुछ अधिकारी अपने जान-पहचान की सप्लाई कंपनियों को फायदा पहुंचाना चाहते थे। यही कारण रहा है कि उन्होंने गोरखपुर से सिलेंडर नहीं लिए और इलाहाबाद या फैजाबाद से मंगाने चाहे यानी अधिकारियों का भ्रष्टाचार बच्चों की मौत का कारण रहा. इससे पहले खबर आई थी कि 69 लाख रुपये का भुगतान न होने की वजह से ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली फर्म ने ऑक्सीजन की सप्लाई ठप कर दी थी।
इस पत्रकार ने ऑक्सीजन के कमी को लेकर लिखा था 

गोरखपुर पर आधारित एक न्यूज़ पोर्टल चलाने वाले मनोज सिंह ने 10 अगस्त को अपनी एक रिपोर्ट में लिखा था कि बकाया 63 लाख न मिलने पर कंपनी ने बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की सप्लाई रोकी। 

सिंह ने लिखा था बीआरडी मेडिकल कालेज में आक्सीजन सप्लाई का 
संकट खड़ा हो गया है। लिक्विड आक्सीजन की सप्लाई करने वाली 
कम्पनी ने बकाया 63 लाख रुपए न मिलने पर ऑक्सीजन की सप्लाई रोक दी है। बीआरडी मेडिकल कालेज में लिक्विड ऑक्सीजन का स्टाक आज रात तक का ही है। यदि आक्सीजन सप्लाई ठप हुई तो सैकड़ों मरीजों की जान पर खतरा आ जाएगा। मनोज सिंह की बात सही साबित हुई।  कंपनी ने ऑक्सीजन रोक दी थी और कई बच्चों की ऑक्सीजन कमी के वजह से मौत हो गयी।

क्या बीआरडी अस्पताल के कर्मचारियों नहीं मिल रहा था वेतन?

मनोज सिंह ने अपने पोर्टल में यह भी लिखा है कि बीआरडी मेडिकल 
कॉलेज के पीएमआर विभाग के चिकित्सा कर्मियों को 27 माह से, इन्सेफेलाइटिस वार्ड के चिकित्सा कर्मियों को पांच माह से और न्यू नेटल यूनिट के कर्मियों को छह माह से नहीं मिला है। मनोज ने लिखा है किएक महीने में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में दो बार मुख्यमंत्री, दो बार प्रमुख सचिव चिकित्सा शिक्षा, एक बार प्रमुख सचिव स्वास्थ व अनगिनत बार डीएम, कमिश्नर आ आए फिर भी मेडिकल कॉलेज में इंसेफेलाइटिस के इलाज से जुड़े करीब 400 चिकित्सा कर्मियों का वेतन नहीं आया। स्थानीय पत्रकार मनोज ने लिखा है कि सीएम आए डीएम आए लेकिन नहीं आया 27 महीने का बकाया वेतन। आश्वासन पर आश्वासन मिल रहा, लेकिन तनख्वाह नहीं मिल रही है.अगर मनोज की यह बात सच है तो कॉलेज प्रशासन और उत्तर प्रदेश सरकार पर यह कई सवाल खड़ा करता है. अगर उत्तर प्रदेश के सरकार और प्रशासन मानती है कि यह खबर गलत है तो सरकार इन पर सार्वजनिक बयान देना चाहिए।

विपक्ष भी बस राजनीति में व्यस्त

बीआरडी अस्पताल में हुए मौत के बाद विपक्ष भी राजनीति करने में लगा 
हुआ है। जैसे ही पता चला कि बीआरडी अस्पताल में कई बच्चों की मौत 
हुई है तो कांग्रेस के कई बड़े नेता अस्पताल पहुंच गए और सरकार की 
खामियां निकालने लगे। यह बेहतर होता अगर कांग्रेस के नेता उन मासूम 

बच्चों के घर पहुंचते, उनके परिवारों को समझाते, कुछ मदद कर देते।समाजवादी पार्टी के तरफ से भी कई बड़े नेता सरकार को घेरते हुए नज़र आए। शायद ये नेता भूल गए कि 2012 से लेकर 2016 के बीच इस अस्पताल में 3000 के करीब बच्चों की मौत हुई है। वजह चाहे जो भी हो समाजवादी पार्टी सरकार बच्चों की मौत रोकने में विफल हुई थी।

सब मीडिया मैनेज करने में जुटे और वह लगता है, मैनेज भी हो गयी

बहरहाल इस समय योगी सरकार मीडिया को मैनेज करने में जुट गयी है। 
पत्रकारों की खातिरदारी हो रही है और पत्रकार भी इस खातिरदारी का 
आनंद उठा रहे हैं। पत्रकार होने के नाते यह मेरी समझ के बाहर है कि 
जिनको इस नरसंहार के लिए कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए था, उनके साथ हमारे खबरनवीस दावतें कैसे उड़ा सकते हैं। हजारों बच्चों की मौत क्या इतनी छोटी घटना है कि इसका जिक्र आपको मीडिया में न के बराबर दिख रहा है। चैनलों में एनआईए और कश्मीर के अतिरिक्त कुछ है नहीं। गोरखपुर का मामला भी इसलिए तूल पकड़ सका कि आज सोशल मीडिया है, वरना इसे दबाने में मीडिया जरूर सफल होता। 
हम पत्रकारों ने अपनी गरिमा को खुद गिरा दिया है मगर यह याद रखना होगा कि आज नहीं तो कल और कल नहीं तो आने वाले समय में यह अन्ध क्रूर संवेदनहीनता सबको कठघरे में खड़ा करेगी।

(इनपुट अखबारों और खबरी वेबबसाइटों से)