कार्य के आधार पर सम्मान दीजिए, कला और संस्कृति के साथ देश भी सुरक्षित रहेगा

इस बार की छठ पूजा काफी खास थी, घर में भी पहले अर्घ्य पर बड़े दिनों बाद रही मगर इससे भी खास है अब इस पूजा को मिलने वाली स्वीकृति। बंगाल में  पिछले कुछ सालों से सेक्शनल छुट्टी होती थी मगर इस बार सचमुच अवकाश घोषित किया गया। स्वयंसेवी संस्थाएं  हमेशा ही सक्रिय रहती हैं मगर प्रशासनिक सहयोग भी बंगाल में मिल रहा है। सोशल मीडिया पर छठ पूजा की शुभकामनाएं अब और ज्यादा मिलने लगी हैं मगर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि छठ पूजा अब बिहार और उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं रही और न ही सिर्फ भारत तक। अब यह सिर्फ बुजुर्गों तक भी सीमित नहीं हैै क्योंकि युवाओं को भी घाट पर दउरा उठाकर तस्वीरें पोस्ट करने में  हिचक नहीं दिखती। ये बताता है कि युवाओं को भी अपनी संस्कृति से भी उतना ही प्रेम है जितना पुरानी पीढ़ी को। अँग्रेजी और कॉन्वेंट में पढ़ा होना बाधा नहीं है। घाट पर, ट्रेन में और दूसरी जगहों पर खींची जाती तस्वीरें और छठ पर छुट्टी माँगने के लिए लगी कतारें बताती हैं कि शिक्षा संस्कृति से दूर नहीं करती, बशर्ते युवाओं को इस प्रक्रिया से जोड़ा जाए। एक अनुमान के अनुसार छठ पूजा का कारोबार 300 करोड़ रुपए का है और यह जिस तरह से फैल रहा है, और भी बड़ा होगा। विदेशों में हो रही छठ पूजा और छठ पूजा पर आते विदेशियों की बढ़ती तादाद ने इसे ताकत दी है और अब यह एक बड़ा कारण है कि बिहार और बिहारी दोनों मजबूत हुए हैं। हाल ही में शारदा सिन्हा द्वारा जारी छठ पूजा के वीडियो और इस पर की गयी मेहनत के कारण वीडियो जिस तरह से वायरल हो गयाा, वह इस स्वीकृति का सूचक है। छठ पूजा का होना जरूूरी है। छठ ही नहीं बल्कि कोई भी भारतीय त्योहार देखिए, आपको पता चलेगा कि यह आपको प्रकृति से जोड़ता हैै। चाहे वह होली के पलाश के फूल हों, दिवाली पर प्रकाश और स्वच्छता का संदेश हो या फिर जलाशयों और सूर्य के महत्व से अवगत करवाने वाली छठ पूजा है।
 छठ पूजा सामाजिक भेदभाव की जड़ता के विरुद्ध उद्घोष है। चार दिनों की पूजा और वहाँ पुरोहित की जरूरत नहीं पड़ती। एक ऐसा पर्व जहाँ डूबते सूरज को भी प्रणाम किया जाता हैै। एक ऐसा पर्व जहाँ गागर, सूप, और दउरा बनाने वालों की कला जीवित रहती है, सुथनी की जरूरत पड़ती है। जहाँ स्त्री और निखर उठती है और वह अकेली नहीं पड़ती।
अन्य व्रत एेसे हैं जहाँ सारा भार स्त्री पर पड़ता है मगर छठ ऐसा है जहाँ उसका भार उसका परिवार बाँटता है। अब समय के साथ छठ का संदेश और विस्तृत हो रहा है। नए लोकगीतों में बेटियों के लिए भी जगह है और इससे पारिवारिक बंधन औऱ मजबूत होंगे।
सांझ के देबई अरघिया, और किछु मांगियो जरूर,
पांचों पुत्र एक धिया (बेटी), धियवा मंगियो जरूर


या फिर रूनकी झुनकी बेटी मांगीला, पढ़ल पंडितवा दामाद
छठी मइया दर्शन दींही ना आपन. ( खेलती कूदती बेटी और पढ़ा लिखा दामाद चाहिए)

छठ समानता का संदेश देता हैै और अपनी संस्कृति का सम्मान करना आपको आत्मविश्वास देता है, इसे और मजबूत करना समय की माँग है। हाल ही में राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी ने बड़ी अच्छी बात कही। उन्होंने कहा कि आज पाश्चात्य सभ्यता के कारण हम अपने साहित्यकारों, संस्कृति और हस्तशिल्प का महत्व नहीं समझ रहे हैं, हमारे हीनता बोध का कारण यही है। आंचलिक भाषाएं और संस्कृति एकता का सशक्त माध्यम बन सकती हैं। आगे उन्होंने कहा कि व्यक्ति का सम्मान उसके कार्य के आधार पर होना चाहिए और सम्मान के साथ जब हम समानता देंगे तो कोई ताकत हमारे सामाजिक ढांचे को तोड़ नहीं सकती।

जिनको हम निचली जाति कहते हैं, जाहिर है कि वो जो काम करती हैं, हम नहीं कर सकते। अगर वे हमारा काम नहीं कर सकते उसी तरह हम मूर्तियाँ या कुल्हड़ नहीं बना सकते, हम सफाई नहीं कर सकते, हम जूते नहीं बना सकते, हम फसल नहीं उगा सकते, हम दउरा और सूप नहीं बना सकते, हम बरतन नहीं बना सकते, तो यही कार्य उनकी ताकत देता है। अगर हम अपने सम्मान देना सीखेंगे तो कोई वजह नहीं है कि ये कार्य करने वाले और उनकी संतानें अपनी कला को छोड़ें। वे आगे बढ़ें, जरूर बढ़े मगर उनकी कला उनकी ही नहीं हमारी भी धरोहर है, इसे सहेजना हम सबकी जिम्मेदारी है। कार्य को सम्मान दीजिए, कला और संस्कृति दोनों बचेगी और भारत बचेगा ही नहीं आगे भी बढ़ेगा। छठ का एक संदेेश यह भी है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जमाना थाली के बैंगन का है

दिल्ली का वह सफर जिसने अपनी सीमाओं को तोड़ना सिखाया

गंगा की लहरें, मायूस चेहरे. विकास की बाट जोहते काकद्वीप से मुलाकात