हिन्दी केवल हिन्दी प्रदेश की ही नहीं बल्कि हर भारतीय की भाषा है
हिन्दी हमारी अपनी भाषा है और यह किसी
एक दिवस विशेष की मोहताज नहीं है इसलिए आज सितम्बर का महीना नहीं होने के बावजूद
हिन्दी को लेकर अपनी बात कहने जा रही हूँ।
मंच पर उपस्थित हिन्दी के विद्वतजन,
गुरुजन और मेरे प्यारे दोस्तों
पता है कि आपने हिन्दी को चुना है और
अब आपके मन में अपने चयन को लेकर काफी प्रश्न उठ रहे हैं। अब तो राजभाषा,
राष्ट्रभाषा के झगड़े के साथ बोलियों को भी हिन्दी के लिए खतरा बताया जा रहा है।
हिन्दी में रोजगार के अभाव का रोना रोया जा रहा है और राष्ट्रभाषा के रूप में भाषा
के विस्तार की चाह को भी साजिश बताया जा रहा है, मैं इन सभी मुद्दों पर अपनी बात
रखूँगी और मेरा प्रयास होगा कि आप जब इस मंच से जाएं तो एक नयी उर्जा के साथ
जाएं और मुझे विश्वास है कि यह होगा।
सबसे पहले समझते हैं कि यह विरोध
क्यों हो रहा है। हिन्दी हमारी राजभाषा है और वह विभिन्न बोलियों को लेकर बनी
निर्मित हुई है। संविधान में इसे राजभाषा का दर्जा देकर बड़ा बनाया गया है। मैं आपसे
पूछती हूँ कि अगर आपके परिवार में आप आत्मनिर्भर नहीं हैं तो आप तो अपने बड़ों से
ही उम्मीद करेंगे कि वह आपका खर्च वहन करे और आपके परिवार में जो भी बड़ा है, उसकी
कोशिश यह होगी कि आप अपने पैर पर खड़े हों जिससे आप खुद अपना दायित्व उठा सकें मगर
ऐसा न हो तो? आपको बड़ा नहीं होने दिया जाए और आपको अपनी पहचान
नहीं बनाने दी जाए तो क्या आप परिवार में अपने पिता या उस व्यक्ति का सम्मान करेंगे? नहीं न, बस हिन्दी और बोलियों के बीच यही समस्या है क्योंकि बड़े होने का
दर्जा छिनने और बोलियाँ बराबर न आ जाएं इसलिए हिन्दी के तथाकथित दिग्गज विद्वानों
ने हिन्दी को न तो बोलियों से जुड़ने दिया और न अन्य भारतीय भाषाओं से। होना तो यह
चाहिए था कि शिक्षण संस्थानों के हिन्दी विभाग में हिन्दी की बोली अथवा किसी
स्थानीय भाषा के लिए अलग से पद होता, पाठ्यक्रम होता अथवा बोलियों को लेकर एक
स्पेशल पेपर होता, मगर ऐसा नहीं हुआ। एक भाषा विज्ञान का पद बनाया गया और उसमें
सारी बोलियों और उनके विकास को समेट दिया गया। साहित्य में बोलियों के नाम पर
तुलसीदास, सूरदास और मीराबाईजैसे कई कवि हैं मगर वर्तमान समय में जो लिखा या पढ़ा
जा रहा है, वह कहाँ है? हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थी हर एक
विभाषा, उपभाषा अथवा बोली का इतिहास और साहित्य समझते, यह चयन उन पर ही छोड़ा जा
ना चाहिए था होना तो यह चाहिए था कि हिन्दी साहित्य से जुड़े कार्यक्रमों में
बोलियों से संबंधित विद्वान होते, अवधी, ब्रज और मैथिली के कवि भी होते, मगर ऐसा
नहीं हुआ। जब हिन्दी बोलियों को लेकर बनी है तो सिर्फ खड़ी बोली ही हिन्दी कैसे हो
सकती है और बोलियों से भला हिन्दी को खतरा कैसे हो सकता है जबकि बोली की अपनी जगह
है और हिन्दी का अपना विशेष स्थान। हिन्दी के अधिकारियों और संस्थानों और
विश्वविद्यालयों ने अपना दायित्व नहीं निभाया इसलिए बोलियाँ भाषा बनना चाहती हैं
और इसमें कोई बुराई नहीं है। हर बोली इतनी समृद्ध है कि उसे अब सिर्फ एक पेपर या
विभाग में नहीं बाँधा जा सकता इसलिए उनका हिन्दी
जब पूरे देश की भाषा है तो उसे सिर्फ हिन्दी प्रदेश तक क्यों सिमटे रहना चाहिए।
अब समझते हैं कि हिन्दी के तथाकथित विद्वान
बोलियों को आगे क्यों नहीं बढ़ने देना चाहते और भाषाओं से उनको समस्या क्यों है? दो बातें हैं – एक तो यह है कि बोलियाँ अगर भाषा बनीं तो उनको मिलने वाला
सरकारी अथवा गैर सरकारी अनुदान कम हो जाएगा। अब तक वे जिन बोलियों को चाकर समझते
रहे हैं, वह उनके समकक्ष होगी और सर्वश्रेष्ठता का जो तमगा लगाकर वे घूम रहे हैं,
वह छिन जाएगा क्योंकि बोलियाँ भाषा बनीं तो उनकी प्रगति के लिए अनुदान मिलेगा और
हिन्दी को मिलने वाला अनुदान प्रभावित होगा जो संस्थाओं की जेब पर असर डालेगा,
इसलिए उन्होंने यह साजिश की है और हिन्दी खतरे में है का राग अलाप रहे हैं।
दोस्तों, डॉक्टर दो तरह के होते हैं, एक वे जो चाहते हैं कि मरीज
में उत्साह बना रहे और वह जल्दी से जल्दी ठीक हो जाए और दूसरे वे जो चाहते ही नहीं
है कि मरीज को पता चले कि वह ठीक हो गया है वरना उनकी डॉक्टरी का भट्टा बैठ जाएगा,
बेचारे बेरोजगार हो जाएंगे। हिन्दी की समस्या ये दूसरी तरह के डॉक्टर हैं जो चाहते
ही नहीं हैं कि हिन्दी आम जनता तक पहुँचे वरना उनकी दुकानदारी बैठ जाएगी। वह कभी
भाषा की शुद्धता को अडंगा बनाते हैं तो कभी बोलियों के अलग होने से डरते हैं मगर
उनको यह अब मान लेना चाहिए कि हमारी भाषा और हमारी संस्कृति किसी विश्वविद्यालय,
संस्थान, आलोचना या गोष्ठियों की सम्पत्ति नहीं है। वह आम भारतीय की भाषा है, फिर
वह एक रिक्शेवाला बोले या पान की दुकान चलाने वाला या दक्षिण भारत में कोई डोसा
बेचने वाला और वह हिन्दी ऐसे ही बोलेंगे जैसे आप हिन्दी मिश्रित अँग्रेजी बोलते
हैं मसलन कॉलेज और कालेज और ऑफिस को आफिस। क्या आपके गलत बोलने से अँग्रेजी को
क्षति पहुँची? नहीं,
क्योंकि आप खुद ही मान रहे हैं कि अँग्रेजी विकसित हो रही है तो जो गलत हिन्दी बोल
रहा है, उसे सुधारने में आप उसका सहयोग कर सकते हैं मगर आपको यह कहने का अधिकार
नहीं है कि हिन्दी नहीं आती, मत बोलो। केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो गायकी का शौक लेकर मुंबई गए
तो उनकी बांग्ला वाली हिंदी सुनकर अपने को हजारी प्रसाद द्विवेदी मानने वाले साथी
गायक मज़ाक उड़ाते थे. ‘चंदा रे
चंदा रे कभी तो ज़मीं पे आ’ और ‘भारत हमको जान से प्यारा है’ गाने वाले हरिहरन की हिंदी
बोलने की काबलियत पर पहला सवाल इसलिए खड़ा हुआ कि वो दक्षिण भारत से हैं। तो हे हिंदी को अपनी जागीर
समझने वालों ! भारत में हिंदी किसी की भी पहली भाषा नहीं है, कोई हरियाणवी है जो खींचना को
खेंचणा कहता है, कोई
पंजाबी है जिसकी भाषा में राजमार्ग को राजमारग ही कहा जाता है, कोई बंगाली है जो संभव को शोंभव
बोलता है. हिंदी हम सबकी है और बराबर है. सड़क को सरक बोलने वाले बिहारी की भी
उतनी ही है जितनी ‘मेरी
बेटी अभी स्कूल जाएगा’ बोलने
वाले असमिया की। अगर आप चाहते हैं कि दीपा कर्मकार अंग्रेज़ी पत्रकारों को भी
अंग्रेज़ी की बजाय हिंदी में ही इंटरव्यू देती रहें, किसी मोतिहारी वाले को मैसूर
में भाषा की दिक्कत न हो, ज्यादा
से ज्यादा भारतीय एक सांझी भाषा में स्वाद लें, खुशिया बांटे तो सबको हिंदी
बोलने दें, अपने-अपने
रंग-ढंग में. टैबलेट कम्प्यूटर को गोली कम्प्यूटर लिखने वाली सरकारी संस्थाओं को
नहीं, लोगों को
तय करने दें कि हिंदी क्या है. देश की हर एक ज़ुबां मिलती है तभी तो हिंदी बनती है।
अगर आपको हिन्दी से प्रेम है तो आपको भाषा के समग्र विकास पर ध्यान देना होगा। अब मैं हिन्दी के विद्वानों से
दो चार – बातें कहना चाहूँगी। हिन्दी का हर संगठन अपने तरीके से काम करता है मगर
हिन्दी में इतनी एकता क्यों नहीं है कि
पाँच संगठन एक साथ मिलकर कोई बड़ा काम करें। आप बोलियों के विकास को रोककर हिन्दी
का विकास करेंगे? अव्वल तो यह एक स्वार्थी और
मध्ययुगीन मानसिकता है कि आप अकेले न रह जाएं इसलिए अपने बच्चों को बड़ा नहीं होने
देंगे और आप अगर ऐसा करते भी हैं तो भी आपके हाथ कुछ नहीं आने वाला क्योंकि किसी
को दबाकर जब कोई अपना विकास करता है तो उसे प्रेम कभी नहीं मिल सकता। अगर आप अपने
बरगद के लिए जबरन बोलियों को बोनसाई बनाएंगे तो बोलियाँ विद्रोह करके हिन्दी से
दूर चली जाएंगी और जब मन में खटास हो तो घरवापसी कभी नहीं होगी। आप इतने असुरक्षित
हैं कि आपको संख्या बल की जरूरत है, आपमें इतना आत्मविश्वास क्यों नहीं है और इतनी
शक्ति क्यों नहीं है कि आपके प्रेम में इतना जोर हो कि बोलियों के विकास को
प्रश्रय दें, और हृदय के स्नेह के बल पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दें।
संख्या बल से कभी प्रेम नहीं मिल सकता और मिलेगा तो वह कभी स्थायी नहीं होगा। जबरन
आप बच्चों को साथ तो रख नहीं सकते, बोलियों को साथ रखेंगे? अगर रख सकते हैं तो दिखाइए। आप जानते हैं कि इसी मानसिकता के
कारण आज परिवार भी टूट रहे हैं और भाषा भी बिखर रही है। हिन्दी को आप जबरन
रास्ते का काँटा बनाएंगे तो आप उसे बोलियों और अन्य भाषाओं का शत्रु बना रहे हैं
और साजिश यही है क्योंकि जब हिन्दी कमजोर रहेगी तो आपकी गाड़ी भी चलती रहेगी मगर
ऐसा नहीं होगा। हिन्दी को खतरा बोलियों को आँठवीं अनुसूची में शामिल होने से नहीं
है बल्कि आपकी इस मानसिकता से है कि आप तो जीएंगे मगर दूसरों को मरने के लिए
छोड़ देंगे। हिन्दी के कई शब्द अँग्रेजी को अपनाने पड़े हैं, गूगल को आज प्रेमचंद
जयंती मनानी पड़ रही हैं, यह हिन्दी की ताकत है। डिस्कवरी चैनल को हिन्दी को
विकल्प के तौर पर रखना पड़ रहा है, यह बाजार की माँग है और बाजार की माँग हिन्दी
है। अगर भोजपुरी में स्पाइडर मैन आया और उसे सराहा जा रहा है तो उससे आपको क्यों
तकलीफ हो रही है। हिन्दी को खतरा ऐसे कवियों से है जिनकी अश्लील कवितता को हमेशा
एक औरत की देह की जरूरत पड़ती है, हिन्दी को खतरा ऐसे अधिकारियों से है जो अनुदान
लेते हैं मगर कार्यालयों के बाहर हिन्दी के गलत साइनबोर्ड हटाना अपनी जिम्मेदारी
नहीं समझते। आप लिपि की बात कर रहे हैं, हिन्दी ने भी अपनी देवनागरी से ली है,
भोजपुरी भी यह कर रही है तो आपको दिक्कत क्यों है?
अब बात करते हैं उस क्षेत्र के बारे में जिसे लेकर युवाओं को हिन्दी से दूर किया जा रहा है, रोजगार और हिन्दी का प्रसार। दोस्तों, आपका भविष्य चमकते सूर्य की तरह सुनहरा है क्योंकि हिन्दी अब किसी क्षेत्र की नहीं, देश की नहीं बल्कि पूरे विश्व की भाषा है क्योंकि वह बाजार, मीडिया और आम आदमी की जरूरत है। अगर नहीं होती तो हम पर 200 साल तक शासन करने वाले ब्रिटेन को बीबीसी हिन्दी की जरूरत ही नहीं पड़ती। अगर डेयरी मिल्क कैडबरी को भारत के गाँवों में जाना है तो उसे कुछ मीठा हो जाए ही कहना पड़ेगा। अगर कैनन को गाँवों में बाजार बनाना है और संवाद करना है तो उसे स्थानीय बोली के साथ हिन्दी बोलने वाले व्यक्ति को ले जाना होगा। अगर राहुल गाँधी और जयललिता को यूपी और बिहार से चुनाव जीतना है तो उनको भोजपुरी और हिन्दी बोलनी होगी और खटिया लेकर घूमना भी होगा। हिन्दी बाजार की ही नहीं जनतंत्र की ताकत है तो जो भाषा इतनी ताकतवर हो, उसे लेकर आप हीन भावना से ग्रस्त क्यों होंगे? दोस्तों, हिन्दी के प्रति हो रही साजिश और बोलियों और भाषाओं को दूर कर नफरत पैदा करने वालों का एक ही तरीके से जवाब दिया जा सकता है और वह जवाब आप देंगे, हर भारतीय देगा, तरीका एक है – हर जगह अपनी भाषा के साथ हिन्दी भी बोलिए और जो रोना शुरू करे, उसे एक रुमाल थमा दीजिए। आइए, हिन्दी दिवस को हिन्दी, बोली व भारतीय भाषा दिवस के रूप में मनाएं और घर – घर में मनाएं। याद रखें हिन्दी, हिन्दी प्रदेश की ही नहीं बल्कि हर भारतीय की भाषा है – हिन्दी हैं हम, हिन्दी हो तुम, हिन्दी से है हमारा हिन्दोस्तां।
(एक कार्यशाला के लिए तैयार किया गया वक्तव्य)
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