मालदा...जिन्दगी की जद्दोजहद और हकीकत से एक मुलाकात


हम पत्रकारों के काम की सबसे अच्छी बात यह है कि हमारी पत्रकारिता हमें कभी पुराना नहीं पड़ने देती। नए लोगों से मिलना, नये अनुभव और हर बार कुछ नया सीखना...हमें नया रखता है। नयी जगहों पर जाना होता है और हमारे दायरे में बंगलों से लेकर झोपड़ियां तक होती हैं। पहले भी कई जगहों पर जाना हुआ है और दूसरे शहरों में भी गयी हूँ मगर कुछ असाइनमेंट ऐसे होते हैं जिनको कभी भूला नहीं जा सकता। वहाँ जाकर आप देखते ही नहीं, कुछ नया सीखते हैं और निराश होते जीवन में एक नयी उम्मीद और जीजिविषा जाग उठती है।

 यूनिसेफ और तलाश के बाल फिल्मोत्सव में जाना एक ऐसा ही अनुभव रहा। शहर की चकाचौंध से बाहर जिन्दगी से मुलाकात हुई और मुश्किल हालात में जी रहे लोगों को देखकर अब लग रहा है कि हमारी मुश्किलें तो कुछ भी नहीं हैं...जिन्दगी को देखने का नजरिया भी बदलता जा रहा है। शहरों में रह रहे लोगों के लिए गांव एक पिकनिक की तरह है और गाँव के लोग शहरों को खासी उत्सुकता से देखते हैं। उनके लिए कोलकाता से आने वाले लोग बहुत अद्भुत होते हैं और जब आप पत्रकार हों या मीडिया से हों तो यह उत्सुकता और बढ़ जाती है। एक दूरी सी बन गयी है जिसे पाटना जरूरी है मगर यह इतना आसान नहीं है। 
एक अच्छी जिन्दगी के लिए सुविधाएं जरूरी है या खुश रहने का सलीका होना जरूरी है। मुश्किल जिन्दगी के बीच से अपने हिस्से का रास्ता निकाल लेना और उस पर चलना इतना आसान नहीं है। कम सेे कम लड़कियों के लिए तो बिलकुल नहीं, जिनको हर कदम पर दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ती हैं मगर ये लड़कियां लड़ भी रही हैं, जीत भी रही हैं और जी भी रही हैं। बच्चों को हर आगंतुक का इंतजार रहता है। चॉकलेट, कैैमरा और स्टेशनरी भी इनको खुश कर देने के लिए काफी है। टूटा स्कूल और झूले इनको नेमत लगते हैं और वेे खिलखिलाकर हंस पड़ते हैं तो मुश्किलें भी शरमा जाती होंगी। एक ऐसी जगह जहाँ विकास की हवा पहुँची न हो..जहाँ पर एक पक्का मकान एक लक्जरी लग रहा हो...टूटे स्कूल और टूटी सड़कें हों....और हों धान के खेत....हरे – भरे खेत....क्या हम ऐसी जिन्दगी गुजार सकते हैं...इंटरनेट से दूर...मोबाइल से दूर...एफ एम (जिसके बिना कम से कम मेरा तो रहना मुश्किल है)....और वहाँ कोई निराशा नहीं...ये मेरे लिए सुखद आश्चर्य था...।
गांव को करीब से देखना था। वैसे यह मेरी पहली ऐसी यात्रा नहीं थी मगर इस बार मैंने उस जिन्दगी को जरा और करीब से देखा जिसे अब तक किताबों में पढ़ती आ रही थी। फिर भी ये सच तो था कि थोड़े दिन के लिए आना और बगैर किसी सुविधा के इन बच्चों तक पहुँचना, पूरे ग्रामीण समाज को समझाना, बच्चों को साथ लाना, ये सब इतना आसान नहीं था...तो मुझे ऐसे किसी सफर का इंतजार था। ऐसे में जब मौका मिला तो यह मनचाही मुराद के पूरी होने जैसा था। कोलकाता के प्रेस क्लब के पास हम एक साथ आए।
आखिरकार रविवार 29 अक्टूबर की दोपहर को हमारी यात्रा आरम्भ हुई। इस कार्यक्रम का मीडिया प्रभार लॉन्चर्ज के हाथ में था...शगुफ्ता और राजीव से अच्छी दोस्ती है..और इतने सालों में एक अच्छी समझ भी बनी है। वे पी आर प्रोफेशनल से कहीं अधिक दोस्तों जैसे हैं इसलिए असुविधा तो नहीं थी...इस पूरी मीडिया टीम में मैं अकेली लड़की थी और इसी वजह से रिया को भी लॉन्चर्ज ने भेजा जो मेरी रूम मेट थी...मैं जितनी बक –बक करती...वह लड़की उतनी ही शांत...थी...उम्मीद थी कि रात 10 बजे तक हम होटल पहुँच जाएंगे....मगर ये उम्मीद ही थी। 
हम उत्तर 24 परगना जिले से होते हुए ही जा रहे थे...शाम का ढलता सूरज कार से बेहद खूबसूररत लग रहा था....रास्ते में धान के खेत...नदी....छोटे हाट – बाजार...हाई वे से गुजरते हुए ग्रामीण जीवन का नजारा देखा मगर दूर से। शाम को 5 बजे कार रुकी और वहाँ पर सब चाय पीने उतरे...मेरा मन नहीं था...इसलिए बैठी रही...। रात 8 बजे एक और होटल में चाय के साथ समोसे मिले...थकान थोड़ी दूर हुई।

इतने खूबसूरत प्राकृतिक दृश्य महानगर में कहां मिलते हैं? एक अलग ही दुनिया थी और मुर्शिदाबाद की गलियों में नाइट वॉक करना तो एक अलग ही अनुभव था...रात को सड़कों पर टहलना भी लड़कियों के लिए एक आजादी ही है और वह आजादी मुझे महानगर में नहीं...शोर – शराबे से दूर जिले की गली में मिली। एक पल को लगा कि वही ये सड़क मेरी है...जैैसा कुछ हो। सच तो यह है कि सड़कें और रातें तभी सुरक्षित हो सकती हैं जब लड़कियां भी सड़कों पर उतनी ही आजादी से उतरें...लड़कियों के लिए अगल कैब परिसेेवा हो तो उनकी भागीदारी और बढ़ेगी मगर जिलों में कैब नहीं मिलती। टैक्सी भी नहीं मिलती तो होटल तो समय पर पहुँचना था मगर उस समय लगा कि वक्त थोड़ी देर और थम जाता....वह रोमांच भूलना मुश्किल है...और सच तो यह है कि अपने हिस्से की यह रात मैं भूल भी नहीं पाऊंगी....वह रात वाला अड्डा।
इस एक लम्हे को खुलकर जीया...क्या पता ऐसी वॉक फिर मिले या न मिले...मन में आया बस घूमते ही रहें मगर....होटल जाना था...और भूख भी लग गयी थी...किसी तरह एक ढाबा मिला और मैं ठहरी शाकाहारी...रात के 11.30 बजे रोटी और पनीर मिलना हमारे लिए छप्पन भोग मिलने के बराबर था। रात को 1.30 बजे फरक्का बाँध के पास से जब कार गुजरी तो अंधेरा और सन्नाटा, दोनों हमारा इंतजार कर रहे थे...रोमांच....पानी का तेज बहाव और उसकी दहाडती आवाज सन्नाटे को चीर रही थी...अंधेरे में सिर्फ सुना...देखना तब नहीं हो पाया..। खोजते – खोजते भोर 3 बजे हम होटल पहुँचे...।

 हम होटल कलिंगा में ठहरे थे...मैं और रिया एक साथ थे..और बाकी लोग अलग – अलग कमरों में। भूख लगी थी मगर खाना कुछ ज्यादा था...सेहत का ख्याल था...जितना खाया जा सका..उतना खाकर सो गयी। मालदा का विकास अब तक नहीं हो पाया है...जबकि यहाँ बड़े – बड़े नेताओं को प्रतिनिधि बनने का मौका मिला है मगर विकास की राह से यह जिला बहुत दूर है। मालदा के जनप्रतिनिधि सत्ता में भी रहे हैं मगर इसका फायदा यहाँ की जनता को कम से कम अब तक तो नहीं मिला। टाउन की सड़कें पर गायें खूब घूमती हैं और जिन काली ऑटो पर कोलकाता में प्रतिबंध है....उनका यहाँ एकछत्र राज्य  है...वहाँ कोई टैक्सी और कैब हमें नहीं मिली। कहीं जाना हो तो टोटो भी चलती है। 

हमारा होटल एन एच 34 के पास रामकृष्ण पल्ली पर था...वहाँ हमारा ठहरना भर ही हुआ क्योंकि भोजन तो कहीं और ही करना था। अच्छी बात यह थी कि वहाँ शाकाहारी भोजन मिलता है और लॉन्चर्ज की ओर से राजीव ने इसका पूरा ख्याल भी रखा...वैसे वह खुद भी शाकाहारी ही है...नाश्ते की तलाश में हम सोमवार 31 अक्टूबर की सुबह 9.30 बजे होटल से बाहर निकले..। थोड़ी दूर जाने पर हमें सपन दा की लुची आलूदम की दुकान क्या मिली..मनचाही मुराद मिल गयी..सपन पोद्दार की दुकान पर हमने लूची आलूदम खाया...जो बेहद स्वादिष्ट था...बगैर मसाले की आलू की सब्जी भी लाजवाब हो सकती है....।


हम जिस बाल फिल्मोत्सव में आए थे...वह मालदा टाउन के मालदा कॉलेज सभागार में दोपहर 12 बजे होना था मगर उसका समय दोपहर 2 बजे हो गया था। आराम करने का पूरा वक्त मिला तो था मगर मालदा में एक सहेली से मिलना था और मैं जुगाड़  लगाने में लगी रही। हम कार्यक्रम स्थल पर आ गए और फिर खाने की तलाश में मालदा परिभ्रमण शुरू हुआ पर ज्यादा नहीं घूमना पड़ा। हाथ में घंटे भर का समय था और काम आ गए गूगल अंकल...पास ही 420 मोड़ मिला और थोड़ी दूर जाने पर मिस्टर एंड मिसेज इडली...।

यह एक रेस्तरां था और ऐसा रेस्तरां मिलना हमारे लिए खुशखबरी ही था। इसका इंटीरियर और सर्विस अच्छी थी..और डोसा मजेदार...खाने का इंतजाम हुआ और हमने छककर खाया...नाम ने ही हमारा मूड अच्छा कर दिया था..खैर समय पर आ गए और कार्यक्रम शुरू होने से पहले..।
 यह फिल्मोत्सव बहुत अच्छा और नया था क्योंकि सारी व्यवस्था बच्चों ने की थी और 30 बच्चों की कमेटी थी जो ये सब सम्भाल रही थी। कार्यक्रम संयोग से दोपहर 3.30 बजे ही समाप्त हो गया और पास से ही मैंने गाजोल की बस ले ली...। 
रास्ते में अपर्णा से मिली...और गौड़बंग विश्वविद्यालय की स्थिति का पता चला। बस महानंदा नदी के ऊपर से गुजरी...नदी का हृदय कितना विशाल होता है...इंसानों का बोझ अपने सीने पर लिए बहती रहती है....बस चलती रही और घंटे भर में मैं गाजोल पहुँची। 
अपनी दोस्त की ससुराल....ये डेढ़ घंटे का समय समूची यात्रा की उपलब्धि बन गया। होटल पहुँचते हुए रात के 8 बज गए थे। शाम को नाश्ता इतना किया  था कि खाने का मन नहीं हुआ...सुबह उठना था तो निद्रा देवी को बुला लिया। 
अगले दिन हम ओल्ड मालदा के नारायणपुर स्थित झांझरा जाने वाले थे...मंगलवार की सुबह 8 बजे....हम तैयार थे। 
ये जगह हमारे होटल से ज्यादा दूर नहीं थी..। सुबह का मंजर...और मालदा का ट्रैफिक जाम भी कुछ ऐसा ही था..यहाँ कैब नहीं बल्कि बड़े ट्रक थे..बसें थीं और बसों की छतों पर सवार लोग थे...। किसी भी जगह के विकास में परिवहन व्यवस्था का मजबूत होना कितना जरूरी है..वह मुझे पता चल रहा था। जगह पास भले हो.मगर रास्ता उबड़ – खाबड़ था.....मिट्टी के घर  थे...गाएं थीं...बच्चों के तन पर कपड़े नहीं थे...झांझरा में वह एक स्कूल था जिसकी हालत खस्ता थी..। हम यहाँ मिले विभिन्न ब्लॉकों से आए बच्चों से जो अपने साथ पूरे समाज की लड़ाई लड़ रहे थे। लड़कियां थीं जिन्होंने अपने बाल विवाह रुकवाए और लड़के थे जो दूसरे लड़कों को जागरुक बना रहे थे...तलाश और यूनिसेफ ने बदलाव की शुरू की थी। वह दूसरे लड़कों को समझा रहे थे...कुछ ने नाम नहीं बताए मगर अपनी कहानी बतायी,,,अपना संघर्ष साझा किया..वहीं पर शम्पा मिली जिसने खुद अपनी शादी रुकवाई। अपनी पढ़ाई का खर्च निकाला और अपने पैरों पर खड़े होने का सपना लिए काम किए जा रही है। अभी वह तलाश से जुड़ी है। शम्पा को राज्य सरकार की ओर से वीरांगना पुरस्कार मिला था...कुल मिलाकर अनोखा और प्रेरक अनुभव...ऐसे बच्चों के लिए आदर और बढ़ गया जो शहर की तमाम सुविधाओं से वंचित थे मगर उनमें हताशा कहीं नहीं थी...वे बस बदलने का सपना देख रहे थे और उसे पूरा भी कर रहे थे। हमने ढेर सारी तस्वीरें खिंचवाईं।

वापस लौटने की तैयारी तो कर ही चुके थे। होटल में सामान पैक हो चुका था..बस अब तो मालदा को विदा कहना था...दोपहर को एक रेस्तरां में भोजन हुआ...और हम निकल पड़े वापस उसी दुनिया में जहाँ हमें लौटना था....जो हमारी कर्मस्थली थी और जहां हम अपने हिस्से का काम कर रहे थे। हम निकले और हाई वे के साथ जाम में भी फंसे...सड़क एक लेन वाली थी और अलग से निकलने का तो कई रास्ता ही नहीं था मगर उस दौरान भी काफी कुछ देखा...शरारतेें देखीं....मस्ती देखी और उस जाम की खीझ में भी हंसी आ गयी। पेड़ पर बैठते...बेपरवाही से छुट्टी के बाद घर भागते बच्चे....वहाँ मोटरसाइकिल थी मगर जिलों में हेलमेट बहुत कम दिखते हैं और सेफ ड्राइव और सेफ लाइफ.....वह तो कोलकाता में भी कहां हैं...लोग निकलते रहे...और जाम हटने के बाद हम भी चल पड़े।

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