गुरुवार, 10 नवंबर 2016

यह पाबंदी अर्थव्यवस्था के साथ ही हमारी आदतों को सुधारने जा रही है

सरकार ने आर्थिक व्यवस्था को मजबूत करने के लिए सशक्त कदम उठाया है। जाहिर है कि हर निर्णय की तरह इस निर्णय के भी इफेक्ट और साइड इफेक्ट हैं। फिलहाल साइड इफेक्ट तो आम आदमी पर पड़ रहा है और रोजमर्रा की जिंदगी थोड़ी मुश्किल हो रही है मगर इसका इफेक्ट या यूँ कहें कि इम्पैक्ट अच्छा ही होगा। बहुत बार विरोध सिर्फ विरोध के लिए होता है क्योंकि आप उस व्यक्ति को पसंद नहीं करते। इस मामले में भी काँग्रेस समेत अन्य दलों का विरोध भी कुछ ऐसा है। जब हम घर को नए सिरे से सजाते हैं तो तकलीफ होती है और यह तो पूरी अर्थव्यवस्था को फिर से सजाने जैसा है और इस फैसले के पीछे एक सटीक रणनीति है। परिवर्तन का परिणाम सकारात्मक या नकारात्मक हो सकता है मगर इस डर से बदलाव लाने की कोशिश ही न की जाए तो यह तो और भी गलत है। आप कतार में लगकर थक जाते हैं और अपनों की तकलीफ नहीं देखी जाती मगर आपको यह याद रखना चाहिए कि आपकी यह चिंता कुछ दिनों की है मगर यही बड़े नोट जब आतंकियों को ताकत देते हैं और सीमा पर हमारे जवान मारे जाते हैं तो उनके परिवारों के लिए यह जिंदगी भर का मातम होता है। सोशल मीडिया पर शहीदों को श्रद्धांजलि देना एक और बात है मगर बदलाव की प्रक्रिया में सक्रिय होकर हाथ बढ़ाना एक और बात है। आप फेसबुक पर सैनिकों का साथ देते हैं, बड़ी – बड़ी बातें करते हैं, आपको बदलाव चाहिए मगर बगैर किसी परेशानी के चाहिए, ये कैसे सम्भव है? लोग 15 लाख लाने की बातें करते हैं मगर ये काम सरकार को क्यों करना चाहिए? बगैर परिश्रम के आपके खाते में 15 लाख आते हैं तो यह क्या श्रम का अवमूल्यन नहीं है। इस पाबंदी के बहाने कई गरीबों ने खाते खोले हैं। काला धन रखने वालों की मुश्किल यही है कि अब तक जिन नौकरों और कर्मचारियों को पैर की जूती समझते थे, अब उनसे ही जबरन मुस्कराकर अदब से बात करनी पड़ रही है। अमीरों को झुकना रास नहीं आ रहा है। कतार में लगना उनकी शान के खिलाफ है। ममता दीदी को अगर उधार लेकर मिठाई खरीदनी पड़ी तो उनको खीझ नहीं होनी चाहिए क्योंकि वो तो माँ, माटी और मानुष की बात करती हैं तो उनकी खीझ से यह मान लें कि उनकी कथनी और करनी में अंतर है या फिर ये मान लें कि उनको ये चिंता सता रही है कि उनकी पेंटिंग कौन खरीदेगा और पार्टी फंड में पैसा कहाँ से आएगा? विरोधियों की चिंता का कारण भी यही है। इस पाबंदी का सामाजिक रूप से सकारात्मक पक्ष तो यही है कि ऊँच  - नीच का फर्क कुछ दिन के लिए ही सही कम होगा। 

आयकर की नजर होगी तो काले को सफेद बनाने के लिए जो भव्य धार्मिक प्रवचन होते हैं, उन पर लगाम लगेगी और इन पर लगाम लगने का मतलब बहुत हद तक अंधविश्वास और आसाराम बापुओं जैसों की कमाई पर लगाम लगना है। बैंक घाटे में चल रहे हैं और अब जिस तरह उन पर नोटों की बरसात हो रही है, उससे उम्मीद की जानी चाहिए कि बैंकों की स्थिति सुधरेगी और सरकार पर निर्भर होना कम होगा। अचानक सोने की माँग बढ़ रही है और साल में दूसरा धनतेरस मनाया जा रहा है। मंदिरों में बेकार नोट चढ़ाए जा रहे हैं। जिन्होंने रेलवे स्टेशन का चेहरा अरसे से नहीं देखा, अब वे रेलवे में टिकट आरक्षित करवा रहे हैं कि एक दिन में टिकटों की बिक्री 25 प्रतिशत बढ़ जाती है। एयरलाइंसों के अग्रिम टिकट खरीदे जा रहे हैं तो इसके सहारे सरकार भी ऐसे लोगों तक पहुँच रही है। पहली बात यह अचानक लिया गया निर्णय नहीं है क्योंकि इसकी तैयारी लगभग साल भर पहले  से हो रही थी। जो लोग निजी अस्पतालों में प्रतिबंधित नोटों को स्वीकारने की बात कर रहे हैं, उनको ये नहीं भूलना चाहिए कि ये अस्पताल वही कॉरपोरेट सेक्टर चलाता है जिनकी काली कमाई भरपूर है और टेबल के नीचे लेन – देन होते हैं। जानकारी देने का मतलब उनको सजग कर देना औऱ ऐसा होता तो इस मुहिम का ही कोई मतलब नहीं रह जाता। यही बात बैंकों पर भी लागू होती है क्योंकि बहुत से बैंक अपने ग्राहकों का काला धन सफेद करने में मददगार साबित हो सकते थे और अधिकतर निजी क्षेत्र के बैंकों में भी काली कमाई होने का अंदेशा है। विजय माल्या जैसे अरबपतियों की काली कमाई बेकार होगी। ऐसे लोग अगर बैंक जाते हैं तो भी कर चोरी के आरोप में जो 200 प्रतिशत राजस्व कर लगेगा, उससे सरकार की भी कमाई होगी। रिश्वत और भ्रष्टाचार, अनुदान या डोनेशन या फिर आतंकी कारर्वाई का साधन बड़े नोट ही हैं, इन पर भी प्रहार होगा। कॉरपोरेट कम्पनियों के कर्मचारी बैंकिंग प्रक्रिया से जोड़े जाएंगे क्योंकि कम्पनियाँ अब नोटों के झमेले में नहीं पड़ना चाहेंगी।
यह दल से ऊपर उठकर लिया गया फैसला है तो भाजपा के फंड पर भी असर पड़ना तय है तो यकीन मानिए कि छुपे तौर पर पीएम साहेब को तो उनकी पार्टी से ही गालियाँ पड़ रही होंगी। जरा सोचिए, कि कितने साल बाद आपने गुल्लक की शक्ल देखी और बचपन की आदत आपके काम आ रही है। अभिभावकों को यही सीख बच्चों को देने की जरूरत है। हाथ खोलकर बेकार के खर्चों से आप दूर हैं तो यह आपकी आदत सुधारेगा। न चाहते हुए भी अब आप प्लास्टिक मनी युग में प्रवेश कर रहे हैं। जो नए नोट आ रहे हैं, उनमें चिप भले न हो मगर आप पर नजर रखने का उसमें पूरा इंतजाम है। यह निर्णय उच्च मध्यवर्ग के अहं पर चोट करने वाला निर्णय है और यह पाबंदी अर्थव्यवस्था के साथ ही हमारी आदतों को सुधारने जा रही है तो जरा सब्र रखिए और परिर्वतन की प्रक्रिया से जुड़कर देखिए।

रविवार, 6 नवंबर 2016

कार्य के आधार पर सम्मान दीजिए, कला और संस्कृति के साथ देश भी सुरक्षित रहेगा

इस बार की छठ पूजा काफी खास थी, घर में भी पहले अर्घ्य पर बड़े दिनों बाद रही मगर इससे भी खास है अब इस पूजा को मिलने वाली स्वीकृति। बंगाल में  पिछले कुछ सालों से सेक्शनल छुट्टी होती थी मगर इस बार सचमुच अवकाश घोषित किया गया। स्वयंसेवी संस्थाएं  हमेशा ही सक्रिय रहती हैं मगर प्रशासनिक सहयोग भी बंगाल में मिल रहा है। सोशल मीडिया पर छठ पूजा की शुभकामनाएं अब और ज्यादा मिलने लगी हैं मगर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि छठ पूजा अब बिहार और उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं रही और न ही सिर्फ भारत तक। अब यह सिर्फ बुजुर्गों तक भी सीमित नहीं हैै क्योंकि युवाओं को भी घाट पर दउरा उठाकर तस्वीरें पोस्ट करने में  हिचक नहीं दिखती। ये बताता है कि युवाओं को भी अपनी संस्कृति से भी उतना ही प्रेम है जितना पुरानी पीढ़ी को। अँग्रेजी और कॉन्वेंट में पढ़ा होना बाधा नहीं है। घाट पर, ट्रेन में और दूसरी जगहों पर खींची जाती तस्वीरें और छठ पर छुट्टी माँगने के लिए लगी कतारें बताती हैं कि शिक्षा संस्कृति से दूर नहीं करती, बशर्ते युवाओं को इस प्रक्रिया से जोड़ा जाए। एक अनुमान के अनुसार छठ पूजा का कारोबार 300 करोड़ रुपए का है और यह जिस तरह से फैल रहा है, और भी बड़ा होगा। विदेशों में हो रही छठ पूजा और छठ पूजा पर आते विदेशियों की बढ़ती तादाद ने इसे ताकत दी है और अब यह एक बड़ा कारण है कि बिहार और बिहारी दोनों मजबूत हुए हैं। हाल ही में शारदा सिन्हा द्वारा जारी छठ पूजा के वीडियो और इस पर की गयी मेहनत के कारण वीडियो जिस तरह से वायरल हो गयाा, वह इस स्वीकृति का सूचक है। छठ पूजा का होना जरूूरी है। छठ ही नहीं बल्कि कोई भी भारतीय त्योहार देखिए, आपको पता चलेगा कि यह आपको प्रकृति से जोड़ता हैै। चाहे वह होली के पलाश के फूल हों, दिवाली पर प्रकाश और स्वच्छता का संदेश हो या फिर जलाशयों और सूर्य के महत्व से अवगत करवाने वाली छठ पूजा है।
 छठ पूजा सामाजिक भेदभाव की जड़ता के विरुद्ध उद्घोष है। चार दिनों की पूजा और वहाँ पुरोहित की जरूरत नहीं पड़ती। एक ऐसा पर्व जहाँ डूबते सूरज को भी प्रणाम किया जाता हैै। एक ऐसा पर्व जहाँ गागर, सूप, और दउरा बनाने वालों की कला जीवित रहती है, सुथनी की जरूरत पड़ती है। जहाँ स्त्री और निखर उठती है और वह अकेली नहीं पड़ती।
अन्य व्रत एेसे हैं जहाँ सारा भार स्त्री पर पड़ता है मगर छठ ऐसा है जहाँ उसका भार उसका परिवार बाँटता है। अब समय के साथ छठ का संदेश और विस्तृत हो रहा है। नए लोकगीतों में बेटियों के लिए भी जगह है और इससे पारिवारिक बंधन औऱ मजबूत होंगे।
सांझ के देबई अरघिया, और किछु मांगियो जरूर,
पांचों पुत्र एक धिया (बेटी), धियवा मंगियो जरूर


या फिर रूनकी झुनकी बेटी मांगीला, पढ़ल पंडितवा दामाद
छठी मइया दर्शन दींही ना आपन. ( खेलती कूदती बेटी और पढ़ा लिखा दामाद चाहिए)

छठ समानता का संदेश देता हैै और अपनी संस्कृति का सम्मान करना आपको आत्मविश्वास देता है, इसे और मजबूत करना समय की माँग है। हाल ही में राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी ने बड़ी अच्छी बात कही। उन्होंने कहा कि आज पाश्चात्य सभ्यता के कारण हम अपने साहित्यकारों, संस्कृति और हस्तशिल्प का महत्व नहीं समझ रहे हैं, हमारे हीनता बोध का कारण यही है। आंचलिक भाषाएं और संस्कृति एकता का सशक्त माध्यम बन सकती हैं। आगे उन्होंने कहा कि व्यक्ति का सम्मान उसके कार्य के आधार पर होना चाहिए और सम्मान के साथ जब हम समानता देंगे तो कोई ताकत हमारे सामाजिक ढांचे को तोड़ नहीं सकती।

जिनको हम निचली जाति कहते हैं, जाहिर है कि वो जो काम करती हैं, हम नहीं कर सकते। अगर वे हमारा काम नहीं कर सकते उसी तरह हम मूर्तियाँ या कुल्हड़ नहीं बना सकते, हम सफाई नहीं कर सकते, हम जूते नहीं बना सकते, हम फसल नहीं उगा सकते, हम दउरा और सूप नहीं बना सकते, हम बरतन नहीं बना सकते, तो यही कार्य उनकी ताकत देता है। अगर हम अपने सम्मान देना सीखेंगे तो कोई वजह नहीं है कि ये कार्य करने वाले और उनकी संतानें अपनी कला को छोड़ें। वे आगे बढ़ें, जरूर बढ़े मगर उनकी कला उनकी ही नहीं हमारी भी धरोहर है, इसे सहेजना हम सबकी जिम्मेदारी है। कार्य को सम्मान दीजिए, कला और संस्कृति दोनों बचेगी और भारत बचेगा ही नहीं आगे भी बढ़ेगा। छठ का एक संदेेश यह भी है।

रविवार, 30 अक्तूबर 2016

रक्षा क्षेत्र को मजबूत करने के लिए कृषि और हस्तशिल्प को हथियार बनाना होगा

स्वदेशी का नारा नया नहीं है मगर इस्तेमाल करने वाले की मनोभावना को समझना निर्भर करता है। पिछले कई साल से दिवाली के बाजार पर लिखती रही हूँ और हर बार चीनी लाइट, झालरों और दीयों की बढ़ती बादशाहत से परेशान भारतीय कारीगरों की परेशानी ही देखी है। यह बादशाहत उनके आत्मविश्वास को मारती आ रही है। ऐसा नहीं है कि ये दबदबा एक दिन या साल में खत्म होगा मगर चीन के प्रति गुस्सा हमारे कारीगरों के लिए संजीवनी बन रहा है। भले ही पीएमओ ने आधिकारिक तौर पर चीन के बहिष्कार की बात नहीं कही मगर स्वदेशी पर जोर देने का संदेश उन्होंने जरूर दिया है और उनकी लोकप्रियता ही है कि इसका असर भी पड़ रहा है। आज भी बहिष्कार को लेकर आम दुकानदार यही समझते हैं कि बहिष्कार करने को मोदी ने कहा है और इसे मानना चाहिए। इस पर राजनीतिक घटनाक्रम ने आग में घी डालने का काम किया। चीन ने जिस तरह से पाकिस्तान को खुुलकर समर्थन किया, एक आम भारतीय के लिए वह नाराजगी का कारण बना। इस पर एक अभियान चला एक दिया देश के सैनिक के नाम, और सोशल मीडिया पर इसका भरपूर प्रचार भी चला। इस बार की दिवाली कवरेज में यह गुस्सा भारतीय बाजार के लिए वरदान साबित हुआ और बाजार ने इसका फायदा भी उठाया। अब जो कारीगर भटक रहे हैं, उनको संगठित रूप देकर आगे लाने की तैयारी की जा रही है। जाहिर है कि मॉल तक आम कारीगर की पहुँच होती है तो उच्च वर्ग का धनी तबका जो गंदगी के कारण बस्तियों में जाकर हस्तशिल्प नहीं खरीद पाता, वह भी इन कारीगरों के सामान खरीदेगा क्योंंकि उसके पास पूँजी भी है और हस्तशिल्प अब स्टेटस का मामला है। स्वदेशी अब हीनता नहीं स्टेटस का मामला है और स्टेटस बाजार में पकड़ मजबूत बनाता है। बाजार में पकड़ मजबूूत होगी तो कारीगरों की स्थिति में सुधार होगा और उनकी गुणवत्ता में और भी सुधार होगा। अब स्वदेशी क्रांति को मॉल संस्कृति से जोड़ दिया जाए तो भारतीय हस्तशिल्प और संस्कृति दोनों वैश्विक स्तर पर मजबूत बनेंगे। इन दोनों के बीच पुल बनने का काम गैैर सरकारी संगठन तथा मीडिया बन सकते हैं। इस बार गौर करने वाली बात यह है कि महँगा होने के बावजूद लोगों ने भारतीय सामान खरीदा और यह कहकर खरीदा कि देश का पैसा देश में रहेगा। कई लोग ऐसे भी थे जिन्होंने यह स्वीकार किया कि हस्तशिल्प में मेहनत है और कारीगरों को इसकी कीमत मिलनी चाहिए। लोगों की इस सोच ने कारीगरों के आत्मविश्वास को बढ़ाया है और अब वे उत्साहित होकर चीन को टक्कर देेने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं। जब वे यह कहते हैं कि ये चाइना का नहीं इंडिया का माल है, टूटेगा नहीं, तो वह आत्मविश्वास खुलकर दिखता है। अगर इस लहर को स्थायी बनाने में हमें सफलता मिलती है तो चीन के सस्ते माल का दबदबा टूटते देर नहीं लगेगी।

आज के समय की जरूरत है कि हस्तशिल्प के महत्व को उद्योग जगत समझे और सरकार के साथ इसे संगठित रूप देने में सहायता करे। अगर उद्योग जगत हस्तशिल्प को समर्थन देता है तो ये उनके लिए भी फायदे का सौदा है। कारीगरों की स्थिति सुधरने से गुणवत्ता में जोर सुधार होगा, वह देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में सहायक होगा। अर्थव्यवस्था मजबूत होगी तो हम सैनिकों की स्थिति को सुधार होगा और हम रक्षा क्षेत्र में अधिक खर्च करेंगे और हम मजबूत हुए तो विश्व में हमारा कद बढ़ेगा और तब एक चीन क्या दस चीन भी हमसे पंगा लेने से डरेंगे। इस बार के बहिष्कार का असर ऐसा पड़ा है कि ड्रैगन बौखलाकर निवेश कम करने की धमकी दे रहा है मगर वह ऐसा नहीं करेगा क्योंकि एफडीआई के कारण दूसरे देश उसका विकल्प बनने को तैयार हैं, अगर वह निवेश कम करता है तो नुकसान उसका है क्योंकि बहुत से देश भारतीय बाजार को लेकर उत्सुक हैं। भारतीय बाजार को कम आँकने का मतलब है कि वह अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारेगा। स्वदेशी क्रांति को मजबूत करने में सोशल मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान है इसलिए इसका तो इस बार धन्यवाद करना चाहिए।। भारतीय कृषि और हस्तशिल्प को मजबूती देने का मतलब रक्षाक्षेत्र को मजबूत करना है इसलिए गो फॉर स्वदेशी।

रविवार, 16 अक्तूबर 2016

अब वो आसमान तोड़ रही है, काव्य सँग्रह के बहाने


बहरहाल किताब छप गयी और लोकार्पण भी हो चुका है। समीक्षा भी छप गयी है। ये सपना था मगर पूरा होगा इसकी कल्पना नहीं थी मगर सच की शुरुआत तो सपना ही होता है न। लोग कहते हैं कि मेरी कविताएं प्रतिवाद की कविताएं हैं, प्रतिरोध की कविताएं हैं, सच ही है तो बगैर प्रतिवाद के स्थिति बदली है कभी। 
सुख और उपलब्धियाँ थाली में परोसी हुई नहीं मिलतीं, उसे तो हासिल करना पड़ता है, कभी तोड़कर तो कभी टूटकर। इस टूटने की प्रक्रिया में भी मेरी कविताओं से कोई जुड़ जाए और फिर जोड़ने और बढ़ने की जिद उसमें पैदा हो तो लगेगा कि जो करना चाहती थी, कर दिया। ये भी कहा गया कि मैं नकारात्मक हूँ मगर सवाल तो ये भी है न कि जब तक आप गलत की पहचान नहीं करते, अच्छा स्थापित करना कठिन होता हैै। 
मेरी कविताएं खाए - पीए अघाए लोगों के लिए नहीं हैं बल्कि आर्तनाद और अनुभव से जुड़ी कविताएं हैं और जो नकारात्मक है, उसे सकारात्मक नहीं कह सकती और जब छीना जा रहा हो तो हँसी नहीं फूटेगी। जब इंसान जूझता है तो जीवन उसके लिए विमर्श नहीं सिर्फ संघर्ष होता। स्त्री मेरे लिए सिर्फ स्त्री है, किसी दायरे में कैद नहीं कर सकती।
अनुभव  तो यही सिखा गए कि अगर आपको कोई अनचाहा माने तो उसकी नजर में चाह पाने की जिद छोड़ दीजिए क्योंकि अगर आप ऐसा करते हैं या करती हैं तो खुद अपना अपना अपमान करती हैं और जो खुद से प्यार नहीं कर सकता, वह भला जिएगा कैसे और जीतेगा कैसेे। 
अगर मैं भागना न छोड़ती तो शायद किताब भी न होती क्योंकि सालों तक जो लिखा, वह मेरी डायरी के पन्ने ही तो हैं, जिनसे मैं बतियाती रही। मानती हूँ कि बड़ी नहीं हूँ पर मैं जो भी हूँ, जैैसी भी हूँ,मैं हूँ। इतना काफी रचने के लिए। 

मंगलवार, 27 सितंबर 2016

हिन्दी केवल हिन्दी प्रदेश की ही नहीं बल्कि हर भारतीय की भाषा है


हिन्दी हमारी अपनी भाषा है और यह किसी एक दिवस विशेष की मोहताज नहीं है इसलिए आज सितम्बर का महीना नहीं होने के बावजूद हिन्दी को लेकर अपनी बात कहने जा रही हूँ।
मंच पर उपस्थित हिन्दी के विद्वतजन, गुरुजन और मेरे प्यारे दोस्तों
पता है कि आपने हिन्दी को चुना है और अब आपके मन में अपने चयन को लेकर काफी प्रश्न उठ रहे हैं। अब तो राजभाषा, राष्ट्रभाषा के झगड़े के साथ बोलियों को भी हिन्दी के लिए खतरा बताया जा रहा है। हिन्दी में रोजगार के अभाव का रोना रोया जा रहा है और राष्ट्रभाषा के रूप में भाषा के विस्तार की चाह को भी साजिश बताया जा रहा है, मैं इन सभी मुद्दों पर अपनी बात रखूँगी और मेरा प्रयास होगा कि आप जब इस मंच से जाएं तो एक नयी उर्जा के साथ जाएं  और मुझे विश्वास है कि यह होगा।
सबसे पहले समझते हैं कि यह विरोध क्यों हो रहा है। हिन्दी हमारी राजभाषा है और वह विभिन्न बोलियों को लेकर बनी निर्मित हुई है। संविधान में इसे राजभाषा का दर्जा देकर बड़ा बनाया गया है। मैं आपसे पूछती हूँ कि अगर आपके परिवार में आप आत्मनिर्भर नहीं हैं तो आप तो अपने बड़ों से ही उम्मीद करेंगे कि वह आपका खर्च वहन करे और आपके परिवार में जो भी बड़ा है, उसकी कोशिश यह होगी कि आप अपने पैर पर खड़े हों जिससे आप खुद अपना दायित्व उठा सकें मगर ऐसा न हो तो? आपको बड़ा नहीं होने दिया जाए और आपको अपनी पहचान नहीं बनाने दी जाए तो क्या आप परिवार में अपने पिता या उस व्यक्ति का सम्मान करेंगे? नहीं न, बस हिन्दी और बोलियों के बीच यही समस्या है क्योंकि बड़े होने का दर्जा छिनने और बोलियाँ बराबर न आ जाएं इसलिए हिन्दी के तथाकथित दिग्गज विद्वानों ने हिन्दी को न तो बोलियों से जुड़ने दिया और न अन्य भारतीय भाषाओं से। होना तो यह चाहिए था कि शिक्षण संस्थानों के हिन्दी विभाग में हिन्दी की बोली अथवा किसी स्थानीय भाषा के लिए अलग से पद होता, पाठ्यक्रम होता अथवा बोलियों को लेकर एक स्पेशल पेपर होता, मगर ऐसा नहीं हुआ। एक भाषा विज्ञान का पद बनाया गया और उसमें सारी बोलियों और उनके विकास को समेट दिया गया। साहित्य में बोलियों के नाम पर तुलसीदास, सूरदास और मीराबाईजैसे कई कवि हैं मगर वर्तमान समय में जो लिखा या पढ़ा जा रहा है, वह कहाँ है? हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थी हर एक विभाषा, उपभाषा अथवा बोली का इतिहास और साहित्य समझते, यह चयन उन पर ही छोड़ा जा ना चाहिए था होना तो यह चाहिए था कि हिन्दी साहित्य से जुड़े कार्यक्रमों में बोलियों से संबंधित विद्वान होते, अवधी, ब्रज और मैथिली के कवि भी होते, मगर ऐसा नहीं हुआ। जब हिन्दी बोलियों को लेकर बनी है तो सिर्फ खड़ी बोली ही हिन्दी कैसे हो सकती है और बोलियों से भला हिन्दी को खतरा कैसे हो सकता है जबकि बोली की अपनी जगह है और हिन्दी का अपना विशेष स्थान। हिन्दी के अधिकारियों और संस्थानों और विश्वविद्यालयों ने अपना दायित्व नहीं निभाया इसलिए बोलियाँ भाषा बनना चाहती हैं और इसमें कोई बुराई नहीं है। हर बोली इतनी समृद्ध है कि उसे अब सिर्फ एक पेपर या विभाग में नहीं बाँधा जा सकता इसलिए उनका  हिन्दी जब पूरे देश की भाषा है तो उसे सिर्फ हिन्दी प्रदेश तक क्यों सिमटे रहना चाहिए।
अब समझते हैं कि हिन्दी के तथाकथित विद्वान बोलियों को आगे क्यों नहीं बढ़ने देना चाहते और भाषाओं से उनको समस्या क्यों है? दो बातें हैं – एक तो यह है कि बोलियाँ अगर भाषा बनीं तो उनको मिलने वाला सरकारी अथवा गैर सरकारी अनुदान कम हो जाएगा। अब तक वे जिन बोलियों को चाकर समझते रहे हैं, वह उनके समकक्ष होगी और सर्वश्रेष्ठता का जो तमगा लगाकर वे घूम रहे हैं, वह छिन जाएगा क्योंकि बोलियाँ भाषा बनीं तो उनकी प्रगति के लिए अनुदान मिलेगा और हिन्दी को मिलने वाला अनुदान प्रभावित होगा जो संस्थाओं की जेब पर असर डालेगा, इसलिए उन्होंने यह साजिश की है और हिन्दी खतरे में है का राग अलाप रहे हैं। दोस्तों, डॉक्टर दो तरह के होते हैं, एक वे जो चाहते हैं कि मरीज में उत्साह बना रहे और वह जल्दी से जल्दी ठीक हो जाए और दूसरे वे जो चाहते ही नहीं है कि मरीज को पता चले कि वह ठीक हो गया है वरना उनकी डॉक्टरी का भट्टा बैठ जाएगा, बेचारे बेरोजगार हो जाएंगे। हिन्दी की समस्या ये दूसरी तरह के डॉक्टर हैं जो चाहते ही नहीं हैं कि हिन्दी आम जनता तक पहुँचे वरना उनकी दुकानदारी बैठ जाएगी। वह कभी भाषा की शुद्धता को अडंगा बनाते हैं तो कभी बोलियों के अलग होने से डरते हैं मगर उनको यह अब मान लेना चाहिए कि हमारी भाषा और हमारी संस्कृति किसी विश्वविद्यालय, संस्थान, आलोचना या गोष्ठियों की सम्पत्ति नहीं है। वह आम भारतीय की भाषा है, फिर वह एक रिक्शेवाला बोले या पान की दुकान चलाने वाला या दक्षिण भारत में कोई डोसा बेचने वाला और वह हिन्दी ऐसे ही बोलेंगे जैसे आप हिन्दी मिश्रित अँग्रेजी बोलते हैं मसलन कॉलेज और कालेज और ऑफिस को आफिस। क्या आपके गलत बोलने से अँग्रेजी को क्षति पहुँची? नहीं, क्योंकि आप खुद ही मान रहे हैं कि अँग्रेजी विकसित हो रही है तो जो गलत हिन्दी बोल रहा है, उसे सुधारने में आप उसका सहयोग कर सकते हैं मगर आपको यह कहने का अधिकार नहीं है कि हिन्दी नहीं आती, मत बोलो। केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो गायकी का शौक लेकर मुंबई गए तो उनकी बांग्ला वाली हिंदी सुनकर अपने को हजारी प्रसाद द्विवेदी मानने वाले साथी गायक मज़ाक उड़ाते थे. चंदा रे चंदा रे कभी तो ज़मीं पे आऔर भारत हमको जान से प्यारा हैगाने वाले हरिहरन की हिंदी बोलने की काबलियत पर पहला सवाल इसलिए खड़ा हुआ कि वो दक्षिण भारत से हैं। तो हे हिंदी को अपनी जागीर समझने वालों ! भारत में हिंदी किसी की भी पहली भाषा नहीं है, कोई हरियाणवी है जो खींचना को खेंचणा कहता है, कोई पंजाबी है जिसकी भाषा में राजमार्ग को राजमारग ही कहा जाता है, कोई बंगाली है जो संभव को शोंभव बोलता है. हिंदी हम सबकी है और बराबर है. सड़क को सरक बोलने वाले बिहारी की भी उतनी ही है जितनी मेरी बेटी अभी स्कूल जाएगाबोलने वाले असमिया की। अगर आप चाहते हैं कि दीपा कर्मकार अंग्रेज़ी पत्रकारों को भी अंग्रेज़ी की बजाय हिंदी में ही इंटरव्यू देती रहें, किसी मोतिहारी वाले को मैसूर में भाषा की दिक्कत न हो, ज्यादा से ज्यादा भारतीय एक सांझी भाषा में स्वाद लें, खुशिया बांटे तो सबको हिंदी बोलने दें, अपने-अपने रंग-ढंग में. टैबलेट कम्प्यूटर को गोली कम्प्यूटर लिखने वाली सरकारी संस्थाओं को नहीं, लोगों को तय करने दें कि हिंदी क्या है. देश की हर एक ज़ुबां मिलती है तभी तो हिंदी बनती है। अगर आपको हिन्दी से प्रेम है तो आपको भाषा के समग्र विकास पर ध्यान देना होगा। अब मैं हिन्दी के विद्वानों से दो चार – बातें कहना चाहूँगी। हिन्दी का हर संगठन अपने तरीके से काम करता है मगर हिन्दी में इतनी एकता क्यों  नहीं है कि पाँच संगठन एक साथ मिलकर कोई बड़ा काम करें। आप बोलियों के विकास को रोककर हिन्दी का विकास करेंगे? अव्वल तो यह एक स्वार्थी और मध्ययुगीन मानसिकता है कि आप अकेले न रह जाएं इसलिए अपने बच्चों को बड़ा नहीं होने देंगे और आप अगर ऐसा करते भी हैं तो भी आपके हाथ कुछ नहीं आने वाला क्योंकि किसी को दबाकर जब कोई अपना विकास करता है तो उसे प्रेम कभी नहीं मिल सकता। अगर आप अपने बरगद के लिए जबरन बोलियों को बोनसाई बनाएंगे तो बोलियाँ विद्रोह करके हिन्दी से दूर चली जाएंगी और जब मन में खटास हो तो घरवापसी कभी नहीं होगी। आप इतने असुरक्षित हैं कि आपको संख्या बल की जरूरत है, आपमें इतना आत्मविश्वास क्यों नहीं है और इतनी शक्ति क्यों नहीं है कि आपके प्रेम में इतना जोर हो कि बोलियों के विकास को प्रश्रय दें, और हृदय के स्नेह के बल पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दें। संख्या बल से कभी प्रेम नहीं मिल सकता और मिलेगा तो वह कभी स्थायी नहीं होगा। जबरन आप बच्चों को साथ तो रख नहीं सकते, बोलियों को साथ रखेंगे? अगर रख सकते हैं तो दिखाइए। आप जानते हैं कि इसी मानसिकता के कारण आज परिवार भी टूट रहे हैं और भाषा भी बिखर रही है। हिन्दी को आप जबरन रास्ते का काँटा बनाएंगे तो आप उसे बोलियों और अन्य भाषाओं का शत्रु बना रहे हैं और साजिश यही है क्योंकि जब हिन्दी कमजोर रहेगी तो आपकी गाड़ी भी चलती रहेगी मगर ऐसा नहीं होगा। हिन्दी को खतरा बोलियों को आँठवीं अनुसूची में शामिल होने से नहीं है बल्कि आपकी इस मानसिकता से है कि आप तो जीएंगे मगर दूसरों को मरने के लिए छोड़ देंगे। हिन्दी के कई शब्द अँग्रेजी को अपनाने पड़े हैं, गूगल को आज प्रेमचंद जयंती मनानी पड़ रही हैं, यह हिन्दी की ताकत है। डिस्कवरी चैनल को हिन्दी को विकल्प के तौर पर रखना पड़ रहा है, यह बाजार की माँग है और बाजार की माँग हिन्दी है। अगर भोजपुरी में स्पाइडर मैन आया और उसे सराहा जा रहा है तो उससे आपको क्यों तकलीफ हो रही है। हिन्दी को खतरा ऐसे कवियों से है जिनकी अश्लील कवितता को हमेशा एक औरत की देह की जरूरत पड़ती है, हिन्दी को खतरा ऐसे अधिकारियों से है जो अनुदान लेते हैं मगर कार्यालयों के बाहर हिन्दी के गलत साइनबोर्ड हटाना अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते। आप लिपि की बात कर रहे हैं, हिन्दी ने भी अपनी देवनागरी से ली है, भोजपुरी भी यह कर रही है तो आपको दिक्कत क्यों है?

अब बात करते हैं उस क्षेत्र के बारे में जिसे लेकर युवाओं को हिन्दी से दूर किया जा रहा है, रोजगार और हिन्दी का प्रसार। दोस्तों, आपका भविष्य चमकते सूर्य की तरह सुनहरा है क्योंकि हिन्दी अब किसी क्षेत्र की नहीं, देश की नहीं बल्कि पूरे विश्व की भाषा है क्योंकि वह बाजार, मीडिया और आम आदमी की जरूरत है। अगर नहीं होती तो हम पर 200 साल तक शासन करने वाले ब्रिटेन को बीबीसी हिन्दी की जरूरत ही नहीं पड़ती। अगर डेयरी मिल्क कैडबरी को भारत के गाँवों में जाना है तो उसे कुछ मीठा हो जाए ही कहना पड़ेगा। अगर कैनन को गाँवों में बाजार बनाना है और संवाद करना है तो उसे स्थानीय बोली के साथ हिन्दी बोलने वाले व्यक्ति को ले जाना होगा। अगर राहुल गाँधी और जयललिता को यूपी और बिहार से चुनाव जीतना है तो उनको भोजपुरी और हिन्दी बोलनी होगी और खटिया लेकर घूमना भी होगा। हिन्दी बाजार की ही नहीं जनतंत्र की ताकत है तो जो भाषा इतनी ताकतवर हो, उसे लेकर आप हीन भावना से ग्रस्त क्यों होंगे? दोस्तों, हिन्दी के प्रति हो रही साजिश और बोलियों और भाषाओं को दूर कर नफरत पैदा करने वालों का एक ही तरीके से जवाब दिया जा सकता है और वह जवाब आप देंगे, हर भारतीय देगा, तरीका एक है – हर जगह अपनी भाषा के साथ हिन्दी भी बोलिए और जो रोना शुरू करे, उसे एक रुमाल थमा दीजिए। आइए, हिन्दी दिवस को हिन्दी, बोली व भारतीय भाषा दिवस के रूप में मनाएं और घर – घर में मनाएं। याद रखें हिन्दी, हिन्दी प्रदेश की ही नहीं बल्कि हर भारतीय की भाषा है – हिन्दी हैं हम, हिन्दी हो तुम, हिन्दी से है हमारा हिन्दोस्तां।


 (एक कार्यशाला के लिए तैयार किया गया वक्तव्य)

बुधवार, 21 सितंबर 2016

हिन्दी को बोलियों से नहीं साहित्यिक साम्राज्यवाद फैलाने वालों से खतरा है


डॉक्टर दो तरह के होते हैं, एक वे जो चाहते हैं कि मरीज में उत्साह बना रहे और वह जल्दी से जल्दी ठीक हो जाए और दूसरे वे जो चाहते ही नहीं है कि मरीज को पता चले कि वह ठीक हो गया है वरना उनकी डॉक्टरी का भट्टा बैठ जाएगा, बेचारे बेरोजगार हो जाएंगे। हिन्दी की समस्या यही है कि हिन्दी के कई विद्वान और आलोचक चाहते ही नहीं हैं कि हिन्दी आम जनता तक पहुँचे वरना उनकी दुकानदारी बैठ जाएगी। वह कभी भाषा की शुद्धता को अडंगा बनाते हैं तो कभी बोलियों के अलग होने से डरते हैं मगर उनको यह अब मान लेना चाहिए कि हमारी भाषा और हमारी संस्कृति किसी विश्वविद्यालय, संस्थान, आलोचना या गोष्ठियों की सम्पत्ति नहीं है। वह आम भारतीय की भाषा है, फिर वह एक रिक्शेवाला बोले या पान की दुकान चलाने वाला या दक्षिण भारत में कोई डोसा बेचने वाला और वह हिन्दी ऐसे ही बोलेंगे जैसे आप हिन्दी मिश्रित अँग्रेजी बोलते हैं मसलन कॉलेज और कालेज और ऑफिस को आफिस। क्या आपके गलत बोलने से अँग्रेजी को क्षति पहुँची? नहीं, क्योंकि आप खुद ही मान रहे हैं कि अँग्रेजी विकसित हो रही है तो जो गलत हिन्दी बोल रहा है, उसे सुधारने में आप उसका सहयोग कर सकते हैं मगर आपको यह कहने का अधिकार नहीं है कि हिन्दी नहीं आती, मत बोलो। केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो गायकी का शौक लेकर मुंबई गए तो उनकी बांग्ला वाली हिंदी सुनकर अपने को हजारी प्रसाद द्विवेदी मानने वाले साथी गायक मज़ाक उड़ाते थे. चंदा रे चंदा रे कभी तो ज़मीं पे आऔर भारत हमको जान से प्यारा हैगाने वाले हरिहरन की हिंदी बोलने की काबलियत पर पहला सवाल इसलिए खड़ा हुआ कि वो दक्षिण भारत से हैं।
तो हे हिंदी को अपनी जागीर समझने वालों ! भारत में हिंदी किसी की भी पहली भाषा नहीं है, कोई हरियाणवी है जो खींचना को खेंचणा कहता है, कोई पंजाबी है जिसकी भाषा में राजमार्ग को राजमारग ही कहा जाता है, कोई बंगाली है जो संभव को शोंभव बोलता है. हिंदी हम सबकी है और बराबर है. सड़क को सरक बोलने वाले बिहारी की भी उतनी ही है जितनी मेरी बेटी अभी स्कूल जाएगाबोलने वाले असमिया की।
हमारी भाषाओं के लिए कितने शर्म की बात होती है कि ग़लत अंग्रेज़ी बोलने वाले को तो हम मुहं बाएं ऐसे देखते हैं जैसे प्लासी में रॉबर्ट क्लाइव आ गया हो और हिंदी पर कोई अपना रंग चढ़ाना चाहे तो चाहते हैं कि बस आह उसका तपता बदन उत्सलीला का नव अभिनंदन थालिखने वाले कवियों की तरह बोले.
अगर आप चाहते हैं कि दीपा कर्मकार अंग्रेज़ी पत्रकारों को भी अंग्रेज़ी की बजाय हिंदी में ही इंटरव्यू देती रहें, किसी मोतिहारी वाले को मैसूर में भाषा की दिक्कत न हो, ज्यादा से ज्यादा भारतीय एक सांझी भाषा में स्वाद लें, खुशिया बांटे तो सबको हिंदी बोलने दें, अपने-अपने रंग-ढंग में. टैबलेट कम्प्यूटर को गोली कम्प्यूटर लिखने वाली सरकारी संस्थाओं को नहीं, लोगों को तय करने दें कि हिंदी क्या है. देश की हर एक ज़ुबां मिलती है तभी तो हिंदी बनती है। अगर आपको हिन्दी से प्रेम है तो आपको भाषा के समग्र विकास पर ध्यान देना होगा। अब सवाल इस राज्य में सैकड़ों हिन्दी माध्यम स्कूल हैं और कॉलेज भी हैं मगर उनकी संरचना गत समस्या है, अधिकतर हिन्दी की रोटी खाने वाले अपने बच्चों को अँग्रेजी माध्यम स्कूल या कॉलेज में पढ़ाते हैं मगर आपने क्या हिन्दी माध्यम स्कूलों की संरचना को मजबूत करने के लिए आवाज उठाई। आप हिन्दी को पाठ्यक्रम में हटाने पर सवाल उठाते हैं मगर क्या आपने जवाब माँगा संबंधित काउंसिल या बोर्ड से, कि ऐसा क्यों है या कभी इतनी हिम्मत की कि जिस स्कूल में हिन्दी की उपेक्षा की जाती हो, वहाँ आप अपने बच्चों को नहीं भेजेंगे। हर कॉलेज अपने पूर्व छात्रों को याद करता है, क्या कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग ने आज तक ऐसा कोई आयोजन किया या फिर क्या आज तक विश्वविद्यालय की वेबसाइट अपडेट भी की गयी है कि आपके विभाग की गतिविधियाँ आम जनता तक पहुँचे। हिन्दी का हर संगठन अपने तरीके से काम करता है मगर हिन्दी में इतनी एकता क्यों  नहीं है कि पाँच संगठन एक साथ मिलकर कोई बड़ा काम करें। आप बोलियों के विकास को रोककर हिन्दी का विकास करेंगे? अव्वल तो यह एक स्वार्थी और मध्ययुगीन मानसिकता है कि आप अकेले न रह जाएं इसलिए अपने बच्चों को बड़ा नहीं होने देंगे और आप अगर ऐसा करते भी हैं तो भी आपके हाथ कुछ नहीं आने वाला क्योंकि किसी को दबाकर जब कोई अपना विकास करता है तो उसे प्रेम कभी नहीं मिल सकता। अगर आप अपने बरगद के लिए जबरन बोलियों को बोनसाई बनाएंगे तो बोलियाँ विद्रोह करके हिन्दी से दूर चली जाएंगी और जब मन में खटास हो तो घरवापसी कभी नहीं होगी। आप इतने असुरक्षित हैं कि आपको संख्या बल की जरूरत है, आपमें इतना आत्मविश्वास क्यों नहीं है और इतनी शक्ति क्यों नहीं है कि आपके प्रेम में इतना जोर हो कि बोलियों के विकास को प्रश्रय दें, और हृदय के स्नेह के बल पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दें। संख्या बल से कभी प्रेम नहीं मिल सकता और मिलेगा तो वह कभी स्थायी नहीं होगा। जबरन आप बच्चों को साथ तो रख नहीं सकते, बोलियों को साथ रखेंगे? अगर रख सकते हैं तो दिखाइए। आप जानते हैं कि इसी मानसिकता के कारण आज परिवार भी टूट रहे हैं और भाषा भी बिखर रही है। हिन्दी को आप जबरन रास्ते का काँटा बनाएंगे तो आप उसे बोलियों का शत्रु बना रहे हैं और साजिश यही है क्योंकि जब हिन्दी कमजोर रहेगी तो आपकी गाड़ी भी चलती रहेगी मगर ऐसा नहीं होगा। हिन्दी को खतरा बोलियों को आँठवीं अनुसूची में शामिल होने से नहीं है बल्कि आपकी इस मानसिकता से है कि आप तो जीएंगे मगर दूसरों को मरने के लिए छोड़ देंगे। हिन्दी के कई शब्द अँग्रेजी को अपनाने पड़े हैं, गूगल को आज प्रेमचंद जयंती मनानी पड़ रही हैं, यह हिन्दी की ताकत है। डिस्कवरी चैनल को हिन्दी को विकल्प के तौर पर रखना पड़ रहा है, यह बाजार की माँग है और बाजार की माँग हिन्दी है। अगर भोजपुरी में स्पाइडर मैन आया और उसे सराहा जा रहा है तो उससे आपको क्यों तकलीफ हो रही है। हिन्दी को खतरा ऐसे कवियों से है जिनकी अश्लील कवितता को हमेशा एक औरत की देह की जरूरत पड़ती है, हिन्दी को खतरा ऐसे अधिकारियों से है जो अनुदान लेते हैं मगर कार्यालयों के बाहर हिन्दी के गलत साइनबोर्ड हटाना अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते। हिन्दी को खतरा पैदा हो रहा है। यह थीम शाश्वत सी बन चली है। लेकिन तथ्य एकदम अलग बात कहते हैं। तथ्य यह है कि हिन्दी लगातार बढ़ रही है, फैल रही है और वह विश्वभाषा बन चली है। उसकी 'रीच' हर महाद्वीप में है और उसका बाजार हर कहीं है। हमारी फिल्मों के गानों के एलबम अमेरिका, अफ्रीका, एशिया, योरप कहीं भी मिल सकते हैं और फिल्में एक साथ विश्व की कई राजधानियों में रिलीज होती हैं। भारतवंशी हिन्दी मूल के लोग दुनिया के हर देश में रहते हैं और उनकी हिन्दी इस हिन्दी जैसी ही है। कहीं-कहीं उसकी लिपि रोमन है लेकिन हिन्दी सर्वत्र नजर आती है। चीनी भाषा के बाद दूसरी भाषा हिन्दी नजर आती है, ऐसे आंकड़े कई विद्वान दे चुके हैं। अब तो अमेरिकी प्रशासन अपने यहां हिन्दी को सिखाना चाहता है। ओबामा भारत आते हैं तो नमस्ते कहते हैं, जापान के प्रधानमंत्री आते हैं और वाराणसी के घाट पर बाकायदा आरती करते हैं और आप रो रहे हैं कि हिन्दी खत्म हो रही है। अगर आज जयललिता बिहार से उम्मीदवार उतारती हैं तो वे लाख हिन्दी से नफरत करें, बोलनी तो उनको हिन्दी ही होगी, राष्ट्रीय दर्जा पाना है तो आप हिन्दी को नजरअंदाज नहीं कर सकते, अगर करेंगे तो अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारेंगे और यही कारण है कि कैनन से लेकर मारुति तक और सोनी से लेकर सैमसंग तक सब विज्ञप्ति हिन्दी में जारी करते हैं और यही से जुड़ी है हिन्दी जानने वालों की माँग। अगर कैनन के अधिकारी गाँव में जाते हैं तो दुभाषिया लेकर जाते हैं और कई राष्ट्राध्यक्ष भी दुभाषिए साथ रखते हैं तो यहाँ पर भी अँग्रेजी स्थानीय भाषा के साथ हिन्दी की जरूरत पड़ी तो और यहाँ भी रोजगार है।

आज हिन्दी चालीस करोड़ से कुछ ही कम की मातृभाषा कही जा सकती है। हिन्दी का दूसरा स्तर हिन्दी बोलनेवालों का है, जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है। हिन्दी की व्याप्ति कितनी है इसका पता इसी बात से चल जाता है कि आप दक्षिणी प्रदेशों में जैसे केरल में हिन्दी को दूसरी भाषा की तरह बरता जाता देखते हैं। आंध्र, कर्नाटक में कन्नड़ के साथ हिन्दी मौजूद है। 

तमिलनाडु तक में अब हिन्दी का वैसा विरोध नहीं है जैसा कि सातवें दशक में हुआ था। अब तो तमिल सांसद हिन्दी सीखने की बात करने लगे हैं। मीडिया की मुख्य भाषा हिन्दी है। हिन्दी मीडिया अंगरेजी मीडिया से कहीं आगे है। राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण में पहले पांच सबसे ज्यादा बिकने वाले अखबार हिन्दी के हैं। एक अंगरेजी का है, एक मलयालम का है, एक मराठी का और एक तेलुगु का है। एक बंगला का भी है। हिन्दी के सकल मीडिया की रीच इन तमाम भाषाई मीडिया से कई गुनी ज्यादा है। हिन्दी की स्वीकृति अब सर्वत्र है। ऐसा हिन्दी दिवसों के जरिए नहीं हुआ, न हिन्दी को राजभाषा घोषित करने से हुआ है। ऐसा इसलिए हुआ है कि हिन्दी जनता और मीडिया का नया रिश्ता बना है। यह बाजार ने बनाया है जिसे हिन्दी के विद्वान कोसते नहीं थकते। 

मीडिया की हिन्दी संचार की जबर्दस्त हिन्दी है। इतिहास में इतने विकट, व्यापक एवं विविध स्तर के संचार की हिन्दी कभी नहीं रही। वह साहित्यिक हिन्दी रहकर संदेश, उपदेश और सुधार की भाषा भर बनी रही। प्रिंट मीडिया ने उसे एक विस्तार दिया, लेकिन साक्षरों के बीच ही। रेडियो, फिल्मों और टीवी ने उसे वहां पहुंचाया जहां हिन्दी का निरक्षर समाज रहता है, उसे एक नई भाषा दी है जो म्युजिकल है। 

जिसमें एक से एक हिट गाने आते हैं जिन्हें सुनकर पैर थिरकने लगते हैं। हिन्दी टीवी के समाचारों से लेकर मनोरंजन की सबसे बड़ी भाषा है। वह इंटरनेट, मोबाइली चैट में आकर गिटपिट की भाषा बनी है। भले उसकी वर्तनी रोमन हो चली हो। वहां हिन्दी-अंगरेजी का नया निराला मिक्स मिलता है। रही कसर एफएम चैनलों की हिन्दी ने पूरी कर दी है। अब वह तेज गति से दौड़ती हुई फर्राटेदार मनोरंजक भाषा है जिसमें चुटकुले मजाक, मस्त बातें और संगीत बजता है। 
इतनी बोली जाने वाली भाषा दूसरी नहीं है। इसका कारण हिन्दी का अपना लचीला स्वभाव है, उसमें दूसरी भाषाओं को समा लेने की अद्भुत क्षमता है। आज उसके कोश में मराठी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, तमिल, तेलुगू, कन्नाड़, मलयालम तक के शब्द मिक्स होकर आते-जाते हैं। 

रीमिक्स की भाषा बनकर उसने सिद्ध कर दिया है कि स्पानी या लेटिनी या अंगरेजी भाषा के साथ उसकी कोई समस्या नहीं है। वे संग-संग चल सकती हैं। और यह सब हिन्दी भाषा को एक नई व्याप्ति देता है, जो अभूतपूर्व है। वह हिन्दी के एक नए जन सांस्कृतिक क्षेत्र को बताता है। जिसमें एक मिक्स करती हिन्दी रहती है, जो शुद्ध नहीं है और जो बात उसके लिए लाभ कर रही है। शुद्ध भाषा मरणासन्न हो जाती है। बहता नीर अगर भाषा है तो उसमें बहुत कुछ मिलता रहता है और बहाव उसे साफ करता रहता है, मैला नीचे बैठ जाता है और काम का साफ पानी ऊपर रह जाता है हिन्दी इस मानी में नई सफाई लेकर आई है। 




साहित्यकार किस्म के लोग इस हिन्दी का खाते हैं लेकिन इसको दूषित बताते हैं। कारण है उनका सोच अभी तक हिन्दी को किताबी और साहित्यिक मानता है जबकि कोई भी भाषा जनसंचार की भाषा बने बिना आगे नहीं बढ़ती। वह जितना विविध संचार करने में क्षमतावान होगी उतनी ही बढ़ेगी। उसमें तमाम लोग संवाद करें ऐसी भाषा आगे ही बढ़ेगी। हिन्दी इसीलिए आगे बढ़ी है और बढ़ रही है। इसके पीछे हिन्दी भाषी जनता की जरूरतों का बल है। हिन्दी जनता सबसे बड़ी उपभोक्ता जमात है। उसे संबोधित करने के लिए कॉर्पोरेट दुनिया विज्ञापन हिन्दी में पहले बनवाती है। यही हिन्दी की गुरुत्वाकर्षकता है। 

वह कॉर्पोरेट के लिए आकर्षक और सबसे बड़ा बाजार देती है। कंपनियां उसमें संवाद करती हैं। ब्रांड करती हैं। इससे एक विनियम की नई हिन्दी बनी है। साहित्य भी मरा नहीं है, वह छोटी पत्रिकाओं में रह रहा है। वही उसकी जगह भी थी। साहित्यकार अब संख्या में ज्यादा हैं चाहे वे खराब हिन्दी ही लिखते हों। तब खतरे की लॉबी बनाना क्या तर्कसंगत है। हिन्दी दिवस मनाएं न मनाएं कम से कम इस पैरानॉइया से तो मुक्त हों जो हर वक्त हिन्दी पर खतरा मंडराता देखने का आदी है।
हिंदी में महारत और डिग्री रखने वाले उम्मीदवारों को केंद्र और राज्य सरकार के कार्यालयों में बतौर हिंदी भाषा अधिकारी, सूचना एवं जनसंपर्क अधिकारी, शिक्षक तथा अनुवादक के तौर पर कार्य करने का अवसर मिल सकता है। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र में लैंग्वेज इंटरप्रेटर, ट्रांसलेटर और हिंदी भाषी क्षेत्रों में लिंक ऑफिसर की भूमिका का निर्वाह करने का मौका मिलता है। प्राइवेट सेक्टर में इस भाषा के एक्सपर्ट्स के लिए ढेरों नए अवसर हैं, जहां वेबसाइट कंटेंट राइटर, कॉपी राइटर, ट्रांसलेटर, इंटरप्रेटर, स्क्रिप्ट राइटर, प्रूफ रीडर, हिंदी टेलीकॉलर और एजुकेशन के तौर पर करियर बनाने का अवसर मिलता है।
आज देश में मनोरंजन का सर्वाधिक प्रचलित साधन निःसंदेह भारतीय फिल्में हैं। देश के हर कोने में हिन्दी फिल्म देखी-दिखाई जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि हिन्दी फिल्मों ने हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में काफी योगदान दिया है। 

भारत की सर्वप्रथम सवाक फिल्म 'आलमआरा' थी, जिसे सन्‌ 1931 में आर्देशिर ईरानी ने बनाया था। यह फिल्म हिन्दी में बनी थी। कहते गर्व होगा कि प्रथम भारतीय सवाक फिल्म हिन्दी में थी। अब हम यह तो आर्देशिर ईरानी से पूछने से रहे कि उन्होंने अपनी प्रथम फिल्म हिन्दी में क्यों बनाई? अगर यह पूछना संभव भी होता तो ईरानीजी निश्चित रूप से यह कहते कि 'कैसे मूर्ख हो? अरे! हिन्दी तो हिन्दुस्तान की भाषा है। यह तो जन-जन की भाषा है। मुझे अपनी फिल्म देश की 21 करोड़ आबादी तक पहुँचाना है।'

खैर, आज हिन्दी फिल्में जितनी लोकप्रिय हैं शायद ही किसी अन्य भाषा की फिल्में होंगी। विश्व में बनने वाली हर चौथी फिल्म हिन्दी होती है। भारत में निर्मित होने वाली 60 प्रतिशत फिल्में हिन्दी भाषा में बनती हैं और वे ही सबसे अधिक चलन में होती हैं, वे ही सर्वाधिक लोकप्रिय हैं, वे ही सर्वाधिक बिकाऊ हैं।

ऐसा नहीं है कि क्षेत्रीय भाषा की फिल्में चलती ही नहीं हैं। लेकिन असमी फिल्म असम में, तेलुगु फिल्म आंध्र में ही लोकप्रिय होती हैं। इसके विपरीत हिन्दी फिल्म सारे भारत में चलती है। जिस उत्साह से वह उत्तरी भारत में दिखाई जाती है उसी उत्साह से दक्षिण भारत में भी दिखाई जाती है। इसका एक कारण यह भी है कि हिन्दी हमारी संपर्क भाषा है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिन्दी लिखने, पढ़ने, बोलने वाले मिल जाएँगे।

इसी प्रकार हिन्दी फिल्मों के दर्शक और प्रशंसक भी आपको पूरे देश में मिल जाएँगे। अनेकता में एकता का जीवंत उदाहरण भारतीय फिल्मोंके अतिरिक्त दूसरा हो ही नहीं सकता। 

कुछ सीमा तक दक्षिण में हिन्दी का विरोध है, लेकिन हिन्दी फिल्में लोकप्रिय हैं। खासकर तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध किया जाता है, लेकिन इसी तमिलनाडु के तीन शहरों मदुरै, चेन्नाई और कोयंबटूर में हिन्दी फिल्म 'शोले' ने स्वर्ण जयंती मनाई थी! 'शोले' के अलावा 'हम आपके हैं कौन', 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे', 'बॉर्डर', 'दिल तो पागल है' भी पूरे देश में सफल रहीं। 'गदर' और 'लगान' जैसी कितनी ही फिल्में आई हैं जिन्होंने पूरे देश में सफलता के झंडे गाड़ दिए।

हिन्दी फिल्मों में अहिन्दी भाषी कलाकारों के योगदान के कारण भी हिन्दी को अहिन्दी भाषी प्रांतों में हमेशा बढ़ावा मिला है। सुब्बालक्ष्मी, बालसुब्रह्मण्यम, पद्मिनी, वैजयंती माला, रेखा, श्रीदेवी, हेमामालिनी, कमल हासन, चिरंजीवी, ए.आर. रहमान, रजनीकांत आदि प्रमुख सितारे हिन्दी में भी लोकप्रिय हैं। बंगाल की कई हस्तियाँ हिन्दी सिनेमा की महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रही हैं।

मसलन मन्ना डे, पंकज मलिक, हेमंत कुमार, सत्यजीत रे (शतरंज के खिलाड़ी), आर.सी. बोराल, बिमल रॉय, शर्मिला टैगोर, उत्त कुमार आदि। प्रसिद्ध अभिनेता डैनी डेंग्जोग्पा अहिन्दी राज्य सिक्किम से हैं, तो हिन्दी फिल्मों के प्रसिद्ध संगीतकार सचिन देवबर्मन तथा राहुल देव बर्मन मणिपुर के राजघराने से संबंधित थे।

इसी प्रकार हिन्दी फिल्मों के लोकप्रिय कलाकार जितेंद्र पंजाबी होने के बावजूद दक्षिण में लोकप्रिय हैं। हिन्दी फिल्मों की प्रसिद्ध हस्तियाँ स्व. पृथ्वीराज कपूर एवं उनका समस्त खानदान, दारासिंह, धर्मेन्द्र आदि पंजाब से हैं। इस प्रकार के और भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। 

हिन्दी फिल्में देश के साथ-साथ विदेशों में भी लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी हैं। इस प्रकार इन फिल्मों ने देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी हिन्दी को प्रोत्साहित किया है। राजकपूर की 'आवारा' और 'श्री 420' ने रूस में लोकप्रियता के झंडे गाड़ दिए थे। अमिताभ बच्चन, माधुरी दीक्षित, लता मंगेशकर एवं हिन्दी फिल्मों के अन्य कई कलाकार सारी दुनिया के बड़े-बड़े शहरों में अपने रंगमंचीय प्रदर्शन सफलतापूर्वक कर चुके हैं। आज भी ऑल इंडिया रेडियो के उर्दू कार्यक्रमों के फर्माइशकर्ता 90 प्रतिशत पाकिस्तानी श्रोता होते हैं। भारतीय फिल्में और गीत वहाँ सर्वाधिक प्रिय हैं। 

सिर्फ भारत के ही कलाकार विदेशों में लोकप्रिय नहीं, बल्कि कई विदेशी कलाकार हिन्दी फिल्मों की वजह से लोकप्रिय हो गए हैं। मेहँदी हसन व गुलाम अली (दोनों पाकिस्तानी गजल गायक) के हिन्दी गीत आज भारत में लोकप्रिय हैं। रूना लैला बांग्लादेश से आकर हिन्दी फिल्मों की वजह से लोकप्रिय बनीं, वहीं पाकिस्तानी अदाकारा जेबा को 'हिना' से लोकप्रियता मिली। इन सब तथ्यों से हम कह सकते हैं कि हिन्दी फिल्मों ने हिन्दी को सौ प्रतिशत प्रोत्साहन दिया है।