संदेश

जुलाई 19, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

हिन्दी और सिनेमा : किसी काम की नहीं...हट जाने दें ये दूरियाँ

चित्र
साहित्य औऱ अभिव्यक्ति के अन्य कई क्षेत्रों का एक बेहद अनूठा सम्बन्ध रहा है। खासकर हिन्दी साहित्य का सम्बन्ध पत्रकारिता से तो बहुत ही गहरा है। कहने की जरूरत नहीं है कि हिन्दी पत्रकारिता का आरम्भिक काल साहित्य को साथ लेकर चला है। भारतेन्दु जितने सफल लेखक हैं, उतने ही अच्छे पत्रकार भी हैं। उन्होंने 'बाल विबोधिनी' पत्रिका, 'हरिश्चंद्र पत्रिका' और 'कविवचन सुधा' पत्रिकाओं का संपादन किया। इस कड़ी में बाल मुकुन्द गुप्त, उपेन्द्र नाथ 'अश्क' अज्ञेय समेत अनगिनत साहित्यकारों का नाम आता है। कहने की जरूरत नहीं है कि हिन्दी साहित्य जब तक पत्रकारिता के साथ रहा, तब तक दोनों का ही स्वर्णिम काल रहा मगर हिन्दी की समस्या यह है कि इसे शुद्धतावादियों ने ऐसी अभिजात्यता से लाद दिया है कि हिन्दी का हाथ धीरे - धीरे सबसे छूटता गया। हिन्दी के बौद्धिक दिग्गजों ने इसकी सरलता को अपने अहंकार से काट डाला और हालत यह है कि असुरक्षा के बोध से लदे हिन्दी के साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवियों के अहंकार ने हिन्दी को उपेक्षित और अकेला कर दिया है।  पत्रकारिता जैसी ही स्थिति हिन्दी सिनेमा