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जनवरी 13, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

झड़ गए सब पीले पात.

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सुषमा कनुप्रिया चले जाओ, अब यहाँ दोबारा कदम मत रखना....वह गिरते - गिरते बचे...चेहरे पर मायूसी थी...हसरत से उस आलीशान इमारत को देख रहे थे...जिसकी नींव उन्होंने खुद तैयार की थी...उनके लिए यह सिर्फ इमारत नहीं थी...एक तपस्या थी...यहाँ टिके रहने के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया था...सब कुछ छोड़ दिया था...घर...परिवार..रिश्ते...नाते....दोस्त...सालों तक अकेले रह गये और वह भी बगैर किसी शिकायत के...यह सिर्फ मकान नहीं था....पूरी जिन्दगी थी उनकी...। अक्सर लोग ताना मारते '....अरे...ये तो अंतिम साँस भी इसी मकान में लेने वाले हैं...दफ्तर थोड़ी न है...घर है इनका....।' ठाकुर साब के लिए यह भी उनका इनाम था...उनको इस उलाहने पर भी नाज होता....वह बड़े नाज से इस मकान को देखा करते थे...यह मकान जो शहर के बीचों - बीच खड़ा था...अब यहाँ सब कुछ बदला जा रहा था...कमरे...दीवारों के रंग...कारपेट और हाँ, लोग भी....ठाकुर साब आज उसी बदलाव की चपेट में थे जिसकी वकालत वे जिन्दगी भर करते रहे। 'अरे....हम तो कहते हैं कि आपको तो पहले ही रिटायर हो जाना चाहिए था...नये बच्चों को मौका दीजिए...लेकिन नह