गुरुवार, 1 जनवरी 2015
सोमवार, 29 दिसंबर 2014
आंदोलन की आग में राख होती बंगाल की शिक्षा
व्यवस्था
बंगाल इन दिनों जल रहा है। राजनीतिक, प्रशासनिक और
आर्थिक स्थिति के लिहाज से राज्य इन दिनों सुर्खियों में है मगर यह तो वतर्मान है।
बात जब भविष्य की होती है तो प्रगतिशील, आधुनिकता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात
करने वालों की हरकतें इन सभी चीजों की परिभाषा पर ही रोक लगा देती हैं जिसे वे
आंदोलन का नाम देते हैं। अब यहां रुककर देखने आंदोलन की परिभाषा पर ही विचार करने
की जरूरत है क्योंकि जब आप गहराई में जाते हैं तो पता यह चलता है कि इस आंदोलन का
कोई सार्वभौमिक उद्देश्य ही नहीं है। जिसे देखो, वही अपनी डफली, अपना राग अलाप रहा
है, अपनी बात मनवाना उसकी जीत का प्रमाण है और इसके लिए वह किसी भी प्रकार का
रास्ता अपनाने को तैयार है। कक्षाओं में उपस्थिति देने का विरोध, वाइस चांसलर या
प्रिंसिपल उनकी मर्जी से नियुक्त न हो तो विरोध और अब सार्वजनिक तौर पर प्रेम या
चुम्बन की इजाजत न मिलने का विरोध। गौर करने वाली बात यह है कि कल को यही
विद्यार्थी जब शिक्षक बनेंगे तो अपने कारनामे भूल जाएंगे और कल इनके बच्चे ऐसा ही
विरोध करेंगे तो उनको सबसे पहले रोकने वाले यही लोग होंगे। लोग सुरक्षा के लिए
सीसीटीवी लगाते हैं और आंदोलन करने वाले इसे जासूसी मानते हैं। अब इनसे ये पूछा
जाए कि क्या ये अपने घरों या दफ्तरों में सीसीटीवी नहीं लगाते। रही बात शिक्षकों
की, तो इनकी धुरी डीए, बकाया, छुट्टी और जुलूस के इर्द – गिर्द घूमती है। इतिहास
के पन्नों में शायद मोमबत्ती लेकर भी ढूंढने पर ही पता चलेगा कि इन्होंने एक समय
में विद्यार्थियों के लिए कभी जुलूस निकाला होगा। ऐसा क्यों है कि एक ओर धूम्रपान
पर रोक लगाने की बात होती है तो दूसरी ओर लगभग हर विश्वविद्यालय में आप सिगरेट के
कश और शराब की बोतलें उठाते युवाओं को सरेआम धूम्रपान करते देख सकते हैं और यह सब
जायज है क्योंकि वे तथाकथित आधुनिक हैं और यह उनका खासा व्यक्तिगत मामला है।
जादवपुर विश्ववविद्यालय और प्रेसिडेंसी विश्ववविद्यालय में तो यह आम बात है और हम
यह सब देखकर खामोश हैं क्योंकि यह व्यक्तिगत मामला है। जिप्सीनुमा चालढाल, तंग टी –
शर्ट, हॉट पैंट, बरमूडा, ये सब आपको शिक्षण संस्थानों में देखकर एकबारगी महसूस
होता है कि मानो लोग अभी आँख – मुँह धोकर घर से चले आए हैं। वह दिन गये जब शिक्षण
संस्थान अनुशासन का मंदिर कहे जाते थे मगर ये आज अराजकता का गढ़ हैं। शिक्षक
विद्यार्थियों को मार्ग दिखाने की जगह जब खुद प्रशाससनिक स्तर पर बहिष्कार की भाषा
इस्तेमाल करेंगे, शिक्षिका 3- 4 साल के बच्चे को निमर्मता से लात – घूँसों से
पीटेगी, कॉलेज के चेयरमैन जब शिक्षिका को जग पर जग फेंककर मारेंगे
जैसा कि भाँगड़ के कॉलेज में हुआ, जहाँ छात्र यूनियन और शिक्षक संगठन अपनी बात मनवाने के लिए
शिक्षकों व प्रशासकों को पीटेंगे, और यह सब आंदोलन के नाम पर होगा तो आप किस विकास
का दावा कर सकेंगे। बंगाल में शिक्षण संस्थान दो वर्गों में बंट गये हैं और पूँजी
निवेश के नाम पर इसे और खोखला किया जा रहा है। इस पर शिक्षक राह दिखाने की जगह खुद
शिक्षा का बंटाधार किये जा रहे हैं तो आप किस प्रगति की उम्मीद किये जा रहे हैं।
आखिर नियुक्ति या उपस्थिति जैसे मामलों में मनमानी क्यों चलनी चाहिए। वाइस चांसलर
या प्रिंसिपलों का चुनाव क्यों उनकी मर्जी से होना चाहिए। मनमानी, स्वच्छंदता और
अमर्यादित स्वभाव को आंदोलन का नाम देने वालों
से यह पूछा जाना चाहिए कि अगर सरकार ने गलत किया है तो उन्होंने कुछ सही
क्यों नहीं किया या क्यों नहीं कर रहे हैं। उनके पास नया क्या है और वे समाधान
कैसे निकालेंगे तो शायद ही कोई जवाब मिले। भारत के बेहतरीन शिक्षण संस्थानों की
बात की जाए तो एक या दो नामों को छोड़कर शायद ही कोई नाम बंगाल में सामने आए।
आंदोलन का मतलब महज मनमानी या परिवर्तन नहीं होना
चाहिए बल्कि सृजनात्मक परिवर्तन होना चाहिए तभी चीजें बेहतर हो सकेंगी।
रविवार, 28 दिसंबर 2014
यह तकनीक की दुनिया में धीरे से उठने वाला कदम है। एक छोटी सी कोशिश निजी अनुभूतियों को इस तरह अभिव्यक्त करने की, उससे कुछ नया और सृजनात्मक हो सकें। यह कोशिश तो समाचार लिखते समय भी रहती है मगर प्रोफेशनल भागदौड़ में अपने विचार बहुत पीछे छूट जाते हैं। बहुत कुछ देखकर लगता है कि इस पर बात होनी चाहिए, बहुत कुछ ऐसा कि उसे देखकर लगता है अब तो कुछ किया ही जाना चाहिए, मगर यह चाहत बहुत बार एक कसक बनकर रह जाती है, यह कोशिश उसे कुछ को सामने लाने की है, बगैर किसी जिद के औऱ बगैर किसी शर्त के, कुछ अच्छा करने की कोशिश।
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