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सफलता के शिखर पर पहुँचकर उतरना और देते जाना भी एक कला है

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सफलता और शिखर भी एक दिन थकाने लगते हैं, तब शांति की तलाश होती है....कुछ नहीं चाहिए होता...हमने चढ़ना सीखा, पर सीढ़ियों से उतरना और सम्मान, संतोष और संतुष्टि लेकर उतरना, लौटना एक कला है, सच तो यह है कि यही जीवन है और ये तब होता है जब हम देना सीखते हैं, देना, लौटाना अपने में ही सबसे बड़ा शिखर है, अपने मन के भीतर, किसी की मुस्कान में ...तब लगता है और कुछ नहीं चाहिए....कुछ भी नहीं.... शिखर की तलाश कभी नहीं...बस चलते रहना....और फिर बैठना...शांति से, सुकून से... जब हम सफ़लता पा लेते हैं तो हमें याद नहीं रहता कि हमारी जगह कल कोई और था, हम छोड़ना नहीं चाहते, कसकर पकड़े रहते हैं कुर्सी को, पद को, धन को, और एक संघर्ष आरंभ होता है। वो लोग जो हमें यहाँ तक लाए थे, वही हमसे मुँह मोड़ लेते हैं, वही हमसे छीनने, हमें उतारने, दूर करने को तत्पर रहते हैं... थोड़ा याद करें तो हमने भी तो यही किया था..और यह स्थिति हमारे सामने भी आ रही होती है, हमें दंभ रहता है हमने ये किया, वो किया, और तमाम जटिलताओं के बाद भी हम नहीं झुकते ....अब सोचिए क्या यह समय के प्रवाह की राह में पत्थर बनना नही