शुक्रवार, 7 मई 2021

जीता कोई भी हो...हारी तो बस जनता है

 

चुनाव खत्म हो चुके हैं....तीसरी बार तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने राज्य की कमान सम्भाल ली है..बड़े जोर - शोर से तृणमूल की जीत का डंका बजाया जा रहा है.....तमाम बड़े और आधुनिक बुद्धिजीवी...कलाकार...खिलाड़ी...पत्रकार...सब के सब दीदी की महिमा गाने में लगे हैं....सही भी है...क्योंकि दुनिया चढ़ते सूरज को सलाम करती है...समय गवाह है कि सत्ता जिसके पास रहती है...लोग वहीं जाते हैं....जाहिर सी बात है...सफलता किसे नहीं अच्छी लगती...जीतने वाले से सब नजदीकियाँ बनाकर रखते हैं...उनके सामने झुकते ही नहीं...चरण वंदना तक करने लगते हैं...लेकिन अपनी आत्मा से पूछिएगा तो....इसमें क्या सचमुच प्रेम है....या आतंक है...और यह आतंक..दोनों ही तरफ से है और बीच में पिस रहे हैं लोग...आम जनता...जिसका कोई अपराध नहीं...अपराध है तो बस इतना कि उसने अपने लोकतांत्रिक अधिकार का उपयोग किया...आधुनिक भारत में आज यही सबसे बड़ा अपराध है...न..मैं किसी का पक्ष नहीं ले रही...पर क्या यह सच नहीं कि तृणमूल ने भाजपा का भय दिखाकर तीसरी बार सत्ता हासिल की है....खासकर मुसलमानों को भाजपा का भय दिखाया...मुसलमानों ने तो भाजपा को रोकने के लिए तृणमूल को चुना ....ध्रुवीकरण की यह राजनीति है....मगर क्या उसके आम मुद्दे...केन्द्र में रहे...लोग भाजपा पर नफरत की राजनीति का आरोप लगाते हैं....लेकिन जितनी घृणा मुझे पढ़े - लिखे...शिक्षित बड़बोले वामपंथियों में दिखती है...उतनी कहीं नहीं....मुझे मेरे कई वामपंथी मित्र (जो मुझे निष्पक्ष पत्रकारिता का पाठ पढ़ाते रहते हैं) ...मेरे व्हाट्सऐप पर भी भारत के हर भाजपा शासित प्रदेश के अपराध की खबरें भेजते रहते हैं लेकिन...एक भी खबर ऐसी नहीं दिखी जिसमें किसी भाजपा कर्मी के साथ हुए अत्याचार की खबर हो...क्यों? कई ऐसे लोग हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कभी समझाते हैं तो कभी एक कदम आगे बढ़ जाते हैं...

हिन्दी के लिए काम कर रही संस्थाओं में वामपंथी चेतना इतनी अधिक सक्रिय है कि वे साहित्य को भी दक्षिण पंथी और वामपंथी खेमे में बाँट देते हैं और उनको ही शिक्षण संस्थानों में पढ़ाया जाता है जो वामपंथी विचारधारा से ओत प्रोत हो और उसकी विचारधारा को आगे ले जाये...आप खुद अव्वल दर्जे के पक्षपाती हैं...आपने बहुत से ऐसे श्रेष्ठ साहित्यकारों को हाशिए पर रखा क्योंकि वे आपकी नजर में संघी हैं...या आपकी विचारधारा से मेल नहीं खाते...आप ऐसे लोगों को दोयम दर्जे का मानते हैं...कोलकाता के लगभग साहित्यिक संगठनों को करीब से देखने का मौका मिला है....पहले समझ नहीं पाती थी मगर अब जब देख रही हूँ तो फिर वहाँ रहने का कोई मतलब नहीं बनता...तो दूरी बना ली...क्यों मैथिलीशरण गुप्त, गोपाल सिंह नेपाली, सुभद्रा कुमारी चौहान...रहीम..रसखान...आचार्य चतुरसेन शास्त्री..अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा, विमल मित्र..माखनलाल ततुर्वेदी...कन्हैया लाल माणिकलाल मुंशी.. सियाराम शरण गुप्त, सोहनलाल द्विवेदी,...आचार्य चन्द्रबली पांडेय... जैसे साहित्यकार आपके पाठ्यक्रम से बाहर हैं...।

आज हिन्दी साहित्य के कई विद्यार्थी इनका नाम तक नहीं जानते...जिन आचार्य विष्णुकांत शास्त्री ने कलकत्ता विश्वविद्यालय को अपना जीवन दे दिया आज उसके हिन्दी पाठ्यक्रम में भी उनके लिए जगह नहीं...सबसे बड़े पक्षपाती और एकांगी दृष्टिकोण रखने वाले लोग दूसरों को फासिस्ट कहते हैं तो हँसी के अतिरिक्त और कुछ नहीं आती। आखिर हिंसा के खिलाफ ऐसे बुद्धिजीवियों ने आवाज नहीं उठाई...गौरी लंकेश को लेकर रोने वाले...अपने ही राज्य में हो रही मौतों पर इसलिए मौन साधे रहे क्योंकि यहाँ इनके हाथ से मलाई निकल सकती थी...क्या आपको अधिकार है कि आप नैतिकता की बात करें?

इस चुनाव में जगह - जगह पोस्टर लगाये गये...बीजेपी के वोट दिबेन ना....क्या यह जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन नहीं है...और वे होते कौन हैं हमको बताने वाले कि हमें किसको वोट करना है और किसको नहीं...इस चुनाव में आम आदमी ने स्वेच्छाचारिता और मनमानी की हदें पार होती देखीं...बंगाल की अभिजात्य जनता ने भारतीय होने से अधिक जरूरी बांगाली होना समझा...मगर यह बांगाली होना क्या है...हमारी नजर में भारत में रहने वाले हर नागरिक को जिस तरह भारतीय कहते हैं...वैसे ही बंगाल में रहने वाला हर नागरिक बंगाली ही है..मगर यहाँ इस पहचान को क्षेत्रीयता से जोड़ा गया....आए दिन यूपी - बिहार - झारखंड के लोगों को गुंडा कहा जाता है...और हिन्दी भाषी लोग पलक पांवड़े बिछाए अपनी हताशा को खुशी में बदलने की कोशिश कर रहे हैं...।

इस बार के चुनाव में 'खेला होबे' और 'जय बांग्ला' का नारा दिया गया....और इसमें आपको कुछ भी गलत, अभद्र या धमकी देने वाला नहीं लगा....जो बंगाल अपने मंचों पर भी बॉलीवुड संगीत और डीजे बर्दाश्त नहीं करता...अपनी संस्कृति की दुहाई दिया फिरता है....वहाँ यह स्लोगन ...बाकायदा डीजे के साथ विरोधियों को धमकाने के लिए दिया गया औऱ बंगाल के वामपंथी समाज और हिन्दी के रीढ़विहीन समाज को इसमें कुछ भी बुरा नहीं लगा? 

बंगाल की जनता के पास चयन था कहाँ...एक तरफ आतंक तो दूसरी तरफ निरंकुश रूढ़िवादी लोग...जो स्त्री को नियंत्रित करने में अपनी ताकत झोंकते रहे...जो विकास की बात नहीं करते बल्कि यह बताते कि महिलाओं को क्या पहनना चाहिए..क्या नहीं...लव जेहाद के खिलाफ क्या करेंगे...क्या आपको लगता है कि जनता को इसकी जरूरत है...21वीं सदी के भारत को 8वीं सदी का शासन नहीं चाहिए..फिर वह बंगाल हो या उत्तर प्रदेश हो...मगर ममता यह शासन किसके भरोसे देने वाली हैं,,,अपने बेलगाम युवा कार्यकर्ताओं के भरोसे.....? इस लिहाज से तो एबीवीपी भी पीछे नहीं..आपने अपने स्वार्थ के लिए युवाओं को अपराधियों में बदल दिया...पर आप उनको कैसा भविष्य देने वाले हैं...यह भी जानना जरूरी है...राम को रंग किया जाएगा...क्या यह तुष्टिकरण की राजनीति भाजपा और तृणमूल की तारणहार हो सकेगी।

मर रहा है तो आम आदमी मर रहा है...घरों में उसके आग लग रही है,..दुकानें उसकी जल रही हैं...कोरोना के खतरे को धता बताकर भाजपा और तृणमूल के रैली उत्पात ने बंगाल के आम आदमी को मौत का उपहार दिया है...। दीदी जिस बिहारी से नफरत करती हैं...आज उसी बिहारी की बदौलत तीसरी बार कुर्सी पर बैठी हैं।

इस मामले में अगर सबसे अधिक फायदे में रहा तो वह हैं प्रशांत किशोर...उनको भाजपा से और जद (यू) से बदला लेना था और अब बंगाल में उनकी राजनीतिक जमीन तैयार होगी...प्रशांत किशोर को सब कुछ पता था मगर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा और तथाकथित प्रोफेशनल जिद में उन्होंने बंगाल की जनता को दांव पर लगा दिया.. मुसलमानों के मतों का ध्रुवीकरण करने वाले प्रशांत किशोर ही थे...वह जानते हैं कि यूपी - बिहार और झारखंड के लोगों को लेकर तृणमूल का रवैया क्या है....इसके बावजूद उन्होंने अपने फायदे के लिए सबका भविष्य,  सबकी जिन्दगी दाँव पर लगा दी। उनको जलते बंगाल की आग से ,.,..,खून से कोई फर्क नहीं पड़ता...प्रशांत किशोर जी ...अब इन लाशों पर चलकर राज्य सभा जायेंगे...और उनके साथ यशवंत सिन्हा भी हैं...,मुबारक हो ...नेता ऐसे ही होते हैं....गलती हमारी थी...हमने आपको मनुष्य समझ लिया था।

पर एक बात...आप कब तक ऐसी पार्टी को बचाएंगे जिसमें सिर्फ एक ही व्यक्ति है...जिसने कभी किसी को पनपने ही नहीं दिया,....समय सबका आता है...सबका समय बदलता है...इतिहास भी बदलता हैं...यह उत्थान काल है तो पराभव भी साथ ही है....बंगाल आपके लिए एक सीढ़ी है...और राजनीति की शतरंज पर आपने तृणमूल को मोहरा बनाकर अपना बदला पूरा किया...क्या आपको आधुनिक द्रोणाचार्य कहा जाए...आप खुश हैं....आपकी रणनीति काम कर गयी....आप चाणक्य कहे जा रहे हैं ...क्या आप वाकई खुश हैं...तो संन्यास किसलिए लिया...हाँ....रक्त से जो जमीन आपने सींची है...उसकी फसल तो आप काटेंगे ही...भावी राज्यसभा सांसद ...एक बिहारी...लेकिन...बस इतिहास आपको जयचंद की तरह ही याद रखेगा...अगर बिहारियों के साथ किसी भी तरह की बदसलूकी होती है और बिहारी ही क्यों....बंगाल में होने वाली हर हिंसा के जिम्मेदार आप होंगे और हमारी नजर में आप जयचंद ही हैं.,..एक द्रोही...और कुछ नहीं। हम बंगाल के बिहारी आपका यह उपकार कभी नहीं भूलेंगे।

मंगलवार, 4 मई 2021

कविगुरु और आपकी आत्ममुग्धता के आगे भी एक दुनिया है

क्या हिन्दीभाषियों पर खुद को सत्ता के प्रति समर्पित साबित करने का दबाव है...क्या वे खुद को बंगाली से भी अधिक बंगाली साबित करने में लगे हैं...और इसके लिए वे किसी भी हद तक जा रहे हैं...सोचते - सोचते अब इस नतीजे पर पहुँचना पड़ रहा है कि ऐसा ही है और यह बीमारी पढ़े - लिखे बुद्धिजीवी वर्ग में अधिक है....यह असहज ही नहीं बल्कि नकली भी है...सोच का दायरा सिर्फ बंगाल तक सिमट गया है और क्योंकि सत्ता को खुश करना है तो उसके हर विरोधी पर अपनी कुंठा के तीर चलाए जा रहे हैं....एक समय था जब वाम का जोर था...आज बंगाल का हर दूसरा युवा वाम विचारधारा को वहन करता जा रहा है और राम उसके लिए एक अवशब्द लगने लगे हैं....बात व्यक्तित्व की हो तो भी अगर कोई विरोधी विचारधारा का मिल जाये तो लोग इनबॉक्स में जाकर भी उस पर अपना क्रोध निकालते हैं, उसे प्रभावित करने या नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। खुद में 72 छेद हों मगर सामने वाले के सामने अकड़ ऐसी कि पूछिए मत...अपमानजनक मीम साझा करने में कोई पक्ष पीछे नहीं है...हम समझते थे कि यह रोग बच्चों तक सीमित होगा मगर कई बच्चों के अभिभावक भी यही सब करने लगें तो उनको खुद से पूछना चाहिए कि वे नयी पीढ़ी को क्या सिखा रहे हैं...

राजनीतिक विचारधारा कुछ भी हो...मगर सोशल मीडिया के दौर में आपका अभद्रता में लिपटा शालीन व्यवहार भी आपकी पोल खोलने के लिए काफी है। इस लम्बी भूमिका के पीछे भी एक कारण है...पीएम साब की दाढ़ी...जिसको देखकर भद्र लोक से लेकर भद्र लोक में अपनी गिनती करवाने को व्याकुल हिन्दी समाज को मिर्च लगी है क्योंकि उनको लगता है पीएम रवीन्द्रनाथ बनने का प्रयास कर रहे हैं। 

रवीन्द्रनाथ बड़े कवि हैं...बंगाल के लिए तो बहुत बड़े पर क्या इसका मतलब यह है कि वह इतने अनुकरणीय हैं कि कोई व्यक्ति अपनी पूरी जीवन शैली अपना पहनावा बदल दे...वह भी ऐसे व्यक्ति के लिए जिसे वह ठीक से जानता भी नहीं है...रवीन्द्रनाथ बंगाल की शक्ति हैं तो बंगाल की सीमा भी रवीन्द्रनाथ ही हैं। जिस धरती पर चैतन्य महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, खुदीराम बोस जैसी अंसख्य विभूतियाँ हों...वहाँ कोई सिर्फ रवीन्द्रनाथ को क्यों चुनेगा...कम से कम हम जैसे लोग तो कतई नहीं चुनेंगे...

बंगाल की पूरी दुनिया ही इसी आभामण्डल में सिमटी है...आत्ममुग्धता के भंवर में फँसा बंगाली समाज इस मरीचिका से बाहर निकलना ही नहीं चाहता। उसने बंकिम चन्द्र, शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय, ताराशंकर बन्द्योपाध्याय जैसे लेखकों को रवीन्द्र बरगद के नीचे दबा दिया। बेटी को माँ कहने वाले समाज ने बेटी को सम्मान तो खूब दिया मगर उसके अधिकारों की रक्षा करना उसे याद नहीं रहा। अगर ऐसा होता तो स्वर्ण कुमारी देवी, सरला देवी चौधरी, बेगम रुकैया, प्रीतिलता वादेदर, कादंबिनी गांगुली की जयंती धूमधाम से मनती,,,जैसे कविगुरु की मनती है..।

ये किस दृष्टिकोण से आपको रवीन्द्रनाथ ठाकुर का अनुकरण लगा...?

तृणमूल में एक ही महिला केन्द्र में है..,मगर उसने मशक्त युवा नेत्रियों को खड़ा नहीं किया। छात्र संगठनों के पास कद्दावर छात्राएं नेतृत्व के लिए नहीं हैं। माकपा और कांग्रेस जैसे दलों में स्त्रियाँ हाशिए पर ही हैं और जो हैं..उनके पास अपनी आवाज नहीं है...

किस बात का अहंकार है आपको...आत्म मुग्धता के जाल में फँसे वामपंथी इतिहास याद करते लोगों खासकर युवाओं को अहंकार किस बात का है..? पर बात दाढ़ी की...तो आपको रवीन्द्रनाथ ही याद क्यों आए...ठाकुर रामकृष्ण परमहंस याद आते...गुरु नानक को याद कर लेते...ऋषि परम्परा को याद कर लेते...कबीर...गुरु गोविन्द सिंह को याद कर लेते...जो लोग पद और पुरस्कार के लालच में रातों - रात अपनी विचारधारा बदल लें...पूँजीवाद को गरियाते हुए उसी के चरणों में लोटने लगे तो ऐसे रीढ़विहीन लोगों से उम्मीद क्या की जाए। हिन्दीभाषी बुद्धिजीवियों पर तो सिर्फ तरस ही खाया जा सकता है। जो लोग कोरोना और प्रोटोकॉल को लेकर पीएम पर ताने कस रहे थे...आज तृणमूल के उत्पात और राज्य में चुनाव के बाद होने वाली हिंसा पर मौन हैं। बंगाल जल रहा है और आप नीरो की तरह बाँसुरी बजा रहे हैं...धिक्कार है आप पर।

ममता अगर मदर टेरेसा से प्रभावित हैं तो यह अपराध नहीं है तो पीएम की दाढ़ी में दिखते रवीन्द्रनाथ से इतना भय क्यों है..जबकि पीएम मोदी ...रवीन्द्रनाथ से नहीं...नाना जी देशमुख से प्रभावित हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन समाज सेवा में लगा दिया....बहुतों ने तो नाम भी नहीं सुना होगा.....मगर सत्य तो यही है कि कविगुरु के आगे भी एक दुनिया है और हर किसी को रवीन्द्रनाथ अनुप्राणित करते हों,. यह जरूरी नहीं है।