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काश दीदी... बगैर 'खेला किये' चुनाव की जगह जनता का दिल जीततीं

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नेताओं को अपने पुराने दिन और पुराने बयान नहीं भूलने चाहिए मगर कोई भी नेता इनको याद नहीं रखता। एक समय था जब भारत में नेताओं के बीच से सही नेतृत्व मिलता था। आजादी के बाद भी 60 और 70 के दशक तक नेता फिर भी मिल जाते थे। फिर 80 का दशक आया और संख्या सिमटती गयी और आज हमारे पास जो नेता हैं, उनको अपनी इमेज बनाने के लिए काम करना पड़ रहा है, पेशेवर सेवाएँ लेनी पड़ रही हैं, प्रचार पर पानी की तरह पैसा बहाना पड़ रहा है। वे स्वनिर्मित नेतृत्व का आभामण्डल तैयार जरूर करते हैं पर वह एक मृगतृष्णा के सिवाय कुछ भी नहीं है। जिस देश में देश पर व्यक्तित्व भारी पड़ने लगे..वहाँ हमें ठहरकर सोचने की जरूरत है कि आखिर हम किस दिशा में जा रहे हैं। लोग अपना दल बदलने से पहले हजार बार सोचते थे, आज हर चुनाव के पहले नेताओं की मंडी लगने लगी है। प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष रूप से, होटलों में विधायकों को बंद करना पड़ रहा है, रातों - रात सरकारें बदल जा रही हैं और आज की राजनीति कॉरपोरेट संस्कृति में ढलती जा रही है। अगर कॉरपोरेट कार्यसंस्कृति की कर्मठता, अनुशासन, परिणाम पर केन्द्रित होने तक बात सीमित रहती..तब तक फिर भी बात समझ में आत