महिला सशक्तीकरण का मतलब पुुरुषों का नहीं उस पितृसत्तात्मकता का विरोध करना है जो परंपरा के नाम पर स्त्रियों को कमतर समझकर उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित रखती है। कहने को स्त्री और पुरुष समाज के दो पहिए हैं मगर स्त्री वह पहिया है जिसे जिम्मेदारियों के नाम पर घिसा तो गया मगर अधिकारों का तेल नहीं लगने दिया गया। जो लोग परदा प्रथा और देवी बनाकर स्त्री से आज भी मध्ययुगीन सभ्यता में जीने की उम्मीद रखते हैं, जो स्त्री को उपभोग की सामग्री मानकर उस पर अधिकार जताते हैं, दहेज या प्रेम में ठुकराए जाने पर उस पर तेजाब फेंकते है और बलात्कार या हिंसा को लड़कियों की नियति मानते हैं उनसे ही यह सवाल है, क्या आप शादी के नाम पर अपनी ससुराल को दहेज देना पसंद करेंगे, और वहां रहना पसंद करेंगे। कैेसे लगेगा जब दहेज के साथ आपको वह तमाम काम करने पड़ेे जो आपकी पत्नी करती है। क्या करेंगे जब धोखेबाजी की शिकार कोई प्रेमिका आपके चेहरे पर तेजाब फेंके। क्या होगा जब यौन हिंसा की घटनाएं आपके साथ हों। घर की इज्जत के नाम पर लड़कियों की जान लेने वालों को कैसा लगेगा जब ऐसी घटिया हरकतों के लिए लड़कियां हिंसक हो उठें, लड़कों की पढ़ाई या नौकरी छुड़वाकर घर पर बैठाया जाए। नौकरी करने वाली कई महिलाएं अपने बच्चों केे लिए घर पर बैठ जाती हैं, क्या कोई पुरुष अपनी पत्नी के लिए नौकरी छोड़ सकता है। जो बात आपलोगोों के लिए बुरी है, वह हमारे लिए अच्छी कैसे हो सकती है,, आखिर अपराध करने वालों से बहनों का भी अपमान होता है, जरा सोचिए ऐसे अपराधियों के घर की स्त्रियों पर क्या गुजरती होगी। आप अपने घर की लड़कियों को इज्जत समझते हैं तो दूसरे घर की लड़कियों का सम्मान आपका सम्मान क्यों नहीं है। जो पुरुष वाकई पहलेे महिलाओं का सम्मान करें, स्वीकृति दें तो महिला दिवस मनाएं वरना हमें पाखंड की जरूरत नहीं है, बख्श दीजिए हमें।

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