नेता नहीं, अनुगामी और बाउंसर बना रही है आज की छात्र राजनीति
छात्र अगर इस देश का भविष्य हैं तो छात्र राजनीति उस भविष्य की दिशा
निर्धारित करती है। शिक्षा के क्षेत्र में पत्रकारिता करते हुए बहुत से छात्र
नेताओं से पाला पड़ा है और कुछ अनुभव ऐसे हुए कि लगता है कि अब इस पर बात होनी
चाहिए क्योंकि देश भर में और बंगाल में तो युवाओं पर सबसे अधिक प्रभाव इन छात्र
नेताओं का पड़ता है। यही कारण है कि कोई भी राजननीतिक पार्टी लिंग्दोह कमिशन की
सिफारिशें लागू करने में कतराती है मगर बंगाल की छात्र राजनीति उस हिंसक मोड़ पर आ
चुकी है कि सत्ताधारी पार्टी को अपने ही छात्र संगठन की गतिविधियों को लेकर सोचना
पड़ रहा है। हालत यह है कि खुद मुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री भी छात्र संसद की जगह
छात्र परिषद को लेकर गम्भीर हैं और सेंट जेवियर्स का मॉडल राज्य भर में लागू करना
चाहते हैं।
छात्र राजनीति ने देश को बड़े – बड़े नेता दिए हैं मगर तब और आज में अन्तर है, कहते हुए दुःख हो रहा है मगर अधिकतर छात्र नेताओं ने अपना गौरव,
स्वाभिमान, ईमानदारी और साहस ताक पर रख दिया है, उनका सारा वक्त मीडिया को मैनेज
करने में और पार्टी हाई कमान को खुश करने में बीत रहा है, वे अब गलतियों पर चुप्पी
साधना सीख रहे हैं और भ्रष्टाचार तथा चापलूसी से बगैर किसी विचारधारा के अपना
भविष्य बना रहे हैं। शिक्षामंत्री और मुख्यमंत्री का करीबी बन जाना, उनके काम करना
और उनका माउथ पीस बनकर पत्रकारों से निपटना उनकी जरूरत और भविष्य की सीढ़ी बन गयी
है। पिछले 14 साल में काम करते हुए कम से कम 8 -9 साल तो शिक्षा क्षेत्र की खबरें
लिखी हैं और तकलीफ होती है कि यह सोचकर कि आज की छात्र राजनीति में विचारधारा और
स्वतंत्र सत्ता का घनघोर अभाव है। पार्टी कमान की पुस्तक का अनुवाद, उनके गीतों का
प्रचार और नकारात्मक खबरें करने से रोकना उनकी प्राथमिकता है और वे इसके लिए किसी
भी हद तक जा सकते हैं।
आन्दोलन के तरीके जबरन बात मनवाने और शिक्षकों से बदसलूकी
पर उतर आए हैं, ऐसे में शिक्षण संस्थानों का भविष्य क्या होगा, यह सोचकर ही डर लग
जाता है। हाल ही में एक छात्र नेता से मेरी मुलाकात हुई, फोन से बात होती थी मगर
विद्यार्थियों की समस्या और रिक्त पड़े पदों को लेकर छात्र मनस्थिति जानने के लिए
सम्पर्क किया, मिलने गयी, (बता दूँ कि यह उसका भी आग्रह था) मगर उससे मिलकर
संकुचित व कुंठित सोच पर गुस्से से अधिक निराशा हुई, क्योंकि ऐसे ही लोग हमारे
शिक्षण संस्थानों में प्रोफेसर बनेंगे, चाटुकारिता के दम पर तरक्की की सीढ़ियाँ
चढ़ेंगे और हर उस समस्या को दबाएँगे जो उनकी पार्टी के खिलाफ जाती हो। इन छात्र
नेताओं की पहुँच भी है और प्रभाव भी और पत्रकारिता के तथाकथित पहरेदारों की
मेहरबानी से उनकी मानसिकता ये बन गयी है कि वे जब चाहे किसी भी रिपोर्टर या
पत्रकार को खबर लिखने से रोक सकते हैं और पार्टी या अखबार के जरिए समस्या उठाने
वाले अखबार का तबादला भी करवा सकते हैं।
ये तमाम बातें उस दिन मुझे उस छात्र नेता
से जानने को मिलीं जो उपरोक्त बातों को मेरे मामले में भी लागू करने का दावा करता
था, मैंने उसकी पूरी बात सुनी, अपने संस्थान पर विश्वास था, फिर भी थोड़ी देर के
लिए संशय हुआ जिसे मैंने कार्यालय आते ही दूर किया मगर ये अनुभव भी सिखाने वाला
रहा, छात्र नेताओं की मानसिकता समय की मानसिकता भी बताती है। जब छात्र नेता
विद्याथिर्यों की समस्याओं की जगह यह तय करने लगें कि कौन सा पत्रकार क्या लिखेगा,
कितना लिखेगा, उसे किस तरह मैनेज किया जाए, कौन सा मसला उठाने नहीं देना है, कौन
सा मुद्दा दबाना है, किस रिपोर्टर को ‘देख लेने’ और किसका तबादला
करवाने की जरूरत है, तो ये खतरनाक संकेत हैं। यह छात्र नेता भी बडबोलेपन का मारा
था जो एक पत्रकार के सामने दूसरे पत्रकार को मैनेज करने की बात कर रहा था, बगैर यह
समझे कि नेता आते – जाते रहते हैं, सरकारें भी आती – जाती रहती हैं, पत्रकार हमेशा
पत्रकार ही रहता है और उनमें एकता भी होती है। मैं कह नहीं सकती पर क्या पता, वो
मुझे भी ‘मैनेज’ करना चाहता था ताकि डींग हांक सके
कि उसने तीर मार लिया है मगर उसे निराशा हाथ लगी है। क्यों नहीं छात्र नेता मैनेज
करने से अधिक जरूरी चीजों पर ध्यान देते हैं? हालांकि तसल्ली मिली मगर उस वक्त मुझे समस्या की गहराई का एहसास हुआ और
यही वजह है कि सालों बाद मुझे लग रहा है कि इस पर बात होनी जरूरी है।
हमारे विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर हैं जो
छात्र राजनीति करते – करते ही प्रोफेसर बने हैं और उनकी छात्रा रह चुकी हूँ इसलिए
अब सोचकर ही डर जाती हूँ कि क्या शिक्षण संस्थान पार्टी मुख्यालय बनकर रह जाएँगे
जहाँ वीसी से लेकर शिक्षक तक सब सहमे रहेंगे। मुझे याद आता है कि वह किस कदर सवाल
करने वालों का माखौल उड़ाया करते थे और उसे हतोत्साहित करने में उन्होंने कोई कसर
नहीं छोड़ते थे। आज भी उनकी हर बात में कुँठा ही नजर आती है जो दूसरों के आगे
बढ़ने से परेशान होता है। मेरी मुलाकात जिससे हुई, वह इन दिनों साहित्य लेकर एक
वरिष्ठ कवि को लेकर शोध कर रहा है इसलिए पीड़ा अधिक हुई क्योंकि साहित्य पढ़कर भी
गरिमा और संवेदना आपके व्यवहार और आचरण में न आए तो आपका साहित्य पढ़ना और शिक्षक
बनना बेकार है। आप चापलूसी करके ऊँचा पद पा सकते हैं, अनुगामी पा सकते हैं मगर
नेता नहीं बन सकते क्योंकि सच्चा नेता वैचारिक तौर पर स्वतंत्र होता है, उसकी
विचारधारा में विरोधाभास नहीं होता है, उसका व्यक्तित्व मैनेज करने में विश्वास
नहीं रखता और न ही समस्या को दबाने में, न ही अपनी ताकत दिखाने में उसे यकीन है।
आपकी आँखें हमेशा नीची और जुबान बंद रहेगी, आपका इस्तेमाल वोटबैंक बढ़ाने और बड़े
नेताओं की रैलियों में भीड़ बढ़ाने के लिए होगा। आप आज हैं, कल रहेंगे या नहीं,
इसका विश्वास आपको भी नहीं है, हर समय असुरक्षा में जीना, तोड़ –फोड़ करना आपकी
नियति है। ये समझने के लिए आत्मसम्मान की जरूरत पड़ती है मगर आज के छात्र नेताओं
में इसका नितांत अभाव है, वे अधजल गगरी, छलकत जाए की कहावत, सार्थक करते हैं। देश
भर के विश्वविद्यालयों में जिस तरह मार – काट चल रही है, छात्र संसद चुनाव को जिस
तरह युद्ध बना दिया गया है, वह छात्र नेताओं और छात्र राजनीति की पराजय है। छात्र
नेताओं को अगर तरक्की मिले भी या वे कितने भी बड़े नेता हो जाएँ, उनका काम न अब तक
बदला है और न ही बदलने की सम्भावना है, वे अधिक से अधिक बाउंसर बन सकते हैं,
विपक्षी नेताओं को धक्के मारना, धक्का – मुक्की करना, रैलियों की भीड़ बढ़ाना और
सदन से बाहर कर देना और विपक्ष में हों तो सदन से वॉकआउट करके नायाब तरीकों से
प्रदर्शन करना, उनकी नियति बस यही है।
छात्र राजनीति आज नेता नहीं अनुगामी और
बाउंसर बनाती है। जहाँ तक हिन्दी भाषी छात्र नेताओं की स्थिति है तो बंगाल में
उनकी स्थिति में अधिक बदलाव नहीं आया। तृणमूल को जब पहली बार सत्ता मिली तो बहुत
से वामपंथी छात्र नेताओं ने एसएफआई का साथ छोड़ा और टीएमसीपी में आ गए क्योंकि
यहाँ मूल्यों का मामला ही नहीं था, सिर्फ अवसरवादिता का सहारा लेकर आगे बढ़ने की
चाह थी। आज बंगाल की छात्र राजनीति में एक भी ऐसा हिन्दीभाषी नेता नहीं है, जिससे
उम्मीदें जुड़ सकें। सच तो यह है कि किसी भी राजनीतिक पार्टी में हिन्दी भाषी
छात्र नेता बेहद कम हैं और जो हैं, उनकी राजनीतिक यात्रा और बौद्धिक ऊँचाई नौकरी
पाने तक सीमित रहती है। ये लोग हर जगह हाजिरी बजाते हैं। ये वामपंथी हैं या सत्ता
के साथ, समझ में नहीं आता, वे जाते हैं क्योंकि उनको नौकरी बचानी है। एक सच यह भी
है कि बंगाल में पार्टियाँ हिन्दीभाषियों को पत्ता नहीं देतीं, बंगाल से छात्र
राजनीति कर शीर्ष स्तर पर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले हिन्दीभाषी छात्र
नेता न के बराबर हैं।
इसका कारण यह है वे आगे बढ़ने के लिए हद से ज्यादा झुकते हैं
और चाटुकारिता को साधन बनाते हैं। इतने सालों में काम करते हुए तमाम विरोधों के
बावजूद किसी ने इतने खुले तौर पर पत्रकारों और मीडिया को मैनेज करने की बात नहीं
कही थी मगर आज छात्र राजनीति छिछले स्तर पर आ गयी है, इसका पता मुझे इस मुलाकात
में हो गया। आज जितनी गुटबाजी होती है, उतनी 10 साल पहले नहीं थी और थी भी तो उसे
सामने नहीं आने दिया जाता था। आज किसी प्रकार का सृजनात्मक काम बहुत कम हो गया है,
सरस्वती पूजा में भी पार्टी विभाजन है। सीयू के दो द्वार पर दो छात्र संगठनों की
पूजा और उसमें भी एक के कार्यक्रम में हद दर्जे की अश्लीलता नजर आती है। जिससे
मुलाकात हुई, वह भी अन्ध अनुगामी ही है जिसके पास अपनी सोच नहीं है। अन्य छात्र
संगठनों में भी विरोध के नाम पर धरना और प्रदर्शन ही होता है और दिक्कत यह है कि
इसके पीछे शिक्षक भी हैं या यूँ कहें कि वे इसे प्रोत्साहित ही कर रहे हैं। सीयू
के वीसी के टेबल पर जब एक शिक्षक संगठन की अध्यक्ष हाथ पटककर धमकी भरे अन्दाज में
बात करती है तो वह अपनी गरिमा खो बैठती है, भूल जाती है कि वह एक शिक्षिका है।
जेयू में जब दीक्षांत समारोह स्थल के बाहर छात्र राज्यपाल के खिलाफ अपशब्द लिखते
हैं और पास ही धरना दे रहे शिक्षक समारोह का बहिष्कार कर बाहर जमे रहते हैं तो
उनको सोचना होगा कि वे भावी पीढ़ी को कौन सी दिशा दिखा रहे हैं। सोचना पड़ रहा है,
जो सिर उठाकर चलना भूल गए, क्या वे अपनी संतानों और विद्यार्थियों को ईमानदारी और
स्वाभिमान का पाठ पढ़ा सकेंगे। अगर पढ़ाएंगे भी तो क्या अपना सामना कर सकेंगे, आने
वाली पीढ़ी की आँखों में आँखें डालकर अपनी बात कह सकेंगे, क्या उनको सच कहना, अडिग
रहना सिखा सकेंगे....लगता तो नहीं है।
आज विधान सभा से लेकर लोकसभा में भी नेता
नहीं बल्कि बाउंसर हैं तो इसकी वजह यही है कि संड़ाध पेड़ की जड़ में घुस गयी है। शिक्षक
खुद दो खेमों में बँटे हैं, वह कौन सी राह नयी पीढ़ी को दिखाएँगे, यह सोचने वाली
बात है क्योंकि सेमिनारों में और अपने आयोजनों में उनको छात्र नेताओं की जरूरत
रहती है, उनमें खुद भय समाया है। आज कोई भी शिक्षक प्रिंसिपल नहीं बनना चाहता,
छात्र राजनीति में विरोध के तरीके ताला लगाने, शिक्षकों को पीटने, वीसी का कॉलर
पकड़ने और वीसी को ओलेक्स पर बेचने तक सीमित रह गयी है। मुझे याद आता है जब कूटा
के विरोध प्रदर्शन में दिवंगत दिव्येंदु पाल दा को किस कदर पीटा गया था, उनके
कपड़े तक फाड़ डाले गए थे। कोई भी शिक्षक इस पूरे कृत्य के विरोध में नहीं आया।
मैं प्रदर्शनकारी डरे – सहमे शिक्षकों के चेहरे नहीं भुला पाती। सच तो यह है कि
छात्र और कुछ हद तक शिक्षक राजनीति का वतर्मान परिदृश्य नेतृत्व के सही मायने ही
नहीं समझता, वह सिर्फ अपने हितों की रक्षा तक सिमट कर रह गया है। आज की छात्र
राजनीति नेता नहीं बनाती, वह या तो अनुगामी बनाती है या बाउंसर.....पत्रकारों को
मैनेज करने वाले मित्रों और भाइयों, तुम चाहे जितनी भी ऊँचाई छू लो, तुम्हारी नियति भी यही है।
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