सुजैट जॉर्डन, जब भी आप यह नाम लेते हैं तो उसका जिक्र पार्क स्ट्रीट पीड़िता के रूप में होता है मगर यह जाँबाज महिला, खुद को पीड़ित नहीं सरवाइवर, कहती थी और जिस हिम्मत के साथ उसने इंसाफ की लड़ाई बगैर किसी के साथ के लड़ी, वह काबिलेतारीफ थी मगर कहीं न कहीं कम से कम मैंने समाज और शख्सियतों एक खौफनाक चेहरा देखा। जज ने फैसले में कहा है कि ये सजायाफ्ता तीन आरोपी सुजैट को सबक सिखाना चाहते थे, निर्भया के साथ दरिंदगी का खेल खेलने वालों ने भी उसे सबक सिखाने के लिए ही अपनी हैवानियत दिखायी। जाहिर है कि समाज के नुमाइंदों को औरतों के आगे बढ़ने और देर रात तक बाहर रहने से परेशानी है क्योंकि दुनिया के 80 प्रतिशत मर्द तो औरतों को अपनी सम्पत्ति ही समझते हैं जिसकी जिंदगी के कायदे - कानून वह खुद तय करना अपना अधिकार समझते हैं और गाहे - बगाहे हमारे देश के स्वयंभू नेताओं ने भी अपने बयानों से महिलाओं की अस्मिता की धज्जियाँ उड़ाने में अपनी शान ही समझी हैं इसलिए मुलायम सिंह यादव को बलात्कारी भी बच्चे नजर आते हैं। 16 दिसम्बर आने वाला है और निर्भया की मौत के एक साल और गुजर जाएंगे मगर सुजैट ने तो वह जहर पीया और उसे अमृत समझकर जीती गयी। एक पल के लिए सोचिए कि उस औरत पर क्या गुजरी होगी जब उसके दो छोटे बच्चों के सामने उसे समाज के तंज सहने पड़ते होंगे। देेर रात तक घूमती है, एक क्लाइंट के साथ उसकी बहस हो गयी थी और सबसे बढ़कर जिस राज्य.की मुख्यमंत्री एक महिला हो, वह मदद करने की जगह एक भयावह सच को साजानो घटना बता रही है, इससे बढ़कर क्या विडम्बना हो सकती है। कल्पना कीजिए कि अगर दमयंती सेन जैसी महिला अधिकारी न होती तो क्या हो सकता था। दमयंती वो थीं जिन्होंने एक महिला की सच्चाई पर भरोसा किया और बदले में उनको तबादले का उपहार मिला। मुझे याद है कि सुजैट के चरित्र पर गॉसिप (इसे गॉसिप ही कहूँगी) गली - गली का विषय बन गयी थी और सब के सब निष्कर्ष निकालने में जुटे रहते थे। हमारी सरकारी वकील गुनहगारों को कम से कम सजा दिलाने में आगे रहीं और दो मुख्य आरोपी तो फरार ही हैं। दोषियों के परिवार ऊपर तक जाने की बात करते हैं और सजा पाने वालों को परिवार से लेकर शादी और बहन - भाई सब याद आ रहे हैं। क्यों नहीं उनको सुजैट का परिवार दिखा, उसके दो छोटे बच्चे दिखे और न ही यह दिखा कि सुजैट अपने परिवार का सहारा थी। परिवार सजा पाते समय ही क्यों याद आता है और वे सुजैट के आँसू क्यों नहीं देख सके, यह भी सोचने वाली बात है। सुजैट की सहायता करने वाली संंताश्री चौधरी से बात हुई तो उन्होंने बताया था कि वह किस कदर टूट गयी थी मगर वह खड़ी हुई और उसने सिर उठाकर सामने आने का साहस दिखाया, पार्क स्ट्रीट पीड़िता की जगह सुजैट बनकर सामने आयी। पार्क स्ट्रीट कांड का इंसाफ अभी अधूरा है मगर सुजैट और दमयंती सेन की वजह से हर औरत का सिर ऊँचा हुआ है, सुजैट ने अपनी पीड़ा को प्रेरणा बनाकर जैसे एक नया रास्ता खोला और अब जब वह सच की इस लड़ाई में अपनी जीत को देखने के लिए जीवित नहीं है, यकीनन वह एक रास्ता जरूर खोलेगी, सिर उठाकर इज्जत के साथ जीने की जिद और जीतने की राह।
रविवार, 13 दिसंबर 2015
सुजैट - पीड़ा जो बनी प्रेरणा
सुजैट जॉर्डन, जब भी आप यह नाम लेते हैं तो उसका जिक्र पार्क स्ट्रीट पीड़िता के रूप में होता है मगर यह जाँबाज महिला, खुद को पीड़ित नहीं सरवाइवर, कहती थी और जिस हिम्मत के साथ उसने इंसाफ की लड़ाई बगैर किसी के साथ के लड़ी, वह काबिलेतारीफ थी मगर कहीं न कहीं कम से कम मैंने समाज और शख्सियतों एक खौफनाक चेहरा देखा। जज ने फैसले में कहा है कि ये सजायाफ्ता तीन आरोपी सुजैट को सबक सिखाना चाहते थे, निर्भया के साथ दरिंदगी का खेल खेलने वालों ने भी उसे सबक सिखाने के लिए ही अपनी हैवानियत दिखायी। जाहिर है कि समाज के नुमाइंदों को औरतों के आगे बढ़ने और देर रात तक बाहर रहने से परेशानी है क्योंकि दुनिया के 80 प्रतिशत मर्द तो औरतों को अपनी सम्पत्ति ही समझते हैं जिसकी जिंदगी के कायदे - कानून वह खुद तय करना अपना अधिकार समझते हैं और गाहे - बगाहे हमारे देश के स्वयंभू नेताओं ने भी अपने बयानों से महिलाओं की अस्मिता की धज्जियाँ उड़ाने में अपनी शान ही समझी हैं इसलिए मुलायम सिंह यादव को बलात्कारी भी बच्चे नजर आते हैं। 16 दिसम्बर आने वाला है और निर्भया की मौत के एक साल और गुजर जाएंगे मगर सुजैट ने तो वह जहर पीया और उसे अमृत समझकर जीती गयी। एक पल के लिए सोचिए कि उस औरत पर क्या गुजरी होगी जब उसके दो छोटे बच्चों के सामने उसे समाज के तंज सहने पड़ते होंगे। देेर रात तक घूमती है, एक क्लाइंट के साथ उसकी बहस हो गयी थी और सबसे बढ़कर जिस राज्य.की मुख्यमंत्री एक महिला हो, वह मदद करने की जगह एक भयावह सच को साजानो घटना बता रही है, इससे बढ़कर क्या विडम्बना हो सकती है। कल्पना कीजिए कि अगर दमयंती सेन जैसी महिला अधिकारी न होती तो क्या हो सकता था। दमयंती वो थीं जिन्होंने एक महिला की सच्चाई पर भरोसा किया और बदले में उनको तबादले का उपहार मिला। मुझे याद है कि सुजैट के चरित्र पर गॉसिप (इसे गॉसिप ही कहूँगी) गली - गली का विषय बन गयी थी और सब के सब निष्कर्ष निकालने में जुटे रहते थे। हमारी सरकारी वकील गुनहगारों को कम से कम सजा दिलाने में आगे रहीं और दो मुख्य आरोपी तो फरार ही हैं। दोषियों के परिवार ऊपर तक जाने की बात करते हैं और सजा पाने वालों को परिवार से लेकर शादी और बहन - भाई सब याद आ रहे हैं। क्यों नहीं उनको सुजैट का परिवार दिखा, उसके दो छोटे बच्चे दिखे और न ही यह दिखा कि सुजैट अपने परिवार का सहारा थी। परिवार सजा पाते समय ही क्यों याद आता है और वे सुजैट के आँसू क्यों नहीं देख सके, यह भी सोचने वाली बात है। सुजैट की सहायता करने वाली संंताश्री चौधरी से बात हुई तो उन्होंने बताया था कि वह किस कदर टूट गयी थी मगर वह खड़ी हुई और उसने सिर उठाकर सामने आने का साहस दिखाया, पार्क स्ट्रीट पीड़िता की जगह सुजैट बनकर सामने आयी। पार्क स्ट्रीट कांड का इंसाफ अभी अधूरा है मगर सुजैट और दमयंती सेन की वजह से हर औरत का सिर ऊँचा हुआ है, सुजैट ने अपनी पीड़ा को प्रेरणा बनाकर जैसे एक नया रास्ता खोला और अब जब वह सच की इस लड़ाई में अपनी जीत को देखने के लिए जीवित नहीं है, यकीनन वह एक रास्ता जरूर खोलेगी, सिर उठाकर इज्जत के साथ जीने की जिद और जीतने की राह।
रविवार, 22 नवंबर 2015
वाइ ओनली मेन
वाई ओनली मेन डांस इन इंडिया। फ्राँस से आयी शारर्टाल ने जब ये सवाल मुझसे पूछा तो मेरे पास कोई जवाब नहींं था। मैंने हमारी सभ्यता और संस्कृति की लफ्फाजी में उनको घुमाने की कोशिश की मगर छठ के हर गीत पर झूमती शार्टाल के लिए नृत्य उल्लास की अभिव्यक्ति है जो स्त्री और पुरुष का फर्क नहीं देखती मगर यह भारत है जहाँ खुलकर अभिव्यक्ति करने की छूट पितृसत्तात्मक समाज को है। स्त्रियाँ फिल्मों में पेड़ के इर्द - गिर्द नायक से गलबहियाँ करती तो अच्छी लगती हैं मगर वास्तविक जीवन में अगर कोई स्त्री इस तरह से अभिव्यक्ति करे तो सीधे उसकी परवरिश से लेकर चरित्र पर ही सवाल उठेंगे। प्रकृति से मिले अधिकार भी लाज - संकोच और शर्म की बेड़ियों में बाँधकर हम खुद को सभ्य कहते है औऱ यही हिचक हम स्त्रियों में भी है। तुम्हारे सवाल का जवाब हमारे पास अभी नहीं है शार्टाल, उसकी तलाश जरूर कर रहे हैं हम
आइसक्रीम खाएंगे, जब मैंने रस्सी पर खेल दिखाती गौरी से बतियाने की कोशिश की तो गौरी का पहला वाक्य यही था। नीचे भीड़ खड़ी उसका तमाशा देख रही थी, पास ही कानून के पहरेदार भी थे मगर आँखों के सामने बालश्रम या यूँ कहें, कि बच्ची की जान को दाँव कर लगाकर तमाशा देखने वाले अधिक थे। गौरी 2 साल से ही सयानी हो चुकी है, घर चलाने के लिए और भाई के इलाज के लिए अपने भाई -बहनों के साथ खेल दिखाती है मगर उसकी छोटी सी आँखों में बचपन पाने की चाह को छोड़कर मैं कुछ नहीं देख पायी। माँ कहती है कि उसकी बेटी सब कर लेती है, बेटी जब खेल दिखाती है तो माँ और भाई नीचे चलतेे दिखे, भाई ऊपर जाता तो गौरी नीचे चलती। ऊँची पतली रस्सी पर खड़ी गौरी पता नहीं दुनिया को तमाशा दिखा रही थी या नीचे खड़े तमाशबीनों का तमाशा देख रही थी, पता नहीं मगर मन बहुत परेशान हो गया। गौरी मानों अब तक मेरा पीछा कर रही है, मैं उसकी कहानी पहुँचा सकूँ, इसके अलावा फिलहाल और कुछ नहीं कर सकती। माँ को भी दोष कैसे दूँ मगर दोषी फिर कौन है, गरीबी, व्यवस्था या कुछ और। पता नहीं मगर उसकी आवाज गूँज रही है - आइसक्रीम खाएंगे
मंगलवार, 3 नवंबर 2015
ऐसा लगता है कि पुरस्कार वापसी की रेल निकल पड़ी है जिसमें एक के बाद एक डिब्बे जुड़ते चले जा रहे हैं। हर कोई खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करने में जुटा है, वैसे ही जैसे बच्चे कक्षा में प्रथम आने की तैयारी कर रहा हो। हर कोई रूठा है, हर किसी को शिकायत है मगर जख्म पर मरहम लगाने की अदा ही शायद लोग भूल गये हैं। दादरी से लेकर दिल्ली तक, हर जगह माँ भारती कराह रही है। पुरस्कारों से तौबा करने की जगह शायद नफरत से तौबा होती तो कोई राह भी निकलती। काश, लोग समझ पाते कि राम और रहीम, दोनों इस जमीन के ही बेटे हैं। खून किसी का भी बहे, चोट तो माँ को ही लगनी है।
शनिवार, 15 अगस्त 2015
पत्रकारिता जगत में एक दशक तो हो गया, जब आयी थी तो हिन्दी अखबारों में महिलाएं देखने को नहीं मिलती थीं और आज हैं तो होकर भी जैसे नहीं हैं। अखबारों में जिस तरह से खबरों में उनको किसी मसालेदार सब्जी की तरह परोसा जाता है, उसे देखकर कोफ्त होती है। सच तो यह है कि भारतीय हिन्दी अखबार अभी तक पत्रकारिता क्षेत्र में महिलाओं की मौजूदगी को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। खासकर आपराधिक खबरों में तो या उनको अपराधी की तरह या फिर वस्तु की तरह पेश किया जा रहा है और कहीं कोई प्रतिरोध नहीं है। कदम पर महिला पत्रकारों के मनोबल को तोड़ने का प्रयास चलता रहता है। वे मनोरंजन और जीवनशैली से लेकर शिक्षा स्तर और राजनीतिक स्तर पर कवरेज कर सकती हैं मगर निर्णय में उनकी भागीदारी हो सकती है, यह बात कोई समझने को तैयार नहीं है और तब तक यह बात नहीं समझी जाएगी जब तक महिलाएं उनको समझने पर मजबूर न कर दें।
जुलाई चला गया और जाते - जाते भारत के मिसाइलमैन पूर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम को साथ ले गया। आज स्वतंत्रता दिवस पर देश को उनकी कमी बेहद खली मगर वह छोड़ गये एक सपना जिसे पूरा करना अब हर भारतीय का दायित्व है। ऐसा राष्ट्रपति जो कह गया कि उनके जाने के बाद भी काम हो, अवकाश न हो। मेरे देश, तुझे एक और कलाम की जरूरत है, सुभाष की जरूरत है। वंदे मातरम्
रविवार, 7 जून 2015
इस साल की बोर्ड परीक्षाएं तो समाप्त हुईं मगर हर साल की तरह नतीजे हैरत में डालने वाले थे। माध्यमिक और उच्चमाध्यमिक की परीक्षा में झंडा फहराने वाले जिले आईएससी और सीबीएसई की परीक्षा में नहीं दिखे। एकबारगी मानना मुश्किल था कि जिस शहर ने देश को एक नहीं दो टॉपर दिए, उसके नतीजे इतने खराब होंगे। जिलों के प्रति सहानुभूति और कोलकाता के प्रति विरक्ति नजरअंदाज करना कठिन है। लड़कियाँ तो मानों पीछे छूटती चली गयीं और ज्वाएंट एन्ट्रेंस परीक्षा के नतीजों ने तो मानो सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर लड़कियाँ हैं कहाँ? इन नतीजों के साथ एक बंधी - बँधायी मानसिकता भी दिखी, लड़कियाँ इंजीनियर नहीं बनना चाहतीं, शोध नहीं कर रहीं और विज्ञान में उनको दिलचस्पी नहीं है। जाहिर है जोखिम उठाने वाले क्षेत्रों में या समय लेने वाले क्षेत्रों में लड़कियाँ या तो खुद नहीं जाना चाहतीं या फिर उनको सामाजिक व्यवस्था इजाजत ही नहीं देती। महानगर में आयोजित हो रहे कॅरियर मेलों में भी लड़कियों की संख्या बेहद कम है। इन क्षेत्रों से होकर गुजरने वाले रास्ते निर्णायक रास्तों की ओर मुड़ते हैं और यही हाल रहा तो कहना पड़ेगा, दिल्ली अभी बहुत दूर है।
रविवार, 19 अप्रैल 2015
आखिरकार धमाकों और गोलियों के बीच निगम का चुनाव खत्म हुआ, अब नतीजों का इंतजार है मगर कल जो नजारा था, उसे लोकतंत्र के अनुकूल तो नहीं कहा जा सकता। लोकसभा चुनावों में जो उत्साह था और लगता तो ऐसा ही है कि बंगाल में चुनाव औपचारिकता मात्र ही हैं क्योंकि स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा जैसा शब्द राजनीति में अब प्रासंगिक नहीं रहा, एक ही टीम बैटिंग भी करती है, गेंदबाजी भी करती है, कैच भी पकड़ती है और फिर चोरी का रोना भी रोती है। इस टीम को विरोधी नही, लगता है कि उसके खिलाड़ी ही मात देंगे। एक साल में काफी कुछ बदल गया। बहरहाल जिंदगी ने मानों नया मोड़ लिया है और खुद से जूझने के बाद आखिरकार मैं कह सकती हूँ जो होता है, अच्छा होता है, काश यह बात हमारे राज्यवासियों पर और देश पर भी लागू हो पाती, पता नहीं अच्छे दिन कहाँ थम गये,
रविवार, 22 मार्च 2015
हो सकता है कि जो लिखने जा रही हूँ वह
बहुतों को नागवार गुजरे, यह भी कहा जा सकता
है कि कुछ नियम ही ऐसे हैं मगर नियम जब आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने लगे, तब ऐसा ही होता है, कहकर खुद को समझाना बहुत कठिन होता है, कुछ
पेशेवर तकाजा भी है और हो सकता है कि यह दूतावासों से लेकर हवाई अड़्ों की
संस्कृति हो। बात अमेरिकन सेंटर की हो रही है, जहाँ
कई सालों से आना जाना होता रहा है। सुरक्षा के लिए जाँच भी तकाजा है, यह भी स्वीकार कर लिया जाए इसका तरीका बाध्य कर देता है कि यह सोचा जाए
कि क्या हम अपने ही देश में हैं। और हाँ, तो दूसरों के बनाए
नियम हम पर क्यों लागू होंगे। जाँच के नाम पर आपका सामान बिखेरकर तलाशी लेना,
और फिर आपको आपको पानी पीने को बाध्य करना, अनचाहे
ही शक का दायरा खड़ा करता है। सवाल यह है कि विदेशों में तो हमारे पूर्व
राष्ट्रपति से लेकर अभिनेताओं तक को तलाशी के नाम पर अपमान सहना पड़ा है तो फिर मैं क्यों शिकायत कर रही हूँ।
वैसे क्या बराक ओबामा को भी भारत आने पर
तलाशी देनी पड़ी होगी। हद तो तब हो जाती है जब कई बार आपको असमय दवा खाने
को कह दिया जाता है। बात विश्वास की है और जब विश्वास न हो तो ढोंग नहीं करना
चाहिए। एक ओर भारत और अमेरिका के रिश्ते मजबूत करने की दुहाई दी जाती है और दूसरी
ओर तलाशी के नाम पर संदिग्ध बनाया जा रहा है। अपने ही देश में कम से कम इस सम्मान
के हकदार तो हैं कि बुलाया जाए तो विश्वास भी किया जाए। गाँधी ने आंदोलन किया,
नमक कानून तोड़ा, उसके पहले दक्षिण
अफ्रीका में अंग्रेजों के कानून तोड़े, तो उनको यह सब नहीं करना चाहिए था क्यों कि देश पर शासन तो
अंग्रेजों का था, उन्होंने विरोध किया मगर हम वह भी नहीं
करेंगे क्योंकि हम भारतीय हैं और एक भारतीय होने के नाते यह नागवार गुजरा। मुझे लगता है कि जलियावाला बाग हत्याकांड के लिए जनरल डायर के साथ वे भारतीय सिपाही भी जिम्मेदार थे जिन्होंने गोलियाँ चलायीं। सुरक्षा लिए जाँच से आपत्ति नहीं है मगर सुरक्षा की जाँच के नाम पर अपमान पर आपत्ति
जरूर है। बापू को अब दक्षिण अफ्रीका की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि भारत में ही
अमरीका, ब्रिटेन औऱ अफ्रीका, तीनों
आ गये हैं। क्या करूँ, उनके नियम ही ऐसे हैं
रविवार, 8 मार्च 2015
महिला सशक्तीकरण का मतलब पुुरुषों का नहीं उस पितृसत्तात्मकता का विरोध करना है जो परंपरा के नाम पर स्त्रियों को कमतर समझकर उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित रखती है। कहने को स्त्री और पुरुष समाज के दो पहिए हैं मगर स्त्री वह पहिया है जिसे जिम्मेदारियों के नाम पर घिसा तो गया मगर अधिकारों का तेल नहीं लगने दिया गया। जो लोग परदा प्रथा और देवी बनाकर स्त्री से आज भी मध्ययुगीन सभ्यता में जीने की उम्मीद रखते हैं, जो स्त्री को उपभोग की सामग्री मानकर उस पर अधिकार जताते हैं, दहेज या प्रेम में ठुकराए जाने पर उस पर तेजाब फेंकते है और बलात्कार या हिंसा को लड़कियों की नियति मानते हैं उनसे ही यह सवाल है, क्या आप शादी के नाम पर अपनी ससुराल को दहेज देना पसंद करेंगे, और वहां रहना पसंद करेंगे। कैेसे लगेगा जब दहेज के साथ आपको वह तमाम काम करने पड़ेे जो आपकी पत्नी करती है। क्या करेंगे जब धोखेबाजी की शिकार कोई प्रेमिका आपके चेहरे पर तेजाब फेंके। क्या होगा जब यौन हिंसा की घटनाएं आपके साथ हों। घर की इज्जत के नाम पर लड़कियों की जान लेने वालों को कैसा लगेगा जब ऐसी घटिया हरकतों के लिए लड़कियां हिंसक हो उठें, लड़कों की पढ़ाई या नौकरी छुड़वाकर घर पर बैठाया जाए। नौकरी करने वाली कई महिलाएं अपने बच्चों केे लिए घर पर बैठ जाती हैं, क्या कोई पुरुष अपनी पत्नी के लिए नौकरी छोड़ सकता है। जो बात आपलोगोों के लिए बुरी है, वह हमारे लिए अच्छी कैसे हो सकती है,, आखिर अपराध करने वालों से बहनों का भी अपमान होता है, जरा सोचिए ऐसे अपराधियों के घर की स्त्रियों पर क्या गुजरती होगी। आप अपने घर की लड़कियों को इज्जत समझते हैं तो दूसरे घर की लड़कियों का सम्मान आपका सम्मान क्यों नहीं है। जो पुरुष वाकई पहलेे महिलाओं का सम्मान करें, स्वीकृति दें तो महिला दिवस मनाएं वरना हमें पाखंड की जरूरत नहीं है, बख्श दीजिए हमें।
रविवार, 22 फ़रवरी 2015
यह कहानी सलाम दुनिया में प्रकाशित हो चुकी है
मोहरा
-
सुषमा त्रिपाठी
"प्रदीप्त मुखर्जी, हमारी
जोनल कमेटी के नये अध्यक्ष। पार्टी ने इनको यह जिम्मेदारी सौंपी है। उम्मीद है कि प्रदेश
के दूसरे नेता भी उसी ईमानदारी से पार्टी को आगे बढ़ाएंगे, जिस
तरह से प्रदीप्त बढ़ा रहे हैं।" तालियों की गड़गड़ाहट से
सभागार गूंज उठा। सभागार के बीच से एक दुबला - पतला सांवला लड़का मंच की ओर बढ़ा। उसके
गले में हार डाला गया और वह संकोच से मानो दबा जा रहा था। तालियों के बीच मंच के नीचे
दो हाथ अपनी मुट्ठियों को भींचे तने जा रहे थे, कभी इन हाथों
ने इसी पार्टी के लिए चोटें भी खायीं थीं और ये हाथ किसी और के नहीं, उसी सुभाष के थे जिसकी जगह प्रदीप्त को दे दी गयी थी। सुभाष से और रहा नहीं
गया, कुछ सोचता, तभी मोबाइल की घंटी बजी
और वह बाहर आ गया।
- "ए सुभाष दा,
के होलो प्रेसिडेंट तोमादेर?"
- "नतून छेले,
प्रदीप्त मुखर्जी।"
- "प्रदीप्त,
तुम ही तो लाए थे, दादा उसे।"
सुभाष ने फोन काट दिया। एक - एक करके पुरानी बातें याद
आने लगीं,
लगा कल ही की तो बात है।
- "किंतु,
सुभाष दा, आमि राजनीति करते चाइ ना। तुम तो जानते
हो न, बाबा, कैसे एक - एक रुपया मेरी पढ़ाई
के लिए जोड़ रहे हैं, घर कितनी मुश्किल से चल रहा है। एई शोब
भालो लागे न गो, चाहता हूं कोई नौकरी मिल जाती, तो मैं भी कुछ हाथ बंटा देता। घर का कुछ तो सहारा हो जाता।"
- "एई बोका छेले।
तुझे पता भी है कितना स्पार्क है तुझमें। आज की छात्र राजनीति में तेरे जैसे ब्रिलिएंट
लड़कों की जरूरत है, ना, कोरिश ना।"
- "जानि ना,
किछु टाइम लागबे।"
तभी किसी का हाथ कंधे पर पड़ा, सुभाष मानो नींद से जागा।
- "किछु मोने करिश
ना। सामने इलेक्शन है, नये लड़कों की जरूरत है, पार्टी के लिए करना पड़ा। हम तुझे बड़ी जिम्मेदारी देंगे, आखिर प्रदीप्त को तो पार्टी में तुम ही लाए हो।"
- "विभाष दा,
दूध में मक्खी जैसा था मैं, तुम्हारे लिए। बस एक
काम करो, करीम को बोलो कि वह मेरे लड़कों से उलझना बंद करे। जानते
हो, कल पृथा को उनके लड़कों ने छेड़ा, धक्का
- मुक्की की। आपनि जानेन, कितनी मुश्किल से पार्टी को कॉलेज में
खड़ा किया। अब करीम मुझको बाहर का बताकर दखल करने पर आमादा है।"
- "मैं करीम को समझा
दूंगा मगर सुभाष तुझे समझना होगा कि करीम सीनियर है, उस पर से
माइनोरिटी भी। उसको तो ऑपोजिशन भी तोड़ना चाहता है, मगर तुम टेंशन
मत लो, कॉलेज में तुम ही रहोगे।" विभाष
एकाएक गंभीर हो गया - "एक बात याद रखना, हरदयाल कॉलेज में सर्वोदय वालों को एक भी नॉमिनेशन न मिलने पाए। वहां हमारी
डेमोक्रेटिक यूनियन ही जीतेगी।"
सुभाष को विदा कर विभाष पीछे मुड़ा - शेख करीम सामने
खड़ा था -" मैं कहता हूं, समझा लीजिए,
बच्चे को, पाड़ा में अपनी इज्जत है कि नहीं,
कल जो झमेला हुआ, सर्वोदय वालों के साथ,
और वह पृथा, घाट - घाट का पानी पी रखा है,
उस लड़की ने।"
"चुप करो करीम।" विभाष
घोष के बोल फूटे - "पता है सुभाष कितना पॉप्यूलर है। इलेक्शन
का टाइम है, दिमाग से काम लो, हमने उसके
सामने उसी के लड़के को खड़ा कर दिया है ना, कुछ दिन की तो बात
है, फिर कितनी देर लगेगी मुझे सुभाष को हटाने में। 30 साल से
यही तो करता आ रहा हूं। वैसे, लड़के दोनों होशियार हैं,
रिसर्च करते तो बहुत आगे जाते मगर तब पार्टी कैसे चलती? मजबूरी है भाई।"
वह तो है, करीम की नजरें विभाष
से मिलीं, और एक शैतानी हंसी गूंज उठी।
- "लेकिन,
विभाष दा, इलेक्शन तो डेमोक्रेसी के लिए है,
न। प्रदीप्त बोला।
अच्छा होता कि हम उनको भी मौका देते कि वह हमारी ताकत
देखें।"
- "प्रदीप्त,
अभी बच्चे हो, सुभाष जो कहता है, बस वही करो।" - विभाष ने दो टूक फैसला सुना दिया।
प्रदीप्त ने फोन काट दिया। यूनिवर्सिटी कैंपस में कक्षाएं खत्म हो गयी थीं,
वह अकेला रह गया था। तभी दीपक दिखा, उसने आवाज
दी - दीपक....।
दीपक उसका सहपाठी रह चुका था, साथ में कई प्रतियोगिताएं जीती थीं उसने कॉलेज के लिए मगर अब वे एक दूसरे के
विरोधी थे, अलग - अलग यूनियनें थीं उनकी। अब तो याद भी नहीं,
कब एक दूसरे को देखकर हंसे थे, कब साथ चाय पी थी।
- बोल। दीपक सामने खड़ा था।
- "बैठ न।"
प्रदीप्त ने दीपक को बैठने का इशारा किया मगर दीपक खड़ा रहा।
- "तेरे साथ? प्रदीप्त, तू तो बड़ा नेता हो गया है, तेरे चेलों ने देख लिया तो पार्टी से निकलवा देंगे तुझे, ऑपोजिशन पार्टी के साथ बैठेगा?"
-" तू बैठता है कि नहीं," दीपक का हाथ पकड़कर प्रदीप्त ने बैठा लिया। "क्रॉसवर्ड
खेलेगा?" - और, उस दिन बाजी जमी,
खिलखिलाकर दो दोस्त हंसे, अनायास उनकी आंखें छलक
पड़ीं। इंसान जब कुछ खोता है तो उसे एहसास होता है कि जो खोया, वह कितना कीमती था, दोस्ती भी ऐसी ही चीज है।
इलेक्शन को कुछ ही दिन बचे थे, आज नॉमिनेशन था। पुलिस तैनात थी, कड़ा पहरा था।
- सर्वोदय, फॉर्म नहीं लेगा।
- मगर, क्यों, हारने से डरते हो क्या?
- हारना तो तुमको है। सुभाष आगे बढ़ा और सर्वोदय के
समर्थक सतीश से उसने फॉर्म छीन लिया। सतीश घबराकर चला गया, दीपक सिंह सामने था। बोला - "कमजोर पर ताकत दिखाते
हो, हमसे लड़ो।"
तभी किसी ने उसके सिर पर पीछे से पत्थर दे मारा मगर
निशाना चूक गया। दोनों छात्र संगठन टकरा गये, बम और बोतलें,
पत्थरों की बौछार शुरू हो गयी।
- "आमि छाड़बो ना।" सुभाष आगबबूला होकर पिस्तौल के साथ दीपक के सामने आ गया। यह सब देखकर प्रदीप्त
का माथा घूम गया, राजनीति के नाम पर उसे खून बहाना होगा,
इसकी तो कल्पना भी नहीं की थी उसने।
- "सुभाष दा,
उसे छोड़ो, ए कि होच्छे?
वह मेरा दोस्त है।" - प्रदीप्त चिल्ला उठा।
- "दोस्त,
वह तुम्हारा होगा, मेरा और पार्टी का तो वह दुश्मन
ही है और दुश्मन को मरना ही पड़ता है।" - सुभाष अड़ गया
था।
- "नहीं,
सुभाष दा, तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे।" दोनों उलझ गये और भारी शोर - शराबे के बीच गोली चल गयी। सब छिटककर दूर खड़े
हो गये, दीपक चिल्ला उठा - "प्रदीप्त......।"
- याद आया, किसी ने उसे धक्का
देकर सुभाष के सामने से हटा दिया था और तभी गोली चल गयी....जमीन पर प्रदीप्त की लहुलूहान
लाश पड़ी थी। दीपक दहाड़ मारकर रो पड़ा।
- "दीपक....कानछिश
केनो? शे तो विरोधी दलेर लोक छिलो।"
इधर, सुभाष फफक पड़ा,
प्रदीप्त उसके छोटे भाई जैसा था, उसकी मौत नहीं
चाही थी सुभाष ने - "आमि तोके मारते चाइ नि गो.....।"
सुभाष को पिस्तौल के साथ गिरफ्तार किया गया। पुलिस वैन
में बैठे सुभाष की नजर दुकान में टीवी पर पड़ी, जहां विभाष घोष का
बयान आ रहा था।
- "हमारी पार्टी
गलत लोगों को माफ नहीं करती, सुभाष को भी माफी नहीं मिलेगी। पार्टी
अध्यक्ष प्रदीप्त के घर जा रहे हैं, सुभाष को पार्टी से निकाल
दिया गया है। पार्टी की जोनल कमेटी का अध्यक्ष शेख करीम को बनाने का फैसला लिया गया
है, हमें उम्मीद है कि वह अपना काम पूरी ईमानदारी के साथ करेंगे।"
·
February 18, 2015
·
Written by B4M Reporter
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Published in आवाजाही-कानाफूसी
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बरखा दत्त का नाम एनडीटीवी के लिए पर्याय हो चुका है. पर ये
नाता अब टूट रहा है. बरखा दत्त अपनी मीडिया कंपनी बनाएंगी. बरखा की एनडीटीवी से
विदाई पर चैनल के मालिक-मालकिन प्रणय राय और राधिका राय ने अपने सभी कर्मियों को
एक आंतरिक मेल किया है, जो इस प्रकार है...
From: Prannoy Roy
To: Everyone in NDTV Group
Subject: The very best
Dear All
Barkha Dutt was only 23 when she joined NDTV as a young reporter cum producer. NDTV was the first place she ever worked in and for two decades we have seen her evolve into one of our most prolific reporters. She has been a key member of the NDTV family and a big part of our memorable journey from a production house that created a nightly news bulletin for doordarshan to what we are today. She has worn many hats for NDTV: journalist, anchor, editor and NDTV has been both her learning ground and her second home.
Now twenty years later we wish her all the very best as she embarks on yet another role with us. Barkha will be moving to the role of Consulting Editor. She will remain as closely associated with NDTV as she has all these years as the anchor for Buck Stops Here on weeknights and We The People on weekends. She will also be available as always for analysis and inputs on big news events and stories. While her TV relationship with NDTV remains unchanged, in her new role she will be setting up her own multi media content company and policy group. We have literally seen barkha grow from a child to an adult professional and look forward to our close bonds only strengthening further as she embarks on this new venture.
I know you will join us in wishing Barkha the very very best.
Radhika and Prannoy
To: Everyone in NDTV Group
Subject: The very best
Dear All
Barkha Dutt was only 23 when she joined NDTV as a young reporter cum producer. NDTV was the first place she ever worked in and for two decades we have seen her evolve into one of our most prolific reporters. She has been a key member of the NDTV family and a big part of our memorable journey from a production house that created a nightly news bulletin for doordarshan to what we are today. She has worn many hats for NDTV: journalist, anchor, editor and NDTV has been both her learning ground and her second home.
Now twenty years later we wish her all the very best as she embarks on yet another role with us. Barkha will be moving to the role of Consulting Editor. She will remain as closely associated with NDTV as she has all these years as the anchor for Buck Stops Here on weeknights and We The People on weekends. She will also be available as always for analysis and inputs on big news events and stories. While her TV relationship with NDTV remains unchanged, in her new role she will be setting up her own multi media content company and policy group. We have literally seen barkha grow from a child to an adult professional and look forward to our close bonds only strengthening further as she embarks on this new venture.
I know you will join us in wishing Barkha the very very best.
Radhika and Prannoy
बुधवार, 11 फ़रवरी 2015
महिला पत्रकारों की स्थिति को दर्शाता लेख
(1)
CHAPTER-1
EXECUTIVE SUMMARY
STATUS OF WOMEN JOURNALISTS IN THE PRINT MEDIA
By Pamela Bhagat
INTRODUCTION
The project on the Status of Women Journalists in the Print Media was initiated by the
National Commission for Women to look into issues affecting the role of women working in
the print media. As part of a broader study on working women in India, it was executed by
the Press Institute of India (PII), through empirical data that was collected from almost all
the States and Union Territories of the country.
The objective of the research was to examine the problems and issues confronting
women working in the media, to gauge the extent of direct and indirect discrimination in the
workplace and to identify contemporary issues that need to be addressed.
METHODOLOGY
The research was coordinated by me with the support of media representatives from
various regions - Linda Chhakchhuak from Shillong, Rajashri Dasgupta from Calcutta, Sushmita
Malaviya from Bhopal, R. Akhileshwari from Hyderabad and Surekha Sule from Mumbai - who
together formed a National Study Group. The National Study Group assisted with the design
and implementation of the 20-page questionnaire. Usha Rai, Deputy Director, Press Institute
of India, guided and steered the group.
A brain storming session with a focus group of women journalists in Delhi preceded the
study, to ensure that the questionnaire was suitable and that critical aspects were addressed.
The questionnaire was then pilot tested to iron out discrepancies and ambiguities. Experiences
from the field surveys are outlined later in the report.
SAMPLING AND RESPONSE RATE
A total of 410 women working in the print media responded. Although there are no
definite figures on the number of questionnaires distributed, estimates put the sample size
at approximately 3500. This means the response rate was approximately 11.5 per cent. This
was one of the most disappointing aspects of the study. There was total non-cooperation in
filling in the questionnaire, especially by journalists from the English language national media.
पत्रकारिता, कोलकाता, स्त्री
मीडिया में महिलाओं के लिए बेहतर काम करना चुनौती नहीं है मगर उसके लिए सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते जाना टेढ़ी खीर है। पत्रिकाओं में महिला संपादक आपको मिल सकती है लेकिन अखबारों में, फिलहाल इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। वहीं हिन्दी अखबारों में सम्पादक बनना तो दूर की बात है, महत्वपूर्ण क्षेत्र भी मिल जाए तो यह भी बड़ी बात है, विशेषकर राजनीति और अपराध से लेकर कोर्ट में, जहाँ भद्रता नही है। तो फिर क्या होना चाहिए, और इस बारे में सोचा क्यों नहीं गया, खासकर बौद्धिक स्तर पर महान कोलकाता में, यह हैरत की बात है, यह लेख जो सामने है, इस विषय पर मानों आँखें खोलने का काम करता है
रविवार, 8 फ़रवरी 2015
पुस्तक मेले का बदलता चेहरा
जब भी कोई हिन्दी पाठक पुस्तक मेले में जाता है तो उसके लिए पहली चुनौती तो हिन्दी के स्टॉल खोजना है। हिन्दी के चुनिंदा स्टॉल आनंद प्रकाशन,ज्ञानपीठ, राजकमल, जैसे नामों को छोड़ दिया जाए तो हिन्दी प्रकाशकों की रुचि पुस्तक मेले में दिख नहीं रही है। समस्या यह है कि हिन्दी तो साहित्य तक सिमटती जा रही है तो साहित्य में रुचि नहीं रखने वाले पाठकों के लिए लेखकों के पास कुछ खास नहीं रहता और है भी तो पाठकों तक वह पहुँच नहीं रहा। ऐसा नहीं है कि हिन्दी में पाठक नहीं है, पाठक जरूर हैं मगर ऊंची कीमतों पर किसी बड़े साहित्यकार की रचना को खरीदने और सजाने की उसकी स्थिति नहीं है। वह चाहे तो हजार रुपए का संकलन नहीं खरीद सकता और ये पुस्तकें पुस्तकालयों की शोभा बनकर रह जाती हैं। वैसे कड़वी सच्चाई यह है कि बंगाल की पुस्तक प्रेम वाली मानसिकता हिंदी की आम जनता नहीं है या इसे लेखकों की विफलता माना जाए कि वे सरल और रोचक शैली में गंभीर बात नहीं कह पा रहे हैं। अंग्रेजी का पाठक भी संभ्रांत वर्ग ही है और उसमें से अधिकतर युवा ही हैं। क्या वजह है कि हिन्दी का प्रसार केवल शिक्षण संस्थानों या गोष्ठियों तक सिमट गया है। कहीं यह अति बौद्धिकतावाद तो नहीं हैै जिसकी वजह से लेखकों और पाठकों के बीच दूरी आ गयी है। लेखक अब चौपाल और बाजार तक नहीं जाता, उसके अनुभवों से कहानी बनती तो है मगर जिस आम पाठक के लिए लिख रहा है, वहां तक पहुँच नहीं पा रही। हिन्दी को कार्यालयों या शिक्षण संस्थानों तक सिमटकर नहीं रहना, उसे घर के आंगन और चौपाल का सफर तय करना होगा, पुस्तक मेले में यह बात साफ हो गयी। वहीं इस बार विवेल, एनएसई के स्टॉल देेखकर यही लगा कि पुस्तक मेला कॉरपोरेट शक्ल ले रहा है। मस्ती और फूड कोर्ट के प्रति लगाव अधिक था मतलब समस्या हर भाषा के साहित्य के साथ है तो मुकाबला भी सभी को मिलकर करना होगा। साहित्य का चौपाल और आंगन तक पहुँचना जरूरी है।
सोमवार, 26 जनवरी 2015
रविवार, 4 जनवरी 2015
सहने की नहीं, कुछ करने की जरूरत है
-
सुषमा त्रिपाठी
हमारी जिंदगी में बहुत से पल ऐसे होते हैं जब हमें सख्त कदम उठाने की
जरूरत पड़ती है मगर हम ऐसा नहीं करते। खासकर हम लड़कियों को तो यही सिखाकर बड़ा ही
किया जाता है कि वह हमेशा दूसरों के बारे में सोचे। हमेशा यही फिक्र की जाती है कि
लोग क्या कहेंगे मगर एक बार भी कोई यह सोचने की जहमत नहीं उठाता कि लड़कियां किन
स्थितियों में जी रही हैं। हम मानें या न मानें आज भी भारतीय परिवार अपनी बेटियों
की ख्वाइशों के साथ समझौता करने को तैयार रहते हैं। दुनिया बड़ी अजीब है क्योंकि
यहां उसे खामोश रहने को कहा जाता है जो खुद पीड़ित है मगर एक बार भी अपराधियों पर
लगाम कसने की कोशिश नहीं की जाती। इस पत्रिका में मैं बतौर पत्रकार नहीं, सावित्री
गर्ल्स कॉलेज की पूर्व छात्रा के रूप में भी नहीं बल्कि आप सबकी तरह नयी पीढ़ी के
सामने अपनी बात रखने की कोशिश कर रही हूं। मेरा मानना है कि अगर आप अपना सम्मान
नहीं कर सकते तो दूसरों का सम्मान करना कभी नहीं सीखेंगे। दूसरों के बारे में
सोचना अच्छी बात है मगर अपने आत्मसम्मान की बलि देकर आप किसी का भला नहीं करते
बल्कि समाज का बुरा ही करते हैं। सबसे जरूरी है कि अपने दिल की सुनिए और उन फैसलों
पर सवाल खड़े कीजिए जो बतौर इंसान आपको कमजोर बनाते हैं। लड़कियां घर संभालती हैं,
नयी पौध को तैयार करती हैं मगर उनके घर में आज भी उनकी भूमिका निर्णायक नहीं है। न
तो पिता, न तो भाई और न तो पति कोई भी उनसे अपना जीवन साझा नहीं करता मगर लड़कियों
को हर वाजिब बात पर भी सफाई देनी पड़ती है, सवाल है क्यों? अनुभवों ने एक बात
तो सिखायी है कि अगर आप यह समझकर किसी भी रूप में उत्पीड़न स्वीकार करती हैं तो
इसका मतलब यह है कि आप उत्पीड़न करने वाले
को प्रोत्साहन दे रही हैं और इसके बाद कहीं न कहीं उसके गुनाह में अनजाने में
शामिल हो रही हैं। जाहिर है कि यह समाज के लिए भी अच्छा नहीं है। प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की मैं कायल नहीं हूं मगर स्वाधीनता दिवस ने उन्होंने अभिभावकों को
बेटियों की तरह बेटों से सवाल पूछने की बात उठायी थी, उससे सहमत हुए बगैर नहीं रहा
जा सकता। बात उत्पीड़न की हो रही है तो मैं अमेरिकन वक्ता बेन जेमैन की कुछ बातों
को यहां पर साझा करना चाहूंगी जो अपने अभियान व्वाएस ऑफ मेन के जरिए उत्पीड़न के
खिलाफ पुरुषों को जागरुक बनाने के लिए काम कर रहे हैं। अक्सर यह सवाल उठता है कि
पीड़ित उत्पीड़न करने वाले को छोड़ क्यों नहीं देता। बेन जेमैन कहते हैं कि पीड़ित
को समझाने से अच्छा यह होगा कि हम उत्पीड़न करने वाले को ऐसा न करने को कहें और
पीड़ित को गलत के खिलाफ आवाज उठाने को प्रोत्साहित करें क्योंकि आखिर उसे अपने
फैसले खुद करने होंगे। उत्पीड़न शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक, आर्थिक और मौखिक भी
हो सकता है। कहा भी गया है कि जबान जहर का भी काम करती है। उत्पीड़न का पीड़ित के
स्वभाव, शराब या पीड़ित के कारण होने वाले क्रोध से रिश्ता नहीं है बल्कि यह
पीड़ित या साथी पर नियंत्रण करने की इच्छा रखने वाली मानसिकता है। सच तो यह है कि
उत्पीड़न के कारण पीड़ित का आत्मविश्वास इस कदर खो जाता है कि वह आवाज उठाने की
हिम्मत ही नहीं कर पाता। बेन जेमैन के मुताबिक ऐसा तब भी होता है जब पीड़ित ऐसे ही
माहौल में रहा हो या उसके साथ पहले भी ऐसा हुआ हो। सच ये है कि ऐसे शख्स के साथ
कोई नहीं रहना चाहता। अगर आप किसी का उत्पीड़न होते हुए सिर्फ इसलिए देख रहे हैं
कि ऐसा आपके साथ नहीं होगा और आप उसे या तो मार देंगे या छोड़ देंगे तो यह जानना
जरूरी है कि उत्पीड़न करने वाला अक्सर बहुत मनमोहक होता है और वह वह तब तक आपको
प्रताड़ित नहीं करेगा जब तक कि आप उसके वश में न हों। जाहिर है कि ऐसा तभी होगा जब
आप किसी को खुद पर हावी न होने दें। शादीशुदा महिलाओं के मामले में इसका गलत असर
आपके बच्चों पर पड़ता है क्योंकि आपके साथ होते उत्पीड़न को देखकर या तो वे डर में
जीते हैं या फिर हिंसक हो जाते हैं। यह भी देखा गया है कि उत्पीड़न करने वालों के
बचपन में वातावरण कुछ ऐसा ही रहा है। पीड़ित महिलाएं ही नहीं होतीं बल्कि कोई भी
हो सकता है क्योंकि इसमें भौगोलिक क्षेत्र, रंग, लिंग, जातिगत आधार तो बहाना भर
हैं। असली मानसिकता तो नियंत्रण की होती है। स्थिति तब ही सुधरेगी जब आप और हम
इसके खिलाफ सख्त होंगे। हम जब अपना और अपनी इच्छाओं का सम्मान करेंगे, तभी हमारी
बात सुनी जाएगी इसलिए सहने से अधिक कुछ करने की जरूरत है।
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