शनिवार, 21 नवंबर 2020

सरंचना चाहिये तो खर्च करिये, बहाने मत बनाइये




हम सब न बड़े कनफ़्यूज़ लोग हैं, वेतन ज्यादा से ज्यादा चाहिये, भत्तों में कमी बर्दाश्त नहीं, सुविधायें ए क्लास चाहिये, हमें स्टेटस की ऐसी लत लगी है की बजट न हो, तब भी कर्ज लेकर, खर्च कम करके बच्चों को महंगे निजी स्कूलों में पढ़ायेंगे मगर सरकारी स्कूलों को सुधारने पर ध्यान नहीं देंगे। अब जरा आपत्तिजनक बात करती हूँ। इनमें से कई गरीब और जरूरतमंदों को धरने देते समय ऐसी सिगरेट पीते देखी है, जिसका एक पैकेट ही 100-150 रुपये का आता होगा, हॉस्टल्स से शराब की बोतलें भी पकड़ी गईं हैं, आउटसाइडर आते हैं, पड़े भी रहते हैं, मैने ऐसे भी विद्यार्थी देखे हैं जो कड़े परिश्रम से पढ़ते और पढ़ाते हैं, नौकरी करते हैं, और अपने सपने पूरे करते हैं। हमें सरंचना चाहिये और 10 रुपये किराये में रहना है। इस देश में गरीब हैं मगर गरीबी बाधा नहीं बनती तभी यहाँ ए पी जे कलाम हुए जिन्होने अखबार बेचकर पढ़ाई की। अगर आप अपनी वेतन वृद्घि के लिए 40 साल इन्तजार नहीं कर सकते तो किसी संस्थान को इस कड़ी प्रतियोगिता और महंगाई के बीच क्यों फीस बढ़ाने के लिए इन्तजार करना चाहिये, क्या ये बेहतर नहीं होगा की विद्यार्थियो के लिए आंशिक कार्य की व्यव्स्था करनी चाहिये, 200-300 या 600 रुपये कोई इतनी बड़ी रकम नहीं है। जितनी सहानूभूति देने में शब्द खर्च किये जाते हैं, उतने शब्द आप इन बच्चों को काम देने में कर सकते हैं और अगर इसकी अवधि में थोड़ा लचीलापन हो तो यह पढ़ाई से बिल्कुल नहीं टकरायेगा। यकीं नहीं है तो माध्यमिक और उच्च माध्यमिक के नतीजे देख लीजिये, उच्च शिक्षा में तो स्थिति बेहतर है और राजनीति बक्श दे तो और बेहतर होगी।

हम अपने युवाओं को खैरात की लत न लगने दें तो ही बेहतर है। हमारी समस्या यह है की हमें अपने संस्थानों को विश्व के शीर्ष संस्थानों में देखना है। हमें नौकरी भी लाखों की चाहिये मगर फीस हम अंग्रेजों के जमाने की ही देंगे। मेरी समझ से यह गलत है। इस देश की बढ़ती आबादी और लाखों शिक्षण संस्थानों को उन्नत कर पाना किसी सरकार के लिए सम्भव नहीं है। खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश, राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में तो और कठिन है। दरअसल, शिक्षा विरोधी सरकार नहीं है, हम खुद हैं जो चाहते ही नहीं की कई नियमों में जकड़े सरकारी संस्थान निजी संस्थानों के समकक्ष खड़े हो सकें। किसी के हाथ -पैर बाँधकर उसे रॉकेट उड़ाने के आदेश जैसा ही है यह। सरंचना चाहिये तो खर्च करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये।
बाकी हिप्प्क्रेसी में तो डॉक्टरेट है ही
जरूरत की सही परिभाषा रखिये।
संस्थान की गरिमा को ताक पर रखने वालों से कोई हमदर्दी नहीं मेरी, सचित्र उदाहरण भरे पड़े हैं
सरंचना चाहिये तो खर्च करिये, बहाने मत बनाइये, सहानूभूति नहीं, बच्चों को आत्मनिर्भर बनाइये परजीवी नहीं
#जे एन यू समेत हर संस्थान के लिए#

 

भारत के पर्व सांस्कृतिक और आर्थिक चेतना का उल्लास हैं....समझिए



पर्व और त्योहार ,,,,हमारी सांस्कृतिक चेतना और आर्थिक प्रगति की आवश्यकता है। इनको निशाना बनाकर अपना उल्लू सीधा करना गलत है मगर हो यही रहा है। पशुओं में भी जीव है, कुत्तों में तो जान बसती है, गाय तो फिर भी काम की नहीं और बकरा भी, इनकी जान की कोई कीमत नहीं है। पशुओं से भी भेदभाव, कुत्ता क्लास बढ़ाता है, गाड़ियों में घूम सकता है, गाय का गोबर गन्दा है और अमेज़न ऑर्गेनिक होकर बिकता है, फिर भी गाय की सेवा करने वाले दकियानूसी हैं। कुत्ता आपसे सेवा करवाता है, आप भी उसका मल उठाते हैं मगर फिर भी आप अभिजात्य हैं, कई दर्जा ऊपर हैं
एक जगह पढ़ा था जानवर कहलाना इन्सान की अपमान लगता है, और शेर कहा जाये तो उछलता है, शेर में जानवर ही न या कोई अलग श्रेणी है। कुछ लोग तो इसलिये नाराज हो जाते हैं की कुत्ता को कुत्ता क्यों कहा, कुतिया को कुतिया क्यों कहा, अब ये न कहें तो क्या कहें। जब बिल्ली को बिल्ली, बैल को बैल कह सकते हैं तो भला कुत्ते को कुत्ता क्यों न कहें? क्या ये अन्य जानवरों से अन्याय नहीं है? कुत्ते को ज्यादा भाव देकर आप उसका तुष्टिकरण कर रहे हैं
वैसे गाय मरने के बाद भी खाल दे जाती है, वह दम्भी और पागल नहीं होती, कुत्ता पागल हो जाये तो काट खाता है, 14 इन्जेक्शन लेने पड़ते हैं और अन्त में खुद को बचाने के लिये आप ही उसे नगर पालिका को देते हैं या खुद गोली मार देते हैं।




पीछे मत पड़िए, हमले का जवाब जवाबी भी होता है, हम अगर बकरीद पर बकरों की जान बचाने लगे, नकली क्रिसमस ट्री के कारण होने वाले नुकसान बताने लगे जिसकी जरूरत है
और हमारे पास तो उत्सव के हजार तरीके हैं, आपके पास तो वो भी नहीं, तो जरा सोचिये, हमने भी इनके खिलाफ अभियान छेड़ा, मामला किया और एक दिन पहले खबर आये की ईद, बकरीद, क्रिसमस पर कोई खुशी नहीं मनायेगा। अरे। हाँ, कोरोना में चर्च या मस्जिद जाने से भी तो कोरोना फैलेगा, क्रिसमस के जश्न से भी तो फैलेगा, हमारे यहाँ नदियों को पूजा जाता है, छठ के बहाने घाट और दिवाली के कारण घर साफ होते हैं। हमारे यहाँ मिट्टी के दिये हैं। आपके क्रिसमस ट्री और हर सामान में प्लास्टिक, चमकीले कागज का उपयोग है,
सयाने बुद्धिजीवियों की बुद्धि सिगरेट और जाम के बगैर खुलती ही नहीं। गुरु और शिष्य, दोनों ही मैत्री भाव से इसका सेवन कहीं भी करते हैं, एबीपी ग्रुप से लेकर तमाम अखबारों में अश्लील तस्वीरें और टी 2 में हुक्के बार वाली तस्वीर छपती है, ये भी बताया जाता है की मिलेगा कहाँ, तो अब हम सब भी पीछे पड़ेंगे
प्रोपेगेंडा का जवाब भी उसी तरीके से दिया जायेगा। हम भी अपील करवाएंगे की लोग ईद और क्रिसमस न मनाएं, चर्च और मस्जिद न जाएं।बाजार में न जाएं। सिगरेट पीने वालों के खिलाफ भी हम अब खड़े होंगे, अब आप देखते रहिये।आपकी रैलियों पर रोक लगवाएंगे