गुरुवार, 10 नवंबर 2016

यह पाबंदी अर्थव्यवस्था के साथ ही हमारी आदतों को सुधारने जा रही है

सरकार ने आर्थिक व्यवस्था को मजबूत करने के लिए सशक्त कदम उठाया है। जाहिर है कि हर निर्णय की तरह इस निर्णय के भी इफेक्ट और साइड इफेक्ट हैं। फिलहाल साइड इफेक्ट तो आम आदमी पर पड़ रहा है और रोजमर्रा की जिंदगी थोड़ी मुश्किल हो रही है मगर इसका इफेक्ट या यूँ कहें कि इम्पैक्ट अच्छा ही होगा। बहुत बार विरोध सिर्फ विरोध के लिए होता है क्योंकि आप उस व्यक्ति को पसंद नहीं करते। इस मामले में भी काँग्रेस समेत अन्य दलों का विरोध भी कुछ ऐसा है। जब हम घर को नए सिरे से सजाते हैं तो तकलीफ होती है और यह तो पूरी अर्थव्यवस्था को फिर से सजाने जैसा है और इस फैसले के पीछे एक सटीक रणनीति है। परिवर्तन का परिणाम सकारात्मक या नकारात्मक हो सकता है मगर इस डर से बदलाव लाने की कोशिश ही न की जाए तो यह तो और भी गलत है। आप कतार में लगकर थक जाते हैं और अपनों की तकलीफ नहीं देखी जाती मगर आपको यह याद रखना चाहिए कि आपकी यह चिंता कुछ दिनों की है मगर यही बड़े नोट जब आतंकियों को ताकत देते हैं और सीमा पर हमारे जवान मारे जाते हैं तो उनके परिवारों के लिए यह जिंदगी भर का मातम होता है। सोशल मीडिया पर शहीदों को श्रद्धांजलि देना एक और बात है मगर बदलाव की प्रक्रिया में सक्रिय होकर हाथ बढ़ाना एक और बात है। आप फेसबुक पर सैनिकों का साथ देते हैं, बड़ी – बड़ी बातें करते हैं, आपको बदलाव चाहिए मगर बगैर किसी परेशानी के चाहिए, ये कैसे सम्भव है? लोग 15 लाख लाने की बातें करते हैं मगर ये काम सरकार को क्यों करना चाहिए? बगैर परिश्रम के आपके खाते में 15 लाख आते हैं तो यह क्या श्रम का अवमूल्यन नहीं है। इस पाबंदी के बहाने कई गरीबों ने खाते खोले हैं। काला धन रखने वालों की मुश्किल यही है कि अब तक जिन नौकरों और कर्मचारियों को पैर की जूती समझते थे, अब उनसे ही जबरन मुस्कराकर अदब से बात करनी पड़ रही है। अमीरों को झुकना रास नहीं आ रहा है। कतार में लगना उनकी शान के खिलाफ है। ममता दीदी को अगर उधार लेकर मिठाई खरीदनी पड़ी तो उनको खीझ नहीं होनी चाहिए क्योंकि वो तो माँ, माटी और मानुष की बात करती हैं तो उनकी खीझ से यह मान लें कि उनकी कथनी और करनी में अंतर है या फिर ये मान लें कि उनको ये चिंता सता रही है कि उनकी पेंटिंग कौन खरीदेगा और पार्टी फंड में पैसा कहाँ से आएगा? विरोधियों की चिंता का कारण भी यही है। इस पाबंदी का सामाजिक रूप से सकारात्मक पक्ष तो यही है कि ऊँच  - नीच का फर्क कुछ दिन के लिए ही सही कम होगा। 

आयकर की नजर होगी तो काले को सफेद बनाने के लिए जो भव्य धार्मिक प्रवचन होते हैं, उन पर लगाम लगेगी और इन पर लगाम लगने का मतलब बहुत हद तक अंधविश्वास और आसाराम बापुओं जैसों की कमाई पर लगाम लगना है। बैंक घाटे में चल रहे हैं और अब जिस तरह उन पर नोटों की बरसात हो रही है, उससे उम्मीद की जानी चाहिए कि बैंकों की स्थिति सुधरेगी और सरकार पर निर्भर होना कम होगा। अचानक सोने की माँग बढ़ रही है और साल में दूसरा धनतेरस मनाया जा रहा है। मंदिरों में बेकार नोट चढ़ाए जा रहे हैं। जिन्होंने रेलवे स्टेशन का चेहरा अरसे से नहीं देखा, अब वे रेलवे में टिकट आरक्षित करवा रहे हैं कि एक दिन में टिकटों की बिक्री 25 प्रतिशत बढ़ जाती है। एयरलाइंसों के अग्रिम टिकट खरीदे जा रहे हैं तो इसके सहारे सरकार भी ऐसे लोगों तक पहुँच रही है। पहली बात यह अचानक लिया गया निर्णय नहीं है क्योंकि इसकी तैयारी लगभग साल भर पहले  से हो रही थी। जो लोग निजी अस्पतालों में प्रतिबंधित नोटों को स्वीकारने की बात कर रहे हैं, उनको ये नहीं भूलना चाहिए कि ये अस्पताल वही कॉरपोरेट सेक्टर चलाता है जिनकी काली कमाई भरपूर है और टेबल के नीचे लेन – देन होते हैं। जानकारी देने का मतलब उनको सजग कर देना औऱ ऐसा होता तो इस मुहिम का ही कोई मतलब नहीं रह जाता। यही बात बैंकों पर भी लागू होती है क्योंकि बहुत से बैंक अपने ग्राहकों का काला धन सफेद करने में मददगार साबित हो सकते थे और अधिकतर निजी क्षेत्र के बैंकों में भी काली कमाई होने का अंदेशा है। विजय माल्या जैसे अरबपतियों की काली कमाई बेकार होगी। ऐसे लोग अगर बैंक जाते हैं तो भी कर चोरी के आरोप में जो 200 प्रतिशत राजस्व कर लगेगा, उससे सरकार की भी कमाई होगी। रिश्वत और भ्रष्टाचार, अनुदान या डोनेशन या फिर आतंकी कारर्वाई का साधन बड़े नोट ही हैं, इन पर भी प्रहार होगा। कॉरपोरेट कम्पनियों के कर्मचारी बैंकिंग प्रक्रिया से जोड़े जाएंगे क्योंकि कम्पनियाँ अब नोटों के झमेले में नहीं पड़ना चाहेंगी।
यह दल से ऊपर उठकर लिया गया फैसला है तो भाजपा के फंड पर भी असर पड़ना तय है तो यकीन मानिए कि छुपे तौर पर पीएम साहेब को तो उनकी पार्टी से ही गालियाँ पड़ रही होंगी। जरा सोचिए, कि कितने साल बाद आपने गुल्लक की शक्ल देखी और बचपन की आदत आपके काम आ रही है। अभिभावकों को यही सीख बच्चों को देने की जरूरत है। हाथ खोलकर बेकार के खर्चों से आप दूर हैं तो यह आपकी आदत सुधारेगा। न चाहते हुए भी अब आप प्लास्टिक मनी युग में प्रवेश कर रहे हैं। जो नए नोट आ रहे हैं, उनमें चिप भले न हो मगर आप पर नजर रखने का उसमें पूरा इंतजाम है। यह निर्णय उच्च मध्यवर्ग के अहं पर चोट करने वाला निर्णय है और यह पाबंदी अर्थव्यवस्था के साथ ही हमारी आदतों को सुधारने जा रही है तो जरा सब्र रखिए और परिर्वतन की प्रक्रिया से जुड़कर देखिए।

रविवार, 6 नवंबर 2016

कार्य के आधार पर सम्मान दीजिए, कला और संस्कृति के साथ देश भी सुरक्षित रहेगा

इस बार की छठ पूजा काफी खास थी, घर में भी पहले अर्घ्य पर बड़े दिनों बाद रही मगर इससे भी खास है अब इस पूजा को मिलने वाली स्वीकृति। बंगाल में  पिछले कुछ सालों से सेक्शनल छुट्टी होती थी मगर इस बार सचमुच अवकाश घोषित किया गया। स्वयंसेवी संस्थाएं  हमेशा ही सक्रिय रहती हैं मगर प्रशासनिक सहयोग भी बंगाल में मिल रहा है। सोशल मीडिया पर छठ पूजा की शुभकामनाएं अब और ज्यादा मिलने लगी हैं मगर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि छठ पूजा अब बिहार और उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं रही और न ही सिर्फ भारत तक। अब यह सिर्फ बुजुर्गों तक भी सीमित नहीं हैै क्योंकि युवाओं को भी घाट पर दउरा उठाकर तस्वीरें पोस्ट करने में  हिचक नहीं दिखती। ये बताता है कि युवाओं को भी अपनी संस्कृति से भी उतना ही प्रेम है जितना पुरानी पीढ़ी को। अँग्रेजी और कॉन्वेंट में पढ़ा होना बाधा नहीं है। घाट पर, ट्रेन में और दूसरी जगहों पर खींची जाती तस्वीरें और छठ पर छुट्टी माँगने के लिए लगी कतारें बताती हैं कि शिक्षा संस्कृति से दूर नहीं करती, बशर्ते युवाओं को इस प्रक्रिया से जोड़ा जाए। एक अनुमान के अनुसार छठ पूजा का कारोबार 300 करोड़ रुपए का है और यह जिस तरह से फैल रहा है, और भी बड़ा होगा। विदेशों में हो रही छठ पूजा और छठ पूजा पर आते विदेशियों की बढ़ती तादाद ने इसे ताकत दी है और अब यह एक बड़ा कारण है कि बिहार और बिहारी दोनों मजबूत हुए हैं। हाल ही में शारदा सिन्हा द्वारा जारी छठ पूजा के वीडियो और इस पर की गयी मेहनत के कारण वीडियो जिस तरह से वायरल हो गयाा, वह इस स्वीकृति का सूचक है। छठ पूजा का होना जरूूरी है। छठ ही नहीं बल्कि कोई भी भारतीय त्योहार देखिए, आपको पता चलेगा कि यह आपको प्रकृति से जोड़ता हैै। चाहे वह होली के पलाश के फूल हों, दिवाली पर प्रकाश और स्वच्छता का संदेश हो या फिर जलाशयों और सूर्य के महत्व से अवगत करवाने वाली छठ पूजा है।
 छठ पूजा सामाजिक भेदभाव की जड़ता के विरुद्ध उद्घोष है। चार दिनों की पूजा और वहाँ पुरोहित की जरूरत नहीं पड़ती। एक ऐसा पर्व जहाँ डूबते सूरज को भी प्रणाम किया जाता हैै। एक ऐसा पर्व जहाँ गागर, सूप, और दउरा बनाने वालों की कला जीवित रहती है, सुथनी की जरूरत पड़ती है। जहाँ स्त्री और निखर उठती है और वह अकेली नहीं पड़ती।
अन्य व्रत एेसे हैं जहाँ सारा भार स्त्री पर पड़ता है मगर छठ ऐसा है जहाँ उसका भार उसका परिवार बाँटता है। अब समय के साथ छठ का संदेश और विस्तृत हो रहा है। नए लोकगीतों में बेटियों के लिए भी जगह है और इससे पारिवारिक बंधन औऱ मजबूत होंगे।
सांझ के देबई अरघिया, और किछु मांगियो जरूर,
पांचों पुत्र एक धिया (बेटी), धियवा मंगियो जरूर


या फिर रूनकी झुनकी बेटी मांगीला, पढ़ल पंडितवा दामाद
छठी मइया दर्शन दींही ना आपन. ( खेलती कूदती बेटी और पढ़ा लिखा दामाद चाहिए)

छठ समानता का संदेश देता हैै और अपनी संस्कृति का सम्मान करना आपको आत्मविश्वास देता है, इसे और मजबूत करना समय की माँग है। हाल ही में राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी ने बड़ी अच्छी बात कही। उन्होंने कहा कि आज पाश्चात्य सभ्यता के कारण हम अपने साहित्यकारों, संस्कृति और हस्तशिल्प का महत्व नहीं समझ रहे हैं, हमारे हीनता बोध का कारण यही है। आंचलिक भाषाएं और संस्कृति एकता का सशक्त माध्यम बन सकती हैं। आगे उन्होंने कहा कि व्यक्ति का सम्मान उसके कार्य के आधार पर होना चाहिए और सम्मान के साथ जब हम समानता देंगे तो कोई ताकत हमारे सामाजिक ढांचे को तोड़ नहीं सकती।

जिनको हम निचली जाति कहते हैं, जाहिर है कि वो जो काम करती हैं, हम नहीं कर सकते। अगर वे हमारा काम नहीं कर सकते उसी तरह हम मूर्तियाँ या कुल्हड़ नहीं बना सकते, हम सफाई नहीं कर सकते, हम जूते नहीं बना सकते, हम फसल नहीं उगा सकते, हम दउरा और सूप नहीं बना सकते, हम बरतन नहीं बना सकते, तो यही कार्य उनकी ताकत देता है। अगर हम अपने सम्मान देना सीखेंगे तो कोई वजह नहीं है कि ये कार्य करने वाले और उनकी संतानें अपनी कला को छोड़ें। वे आगे बढ़ें, जरूर बढ़े मगर उनकी कला उनकी ही नहीं हमारी भी धरोहर है, इसे सहेजना हम सबकी जिम्मेदारी है। कार्य को सम्मान दीजिए, कला और संस्कृति दोनों बचेगी और भारत बचेगा ही नहीं आगे भी बढ़ेगा। छठ का एक संदेेश यह भी है।