सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

डर पुराण





डर बड़ा, बहुत बड़ा और व्यापक शब्द है। इन्सान चाहे जितना भी ऊँचा पद पा ले, डर नाम की बला उसका पीछा नहीं छोड़ती। खो जाने का डर, छिन जाने का डर, हर वक्त उस पर हावी रहता है। आज तक बड़े से बड़े पूँजीपति भी अपना पीछा इस डर से नहीं छुड़ा सके हैं और यही डर उनको कभी नया करने की प्रेरणा देता है तो कभी मुकाबला करने की हिम्मत, डर बहुत हद तक सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट का मामला है और फिट रहने की प्रक्रिया डर के कारण ही है। 

जनता का डर है कि वे आम जनता को देखते ही सभी नेता वायदों की गंगा बहाने लगते हैं, अब ये अलग बात है कि गंगा अभी तक साफ होने की राह देख रही है और आम आदमी वायदों के पूरा होने की उम्मीद में वोटजाल में हर बार फँसता है। वोटबैंक कम होने का डर है कि चुनाव में टिकट जातिगत आधार पर बँटते हैं, शंकराचार्यों और इमामों से कोई पंगा नहीं लेता और वे घोषणाएं और फतवे जारी करते रहते हैं। तुष्टिकरण की राजनीति ही है जिसके कारण न्याय की जगह वोटबैंक पर नेताओं की नजर रहती है और बंगाल जैसे राज्य में बोझ बेचारे बच्चों पर पड़ता है। 

एक ही बात को वे एक बार हिन्दू नजरिए से तो एक बार मुस्लिम नजरिए से देखने को मजबूर किए जा रहे हैं। इन्द्रधनुष बांग्ला में रामधनु से हटकर रंगधनु बन चुका है तो अब लगता है कि रामायण को भी रंगयण कर ही देना चाहिए और राम हो जाएंगे रंग। अब हमें डर है कि भारत ठहरा धर्मनिरपेक्ष देश, कल को जैन, बौद्ध, सिख और ईसाई धर्मों ने झंडा उठा लिया और कहने लगे कि उनके सम्बन्धों की शब्दावली किताबों में लाई जाए तो बच्चों का क्या होगा, राम जाने। डर अब बच्चों को लगना चाहिए कि यह धर्मनिरपेक्षता जाने जाने क्या दिखाएगी, बेचारे स्कूल में सरस्वती पूजा नहीं मना पाते और जिद करते हैं तो पुलिस लाठियाँ भाँजती है। डर ही तो है कि टिकट बाँटने के लिए योग्यता को नहीं जाति को आधार बनाया जाता रहा है।

 लालू और मुलायम माई समीकरण बिठाने में लगे हैं, अरे माई नहीं समझे आप, एम माने मुसलमान और वाई माने यादव, काश नेतागण समुदायों को वोटबैंक न समझकर उनके समग्र विकास के लिए आगे बढ़ते मगर भइया, इ सब नहीं होगा, वोटबैंक नहीं रहेगा तो जीतेंगे कैसे। भाजपा भी तो हिन्दूत्व का नारा लगाकर ही रामंदिर बनाने का वायदा करती रही है और ये रामंदिर बन जाएगा तो वोट का क्या होगा इसलिए राममंदिर अभी मुद्दा ही  है और वही रहेगा।
नोटबंदी का डर तहखानों में छुपा पैसा बाहर ला रहा है तो मोदी का डर विरोधियों को करीब ला रहा है। तुलसीदास जी सही कहते थे, भय से ही प्रीत होती है। अब ट्रम्प का डर है कि सारी दुनिया उनके डर से पगला रही है, पता नहीं कब, क्या कर दें। 

दफ्तरों में भी यही हाल है कि बॉस की गुडलिस्ट से हट जाने का डर उल्टे सीधे काम करवा रहा है। फिल्में न मिलने का डर अभिनेत्रियों से अंग प्रदर्शन करवा रहा है तो फेल हो जाने का डर परीक्षार्थियों से नकल और पकड़े जाने पर धरना करवा रहा है। कमिशन कम होने का डर ही है कि बस वाले बस को एरोप्लेन बना देते हैं और एरोप्लेन बनाने के चक्कर में कई यात्री अब तक स्वर्ग की यात्रा कर चुके हैं, अब वे स्वर्ग ही गए होंगे, यह गारंटी हम नहीं लेने वाले हैं।
 महंगाई के डर से दूधवाले दूध में पानी मिला रहे हैं। विद्यार्थियों में खुदकुशी के डर से कपिल सिब्बल ने दसवीं की बोर्ड परीक्षा ही बंद करवा दी तो अब डर को बेकार का डर बताकर ये सरकार बोर्ड परीक्षा वापस ले आयी। झूठे बरतनों के जमने का डर न हो तो मेमसाब कामवाली बाई को पत्ता ही न दें और वेतन कटने का डर न हो तो कर्मचारी समय पर आएं ही नहीं। डर नहीं होता तो वामपंथी और काँग्रेस बंगाल में हाथ नहीं मिलाते। अदालत का डर नहीं होता तो नारदा से सारधा, सब ठंडे बस्ते में चले जाते। सितारों की महंगी फीस का डर है कि निर्माता अब छोटे बजट की फिल्में बनाते हैं। भक्ति में जो डर छुपा है, उसने तो बिजनेस अम्पायर खड़ा कर दिया है, हमारी बात पर यकीन न हो तो किसी बाबा जी के प्रवचन शिविर में जाकर देख लीजिए। डर ही है भगवन कि सब तुम्हारे आगे सिर झुका रहे हैं, प्यार करने वाले भी हैं मगर कितने हैं, ये तो तुम भी जानते हो। 

डंडे का डर दिखाकर कभी पुलिस पब्लिक को धमकाती थी और अब पार्टी का डर दिखाकर गुंडे पुलिस को रुला रहे हैं। बच्चे हाथ से न निकल जाएं, तो माँ बाप अब बच्चों को फ्रेंडली नेचर दिखा रहे हैं। कल तो जो मास्टर जी डस्टर चलाकर फेंकते थे, अब विद्यार्थियों को हँसकर बुला रहे हैं। कहने का मतलब है कि डर है कि दुनिया घूम रही है मगर सौ बात की एक बात यह है कि डरकर मत रहिए, डर से काम हो सकता है, सच्ची प्रीत नहीं हो सकती है और हम तो कहेंगे कि सच बात कहिए और डरिए मत क्योंकि.....डर के आगे जीत है।

रविवार, 5 फ़रवरी 2017

कौन लेगा पत्रकारों व महिला पत्रकारों की सुरक्षा का जिम्मा



पिछले कुछ सालों में पत्रकारों पर हमले तेजी से बढ़े हैं। मध्य प्रदेश में व्यापम मामले की जाँच करने से लेकर बिहार में जंगलराज के खिलाफ आवाज उठाने वाले पत्रकारों की निर्मम हत्या कर दी गयी। पत्रकारों पर निशाना साधना, उनको धमकाना और कई बार उनको मार डालना तक काफी आसान होता है क्योंकि वे टारगेट होते हैं। बेहद दुःख और शर्म के साथ कहना पड़ रहा है कि उनकी हिफाजत के लिए कोई ठोस नीति नहीं है। इस बारे में जब बात की जाती है तो केन्द्रीय अधिकारी साफ स्वरों में कहते हैं कि यह राज्य का मामला है। अब जरा बताइए कि जहाँ राज्य ही प्रतिशोध की राजनीति में विश्वास रखता हो, वहाँ पत्रकारों और खासकर महिला पत्रकारों की सुरक्षा का दायित्व कौन लेगा? अधिकतर मामलों में तो मामले को दबाने की भरपूर कोशिश की जाती है और विरोध करने पर पत्रकार को मुँह न खोलने की नसीहत दी जाती है।


 हाल ही में धूलागढ़ मामले की कवरेज को लेकर सुधीर चौधरी और उनकी महिला सहयोगी पर बंगाल सरकार ने एफआईआर कर दी। सुधीर चौधरी एक जाना - पहचाना नाम है, उनके पास पहुँच है मगर क्या छोटे शहरों के पत्रकारों के साथ घटनाएं सामने आ सकती हैं, यह कहना मुश्किल है।  
दरअसल, यह अखबारों, चैनलों और सरकारों के बीच की केमेस्ट्री पर भी निर्भर करता है। देश में जिलागत स्तर पर देखा जाए तो पत्रकारिता में महिलाएं हैं ही नहीं। जाहिर है कि जो 1 या 2 महिलाएं काम करती हैं, उनको दोहरी और तिहरी चुनौती का सामना करना पड़ता है। कार्यक्षेत्र में पुरुष सहकर्मी उनको देखना नहीं चाहते और उनके लिए तमाम तरह की मुश्किलें खड़ी करते हैं। बात पदोन्नति की हो, तो भी जिस तेजी से पुरुषों का ग्राफ बढ़ता है, उस तेजी से महिलाओं का कॅरियर ग्राफ नहीं बढ़ता क्योंकि इसके लिए भी बॉस की मेहरबानी चाहिए और उनसे समझौते की उम्मीद की जाती है। कई महिला पत्रकारों को इस वजह से अवसाद से जूझते देखा गया है। जो नयी लड़कियाँ आ रही हैं, उनमें बहुत सी शादी होने तक ही काम करती हैं और कुछ मजबूरी में चाहकर भी दूसरे हाउस में नौकरी नहीं तलाश सकतीं। उनको सुरक्षा का दायरा चाहिए और घर को उनकी कमाई। उनकी कमाई से घर चलता है इसलिए उनके दफ्तर में उनके साथ कुछ गलत भी हो तो वे प्रतिरोध नहीं कर पातीं। 
(साभार - समाचार 4 मीडिया)
सम्पादक अथवा चीफ रिपोर्टर के लिए ऐसी लड़कियाँ बँधुआ मजदूरों की तरह दिन रात काम करती हैं और बदले में उनको बीमारी के सिवा कुछ नहीं मिलता। अगर रात को घर लौटते कोई घटना हो जाए तो भी उनमें मुँह खोलने का साहस नहीं आ पाता क्योंकि घर और दफ्तर, दोनों के बीच वे पिस रही होती हैं। ऐसी लड़कियाँ जब तक खुद आगे नहीं बढ़तीं, कोई उनकी मदद नहीं कर सकता, उनको आवाज उठानी होगी। हाल ही में हावड़ा में एक महिला पत्रकार से छेड़छाड़ और मारपीट हुई। इस महिला पत्रकार की तारीफों के कसीदे उसके अखबार में पढ़े गए मगर इस साहसी पत्रकार का नाम कोई नहीं जानता। बताया जाता है कि मीडिया से उसके बात करने पर रोक लगा दी गयी है। अब कल्पना कीजिए कि उसकी स्थिति क्या होगी
वहीं कुछ लड़कियाँ साहस दिखाती हैं और रिपोर्ट भी दर्ज करवाती हैं मगर उन पर भी मामला वापस लेने का दबाव बनाया जाता है और जाँच के बहाने उनको परेशान किया जाता है। कुछ महीनों पहले एक अखबार की महिला पत्रकार और छायाकार के साथ खबर सँग्रह करने के दौरान इस तरह की घटना हुई। इसके पहले भी विधाननगर में चुनाव कवरेज करने गए पत्रकारों के साथ मारपीट हुई और प्रतिवाद में पत्रकारों ने रैली निकाली मगर इसके बाद क्या हुआ?

आपराधिक घटनाओं की खबर करने वाली लड़कियाँ तो अक्सर इस समस्या से जूझती हैं। हाल ही में दिल्ली में महिला पत्रकारों के लिए आयोजित कार्यशाला में मेरी मुलाकात हमारा महानगर की पत्रकार नीतू विश्वकर्मा से हुई जिनको एक पुलिस अधिकारी के हाथों बदसलूकी का सामना करना पड़ा।
 खबर सँग्रह करने गयी नीतू से पुलिस ने उनका मोबाइल छीन लिया। प्रबन्धन ने साथ दिया तो खबर छपी मगर तमाम जगहों पर पत्र देने के बावजूद अब तक दोषियों पर कार्रवाई नहीं हुई।


 मगर नीतू के हौसले की दाद देती हूँ कि उन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखी है। एक बात तो तय है कि हमारी मदद करने वाला कोई नहीं है इसलिए आवाज तो अपने लिए हमें खुद उठानी होगी।
सरकार पर यह दबाव बनाया जाए कि महिला हो या पुरुष, पत्रकारों की सुरक्षा और उनके हितों के लिए एक स्वायत्त आयोग बनाया जाए जहाँ वे अपनी बात रखें। इस आयोग में महिलाओं के लिए एक विशेष व्यवस्था हो जहाँ वे गोपनीयता के साथ अपनी बात रख सकें। पत्रकार देश का चौथा स्तम्भ हैं, उनकी रक्षा करना देश के लोकतन्त्र के लिए बेहद जरूरी है। अगर आपके साथ इस तरह की घटना हुई है तो खुलकर सामने आएं और अपनी बात रखें।