शुक्रवार, 9 जून 2017

सरकार सुधरे मगर हमें भी मुफ्तखोरी छोड़नी होगी, तभी बचेंगे किसान


मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद किसान आन्दोलन की आग पंजाब और राजस्थान तक पहुँच रही है। किसान हमारे लिए मौसम हैं, अन्नदाता, हर अखबार, हर मीडिया, हर ब्लॉग, जहाँ देखिए अन्नदाता को श्रद्धा अर्पित की जा रही है। सोशल मीडिया पर आँसू बहाए जा रहे हैं, तमिलनाडु के किसान जब जंतर मंतर में धरना दे रहे थे, तब भी बहाए जा रहे थे, आगे भी बहाए जाते रहेंगे। सरकार को घेरने वालों को एक मुद्दा मिल गया है, बाकी सब कुछ ज्वलनशील बनाना तो उनके बाएँ हाथ का खेल है। दरअसल, समस्या की जड़ कहीं और नहीं हमारे भीतर है। जस्टिन बीबर के शो पर 100 करोड़ खर्च करने वाला यह देश, 76 हजार रुपए में एक टिकट खरीदने वाले हम शहरी, शिक्षित, सभ्य, सम्भ्रांत और बुद्धिजीवी जब पहले तो फुटपाथ पर फल और सब्जियाँ बेचने वालों से तो कुछ खरीदते नहीं हैं, खरीदते हैं तो 18 रुपए किलो प्याज को 5 रुपए में खरीदते हैं, दूध का भाव 1 रुपए लीटर भी बढ़ गया तो आन्दोलन से लेकर  आगजनी करते हैं और फिर किसान को उसकी फसल की लागत नहीं मिलती तो छाती पीटते हैं। हर गृहिणी या गृह स्वामी जब आधे से कम दम दरों पर राशन खरीद कर लाता है तो उसे विजेता घोषित कर दिया जाता है और बेचने वाले गरीब खलनायक घोषित कर दिए जाते हैं। सारे देश में सब्जियाँ, फल, अनाज और दूध पानी के भाव बिक रही हैं मगर उनको खरीद कौन रहा है, हम और आप। कहने का मतलब यह है कि कोई मजबूरी में ऐसा कर रहा है तो हम और आप उसकी मजबूरी का फायदा उठा रहे हैं। आपकी पार्टियों में जो फल आते हैं, आप होटलों में जो खरीद रहे हैं और मेहमानों को दिखा रहे हैं, यह अमेरिका का सेब, फ्रांस का अँगूर और न जाने क्या क्या...जो 700  रुपए का एक तो आप उसी समय अपने अन्नदाता को मौत के मुँह में धकेल रहे होते हैं। अधिकतर लोग जब गाँवों से सब्जी या कोई भी सामान इसलिए खरीदते हैं क्योंकि यह आपको पानी के भाव मिलता है। सबसे बड़े खरीददार हम हैं और खपत की मात्रा हम पर निर्भर करती है तो किसानों को सरकार से ज्यादा किसी की जरूरत है तो हमारी है। वो हम तक नहीं आ पाते, हम तो उन तक जा ही सकते हैं। सरकार नहीं खरीदती तो हम खरीदें, सप्ताह में या महीने में एक बार अगर किसी कॉम्पेल्क्स या कालोनी के लोग आस पास के किसानों से सामूहिक तौर पर खरीददारी करें तो बिचौलियों की जरूरत ही न पड़े मगर तय कीजिए कि आप 18 रुपए किलों का आलू 3 रुपए किलो में खरीदने की हसरत नहीं पालेंगे। किसान किसी सरकार से नहीं हारा है, वह हमसे और आपसे हारा है। क्या हर औद्योगिक संस्था सीएसआर के तहत किसानों के लिए कोल्ड स्टोरेज की व्यवस्था नहीं कर सकती या एक मंडी उनके लिए नहीं बनायी जा सकती।


 अगर सरकार किसानों को बचाने के लिए कुछ नहीं करती तो क्या हमें उनको मरने के लिए छोड़ देना चाहिए? अगर किसानों से सचमुच प्यार है तो जब भी सब्जी खरीदें, मोलभाव न करें, यह मुश्किल है मगर सोशल मीडिया पर आँसू बहाने से अच्छा है कि कुछ मेहनत खुद की जाए। आश्र्चर्य होता है कि हमारे प्रधानमंत्री लंदन और म्यामांर पर आँसू बहाते हैं मगर भूमिपुत्रों के लिए एक शब्द उनके मुँह से नहीं निकलता। आपने किसानों की आय दुगनी करने का वायदा किया मगर इसके लिए कोई रोडमैप था? कोशिश की जानी चाहिए थी कि हमारे यहाँ से निर्यात बढ़े, आयात हो तो वह भी सशर्त हो। अगर आप दाल ला रहे हैं तो सामने वाले देश से सुनिश्चित करें कि वह भी हमारे यहाँ खाद्यान और सब्जियाँ खरीदें। मैं खेती के बारे में अधिक नहीं जानती मगर जो पढ़ा है, उसके हिसाब से यह तो कह ही सकती हूँ कि दिक्कत अतिरिक्त उत्पादन में नहीं बल्कि वितरण, विपणन और निर्यात प्रणाली में है। हमारे यहाँ जो भी औद्योगिक विकास होता है, उसमें कृषि को वरीयता मिलनी चाहिए और इस लिहाज से आयुर्वेद और खाद्य प्रसंस्करण समेत कृषि को प्रोत्साहित करने वाले तमाम उद्योगों को विशेष सुविधाएँ दी जानी चाहिए। सौ बात की एक बात, खपत होगी और हम पानी के भाव पर खरीददारी की हसरत त्यागेंगे तो माँग के अनुसार उत्पादन होगा और उसका फायदा किसानों को होगा। बिचौलियों को बीच से हटाने की जरूरत है इसलिए जैसा कि बंगाल में हुआ है, देश में ब्लॉक स्तर पर मंडी बनाने की जरूरत है। किसानों को फसल की कीमत खुद तय करने दीजिए और जरूरत पड़े तो कीमतें तय  करने के लिए एक स्वायत्त संस्था गठित कीजिए जिसमें किसानों के प्रतिनिधि हों और वे किसी भी राजनीतिक दल से न हों। उनके लिए खेती का कम से कम 15 वर्ष का अनुभव अनिवार्य हो। गलती प्रशासन की भी है, अगर दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री आरम्भ में ही किसानों के पास जाते तो हालात बेकाबू होते ही नहीं। किसानों के कुछ प्रतिनिधियों से बात करने से बेहतर था कि इलाके में जाकर खुद उनकी बात सुनते। मुफ्तखोरी किसी भी समस्या का इलाज नहीं है और न ही कर्जमाफी से बात बनेगी। मनमोहन सिंह की सरकार ने भी कर्जमाफी की थी, चुनाव हार गयी। क्या ये बेहतर नहीं होगा कि कर्जमाफी की जगह किसानों को ही सक्षम बनाया जाए कि उनको इस बैसाखी की जरूरत ही न पड़े। जल संचयन के उन्नत तरीके खोजे जाएँ तो अकाल में भी फसल सुरक्षित रहेगी। किसानों के लिए कृषि पाठशाला हो। स्कूली और कॉलेज स्तर पर पाठ्यक्रम में कृषि एक विषय हो जिसमें किसान से लेकर, कृषि के प्राकृतिक व आधुनिक तरीकों, कृषि के इतिहास, बीज, खाद, वितरण व विपणन प्रणाली, कृषि ऐप से लेकर उपकरण से लेकर दूसरे देशों की कृषि व्यवस्था से संबंधित समसामायिक अध्ययन हो। इस पाठ्यक्रम के तहत एक पेपर ऐसा हो जिसमें कम से कम 6 माह गाँवों में विद्यार्थी गुजारे। इससे युवा पीढ़ी कृषि का महत्व समझेगी, रोजगार सृजन होगा क्योंकि गाँवों से जुड़ना वहाँ के लोगों को रोजगार देने के लिए जरूरी है। कृषि तकनीक देश में विकसित हों। इस देश में कम्प्यूटर और सॉफ्टवेयर इंजीनियर की तरह एग्रीकल्चर इंजीनियर और एग्रीकल्चर डॉक्टर्स की जरूरत है जो फसल को कीटों से बचाने और उसे बेहतर बनाने में मदद करें। काँग्रेस से लेकर भाजपा तक, कर्जमाफी चुनावी हथियार ही अधिक रहा है मगर अर्थव्यवस्था पर इसका प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ता है। आरबीआई के गर्वनर उर्जित पटेल ने रेपो रेट को यथावत रखने की जानकारी दी और यह भी कहा कि "मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) के प्रस्ताव में कहा गया है कि अगर बड़े पैमाने पर किसानों के ऋण माफ किए गए तो इससे वित्तीय घाटा बढ़ने का खतरा है।" उन्होंने कहा कि जब तक राज्यों के बजट में वित्तीय घाटा सहने की क्षमता नहीं आ जाती, तब तक किसानों के ऋण माफ करने से बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह पिछले 2-3 साल में हुए वित्तीय लाभ को घटा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि वित्तीय घाटा बढ़ने से जल्द ही महंगाई भी बढ़ने लगेगी। पटेल ने कहा कि पहले भी देखा गया है कि किसानों के ऋण माफ करने से महंगाई बढ़ी है। उन्होंने कहा, "इसलिए हमें बेहद सावधानी से कदम रखने चाहिए, इससे पहले कि स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाए।" अगर खजाना ही खाली हो गया तो अन्नदाताओं की मदद कैसे होगी, यह भी सोचने वाली बात है। अब बात आन्दोलन पर, तो इसका समय और तरीका अपने आप में संदेहजनक है। दोनों भाजपा शासित राज्यों में एक साथ आन्दोलन का उग्र होना और कई मामलों में फल, सब्जियों और दूध को जबरन बहाया जाना इसे दिशाभ्रमित करता है, जिसका समर्थन कतई नहीं किया जा सकता। बसों में आग लगाना, सरकारी इमारतें और वाहन फूँकना, क्या इससे समस्या का समाधान निकलेगा? लगभग 780 करोड़ रुपए से अधिक की फल और सब्जियाँ नष्ट की जा चुकी हैं। निश्चित तौर पर सरकार और प्रशासनिक स्तर पर खामियाँ हुई हैं, किसानों पर गोली चलाने का समर्थन कतई नहीं किया जा सकता मगर सवाल यह उठता है कि किसानों को अपनी बात रखने के लिए किसी राजनीतिक पार्टी की जरूरत क्यों पड़े? वह  क्यों खुद को इस्तेमाल होने दे रहे हैं। यह छुपी हुई बात नहीं है कि मध्यप्रदेश में काँग्रेस और महाराष्ट्र में शिवसेना ने मुख्य रूप से आग में घी डालने का काम किया है मगर इससे नुकसान किसे हो रहा है। 


अगर आप सोचते हैं कि फल, सब्जी अनाज और दूध फेंकना ही आन्दोलन है तो आपको अन्नदाता कहा ही नहीं जाना चाहिए क्योंकि ये सब कुछ किसानों का ही है, आज अगर फसल मंडी में फसल नहीं जा पा रही है तो उससे जो क्षति होगी वह किसानों की होगी, वहाँ जो मरेंगे, किसान ही मरेंगे। किसानों की समस्या सरकार ही नहीं बल्कि हमारी अपनी सोच, कमजोरी और आत्मकेन्द्रित मानसिकता के कारण ही है इसलिए अगर किसानों की मदद ही करनी है तो मुफ्तखोरी पहले हमें ही छोड़नी होगी।


सोमवार, 5 जून 2017

दीदी, आपके राज्य में हिन्दी माध्यम विद्यालय उपेक्षित बच्चे हैं



प्रधानमन्त्री मोदी की तरह दीदी भी इन दिनों मूड में हैं....प्रधानमंत्री जी रेडियो पर चौपाल जमाते हैं  और दीदी? वह तो जहाँ जा रही हैं, चौपाल वहीं बैठ जा रही है। कभी डॉक्टरों की, कभी प्रोफेसरों की, कभी प्रिंसिपलों की तो कभी अधिकारियों के बाद हाल में शोधार्थियों की क्लास लगा दे रही हैं और हर क्लास का अपना कनेक्शन है। ये ध्यान देने वाली बात है कि दीदी की क्लास में अधिकतर दीदी बोलती हैं, बाकी लोग सुनते हैं, यदा – कदा बोलते भी हैं तो डरते हुए बोलते हैं। गलती से एक या दो शब्द भी इधर – उधर हो जाए तो बस वहीं झाड़ पड़ जाएगी..पता नहीं क्या – क्या सुनना पड़ जाए। दीदी राजनीतिक निष्पक्षता की कायल हैं, शिक्षण संस्थानों में राजनीतिक भाषण सुनाया जाए उनको गवारा नहीं है मगर उनके हर मन्त्री के कार्यालय और शिक्षण संस्थानों के यूनियन रूम में दीदी की तस्वीर होनी ही चाहिए। दीदी कहती हैं कि शिक्षण संस्थानों में किसी राजनेता का राजनीतिक भाषण नहीं सुनाया जाना चाहिए (वैसे कहा जा रहा है कि शायद वह भाषण मन की बात जैसा कार्यक्रम था) मगर उनकी रैलियों में जो युवा जाते हैं, उनको कान में रुई लगाकर जानी चाहिए, ये सलाह नहीं दी गयी। जिस तरह दुनिया गोल है और जहाज को उड़ा पंछी जहाज पर वापस आता है, उसी तरह दीदी सौहार्द और गुणवत्ता के साथ बांग्ला को विश्व बांग्ला की चाहे जितनी भी बातें कर लें मगर सब्जी में नमक की तरह मोदी, भाजपा, आरएसएस, माकपा और काँग्रेस के जिक्र के बगैर फंड का रोना और केन्द्र को कोसना जारी रहता है और वही बच्चे भी सुनते हैं। कई बार तो कक्षाओं से शिक्षक भी इन रैलियों में नजर आते हैं, तथाकथित स्वशासित विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलरों से लेकर स्वायत्त कहे जाने वाले राज्य शिक्षा परिषदों के शीर्ष अधिकारी भी रहते हैं। अब पार्थ बाबू भले ही शिक्षण संस्थानों को गैर राजनीतिक बनाने की कितनी ही बातें करें मगर ऐसे माहौल में राजनीति से दूरी कैसे होगी, वही जानें। जिस प्रकार किसी भी शुभ काम की शुरुआत गणेश वन्दना के साथ होती है, उसी प्रकार उनके मन्त्री, मन्त्री ही नहीं, किसी स्वायत्त शिक्षा परिषद के नतीजों की घोषणा या फिर किसी विश्वविद्यालय का कोई भी काम दीदी वन्दना के साथ आरम्भ होता है जबकि उनका कोई राजनीतिक कनेक्शन  दूर तक नहीं होता, यह बीमारी पूरे देश में है। ऐसे में सीधे कहिए न कि आपकी पार्टी का भाषण ही रहेगा, किसी और की नहीं वरना क्या जरूरत है कि शिक्षामंत्री विश्वविद्यालय में अपनी पार्टी की छात्र यूनियन के साथ बैठक करें। 
दीदी ने निजी स्कूलों के साथ बैठक की जिनमें मध्यम वर्गीय या उच्च वर्गों या यूँ कहें कि मंत्रियों,अधिकारियों और कारोबारियों के बच्चे पढ़ते हैं, दीदी को सबकी खबर मिलती रहती है, मतलब ये कि अँग्रेजीदाँ, क्रीमी लेयर जमात इन स्कूलों में ही तैयार होती है। इन तमाम स्कूलों संरचना और सुविधाओं की कमी नहीं है, फीस आसमान छू रही है, अभिभावक परेशान हैं, अच्छा किया। आपने क्लास ले ली मगर इनसे स्कूलों में फीस कहाँ कम हुई या कहाँ तक होगी, यह सोचने वाली बात है। आपने कहा कि आप चाहती हैं कि बंगाल की प्रतिभा और बढ़े। इसके लिए हमने(सरकार) ने एक सेल्फ रेगुलेटरी कमिशन गठित करने का फैसला किया है। कमिशन में शिक्षा विभाग, पुलिस व महानगर के शैक्षणिक संस्थानों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। कमिशन फी ट्रक्चर की निगरानी करेगा। हर जिले से एक प्रतिनिधि कमिशन में होगा। आपने शिक्षण संस्थानों को अपनी वेबसाइट शुरू करने का परामर्श देते हुए कहा कि इसके माध्यम से अभिभावक अपनी शिकायतें दर्ज कर सकेंगे। अब क्या आपको पता नहीं है कि हर सम्पन्न स्कूल अपनी आय का अधिकतर हिस्सा वेबसाइट पर ही खर्च करते हैं जो उनके प्रचार का महत्वपूर्ण अंग है। आपने फीस नियंत्रित करने के लिए कमिशन बनाया और इसमें इन स्कूलों के ही लोग हैं, माने अपराधी भी वही होंगे और फैसला भी वही सुनाएँगे। इस पर उम्मीद यह है कि बदलाव होगा, खुद को धोखा देना है। आपको अँग्रेजी माध्यम स्कूलों पर इतना भरोसा है कि आप सेल्फ रेग्यूलेटरी कमिशन बनाती हैं, इतना भरोसा हिन्दी माध्यम स्कूलों पर क्यों नहीं है? आपकी बैठक में फीस पर बात हुई और अभिभावकों की ओर से एक भी प्रतिनिधि नहीं था। 

वे स्कूल वेबसाइट पर इतना खर्च करते हैं, जितने में एक बेचारा सरकारी हिन्दी माध्यम स्कूल कई महीनों के लिए अपना खर्च निकाल लेता है। इन स्कूलों के पास चमचमाती इमारतें नहीं हैं, अधिकतर स्कूल किराए के मकानों में चलते हैं और यही वजह है कि कई लोकप्रिय हिन्दी माध्यम स्कूल उच्च माध्यमिक का दर्जा नहीं पा सके हैं। दीदी आप स्कूलों के विस्तार की बात कर रही हैं मगर इन हिन्दी माध्यम स्कूलों को कई बीघे जमीन नहीं चाहिए, आप पास की कोई इमारत दे देंगी तो भी हर स्कूल की क्षमता दुगनी हो जाएगी। मैंने जिन कॉलेजों (स्पेशल ऑनर्स किया है, इसलिए 2 कॉलेज हैं) से स्नातक और बाद में ऑनर्स किया, वहाँ पढ़ाई से लेकर गतिविधियाँ और प्रोफेसर सब बहुत अच्छे हैं, मगर उनको आधारभूत संरचना के अभाव के कारण उनको नैक का अच्छा ग्रेड नहीं मिल सकता। अधिकतर स्कूलों में शिक्षकों के पद खाली हैं, आपको स्वच्छ भारत से एलर्जी है मगर निर्मल बांग्ला अभियान के तहत भी न तो सुरक्षा कर्मियों के पद हैं और न सफाई कर्मियों के, स्कूल स्वच्छ कैसे रहेंगे? बेंचें हैं तो टूटी हुई हैं, बच्चे उड़ती रेत पर बैठकर मिड डे मिल खाते हैं। जिस पृष्ठभूमि के साथ ये बच्चे इन स्कूलों में आते हैं, उनके पास साफ –सुथरे कपड़े नहीं होते, पूरा साल बीतने को होता है तो किताबें मिलती हैं और जो किताबें मिलती हैं, वो बांग्ला किताबों का घटिया अनुवाद भर होती हैं। इन स्कूलों की संचालन समितियों में जो शिक्षक हैं, वह अभी आपकी पार्टी के समर्थक हैं, जब माकपा की थी, तो उनके समर्थक हुआ करते थे। कहने का मतलब यह है कि हिन्दी माध्यम स्कूलों के शिक्षक और प्रशासकों की कोई विचारधारा नहीं होती, वे बस विचारधारा की बातें करते हैं, उनकी विचारधारा सत्ता के अनुसार बदलती रहती है। वे शिकायतें करते हैं मगर कभी नहीं चाहते कि उनका नाम मीडिया में आए। वे कभी रैलियाँ नहीं करते, घेराव नहीं करते, हम जैसे पत्रकार जब कहते हैं कि शिक्षक जब तक नहीं बोलते तो समस्याएँ कैसे सुधरेंगी तो शिक्षक कहते हैं कि बस चल रहा है, क्या करेंगे...तकलीफ इस बात की है उनमें तड़प नहीं है, दीदी, ये सब आपके हाथ में हैं इसलिए आप इन स्कूलों, शिक्षकों और बच्चों को लेकर निश्चित हैं, आप जानती हैं कि मतदाताओं का बड़ा वोट बैंक सुरक्षित है। 

आप इनके साथ शायद बैठक कर भी लें मगर यह तो तय है कि यहाँ अदालत भी आप होंगी और जज भी। इन स्कूलों से टॉपर कभी नहीं निकलते और निकलेंगे भी नहीं। पता नहीं कैसे इस बार आदर्श मेधासूची में चौथे स्थान पर आ गया, आ गया क्योंकि वह जिस स्कूल में है, वह भी इस शहर के नामचीन स्कूलों में है और उसका नाम और साक्षात्कार भी स्थानीय मीडिया के लिए करेले के जूस की तरह था, नाम लेना था मगर परहेज के साथ। उच्च माध्यमिक शिक्षा परिषद में तमाम भाषाओं के शीर्ष अंक पाने वालों के नाम बताए गए मगर हिन्दी में अव्वल कौन रहा, यह हम नहीं जान सके। अध्यक्षा महोदया को हिन्दी में दिलचस्पी नहीं थी। इन स्कूलों से विद्रोह तो दूर, किसी भी सरकार के खिलाफ विरोध की आवाज तक नहीं निकलेगी। बैठकों में सत्ता को गाली देने वाले लोग सरकारी जनप्रतिनिधियों के स्वागत में पलक – पाँवड़े बिछाए रहेंगे, मीडिया कुछ लिखे तो गुजारिश करेंगे कि उनका नाम उनके ही बयान में नहीं आए और कल्पना करेंगे कि यह सूरत बदले मगर उनको सीरत बदलने की जरूरत नहीं पड़े। आप यह कमजोरी जानती हैं और हर पार्टी जानती है इसलिए आपकी पार्टी जीतेगी, आपकी सरकार बनेगी मगर हिन्दी माध्यम स्कूलों की हालत कभी नहीं बदलेगी। दीदी, इस राज्य में जब सब बराबर है तो आपकी त्रिभाषा नीति हर किसी पर बराबर रूप से लागू क्यों नहीं हो सकती? निजी स्कूलों में वह बोर्ड परीक्षाओं पर लागू नहीं होगा, सिर्फ स्कूली स्तर पर लागू होगा जबकि इन स्कूलों के पास न साधन की कमी है और सिखाने के तरीकों की, शिक्षकों की कमी भी नहीं होगी मगर जो हिन्दी माध्यम स्कूल 240 रुपए की फीस में अपनी स्कूल चला रहे हैं, जिनको लकड़ी की पट्टी लगाकर कक्षाएँ अलग करनी पड़ रही हैं, जिनके पास पहले से ही शिक्षक नहीं हैं, उनको आपकी त्रिभाषा नीति अपनानी पड़ेगी, क्या इसके लिए संरचना है? मगर सीख जाएँगे क्योंकि हिन्दी माध्यम स्कूलों में भी तो बांग्ला के माध्यम से विषय पढ़ाए जा रहे हैं। अब सवाल यह कि हिन्दी माध्यम स्कूलों को रवीन्द्रनाथ को पढ़ने से कोई आपत्ति नहीं है मगर क्या बांग्ला माध्यम सरकारी स्कूलों में प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा, निर्मल वर्मा को बोर्ड परीक्षाओं तक पढ़ाया जाएगा? अगर हाँ, तो यह स्वागत योग्य है और नहीं तो यह एकतरफा फैसला क्योंआप हिन्दी का स्वागत करती हैं और आपकी बैठक में हिन्दी माध्यम स्कूल का एक भी प्रतिनिधि नहीं होता। होता भी है तो उसकी बात नहीं सुनी जाती। लगभग हर प्रशासनिक बैठक में हिन्दीभाषियों की उपस्थिति न के बराबर है। उनकी जुबान खुलती भी है तो आपकी प्रशस्ति के लिए। 
आपको लगता है कि क्रीमी लेयर वाले 5 -10 प्रतिशत स्कूलों के प्रतिनिधि, मालिक और प्रिंसिपल पूरे हिन्दी समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं तो ऐसा नहीं है। सरकारी बांग्ला माध्यम स्कूलों को जितना अनुदान मिलता है, उसका आधा भी हिन्दी माध्यम स्कूलों को मिले तो उनको जीवनदान मिल जाए। दरअसल इस राज्य में हिन्दी, हिन्दी भाषी और हिन्दी माध्यम दूसरे दर्जे के नागरिक हैं और महज वोट बैंक हैं। हिन्दी माध्यम स्कूल इस राज्य में किसी उपेक्षित बच्चे की तरह हैं। दीदी ने अस्पतालों की क्लास ली और फर्जी डॉक्टर राज्य भर से ऐसे धराए जाने लगे। मतलब बिहार और बंगाल की दोस्ती यहाँ भी सलामत है, वहाँ टॉपर फर्जी, यहाँ डॉक्टर फर्जी, हिसाब – किताब बराबर। इस राज्य के 12 हजार से अधिक स्कूलों में लाखों विद्यार्थी आते हैं और इसमें एक बड़ा हिस्सा हिन्दी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों का है, वे फीस देते हैं, आपकी बातें सुनते है क्योंकि सुनने के सिवाय वे कुछ भी नहीं कर सकते क्योंकि जो दोयम दर्जे के हैं, वे फैसले नहीं सुना सकते। इन स्कूलों से कभी टॉपर नहीं निकलेंगे, चाटुकार निकलेंगे मगर नेता नहीं निकलेंगे, आप सुरक्षित हैं।





नैन्सी महज एक घटना नहीं, तमाचा है


हम बेहद क्रूर समय में जी रहे हैं। क्रूर ही नहीं बल्कि वीभत्स और संवेदनहीन कहना शायद ज्यादा सही है। इस पर संवेदनहीनता के तार जब परिवार से जुड़ने लगते हैं तो स्थिति और खतरनाक हो जाती है मगर बात सिर्फ पारिवारिक रंजिश तक नहीं है बल्कि यह यह सवाल हमारे सामाजिक ढाँचे पर भी खड़ा होता है। बिहार की नैन्सी झा की बर्बर हत्या महज न्याय व्यवस्था पर ही नहीं बल्कि हमारी सामाजिक व्यवस्था पर भी करारा तमाचा है। जिस देश में बच्चे सुरक्षित नहीं हैं, उस देश के भविष्य का अच्छा होना महज मिथक है और कुछ नहीं। 12 साल की नैन्सी डीएम बनना चाहती थी मगर उसके सपने नोंच लिए गए। पारिवारिक रंजिश में हत्या होना कोई नयी बात नहीं हैं, उत्तर भारत और पूर्वी भारत में तो इसे बेहद सामान्य तरीके से लिया जाता है मगर नैन्सी के साथ जो हुआ, वह आपको अन्दर से हिला डालने के लिए काफी है। नैन्सी का परिवार सदमे में है, माँ खामोश है और पिता अन्दर से टूट गए हैं मगर परिवार ही नहीं, उस बच्ची के साथ हुई क्रूरता से पूरी मानवता सदमे में हैं। नैन्सी को मार डाला गया क्योंकि हत्यारे उसकी बुआ की शादी रोकना चाहते थे। नैन्सी के दादा सत्येंद्र झा का कहना है कि नैन्सी का अपहरण पड़ोस के पवन कुमार झा और उसके साथी लल्लू झा ने किया था मगर बाधा डालने के लिए अपहरण करने के बाद शादी रुक जाती तो नैन्सी को छोड़ा जा सकता था। बच्ची के शरीर पर तेजाब फेंकना उसकी नसें काटना राक्षसी प्रवृति के अलावा कुछ और नहीं है। 6 साल पहले छेड़खानी करने पर पवन को पीटा गया था और कहा जा रहा है कि पवन ने बदला लेने के लिए ऐसा किया मगर इससे भी खतरनाक है व्यवस्था का सही समय पर नहीं जागना। पुलिस अगर समय पर कार्रवाई करती तो शायद नैन्सी को बचाया जा सकता था। ऐसा क्यों है कि आजकल हर घटना पर कार्रवाई के लिए सोशल मीडिया पर होने वाली क्रांति का इंतजार किया जा रहा है, जब तक सोशल मीडिया पर वायरल न हो, न तो मीडिया जाग रहा है, न कानून और न व्यवस्था। सरकार के तीन साल पूरे होने का जश्न मना रहे चैनलों के लिए यह आम बात है, कोई मुद्दा नहीं। सवाल बिहार की शराबबंदी को लेकर भी है क्योंकि बताया जाता है पवन को जब पकड़ा गया था तो वह नशे में धुत था। परिजनों के अनुसार पुलिस ने पवन को आधे घंटे के भीतर छोड़ दिया। बहरहाल मामले में एसआईटी गठित हो गयी है मगर इतना काफी नहीं है। हालांकि पुलिस इस मामले में दुष्कर्म और तेजाब फेंकने की बातों को खारिज कर रही है मगर नैन्सी का शव जिस हालत में मिला है, वह एक सवाल तो खड़ा करता है। नैन्सी का मामला सामने आ गया मगर सोचिए ऐसे कितने बच्चे होंगे, जिनके साथ ऐसा कुछ होता है तो भी सामने नहीं आता। नैन्सी महज एक घटना नहीं, एक तमाचा है, हमारी व्यवस्था पर, हमारी संवेदना पर और हमारे समाज पर, जिसमें क्रूरता का लुत्फ उठाने की प्रवृति बढ़ रही है लगातार।