शुक्रवार, 16 जून 2017

नेता नहीं, अनुगामी और बाउंसर बना रही है आज की छात्र राजनीति




छात्र अगर इस देश का भविष्य हैं तो छात्र राजनीति उस भविष्य की दिशा निर्धारित करती है। शिक्षा के क्षेत्र में पत्रकारिता करते हुए बहुत से छात्र नेताओं से पाला पड़ा है और कुछ अनुभव ऐसे हुए कि लगता है कि अब इस पर बात होनी चाहिए क्योंकि देश भर में और बंगाल में तो युवाओं पर सबसे अधिक प्रभाव इन छात्र नेताओं का पड़ता है। यही कारण है कि कोई भी राजननीतिक पार्टी लिंग्दोह कमिशन की सिफारिशें लागू करने में कतराती है मगर बंगाल की छात्र राजनीति उस हिंसक मोड़ पर आ चुकी है कि सत्ताधारी पार्टी को अपने ही छात्र संगठन की गतिविधियों को लेकर सोचना पड़ रहा है। हालत यह है कि खुद मुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री भी छात्र संसद की जगह छात्र परिषद को लेकर गम्भीर हैं और सेंट जेवियर्स का मॉडल राज्य भर में लागू करना चाहते हैं। 
छात्र राजनीति ने देश को बड़े – बड़े नेता दिए हैं मगर तब और आज में अन्तर है, कहते हुए दुःख हो रहा है मगर अधिकतर छात्र नेताओं ने अपना गौरव, स्वाभिमान, ईमानदारी और साहस ताक पर रख दिया है, उनका सारा वक्त मीडिया को मैनेज करने में और पार्टी हाई कमान को खुश करने में बीत रहा है, वे अब गलतियों पर चुप्पी साधना सीख रहे हैं और भ्रष्टाचार तथा चापलूसी से बगैर किसी विचारधारा के अपना भविष्य बना रहे हैं। शिक्षामंत्री और मुख्यमंत्री का करीबी बन जाना, उनके काम करना और उनका माउथ पीस बनकर पत्रकारों से निपटना उनकी जरूरत और भविष्य की सीढ़ी बन गयी है। पिछले 14 साल में काम करते हुए कम से कम 8 -9 साल तो शिक्षा क्षेत्र की खबरें लिखी हैं और तकलीफ होती है कि यह सोचकर कि आज की छात्र राजनीति में विचारधारा और स्वतंत्र सत्ता का घनघोर अभाव है। पार्टी कमान की पुस्तक का अनुवाद, उनके गीतों का प्रचार और नकारात्मक खबरें करने से रोकना उनकी प्राथमिकता है और वे इसके लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।

 आन्दोलन के तरीके जबरन बात मनवाने और शिक्षकों से बदसलूकी पर उतर आए हैं, ऐसे में शिक्षण संस्थानों का भविष्य क्या होगा, यह सोचकर ही डर लग जाता है। हाल ही में एक छात्र नेता से मेरी मुलाकात हुई, फोन से बात होती थी मगर विद्यार्थियों की समस्या और रिक्त पड़े पदों को लेकर छात्र मनस्थिति जानने के लिए सम्पर्क किया, मिलने गयी, (बता दूँ कि यह उसका भी आग्रह था) मगर उससे मिलकर संकुचित व कुंठित सोच पर गुस्से से अधिक निराशा हुई, क्योंकि ऐसे ही लोग हमारे शिक्षण संस्थानों में प्रोफेसर बनेंगे, चाटुकारिता के दम पर तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ेंगे और हर उस समस्या को दबाएँगे जो उनकी पार्टी के खिलाफ जाती हो। इन छात्र नेताओं की पहुँच भी है और प्रभाव भी और पत्रकारिता के तथाकथित पहरेदारों की मेहरबानी से उनकी मानसिकता ये बन गयी है कि वे जब चाहे किसी भी रिपोर्टर या पत्रकार को खबर लिखने से रोक सकते हैं और पार्टी या अखबार के जरिए समस्या उठाने वाले अखबार का तबादला भी करवा सकते हैं।
 ये तमाम बातें उस दिन मुझे उस छात्र नेता से जानने को मिलीं जो उपरोक्त बातों को मेरे मामले में भी लागू करने का दावा करता था, मैंने उसकी पूरी बात सुनी, अपने संस्थान पर विश्वास था, फिर भी थोड़ी देर के लिए संशय हुआ जिसे मैंने कार्यालय आते ही दूर किया मगर ये अनुभव भी सिखाने वाला रहा, छात्र नेताओं की मानसिकता समय की मानसिकता भी बताती है। जब छात्र नेता विद्याथिर्यों की समस्याओं की जगह यह तय करने लगें कि कौन सा पत्रकार क्या लिखेगा, कितना लिखेगा, उसे किस तरह मैनेज किया जाए, कौन सा मसला उठाने नहीं देना है, कौन सा मुद्दा दबाना है, किस रिपोर्टर को देख लेनेऔर किसका तबादला करवाने की जरूरत है, तो ये खतरनाक संकेत हैं। यह छात्र नेता भी बडबोलेपन का मारा था जो एक पत्रकार के सामने दूसरे पत्रकार को मैनेज करने की बात कर रहा था, बगैर यह समझे कि नेता आते – जाते रहते हैं, सरकारें भी आती – जाती रहती हैं, पत्रकार हमेशा पत्रकार ही रहता है और उनमें एकता भी होती है। मैं कह नहीं सकती पर क्या पता, वो मुझे भी मैनेज करना चाहता था ताकि डींग हांक सके कि उसने तीर मार लिया है मगर उसे निराशा हाथ लगी है। क्यों नहीं छात्र नेता मैनेज करने से अधिक जरूरी चीजों पर ध्यान देते हैं? हालांकि तसल्ली मिली मगर उस वक्त मुझे समस्या की गहराई का एहसास हुआ और यही वजह है कि सालों बाद मुझे लग रहा है कि इस पर बात होनी जरूरी है। 

 हमारे विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर हैं जो छात्र राजनीति करते – करते ही प्रोफेसर बने हैं और उनकी छात्रा रह चुकी हूँ इसलिए अब सोचकर ही डर जाती हूँ कि क्या शिक्षण संस्थान पार्टी मुख्यालय बनकर रह जाएँगे जहाँ वीसी से लेकर शिक्षक तक सब सहमे रहेंगे। मुझे याद आता है कि वह किस कदर सवाल करने वालों का माखौल उड़ाया करते थे और उसे हतोत्साहित करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ते थे। आज भी उनकी हर बात में कुँठा ही नजर आती है जो दूसरों के आगे बढ़ने से परेशान होता है। मेरी मुलाकात जिससे हुई, वह इन दिनों साहित्य लेकर एक वरिष्ठ कवि को लेकर शोध कर रहा है इसलिए पीड़ा अधिक हुई क्योंकि साहित्य पढ़कर भी गरिमा और संवेदना आपके व्यवहार और आचरण में न आए तो आपका साहित्य पढ़ना और शिक्षक बनना बेकार है। आप चापलूसी करके ऊँचा पद पा सकते हैं, अनुगामी पा सकते हैं मगर नेता नहीं बन सकते क्योंकि सच्चा नेता वैचारिक तौर पर स्वतंत्र होता है, उसकी विचारधारा में विरोधाभास नहीं होता है, उसका व्यक्तित्व मैनेज करने में विश्वास नहीं रखता और न ही समस्या को दबाने में, न ही अपनी ताकत दिखाने में उसे यकीन है। 
आपकी आँखें हमेशा नीची और जुबान बंद रहेगी, आपका इस्तेमाल वोटबैंक बढ़ाने और बड़े नेताओं की रैलियों में भीड़ बढ़ाने के लिए होगा। आप आज हैं, कल रहेंगे या नहीं, इसका विश्वास आपको भी नहीं है, हर समय असुरक्षा में जीना, तोड़ –फोड़ करना आपकी नियति है। ये समझने के लिए आत्मसम्मान की जरूरत पड़ती है मगर आज के छात्र नेताओं में इसका नितांत अभाव है, वे अधजल गगरी, छलकत जाए की कहावत, सार्थक करते हैं। देश भर के विश्वविद्यालयों में जिस तरह मार – काट चल रही है, छात्र संसद चुनाव को जिस तरह युद्ध बना दिया गया है, वह छात्र नेताओं और छात्र राजनीति की पराजय है। छात्र नेताओं को अगर तरक्की मिले भी या वे कितने भी बड़े नेता हो जाएँ, उनका काम न अब तक बदला है और न ही बदलने की सम्भावना है, वे अधिक से अधिक बाउंसर बन सकते हैं, विपक्षी नेताओं को धक्के मारना, धक्का – मुक्की करना, रैलियों की भीड़ बढ़ाना और सदन से बाहर कर देना और विपक्ष में हों तो सदन से वॉकआउट करके नायाब तरीकों से प्रदर्शन करना, उनकी नियति बस यही है।

 छात्र राजनीति आज नेता नहीं अनुगामी और बाउंसर बनाती है। जहाँ तक हिन्दी भाषी छात्र नेताओं की स्थिति है तो बंगाल में उनकी स्थिति में अधिक बदलाव नहीं आया। तृणमूल को जब पहली बार सत्ता मिली तो बहुत से वामपंथी छात्र नेताओं ने एसएफआई का साथ छोड़ा और टीएमसीपी में आ गए क्योंकि यहाँ मूल्यों का मामला ही नहीं था, सिर्फ अवसरवादिता का सहारा लेकर आगे बढ़ने की चाह थी। आज बंगाल की छात्र राजनीति में एक भी ऐसा हिन्दीभाषी नेता नहीं है, जिससे उम्मीदें जुड़ सकें। सच तो यह है कि किसी भी राजनीतिक पार्टी में हिन्दी भाषी छात्र नेता बेहद कम हैं और जो हैं, उनकी राजनीतिक यात्रा और बौद्धिक ऊँचाई नौकरी पाने तक सीमित रहती है। ये लोग हर जगह हाजिरी बजाते हैं। ये वामपंथी हैं या सत्ता के साथ, समझ में नहीं आता, वे जाते हैं क्योंकि उनको नौकरी बचानी है। एक सच यह भी है कि बंगाल में पार्टियाँ हिन्दीभाषियों को पत्ता नहीं देतीं, बंगाल से छात्र राजनीति कर शीर्ष स्तर पर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले हिन्दीभाषी छात्र नेता न के बराबर हैं।
 इसका कारण यह है वे आगे बढ़ने के लिए हद से ज्यादा झुकते हैं और चाटुकारिता को साधन बनाते हैं। इतने सालों में काम करते हुए तमाम विरोधों के बावजूद किसी ने इतने खुले तौर पर पत्रकारों और मीडिया को मैनेज करने की बात नहीं कही थी मगर आज छात्र राजनीति छिछले स्तर पर आ गयी है, इसका पता मुझे इस मुलाकात में हो गया। आज जितनी गुटबाजी होती है, उतनी 10 साल पहले नहीं थी और थी भी तो उसे सामने नहीं आने दिया जाता था। आज किसी प्रकार का सृजनात्मक काम बहुत कम हो गया है, सरस्वती पूजा में भी पार्टी विभाजन है। सीयू के दो द्वार पर दो छात्र संगठनों की पूजा और उसमें भी एक के कार्यक्रम में हद दर्जे की अश्लीलता नजर आती है। जिससे मुलाकात हुई, वह भी अन्ध अनुगामी ही है जिसके पास अपनी सोच नहीं है। अन्य छात्र संगठनों में भी विरोध के नाम पर धरना और प्रदर्शन ही होता है और दिक्कत यह है कि इसके पीछे शिक्षक भी हैं या यूँ कहें कि वे इसे प्रोत्साहित ही कर रहे हैं। सीयू के वीसी के टेबल पर जब एक शिक्षक संगठन की अध्यक्ष हाथ पटककर धमकी भरे अन्दाज में बात करती है तो वह अपनी गरिमा खो बैठती है, भूल जाती है कि वह एक शिक्षिका है। जेयू में जब दीक्षांत समारोह स्थल के बाहर छात्र राज्यपाल के खिलाफ अपशब्द लिखते हैं और पास ही धरना दे रहे शिक्षक समारोह का बहिष्कार कर बाहर जमे रहते हैं तो उनको सोचना होगा कि वे भावी पीढ़ी को कौन सी दिशा दिखा रहे हैं। सोचना पड़ रहा है, जो सिर उठाकर चलना भूल गए, क्या वे अपनी संतानों और विद्यार्थियों को ईमानदारी और स्वाभिमान का पाठ पढ़ा सकेंगे। अगर पढ़ाएंगे भी तो क्या अपना सामना कर सकेंगे, आने वाली पीढ़ी की आँखों में आँखें डालकर अपनी बात कह सकेंगे, क्या उनको सच कहना, अडिग रहना सिखा सकेंगे....लगता तो नहीं है।

 आज विधान सभा से लेकर लोकसभा में भी नेता नहीं बल्कि बाउंसर हैं तो इसकी वजह यही है कि संड़ाध पेड़ की जड़ में घुस गयी है। शिक्षक खुद दो खेमों में बँटे हैं, वह कौन सी राह नयी पीढ़ी को दिखाएँगे, यह सोचने वाली बात है क्योंकि सेमिनारों में और अपने आयोजनों में उनको छात्र नेताओं की जरूरत रहती है, उनमें खुद भय समाया है। आज कोई भी शिक्षक प्रिंसिपल नहीं बनना चाहता, छात्र राजनीति में विरोध के तरीके ताला लगाने, शिक्षकों को पीटने, वीसी का कॉलर पकड़ने और वीसी को ओलेक्स पर बेचने तक सीमित रह गयी है। मुझे याद आता है जब कूटा के विरोध प्रदर्शन में दिवंगत दिव्येंदु पाल दा को किस कदर पीटा गया था, उनके कपड़े तक फाड़ डाले गए थे। कोई भी शिक्षक इस पूरे कृत्य के विरोध में नहीं आया। मैं प्रदर्शनकारी डरे – सहमे शिक्षकों के चेहरे नहीं भुला पाती। सच तो यह है कि छात्र और कुछ हद तक शिक्षक राजनीति का वतर्मान परिदृश्य नेतृत्व के सही मायने ही नहीं समझता, वह सिर्फ अपने हितों की रक्षा तक सिमट कर रह गया है। आज की छात्र राजनीति नेता नहीं बनाती, वह या तो अनुगामी बनाती है या बाउंसर.....पत्रकारों को मैनेज करने वाले मित्रों और भाइयों, तुम चाहे जितनी भी ऊँचाई छू लो, तुम्हारी नियति भी यही है।

बुधवार, 14 जून 2017

मन्त्री जी का अनशन



-        सुषमा त्रिपाठी
फलकपुर में बड़ी हलचल थी..आज जिले के डीएम के पास जाना था...सरपंच जी आकर सब किसानों को कह गए थे, अबकी रैली में भीड़ करनी थी। प्रजातंत्र का हाथ पार्टी के जिलाध्यक्ष हुक्काम सिंह की जीप भी हरिया के खेतों के बीच से खड़ी फसल को रौंदती हुई रैली का प्रचार करती गुजर गयी थी। हरिया को भी सरपंच साहेब का धमकी भरा अनुरोध मिल गया था और आज तो सांझ को सारे छोटे – बड़े किसानों को बुलाया भी था।
कड़ी धूप में काम करते हुए हरिया हलकान था, खेत से घर दूर था....भागो के लिए कितने दिन से बाजार से साड़ी लेने का मन बनाया था मगर जीप से कुचली फसल को जब भी देखता...आह भरकर बैठ जाता। 4 दिन से कुछ खाया नहीं था, ऊपर से ये बवाल, फसल मंडी तक जाए नहीं तो घर कैसे चले। घर में अन्न का एक दाना न बचा था और साहूकार था कि उधार देने को तैयार न था। पेड़ की छाव के नीचे पसरे हरिया के माथे से पसीना पानी बनकर बह आया था....आदमी 2 दिन भूखा रहे तो चल भी जाए मगर घर में बच्चों के पेट में तो अन्न डालना ही था...भागो की फटी साड़ी देखकर मन भर आता मगर मन बेजार था। सरपंच जी ने कहा था कि प्रजातन्त्र पार्टी से हुक्काम सिंह किसानों को राहत में राशन देंगे और आन्दोलन जम गया तो सरकार भी मुआवजा देगी, बस इस बार किसानों को साथ देना होगा जमके।
समझ में बात तो आ गयी मगर भूखे पेट भजन कैसे होए। भूखे पेट अंतड़ियाँ मरोड़ मार रही थी...रहा न गया तो बोल पड़ा...सरपंच साहेब, उ सब तो ठीक है मगर 4 दिन से अन्न का दाना घर नहीं गया। बच्चे बिलबिला रहे हैं, पेट ही न भरे तो आन्दोलन कैसे करे। मंडी में अनाज ले जाते हैं तो ट्रक रोक देते हैं और आग भी लगा देते हैं...आप लोग बड़े हो. दो – चार बोरी इधर से उधर हो तो भी फरक नहीं पड़ेगा...हमारा गुजारा तो मुस्किल है।
सरपंच साहब के बदन में आग लग गयी....चुनाव का मौसम न होता तो अब तक भगा देते मगर प्रजातन्त्र पार्टी का कमिशन आड़े आ गया। उस पर सरकार की पार्टी के अध्यक्ष भी मिलकर गए थे, गोटी फिक्स हो गयी तो विधायकी का टिकट पक्का था और जीतने के लिए किसानों का साथ जरूरी था...सरपंच रिस्क नहीं ले सकते थे...आँखों के सामने बैनर घूम रहा था...बड़ा सा लहरदार...हल थामे मूँछों पर ताव देते....उफ! क्या जचूँगा....ख्वाहिश ने दिमाग के गर्म पानी पर ठंडक डाल दी...बोले...बिन लड़े ही सुख राज चाहते हो....इ आन्दोलन क्या अपना घर भरने के लिए हो रहा है, प्रदेश का हाल जानते हो, अखबार पढ़ते...बोलते – बोलते याद आया...अनपढ़ हरिया अखबार कैसे पढ़ेगा...रुके। तुम खाली अपने पेट की सोचो...अपने और भाइयों के बारे में सोचा करो...जानते हो, किसानों की जिन्दगी बन जाएगी...जिन्दगी...अरे...दूसरे प्रदेश में सरकार कर्जामाफी की है....हमारे यहाँ काहे नहीं करेगी...सब मिले हैं हरिया और जब तक तुम सब न लड़ोगे कैसे होगा। सरपंच साहब के गोदाम में अनाज की कमी नहीं थी, एक बोरा दे देते तो कुछ बिगड़ता नहीं मगर अनाज जमा करके रखेंगे, तभी तो आसमान के भाव में बेचेंगे...बेटे महेन्द्र ने एक कार देखी है, जिद किए बैठा है...इसी अनाज से तो दाम निकलेंगे।
हरिया की समझ में इतनी मोटी – मोटी बातें नहीं आतीं। उसकी आँखों के सामने भागो की फटी साड़ी और हड्डी सी काया लिए बच्चों का सूखा, उदास चेहरा घूम रहा था। मन तो था कि सरपंच के मुँह पर मुक्का मारकर अभी निकल जाए मगर सरपंच ने रैली में जाने पर 500 रुपए, नारे लगाने पर 700 रुपए, अनाज ट्रक से गिराने पर 1000 रुपए और पथराव करने पर 1500 रुपए देने की बात कही थी, खाना – पीना अलग से मिलता और शहर घूमना भी हो जाता...1500 रुपए में तो घर का खर्चा कुछ दिन तो चल जाएगा। गोली लगी तो सरकार मुआवजा देगी....सुना 10 -20 लाख रुपए देती है और घायल होने पर भी 5 लाख मिल जाते हैं। ऊपर से कर्जमाफी हो गयी तो खेती बच जाए।
हरिया तड़प उठा – इतने पैसे मिले तो बच्चों का जीवन सुधर जाए। सरीर का क्या है, एक दिन माटी में ही तो मिलना है। दूसरा कोई रास्ता नहीं. गिड़गिड़ाते बोला – सरपंच साहेब..तब तो थोड़ा राशन देते तो मदद हो जाती...घर में 4 दिन से अन्न का दाना नहीं है। सरपंच साहब को किसानों को मैनेज करना था...5 किलो चावल, 5 किलो अरहर की दाल दे दी...रैली में आ जाना वरना खाया – पीया निकल जाएगा। हरिया वहाँ से निकला।
गाँव में सब किसान गरीब नहीं थे। सरपंच साहब की ही कई बीघा जमीन और ट्रैक्टर थे मगर उनकी तरह हर किसान की पहुँच नहीं थी, फसल  के भाव बराबर नहीं मिलते थे। चौपाल के टेलिविजन पर दूरदर्शन चलता था और किसानों के हँसते चेहरे और भारी – भारी बातें सुनकर हरिया सोच में पड़ जाता....ये सब उसके गाँव तक क्यों नहीं पहुँचता। उसके बगल में रहने वाले रामबालक पर ऐसा कर्जा चढ़ा कि बिचारे ने फंदा लगा लिया। घरवाली को बाहर काम करने नहीं दे सकता था और बेटी की शादी के लिए कर्जा लेना पड़ा। 30 हजार लिए थे, सूद सहित 50 हजार हो गए...लेनदार रोज घर में धमक देते और गालियाँ सुनाकर जाते। एक दिन थक गया और मौत में मुक्ति पा ली। ऐसा नहीं था गाँव में सरकार के अधिकारी नहीं आते थे, मगर मुट्ठी गरम करने के लिए पैसे कहाँ थे...सुना है कि किसानों के लिए कई योजनाएँ भी हैं...अपने गाँव में तो एक भी नहीं दिखती। जिले के मुख्यालय में फटेहाल किसानों को जाने की मंजूरी नहीं मिलती और मन्त्री जी गाँव तक आते नहीं। एक बार जिले तक भी गया था हरिया...दरवान ने ऐसा दुरदुराया कि फिर हिम्मत न पड़ी। खेत में काम कर पसीना बहाने वाला किसान सैम्पू – साबुन का खर्च कहाँ से उठाए। साबुन शहर से लाता भी तो सोने के गहने की तरह छुपाता...एक टिकिया कम से कम 3 महीने तो चले। कर्जा तो हरिया ने भी लिया था मगर रकम अभी इतनी बड़ी नहीं थी मगर भूख बढ़ती जा रही थी। गाँव के स्कूल में टाट पर बैठाकर बच्चों को पढ़ाते...बेटा सूरज कुछ दिन गया...मगर खेत में हाथ बँटाने वाला कोई न था, पढ़ाई छूट गयी।
21 को रैली थी..मई का महीना...झुलसाने वाली धूप। हरिया तैयार था। शहर तक जाना था...गाँव के पार हुक्काम सिंह ने मैटाडोर भेजी थी। उसकी तरह बहुत से हलवाहे थे...खेतों की फसल को हसरत भरी निगाह से देखते मैटाडोर में बैठ गए..गाँव को जी भर के देखा...क्या पता कल क्या हो?
राजधानी की सीमा पर उतार दिया गया, यहाँ से पैदल जाना था। पुलिस तैनात थी और हाथ में माइक, पेन और कैमरा लिए कुछ लोग भी थे...राम जाने कौन है। हरिया को ट्रक में से अनाज फेंकना था...मन कैसा तो हो रहा था...मर – मर के अनाज उगाया है...कैसे फेके...हाथ काँप रहे थे..मगर आँख के सामने भूखा परिवार और 1000 रुपए के गर्म नोट नाच गए....दुर्बल हो गया था, जोर लगाना पड़ा मगर किसी तरह गिरा दिया.....सड़क को सुनहरा करता गेहूँ बिखर गया था.....हरिया के मन में ख्याल आया...इसमें से थोड़ा अनाज उसके सूरज को मिल जाता...कम से कम पेट तो भरता। अब बारी दूध गिराने की थी...1000 रुपए अतिरिक्त....टैंकर गाड़ी के किनारे पर लाया...सामने फुट पर एक नंगे बच्चे पर नजर पड़ी। हरिया काँप गया...धीरे से पास में रखा गिलास निकाला...पानी पीने के लिए लाया था...उसमें थोड़ा दूध निकाला...चुपके से बच्चे को दिया...जी कड़ा किया और दूध का टैंकर पलट दिया। बच्चे के मुँह पर दूध की छींटे पड़ीं....कैमरों की रोशनी उजली सड़क पर तैर गयी। एक रिपोर्टर आया....कुछ मुँह में घुसा कर बोला...आप किसान हैं, इतना अन्न बर्बाद करते तकलीफ नहीं हुई। बवाल बढ़ गया था...पुलिस का लाउडस्पीकर गूँज रहा था...पुलिस वापस लौटने को कह रही थी...वहीं हुक्काम सिंह की आवाज भी एक साथ गूँज रही थी....भाइयों, वापस मत लौटना....हमको कर्जामाफी चाहिए...हरिया घबराकर पीछे हटा, रिपोर्टर पीछे दौड़ा....दो – चार और पीछे हाथ में पैड और मोबाइल लिए आ गए...कैमरे की चकाचौध से हरिया डर के भागा...तब तक किसी ने पुलिस पर पथराव कर दिया...हरिया बेतहाशा भाग रहा था...पाँव के नीचे गेहूँ, चावल, सब्जी, दूध सब आ रहे थे मगर उसे खबर नहीं थी....गोली चल गयी थी....कहाँ हरिया 10 – 20 लाख की सोच रहा था, कहाँ अब उसके पैर नहीं रुक रहे थे। उसके साथ आए मँगरु को गोली लगी थी...खून से लथपथ मँगरु सड़क पर कराह रहा था....पानी – पानी करते –करते प्राण छूटे। प्रजातन्त्र पार्टी के बड़े नेता का सिर फूटा था...हरिया ने देखा...उनके लिए स्ट्रेचर, पुलिस सब जुट गए...ये किसानों के लिए आन्दोलन है...हरिया बुदबुदाया...। गोलीकांड में 3 किसान मारे गए...हरिया ने देखा...पुलिस के बड़े अधिकारी ने बयान दिया कि गोली पुलिस ने नहीं चलायी। प्रशासन सकते में था, डीएम नहीं जानते थे कि बात इतनी बढ़ जाएगी...ऊपर तक खबर नहीं की थी...फोन लगाया....कृषि मन्त्री जी से बात करवा दीजिए....आवाज आयी...साहब व्यस्त हैं, योग दिवस की तैयारी कर रहे हैं। डीएम अखिलेश चौधरी परेशान थे...इधर हुक्काम सिंह और किसान नेता हरिहर चौधरी मीडिया के सामने मुख्यमंत्री को ललकार रहे थे....मुख्यमंत्री को जवाब देना होगा। कर्जमाफी कीजिए...किसान हलकान है...आन्दोलन चल रहा था। हरिया जम गया था...चाय और नाश्ता मिला तो जान में जान आयी...टीवी पर नजर गयी...4 लोग चिल्ला रहे थे, इतने में उसकी नजर एक चेहरे पर पड़ी...अरे...ये तो अपने सरपंच साहेब हैं...टीवी पर, एक रिपोर्टर आया...कुछ कहेंगे...अब हरिया का डर कम हो गया था, भागा नहीं...कहिए...सरपंच साहब को दिखाया और बोला....उनको पहचानते...रिपोर्टर लापरवाही से बोला...हाँ किसान नेता हैं, हरिया बोल पड़ा...उ हे तो हम सबको लाए हैं.....। रिपोर्टर के हाथ में ब्रेकिंग न्यूज लग गयी थी...हमारे साथ स्टूडियो चलिए...एंकर ने किसान नेता लाने को कहा था..काम बन गया आज के शो का। तभी टीवी पर प्रदेश के मन्त्री और मुख्यमंत्री की तस्वीर नजर आयी...शांति बनाने की अपील के साथ विपक्ष को लताड़ती हुई तस्वीर।
डीएम चाहते थे कि कोई भी मन्त्री एक बार इलाके में लोगों को समझा दे..तो मन्त्री साहब को डर था कि आन्दोलन का गुस्सा उन पर न निकल पड़े। शहर में जाम और अनाज की बर्बादी...अच्छा मसाला था मगर सरकार परेशान थी....चुनाव का गणित बिगड़ सकता था...आखिर समाधान मुख्यमंत्री भोलेनाथ ठाकुर ने निकाला....अनशन! अनशन करूँगा.....शहर के लीला मैदान में बैठूँगा...जब तक किसान भाई नहीं मानते...तब तक अनशन होगा। भारतवासी पार्टी के समर्थक तैयारी में जुट गए...मैदान में आनन – फानन में सफाई हुई, एसी...कूलर लगने लगा...तम्बू बिछे...कुर्सियाँ लगीं....डीएम साहेब निलंबित किए जा चुके थे।
अनशन की खबर प्रजातंत्र पार्टी को लगी....सीएम तो सब फुटेज खा जाएँगे....सामने कौन आए...सबकी नजर हुक्काम सिंह पर गयी....यहाँ भी अनशन....किसान नेता अनशन करेंगे किसानों के लिए...सरकार को झुकना होगा।
वहीं हरिया रिपोर्टर के साथ स्टूडियो में आ गया था, या यूँ कहें ला दिया गया था....उसे तरीके के कपड़े पहनाए गए....खाना खिलाया गया...बहस में उसे कुछ नहीं करना होता था...बस चुप रहना होता था...जहाँ बोलता...सारे बुद्धिजीवी...मन्त्री, नेता और गोरी वाली मेम साब बोलती...उसका चेहरा दिखने लगा था...चलते समय कुछ रुपए दिए गए...1000 रुपए। उसे एयर कंडिशन में रखना जरूरी था...कैमरे के सामने प्रेजेंटेबल दिखना जरूरी था, इसलिए वह 4 दिन स्टूडियो में सुरक्षाकमिर्यों के पास ठहरा दिया गया था।
मुख्य मन्त्री जी का अनशन शुरू हो गया था....कैमरों की नजर सीएम साहब के चेहरे पर जमी थी। मुख्यमन्त्री जी ने भरे गले से किसानों से आन्दोलन वापस लेने की अपील की, हर सम्भव सहायता करने का आश्वासन दिया। हरिया का मन भर आया....इतना बड़ा आदमी भूखा है....भूख तो गरीबों के लिए है।
काम हो गया था...स्टूडियो से वह बाहर निकल गया था...गाँव की खुली हवा में रहने वालों को एसी से कितने दिन मतलब रहे। भटकता – भटकता लीला मैदान के पास चला गया....सब परेशान...मुख्यमंत्री न खाए तो बाकी मन्त्री कैसे खाए...अनशन तो तुड़वाना भी होगा....हरिया बाहर बैठा सोच रहा था कि गाँव कैसे जाए....वहाँ चिन्ता हो रही थी कि किसानों से कैसे बुलवाया जाए कि मन्त्री जी अनशन खत्म कर दें। तभी भारतवासी पार्टी के युवा नेता बकबक सिंह की नजर हरिया पर पड़ी...टीवी पर उसने हरिया को देखा था.....अब हरिया ही एकमात्र सहारा था....अब हरिया की ड्यूटी यहाँ थी...2 हजार रुपए मिले....नये कपड़े....मुख्यमंत्री जी के पास ऐसे थोड़े न ले जाया जा सकता था। कैमरे फिर जमा हुए....अबकी हरिया ने मुख्यमंत्री से आन्दोलन वापस लेने की अपील की, उसी आन्दोलन की, जहाँ वह कुछ दिन पहले हरिया मोहरा था....मुख्यमंत्री जी मान गए...हरिया ने नींबू का शरबत पिलवाकर मुख्यमंत्री जी का अनशन तुड़वाया, मुख्यमंत्री जी ने गले लगाया...। अब 3 हजार रुपए आ गए थे...भागो की साड़ी ले सकेगा...भूखे दूध पीते बच्चे का चेहरा नाच गया....सब उसकी दुआ है..।

वहीं दूसरी ओर सरपंच साहब हरिया पर गरमा गए थे...पाँव की जूती मुकाबले में आ गया था...किसान नेता बन गया था...वे हुक्काम सिंह के साथ अनशन पर बैठ गए थे....मगर मुख्यमंत्री का अनशन तुड़वाकर हरिया बाजी मार गया था....जेब में 3 हजार रुपए, भागो की साड़ी...बीज..सूरज का स्कूल....सब हरिया के चेहरे के सामने थे....टीवी के परदे पर आने वाला किसान नेता बन गया था.....भारतवासी पार्टी का चेहरा...हरिया जीरो से हीरो बन गया था....आन्दोलन टूट रहा था...किसान घर लौट रहे थे....मन्त्री जी का अनशन भी खत्म हो गया था।