शुक्रवार, 26 मई 2017

‘दादा’ की राह पर चलती दिख रही हैं ‘दीदी’


दिन बदलते हैं और जब दिन बदलते हैं तो पुराने दिनों को भूलने में देर नहीं लगती। अगर गुजरा हुआ कल याद भी आता है तो सत्ता में आने के बाद अधिकतर सत्ताधारी बदला लेने और कुर्सी बचाने में व्यस्त हो जाते हैं। सत्ता के नशे की तासीर शायद कुछ ऐसी ही होती है कि लोकतन्त्र की दुहाई देकर कुर्सी पाने वाले सदाचारी नेता कब दुराचार के दलदल में चले जाते हैं, पता ही नहीं चलता। ईमानदारी की जगह बेईमानी और चापलूसी ले लेती है, विनम्रता तानाशाही में इस कदर बदलती है कि स्पष्टवादी ही दुश्मन बन जाते हैं, जो लंका में जाता है, वही रावण बन जाता है और जो कुर्सी पा जाता है, वही अहंकारी और तानाशाह बन जाता है, उसे याद ही नहीं रहता है कि आज जिन चीजों के लिए वह प्रशासन और कानून को अपने हित में इस्तेमाल कर रहा है, कल यही उसके दुश्मन हुआ करते थे। सीबीआई को तोता कहा गया मगर सत्ता के हाथों इस्तेमाल होती पुलिस को क्या कहेंगे, पता नहीं। बहरहाल बंगाल में इन दिनों विपक्ष और सत्ता के बीच कुश्ती चल रही है, ममता बनर्जी जिस राह को पीछे छोड़कर आ गयी हैं, अब उसी राह पर चलने के लिए वाममोर्चा, काँग्रेस और भाजपा बेताब हैं। ममता जब विपक्ष में थीं तो खूब धरने दिया करती थीं, भूख हड़ताल भी करती थीं और इस कदर अड़ी रहती थीं कि भारत के प्रधानमंत्री का अनुरोध भी उन्होंने ठुकरा दिया। तब वाममोर्चा पर सत्ता का नशा चढ़ा था, जिद अहंकार में बदल गयी थी। नतीजा सिंगुर और नन्दीग्राम के रूप में दिखायी दिया और वाममोर्चा के अहंकार और दमन को ममता ने अपनी सीढ़ी बना लिया। वाममोर्चा खासकर माकपा ने भी धरने दिए हैं, प्रदर्शन भी किया है, कई बार वाममोर्चा नेताओं, खासकर विमान बसु की जुबान फिसली भी थी मगर तब भी बुद्धदेव भट्टाचार्य में एक अजब सी शालीनता थी। वाममोर्चा और खुद बुद्धदेव भट्टाचार्य से नाराजगी के बावजूद मुख्यमंत्री के रूप में बुद्धदेव भट्टाचार्य से नफरत नहीं की जा सकती क्योंकि उन्होंने सख्ती के बावजूद अपने पद की गरिमा बनाए रखी। आज भी यह सादगी और सरलता आपको वाममोर्चा के नेताओं में दिखती है। मुमकिन है कि तृणमूल सुप्रीमो के समर्थकों को बुरा लगे मगर निजी तौर पर मेरा मानना है कि ममता जी अपना गुजरा कल भूल चुकी हैं या फिर सत्ता के मोह ने उनको पूरी तरह बदल दिया है। बंगाल की लोकप्रिय दीदी जनता से लगातार दूर हो रही हैं। एक बड़ा सच है कि आज अगर उनको लोग सम्मान देते हैं तो उसके पीछे स्नेह और प्रेम से अधिक भय है। ममता आज या तो भय बन गयी हैं या बन जाना चाहती हैं। आज तृणमूल भले ही हर जगह जीते मगर आज उसे हिंसा का सहारा लेना पड़ रहा है, लोगों को धमकाना पड़ रहा है और उसकी जीत में ही सबसे बड़ी पराजय छिपी है। अब मुझे ममता बनर्जी में थके हुए बुद्धदेव भट्टाचार्य नजर आ रहे हैं और ममता की सरकार भी उनकी तरह ही दमन का रास्ता अपना रही है। तो क्या बुद्धदेव बाबू ही तरह ही ममता भी डरी हुई हैं? अगर ऐसा है तो दीदी के लिए आगे की राह मुश्किल हो सकती है। वर्ष 2010 तक भी किसी ने कल्पना नहीं की थी कि वाममोर्चा की इतनी बड़ी पराजय होगी मगर वाममोर्चा हारा। आज वाममोर्चा काँग्रेस के साथ मिलकर अपनी खोई हुई जमीन पाना चाहता है मगर लोगों के लिए वाममोर्चा शासन का दमन भूलना आसान नहीं है। सच तो यह है कि तृणमूल की जीत पहली बार भले ही दीदी की लोकप्रियता के कारण हुई है मगर दूसरी बार सत्ता में वापसी का कारण सिर्फ यही है कि जनता को तृणमूल का विकल्प नहीं मिल रहा है। भाजपा अब वही विकल्प बनने की कोशिश कर रही है और पार्टी की राज्यसभा सांसद रूपा गाँगुली का आक्रामक रवैया आपको ममता बनर्जी की याद दिलाता है। 1993 में ममता को राइटर्स से धक्के देकर निकाला गया और बाद में भी वाममोर्चा ने जिस तरह उनको प्रताड़ित किया,  लोगों की सहानुभूति उनसे जुड़ी। 

अब ममता बनर्जी की सरकार भी दमनकारी नीति अपना रही है और नतीजा यह है कि वह अब दोस्तों को भी दुश्मन बना रही हैं। 2009 में बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार ने जेयू में छात्रों को पिटवाया था मगर तृणमूल के शासन में तो आए दिन शिक्षकों को प्रताड़ित होना पड़ रहा है, विरोधियों पर डंडे बरसाए जा रहे हैं। जिस मीडिया के सहारे वे कुर्सी पाती हैं, उसी मीडिया पर पुलिस हमले कर रही है। धरना – प्रदर्शन की राजनीति करके सत्ता में आने वाली दीदी को विरोधियों का प्रदर्शन इतना अखरता है कि उसे रोकने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकती हैं। दरअसल, सच तो यह है कि पुलिस और प्रशासन की स्वायत्ता एक मिथ है क्योंकि जो सत्ता में रहता  है, वह पुलिस को अपने हिसाब से इस्तेमाल करता है, कल बुद्धदेव बाबू की सरकार करती थी, आज दीदी की सरकार कर रही है। वाममोर्चा और भाजपा को रोकने के लिए पुलिस जिस तरह हिंसक हुई, उसे देखकर तो यही लगता है क्योंकि जब तृणमूल की रैली निकलती है या सभा होती है तो यही पुलिस पलक – पाँवड़े बिछाए रहती है। आम आदमी को परेशानी तब भी होती है मगर पुलिस का धीरज नहीं टूटता। कल तक जिनके आगे पुलिस का सिर झुका रहता था, आज उन पर पुलिस लाठियाँ बरसाती है तो बस एक ही उक्ति याद आती है – जिसकी लाठी, उसकी भैंस। ये वही ममता बनर्जी हैं जो एनडीए के साथ रह चुकी हैं, जब कोलकाता पुलिस भाजपा समर्थकों पर लाठियाँ बरसा रही थी, तब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ठग और दगाबाज, दंगाबाज कहने वाली दीदी उनके साथ ही बैठक कर रही थी जबकि सच तो यह है कि केन्द्र सरकार की कई योजनाओं को राज्य में लागू होने ही नहीं दिया गया और जब किसी परियोजना का उद्घाटन होता है तो तृणमूल के मंत्री शिष्टाचार की सारी हदें तोड़कर केन्द्रीय मंत्री की जगह आनन – फानन में उद्घाटन कर देते हैं। ये बड़ा अजीब सा विरोधाभास है कि केन्द्र से सहायता चाहिए मगर केन्द्र से हर समय विरोध होगा। प्रकाश जावड़ेकर केन्द्रीय मंत्री होने के नाते जब वाइस चांसलरों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग करते हैं तो बंगाल के अधिकारियों और वाइस चांसलरों को भाग लेने की इजाजत नहीं दी जाती। 
यह राजनीतिक लड़ाई पड़ोसी के झगड़े की तरह लगने लगती है मगर यह ध्यान रखने की जरूरत है कि राष्ट्रीय स्तर की राजनीति करने के लिए एक शालीनता और गरिमा की जरूरत है। जब वह महिलाओं के साथ होने वाले उत्पीड़न को साजानो घटना कहती हैं और अल्पसंख्यकों की रैली में बाकायदा नमाज पढ़ने की मुद्रा में आती हैं और बरकती जैसे लोगों पर लगाम नहीं कसतीं तो यह उनका जनाधार कहीं न कहीं कम कर रहा होता है। कहते हुए अफसोस होता है मगर ये दोनों ही न तो तृणमूल में हैं और न ही खुद ममता बनर्जी में हैं। दीदी अनायास ही बुद्धदेव भट्टाचार्य की राह पर चल तो पड़ी हैं मगर भट्टाचार्य जैसे व्यावहारिक दृष्टिकोण का उनमें अभाव है, उनकी जिद अहंकार तो बन रही है मगर इसका परिणाम हम 2011 में देख चुके हैं। ममता बनर्जी की पार्टी में उनका एकमात्र विकल्प वे खुद हैं और अपना विकल्प उन्होंने तैयार होने ही नहीं दिया, ये पार्टी के लिए भी खतरनाक स्थिति है क्योंकि अभिषेक बनर्जी अगर दीदी के उत्तराधिकारी बनते भी हैं तो उनको वैसी लोकप्रियता न तो मिलेगी और न ही वैसी एकता ही फिर रहेगी क्योंकि कुर्सी सबको चाहिए। भाजपा का आक्रामक रवैया उनको परेशान कर रहा है तो दूसरी तरफ वे वाममोर्चा और काँग्रेस की दोस्ती को चाहें भी नजरअंदाज नहीं कर सकतीं। अगर बंगाल में विपक्ष एक विकल्प बनने की दिशा में सफल होता है तो यही परिणति तृणमूल और खुद तृणमूल सुप्रीमो की हो सकती है।

बुधवार, 24 मई 2017

जो वंचित हैं, अधिकारों पर अधिकार उसका भी है



पत्रकारिता में सम्पादक बहुत महत्वपूर्ण होता है और हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास के केन्द्र में ही सम्पादक ही घूमता है। पत्रकारिता पर जितना भी पढ़ा है, उसमें अखबार और सम्पादक पर ही बात होती है, वाजिब भी है। सम्पादकों की सत्ता को चुनौती देने वाली बात नहीं है मगर अखबार एक सामूहिक कर्म है, किसी भी और क्षेत्र की तरह इसलिए इसमें छोटे से छोटे अंग का अपना महत्व है। कोई भी सम्पादक चाहे कितना भी बड़ा हो, अकेले अखबार नहीं निकाल सकता, अगर टीम अच्छी न हो तो आपकी सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं क्योंकि उनको क्रियान्वित करने वाला नहीं होता। सम्पादक अखबार का चेहरा होता है मगर क्या चेहरे पर ही ध्यान देने से समूचा शरीर स्वस्थ रह सकता है? थोड़ा सा श्रेय तो शरीर के अन्य अंगों को दिया जाना चाहिए। संवाददाता, जिला संवाददाता, कैमरामैन, फोटोग्राफर, पृष्ठ सज्जाकार, तकनीकी पक्ष, विज्ञापन, प्रसार करने वाले लोग.....किताबों में इनको एक पैराग्राफ में सलटा देने की परम्परा है और यही वास्तविकता में भी हो रहा है। बेहद कम सुविधाओं में काम करने वाले लोग हैं ये। संवाददाताओं और कुछ हद तक छायाकारों को सुविधा कम या कई बार न के बराबर भी मिले मगर श्रेय थोड़ा – बहुत मिल भी जाता है मगर दूसरे अंगों का क्या? हम न तो इन पर बात करते हैं और न ही इनके बारे में सोचते हैं। सबका रिप्लेसमेंट हमेशा तैयार रहता है और इनमें से बहुत से उपेक्षा और शोषण के शिकार भी रहते हैं। प्रबंधन और इन सभी के बीच में जितने भी लोग है, वे अपने हिसाब से स्थिति को दिखाते हैं। कारखाने के बंधुआ मजदूरों से भी खराब स्थिति इन सबकी होती है मगर न तो सवाल उठते हैं और न ही सुविधाएं मिलती हैं क्योंकि दुनिया का दस्तूर है, लोग इमारत की ऊँची मंजिल ही देखते हैं और उनको सिर्फ वही दिखाया जाता ही है। आधे से अधिक लोग असमय ही अवसादग्रस्त हो जाते हैं और अवसाद में जी रहे हैं। अजीब सा निराशाजनक वातावरण है, जहाँ कोई उम्मीद नहीं है, काम होता है और अगर इस माहोल में काम के नाम पर खानापूर्ति हो तो हमें न तो आश्चर्य होना चाहिए और न ही शिकायत होनी चाहिए। पहला संवाददाता, फोटोग्राफर, पेजमेकर, कैमरामैन और ऐसे न जाने कितने लोग हमें पत्रकारिता की मोटी – मोटी किताबों में भी नहीं मिलते और न ही खोजने की कोशिश की जाती है, उनकी स्थिति पर शोध हो, सुधारने की कोशिश हो और पुरस्कारों और सम्मानों की बरसात में एक हिस्सा उनके नाम पर भी हो....तो बात बने मगर इसके लिए बात तो होनी जरूरी है। अखबारों का वातावरण देखकर बच्चों वाली प्रतियोगिता याद आ जाती है, कई बार ऐसा भी होता है कि किसी छोटे अखबार का सम्पादक जाए तो बड़े अखबार के सम्पादक वहाँ नहीं जाएंगे क्योंकि उनके लिए दूसरों के साथ बैठना भी अपमान लगता है। एक मीडिया हाउस का व्यक्ति कभी दूसरे हाउस में जाए तो उसे ऐसे देखा जाएगा, जाने वह कहाँ का अजूबा है या उसने कितना बड़ा पाप कर दिया है। बड़ी असमंजस वाली स्थिति हो जाती है, जो आपको जानते हैं, वह भी बात नहीं करेंगे क्योंकि बाद में उनसे सवाल होंगे। कई मीडिया हाउस तो संवाददाताओं को दूसरे मीडिया हाउस से बात तक करने की इजाजत नहीं देते, ऐसा भी देखा गया है कि हिन्दी वाले ही हिन्दी वालों से बात नहीं करते और न ही उनको छूट है। हिन्दी पत्रकारिता में संदेह की परम्परा बढ़ गयी है। मैंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में जो बीमारी देखी, वह यहाँ भी है। प्रेस क्लब का चुनाव छोड़ दिया जाए तो सभी सम्पादकों और पत्रकारों व अन्य लोगों का एक मंच पर आना और कायदे से बात करना भी दुनिया का आठवाँ अजूबा होगा। बात नहीं करना, साथ नहीं आना, हमारी समस्या की जड़ है क्योंकि इसमें कभी हीनभावना है तो कभी अहंकार है। प्रतियोगिता हो मगर स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा हो तो बात बनती और यह समस्या किसी शहर या राज्य की नहीं हर जगह ऐसा है। हम कल्पना नहीं कर सकते कि हिन्दी पत्रकारिता पर कोई बात या आयोजन हो और उसमें हर मीडिया के लोग शामिल हों, ये बस असम्भव है। पत्रकार के नाम पर बंधुआ मजदूरों को प्रश्रय दिया जाना और 90 प्रतिशत भागीदारी को अनदेखा करना यह कोई अच्छी बात नहीं है। कम से कम सुविधाओं और श्रेय पर उनका अधिकार है। पूरी जिन्दगी हिन्दी पत्रकारिता के छाया जगत को देने के बाद अगर किसी बुर्जुग छायाकार की आँखों में उपेक्षा की पीड़ा हो, किसी पेजमेकर का नाम तक हम न जाने, कोई संवाददाता जिन्दगी भर काम करने के बाद गरीबी में गुमनामी की मौत मरने पर मजबूर हो तो यह उसके लिए नहीं, पत्रकारिता जगत के पुरोधाओं के इतिहास को शर्मसार करने वाली बात होगी। यह जाहिर सी बात है कि बड़े से बड़ा बादशाह भी अजर – अमर नहीं होता, एक दिन सबका तय है जाना, मगर उसकी भूमिका तय करती है कि उसे किस तरीके से याद किया जाए। कम से कम जो बड़े पदों पर बैठे हैं और जो दिल्ली में बैठे हैं, वह यह कर सकते हैं, पत्रकारिता को आपने अगर धंधा बना ही दिया है तो धंधे में भी सुविधाओं की जरूरत होती है, श्रम को सम्मान और अधिकार की जरूरत तो कारखाने में भी होती है। आगे बढ़ना उसका अधिकार होता है। अविश्वास, संशय, संदेह, शोषण और उपेक्षा और घृणा, क्या हम पत्रकार आने वाली पीढ़ी के लिए यही छोड़कर जा रहे हैं? क्या आने वाली पीढ़ी ऐसी ही होगी जो पत्रकारिता का मतलब न समझे, उसे ग्लैमर समझे, सिर्फ फायदे की जगह समझकर काम करे और जीवन भर पेशेवर कारणों से दोस्त को भी दुश्मन समझने को बाध्य हो? अगर ऐसा परिवेश हमारे साहित्यिक, सांस्कृतिक, पत्रकारिता जगत में रहा तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा और न ही हमारे पास कोई उत्तर होगा। ऐसी स्थिति में सृजनात्मकता पर बात ही फिजूल है और सवाल यह है कि पूरे वातावरण में जो संड़ाध भर रही है, उसकी भरपाई कौन करेगा? # who will repay#