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जून 4, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सरकार सुधरे मगर हमें भी मुफ्तखोरी छोड़नी होगी, तभी बचेंगे किसान

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मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद किसान आन्दोलन की आग पंजाब और राजस्थान तक पहुँच रही है। किसान हमारे लिए मौसम हैं, अन्नदाता, हर अखबार, हर मीडिया, हर ब्लॉग, जहाँ देखिए अन्नदाता को श्रद्धा अर्पित की जा रही है। सोशल मीडिया पर आँसू बहाए जा रहे हैं, तमिलनाडु के किसान जब जंतर – मंतर में धरना दे रहे थे, तब भी बहाए जा रहे थे, आगे भी बहाए जाते रहेंगे। सरकार को घेरने वालों को एक मुद्दा मिल गया है, बाकी सब कुछ ज्वलनशील बनाना तो उनके बाएँ हाथ का खेल है। दरअसल, समस्या की जड़ कहीं और नहीं हमारे भीतर है। जस्टिन बीबर के शो पर 100 करोड़ खर्च करने वाला यह देश, 76 हजार रुपए में एक टिकट खरीदने वाले हम शहरी, शिक्षित, सभ्य, सम्भ्रांत और बुद्धिजीवी जब पहले तो फुटपाथ पर फल और सब्जियाँ बेचने वालों से तो कुछ खरीदते नहीं हैं, खरीदते हैं तो 18 रुपए किलो प्याज को 5 रुपए में खरीदते हैं, दूध का भाव 1 रुपए लीटर भी बढ़ गया तो आन्दोलन से लेकर  आगजनी करते हैं और फिर किसान को उसकी फसल की लागत नहीं मिलती तो छाती पीटते हैं। हर गृहिणी या गृह स्वामी जब आधे से कम दम दरों पर राशन खरीद कर लाता है तो उसे विजेता घोषित कर दिय

दीदी, आपके राज्य में हिन्दी माध्यम विद्यालय उपेक्षित बच्चे हैं

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प्रधानमन्त्री मोदी की तरह दीदी भी इन दिनों मूड में हैं....प्रधानमंत्री जी रेडियो पर चौपाल जमाते हैं  और दीदी ? वह तो जहाँ जा रही हैं, चौपाल वहीं बैठ जा रही है। कभी डॉक्टरों की, कभी प्रोफेसरों की, कभी प्रिंसिपलों की तो कभी अधिकारियों के बाद हाल में शोधार्थियों की क्लास लगा दे रही हैं और हर क्लास का अपना कनेक्शन है। ये ध्यान देने वाली बात है कि दीदी की क्लास में अधिकतर दीदी बोलती हैं, बाकी लोग सुनते हैं, यदा – कदा बोलते भी हैं तो डरते हुए बोलते हैं। गलती से एक या दो शब्द भी इधर – उधर हो जाए तो बस वहीं झाड़ पड़ जाएगी..पता नहीं क्या – क्या सुनना पड़ जाए। दीदी राजनीतिक निष्पक्षता की कायल हैं, शिक्षण संस्थानों में राजनीतिक भाषण सुनाया जाए उनको गवारा नहीं है मगर उनके हर मन्त्री के कार्यालय और शिक्षण संस्थानों के यूनियन रूम में दीदी की तस्वीर होनी ही चाहिए। दीदी कहती हैं कि शिक्षण संस्थानों में किसी राजनेता का राजनीतिक भाषण नहीं सुनाया जाना चाहिए (वैसे कहा जा रहा है कि शायद वह भाषण मन की बात जैसा कार्यक्रम था) मगर उनकी रैलियों में जो युवा जाते हैं, उनको कान में रुई लगाकर जानी चाहिए, ये

नैन्सी महज एक घटना नहीं, तमाचा है

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हम बेहद क्रूर समय में जी रहे हैं। क्रूर ही नहीं बल्कि वीभत्स और संवेदनहीन कहना शायद ज्यादा सही है। इस पर संवेदनहीनता के तार जब परिवार से जुड़ने लगते हैं तो स्थिति और खतरनाक हो जाती है मगर बात सिर्फ पारिवारिक रंजिश तक नहीं है बल्कि यह यह सवाल हमारे सामाजिक ढाँचे पर भी खड़ा होता है। बिहार की नैन्सी झा की बर्बर हत्या महज न्याय व्यवस्था पर ही नहीं बल्कि हमारी सामाजिक व्यवस्था पर भी करारा तमाचा है। जिस देश में बच्चे सुरक्षित नहीं हैं, उस देश के भविष्य का अच्छा होना महज मिथक है और कुछ नहीं। 12 साल की नैन्सी डीएम बनना चाहती थी मगर उसके सपने नोंच लिए गए। पारिवारिक रंजिश में हत्या होना कोई नयी बात नहीं हैं, उत्तर भारत और पूर्वी भारत में तो इसे बेहद सामान्य तरीके से लिया जाता है मगर नैन्सी के साथ जो हुआ, वह आपको अन्दर से हिला डालने के लिए काफी है। नैन्सी का परिवार सदमे में है, माँ खामोश है और पिता अन्दर से टूट गए हैं मगर परिवार ही नहीं, उस बच्ची के साथ हुई क्रूरता से पूरी मानवता सदमे में हैं। नैन्सी को मार डाला गया क्योंकि हत्यारे उसकी बुआ की शादी रोकना चाहते थे। नैन्सी के दादा सत्येंद्र झा