डर पुराण
डर बड़ा, बहुत बड़ा और व्यापक शब्द है। इन्सान चाहे जितना भी ऊँचा पद पा
ले, डर नाम की बला उसका पीछा नहीं छोड़ती। खो जाने का डर, छिन जाने का डर, हर वक्त
उस पर हावी रहता है। आज तक बड़े से बड़े पूँजीपति भी अपना पीछा इस डर से नहीं
छुड़ा सके हैं और यही डर उनको कभी नया करने की प्रेरणा देता है तो कभी मुकाबला
करने की हिम्मत, डर बहुत हद तक सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट का मामला है और फिट रहने की
प्रक्रिया डर के कारण ही है।
जनता का डर है कि वे आम जनता को देखते ही सभी नेता वायदों की
गंगा बहाने लगते हैं, अब ये अलग बात है कि गंगा अभी तक साफ होने की राह देख रही है
और आम आदमी वायदों के पूरा होने की उम्मीद में वोटजाल में हर बार फँसता है।
वोटबैंक कम होने का डर है कि चुनाव में टिकट जातिगत आधार पर बँटते हैं,
शंकराचार्यों और इमामों से कोई पंगा नहीं लेता और वे घोषणाएं और फतवे जारी करते
रहते हैं। तुष्टिकरण की राजनीति ही है जिसके कारण न्याय की जगह वोटबैंक पर नेताओं
की नजर रहती है और बंगाल जैसे राज्य में बोझ बेचारे बच्चों पर पड़ता है।
एक ही बात
को वे एक बार हिन्दू नजरिए से तो एक बार मुस्लिम नजरिए से देखने को मजबूर किए जा
रहे हैं। इन्द्रधनुष बांग्ला में रामधनु से हटकर रंगधनु बन चुका है तो अब लगता है कि रामायण को भी रंगयण कर ही देना चाहिए और राम हो जाएंगे रंग। अब हमें डर है कि
भारत ठहरा धर्मनिरपेक्ष देश, कल को जैन, बौद्ध, सिख और ईसाई धर्मों ने झंडा उठा
लिया और कहने लगे कि उनके सम्बन्धों की शब्दावली किताबों में लाई जाए तो बच्चों का
क्या होगा, राम जाने। डर अब बच्चों को लगना चाहिए कि यह धर्मनिरपेक्षता जाने – जाने क्या दिखाएगी, बेचारे स्कूल में सरस्वती पूजा नहीं मना पाते और जिद
करते हैं तो पुलिस लाठियाँ भाँजती है। डर ही तो है कि टिकट बाँटने के लिए योग्यता
को नहीं जाति को आधार बनाया जाता रहा है।
लालू और मुलायम माई समीकरण बिठाने में
लगे हैं, अरे माई नहीं समझे आप, एम माने मुसलमान और वाई माने यादव, काश नेतागण
समुदायों को वोटबैंक न समझकर उनके समग्र विकास के लिए आगे बढ़ते मगर भइया, इ सब
नहीं होगा, वोटबैंक नहीं रहेगा तो जीतेंगे कैसे। भाजपा भी तो हिन्दूत्व का नारा
लगाकर ही रामंदिर बनाने का वायदा करती रही है और ये रामंदिर बन जाएगा तो वोट का
क्या होगा इसलिए राममंदिर अभी मुद्दा ही
है और वही रहेगा।
नोटबंदी का डर तहखानों में छुपा पैसा बाहर ला रहा है तो
मोदी का डर विरोधियों को करीब ला रहा है। तुलसीदास जी सही कहते थे, भय से ही प्रीत
होती है। अब ट्रम्प का डर है कि सारी दुनिया उनके डर से पगला रही है, पता नहीं कब,
क्या कर दें।
दफ्तरों में भी यही हाल है कि बॉस की गुडलिस्ट से हट जाने का डर
उल्टे – सीधे काम करवा रहा है। फिल्में न मिलने का डर
अभिनेत्रियों से अंग प्रदर्शन करवा रहा है तो फेल हो जाने का डर परीक्षार्थियों से
नकल और पकड़े जाने पर धरना करवा रहा है। कमिशन कम होने का डर ही है कि बस वाले बस
को एरोप्लेन बना देते हैं और एरोप्लेन बनाने के चक्कर में कई यात्री अब तक स्वर्ग
की यात्रा कर चुके हैं, अब वे स्वर्ग ही गए होंगे, यह गारंटी हम नहीं लेने वाले
हैं।
महंगाई के डर से दूधवाले दूध में पानी मिला रहे हैं। विद्यार्थियों में
खुदकुशी के डर से कपिल सिब्बल ने दसवीं की बोर्ड परीक्षा ही बंद करवा दी तो अब डर
को बेकार का डर बताकर ये सरकार बोर्ड परीक्षा वापस ले आयी। झूठे बरतनों के जमने का
डर न हो तो मेमसाब कामवाली बाई को पत्ता ही न दें और वेतन कटने का डर न हो तो
कर्मचारी समय पर आएं ही नहीं। डर नहीं होता तो वामपंथी और काँग्रेस बंगाल में हाथ
नहीं मिलाते। अदालत का डर नहीं होता तो नारदा से सारधा, सब ठंडे बस्ते में चले
जाते। सितारों की महंगी फीस का डर है कि निर्माता अब छोटे बजट की फिल्में बनाते
हैं। भक्ति में जो डर छुपा है, उसने तो बिजनेस अम्पायर खड़ा कर दिया है, हमारी बात
पर यकीन न हो तो किसी बाबा जी के प्रवचन शिविर में जाकर देख लीजिए। डर ही है भगवन
कि सब तुम्हारे आगे सिर झुका रहे हैं, प्यार करने वाले भी हैं मगर कितने हैं, ये
तो तुम भी जानते हो।
डंडे का डर दिखाकर कभी पुलिस पब्लिक को धमकाती थी और अब
पार्टी का डर दिखाकर गुंडे पुलिस को रुला रहे हैं। बच्चे हाथ से न निकल जाएं, तो
माँ – बाप अब बच्चों को फ्रेंडली नेचर दिखा रहे हैं। कल
तो जो मास्टर जी डस्टर चलाकर फेंकते थे, अब विद्यार्थियों को हँसकर बुला रहे हैं।
कहने का मतलब है कि डर है कि दुनिया घूम रही है मगर सौ बात की एक बात यह है कि
डरकर मत रहिए, डर से काम हो सकता है, सच्ची प्रीत नहीं हो सकती है और हम तो कहेंगे
कि सच बात कहिए और डरिए मत क्योंकि.....डर के आगे जीत है।
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