डर पुराण

डर बड़ा, बहुत बड़ा और व्यापक शब्द है। इन्सान चाहे जितना भी ऊँचा पद पा ले, डर नाम की बला उसका पीछा नहीं छोड़ती। खो जाने का डर, छिन जाने का डर, हर वक्त उस पर हावी रहता है। आज तक बड़े से बड़े पूँजीपति भी अपना पीछा इस डर से नहीं छुड़ा सके हैं और यही डर उनको कभी नया करने की प्रेरणा देता है तो कभी मुकाबला करने की हिम्मत, डर बहुत हद तक सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट का मामला है और फिट रहने की प्रक्रिया डर के कारण ही है। जनता का डर है कि वे आम जनता को देखते ही सभी नेता वायदों की गंगा बहाने लगते हैं, अब ये अलग बात है कि गंगा अभी तक साफ होने की राह देख रही है और आम आदमी वायदों के पूरा होने की उम्मीद में वोटजाल में हर बार फँसता है। वोटबैंक कम होने का डर है कि चुनाव में टिकट जातिगत आधार पर बँटते हैं, शंकराचार्यों और इमामों से कोई पंगा नहीं लेता और वे घोषणाएं और फतवे जारी करते रहते हैं। तुष्टिकरण की राजनीति ही है जिसके कारण न्याय की जगह वोटबैंक पर नेताओं की नजर रहती है और बंगाल जैसे राज्य में बोझ बेचारे बच्चों पर पड़ता है। एक ही बात को वे एक बार हिन्दू नजरिए से तो एक बार म...