जो वंचित हैं, अधिकारों पर अधिकार उसका भी है
पत्रकारिता में सम्पादक बहुत महत्वपूर्ण होता है और
हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास के केन्द्र में ही सम्पादक ही घूमता है। पत्रकारिता पर जितना भी
पढ़ा है, उसमें अखबार और सम्पादक पर ही बात होती है, वाजिब भी है। सम्पादकों की
सत्ता को चुनौती देने वाली बात नहीं है मगर अखबार एक सामूहिक कर्म है, किसी भी और
क्षेत्र की तरह इसलिए इसमें छोटे से छोटे अंग का अपना महत्व है। कोई भी सम्पादक
चाहे कितना भी बड़ा हो, अकेले अखबार नहीं निकाल सकता, अगर टीम अच्छी न हो तो आपकी
सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं क्योंकि उनको क्रियान्वित करने वाला नहीं
होता। सम्पादक अखबार का चेहरा होता है मगर क्या चेहरे पर ही ध्यान देने से समूचा
शरीर स्वस्थ रह सकता है? थोड़ा सा श्रेय तो शरीर के अन्य
अंगों को दिया जाना चाहिए। संवाददाता, जिला संवाददाता, कैमरामैन, फोटोग्राफर,
पृष्ठ सज्जाकार, तकनीकी पक्ष, विज्ञापन, प्रसार करने वाले लोग.....किताबों में
इनको एक पैराग्राफ में सलटा देने की परम्परा है और यही वास्तविकता में भी हो रहा
है। बेहद कम सुविधाओं में काम करने वाले लोग हैं ये। संवाददाताओं और कुछ हद तक
छायाकारों को सुविधा कम या कई बार न के बराबर भी मिले मगर श्रेय थोड़ा – बहुत मिल
भी जाता है मगर दूसरे अंगों का क्या? हम न तो इन पर बात करते
हैं और न ही इनके बारे में सोचते हैं। सबका रिप्लेसमेंट हमेशा तैयार रहता है और
इनमें से बहुत से उपेक्षा और शोषण के शिकार भी रहते हैं। प्रबंधन और इन सभी के बीच
में जितने भी लोग है, वे अपने हिसाब से स्थिति को दिखाते हैं। कारखाने के बंधुआ
मजदूरों से भी खराब स्थिति इन सबकी होती है मगर न तो सवाल उठते हैं और न ही
सुविधाएं मिलती हैं क्योंकि दुनिया का दस्तूर है, लोग इमारत की ऊँची मंजिल ही
देखते हैं और उनको सिर्फ वही दिखाया जाता ही है। आधे से अधिक लोग असमय ही
अवसादग्रस्त हो जाते हैं और अवसाद में जी रहे हैं। अजीब सा निराशाजनक वातावरण है,
जहाँ कोई उम्मीद नहीं है, काम होता है और अगर इस माहोल में काम के नाम पर
खानापूर्ति हो तो हमें न तो आश्चर्य होना चाहिए और न ही शिकायत होनी चाहिए। पहला
संवाददाता, फोटोग्राफर, पेजमेकर, कैमरामैन और ऐसे न जाने कितने लोग हमें
पत्रकारिता की मोटी – मोटी किताबों में भी नहीं मिलते और न ही खोजने की कोशिश की
जाती है, उनकी स्थिति पर शोध हो, सुधारने की कोशिश हो और पुरस्कारों और सम्मानों
की बरसात में एक हिस्सा उनके नाम पर भी हो....तो बात बने मगर इसके लिए बात तो होनी
जरूरी है। अखबारों का वातावरण देखकर बच्चों वाली प्रतियोगिता याद आ जाती है, कई
बार ऐसा भी होता है कि किसी छोटे अखबार का सम्पादक जाए तो बड़े अखबार के सम्पादक
वहाँ नहीं जाएंगे क्योंकि उनके लिए दूसरों के साथ बैठना भी अपमान लगता है। एक
मीडिया हाउस का व्यक्ति कभी दूसरे हाउस में जाए तो उसे ऐसे देखा जाएगा, जाने वह
कहाँ का अजूबा है या उसने कितना बड़ा पाप कर दिया है। बड़ी असमंजस वाली स्थिति हो
जाती है, जो आपको जानते हैं, वह भी बात नहीं करेंगे क्योंकि बाद में उनसे सवाल
होंगे। कई मीडिया हाउस तो संवाददाताओं को दूसरे मीडिया हाउस से बात तक करने की
इजाजत नहीं देते, ऐसा भी देखा गया है कि हिन्दी वाले ही हिन्दी वालों से बात नहीं
करते और न ही उनको छूट है। हिन्दी पत्रकारिता में संदेह की परम्परा बढ़ गयी है।
मैंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में जो बीमारी देखी, वह यहाँ भी है। प्रेस क्लब का
चुनाव छोड़ दिया जाए तो सभी सम्पादकों और पत्रकारों व अन्य लोगों का एक मंच पर आना
और कायदे से बात करना भी दुनिया का आठवाँ अजूबा होगा। बात नहीं करना, साथ नहीं
आना, हमारी समस्या की जड़ है क्योंकि इसमें कभी हीनभावना है तो कभी अहंकार है।
प्रतियोगिता हो मगर स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा हो तो बात बनती और यह समस्या किसी शहर
या राज्य की नहीं हर जगह ऐसा है। हम कल्पना नहीं कर सकते कि हिन्दी पत्रकारिता पर
कोई बात या आयोजन हो और उसमें हर मीडिया के लोग शामिल हों, ये बस असम्भव है।
पत्रकार के नाम पर बंधुआ मजदूरों को प्रश्रय दिया जाना और 90 प्रतिशत भागीदारी को
अनदेखा करना यह कोई अच्छी बात नहीं है। कम से कम सुविधाओं और श्रेय पर उनका अधिकार
है। पूरी जिन्दगी हिन्दी पत्रकारिता के छाया जगत को देने के बाद अगर किसी बुर्जुग
छायाकार की आँखों में उपेक्षा की पीड़ा हो, किसी पेजमेकर का नाम तक हम न जाने, कोई
संवाददाता जिन्दगी भर काम करने के बाद गरीबी में गुमनामी की मौत मरने पर मजबूर हो
तो यह उसके लिए नहीं, पत्रकारिता जगत के पुरोधाओं के इतिहास को शर्मसार करने वाली
बात होगी। यह जाहिर सी बात है कि बड़े से बड़ा बादशाह भी अजर – अमर नहीं होता, एक
दिन सबका तय है जाना, मगर उसकी भूमिका तय करती है कि उसे किस तरीके से याद किया
जाए। कम से कम जो बड़े पदों पर बैठे हैं और जो दिल्ली में बैठे हैं, वह यह कर सकते
हैं, पत्रकारिता को आपने अगर धंधा बना ही दिया है तो धंधे में भी सुविधाओं की
जरूरत होती है, श्रम को सम्मान और अधिकार की जरूरत तो कारखाने में भी होती है। आगे
बढ़ना उसका अधिकार होता है। अविश्वास, संशय, संदेह, शोषण और उपेक्षा और घृणा, क्या
हम पत्रकार आने वाली पीढ़ी के लिए यही छोड़कर जा रहे हैं?
क्या आने वाली पीढ़ी ऐसी ही होगी जो पत्रकारिता का मतलब न समझे, उसे ग्लैमर समझे,
सिर्फ फायदे की जगह समझकर काम करे और जीवन भर पेशेवर कारणों से दोस्त को भी दुश्मन
समझने को बाध्य हो? अगर ऐसा परिवेश हमारे साहित्यिक,
सांस्कृतिक, पत्रकारिता जगत में रहा तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा और न ही हमारे
पास कोई उत्तर होगा। ऐसी स्थिति में सृजनात्मकता पर बात ही फिजूल है और सवाल यह है
कि पूरे वातावरण में जो संड़ाध भर रही है, उसकी भरपाई कौन करेगा? # who will repay#
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