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राजनीति के शिकंजे में जेएनयू,पिस रहे छात्र

जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय इन दिनों सुर्खियों में है। खबरों में या यूँ कहें कि विवादों में रहना इस विश्वविद्यालय की खासियत है मगर अच्छी बात यह थी कि विचारधारा के टकराव के साथ सृजनात्मकता के लिए इस विश्ववि्द्यालय की अपनी पहचान थी मगर अब इसे राजनीतिक पार्टियों की नजर लगती जा रही हैै। सच तो यह है कि राजनीतिक दल कोई भी हो, विश्वविद्यालय उसके लिए एक पॉलिटिकल वोट बैंक से अधिक कुछ भी नहीं है और हर कोई इन पर कब्जा जमाने में लगा है। जेयू से लेकर जेएनयू तक, हर जगह एक ही कहानी हैै मगर इन सब में जो पिस रहा है, वह एक आम छात्र और शिक्षक (अगर वह सचमुच शिक्षक है) के साथ अभिभावक है। अब यह विश्वविद्यालयों को तय और सुनिश्चित करना होगा कि उनके होते संस्थानों को राजनीति का जहर न डसे। बहुत हुआ, अब किसी राजनीतिक पार्टी की छाया शिक्षण संस्थानों पर नहीं पड़नी चाहिए, पर अभी यह होगा, इस पर भी संशय है और यही खतरा है।

इतिहास ने सिखाया - स्त्री को एक दूसरे के लिए लड़ना सीखना होगा

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पन्ने चाहे इतिहास के हों या धर्म के, औरतों के लिए मापदण्ड हमेशा से ही अधिक कठोर रहे हैं। बाजीराव मस्तानी देखी  और मस्तानी से अधिक काशीबाई की खामोशी और व्यथा परेशान कर गयी। इतिहास के पन्नों में काशीबाई के साथ न्याय नहीं हुआ। अपनी पत्नी का विश्वास तोड़कर भी बाजीराव नायक बने रहे और प्रेम के नाम पर दीवानगी दिखाने वाली मस्तानी भी अपनी छाप छोड़ गयी मगर इन दोनों की निशानी पर अपनी ममता लुुटाने वाली काशीबाई को कहीं जगह नहीं मिली। जो छूट बाजीराव को मिली, क्या वह छूट उस समय में काशीबाई को मिलने की कल्पना भी की जा सकती है। फिल्म में प्रियंका चोपड़ा ने उस पीड़ा को जिस तरह से जीया है, वह वाकई झकझोर देने वाला है। प्रेम की बातें करने वाले समाज ने दो औरतों को हमेशा लड़वाया है। नियमों को अपनी सुविधा के लिए और पुरुषप्रधान समाज ने हमेशा से तोडा और मरोड़ा है। संसार के हित का हवाला देकर द्रौपदी को पांच पांडवो से विवाह कर उनको अपनाने पर यह व्यवस्था विवश करती है। उसे न्यायसंगत भी ठहराती है तो दूसरी तरफ कर्ण से अपमानित भी करवाती है। जब भी महाभारत की कहानियां सुनती हूं, हजारों सवाल परेशान कर जाते हैं। हर पां