हिन्दी को बोलियों से नहीं साहित्यिक साम्राज्यवाद फैलाने वालों से खतरा है


डॉक्टर दो तरह के होते हैं, एक वे जो चाहते हैं कि मरीज में उत्साह बना रहे और वह जल्दी से जल्दी ठीक हो जाए और दूसरे वे जो चाहते ही नहीं है कि मरीज को पता चले कि वह ठीक हो गया है वरना उनकी डॉक्टरी का भट्टा बैठ जाएगा, बेचारे बेरोजगार हो जाएंगे। हिन्दी की समस्या यही है कि हिन्दी के कई विद्वान और आलोचक चाहते ही नहीं हैं कि हिन्दी आम जनता तक पहुँचे वरना उनकी दुकानदारी बैठ जाएगी। वह कभी भाषा की शुद्धता को अडंगा बनाते हैं तो कभी बोलियों के अलग होने से डरते हैं मगर उनको यह अब मान लेना चाहिए कि हमारी भाषा और हमारी संस्कृति किसी विश्वविद्यालय, संस्थान, आलोचना या गोष्ठियों की सम्पत्ति नहीं है। वह आम भारतीय की भाषा है, फिर वह एक रिक्शेवाला बोले या पान की दुकान चलाने वाला या दक्षिण भारत में कोई डोसा बेचने वाला और वह हिन्दी ऐसे ही बोलेंगे जैसे आप हिन्दी मिश्रित अँग्रेजी बोलते हैं मसलन कॉलेज और कालेज और ऑफिस को आफिस। क्या आपके गलत बोलने से अँग्रेजी को क्षति पहुँची? नहीं, क्योंकि आप खुद ही मान रहे हैं कि अँग्रेजी विकसित हो रही है तो जो गलत हिन्दी बोल रहा है, उसे सुधारने में आप उसका सहयोग कर सकते हैं मगर आपको यह कहने का अधिकार नहीं है कि हिन्दी नहीं आती, मत बोलो। केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो गायकी का शौक लेकर मुंबई गए तो उनकी बांग्ला वाली हिंदी सुनकर अपने को हजारी प्रसाद द्विवेदी मानने वाले साथी गायक मज़ाक उड़ाते थे. चंदा रे चंदा रे कभी तो ज़मीं पे आऔर भारत हमको जान से प्यारा हैगाने वाले हरिहरन की हिंदी बोलने की काबलियत पर पहला सवाल इसलिए खड़ा हुआ कि वो दक्षिण भारत से हैं।
तो हे हिंदी को अपनी जागीर समझने वालों ! भारत में हिंदी किसी की भी पहली भाषा नहीं है, कोई हरियाणवी है जो खींचना को खेंचणा कहता है, कोई पंजाबी है जिसकी भाषा में राजमार्ग को राजमारग ही कहा जाता है, कोई बंगाली है जो संभव को शोंभव बोलता है. हिंदी हम सबकी है और बराबर है. सड़क को सरक बोलने वाले बिहारी की भी उतनी ही है जितनी मेरी बेटी अभी स्कूल जाएगाबोलने वाले असमिया की।
हमारी भाषाओं के लिए कितने शर्म की बात होती है कि ग़लत अंग्रेज़ी बोलने वाले को तो हम मुहं बाएं ऐसे देखते हैं जैसे प्लासी में रॉबर्ट क्लाइव आ गया हो और हिंदी पर कोई अपना रंग चढ़ाना चाहे तो चाहते हैं कि बस आह उसका तपता बदन उत्सलीला का नव अभिनंदन थालिखने वाले कवियों की तरह बोले.
अगर आप चाहते हैं कि दीपा कर्मकार अंग्रेज़ी पत्रकारों को भी अंग्रेज़ी की बजाय हिंदी में ही इंटरव्यू देती रहें, किसी मोतिहारी वाले को मैसूर में भाषा की दिक्कत न हो, ज्यादा से ज्यादा भारतीय एक सांझी भाषा में स्वाद लें, खुशिया बांटे तो सबको हिंदी बोलने दें, अपने-अपने रंग-ढंग में. टैबलेट कम्प्यूटर को गोली कम्प्यूटर लिखने वाली सरकारी संस्थाओं को नहीं, लोगों को तय करने दें कि हिंदी क्या है. देश की हर एक ज़ुबां मिलती है तभी तो हिंदी बनती है। अगर आपको हिन्दी से प्रेम है तो आपको भाषा के समग्र विकास पर ध्यान देना होगा। अब सवाल इस राज्य में सैकड़ों हिन्दी माध्यम स्कूल हैं और कॉलेज भी हैं मगर उनकी संरचना गत समस्या है, अधिकतर हिन्दी की रोटी खाने वाले अपने बच्चों को अँग्रेजी माध्यम स्कूल या कॉलेज में पढ़ाते हैं मगर आपने क्या हिन्दी माध्यम स्कूलों की संरचना को मजबूत करने के लिए आवाज उठाई। आप हिन्दी को पाठ्यक्रम में हटाने पर सवाल उठाते हैं मगर क्या आपने जवाब माँगा संबंधित काउंसिल या बोर्ड से, कि ऐसा क्यों है या कभी इतनी हिम्मत की कि जिस स्कूल में हिन्दी की उपेक्षा की जाती हो, वहाँ आप अपने बच्चों को नहीं भेजेंगे। हर कॉलेज अपने पूर्व छात्रों को याद करता है, क्या कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग ने आज तक ऐसा कोई आयोजन किया या फिर क्या आज तक विश्वविद्यालय की वेबसाइट अपडेट भी की गयी है कि आपके विभाग की गतिविधियाँ आम जनता तक पहुँचे। हिन्दी का हर संगठन अपने तरीके से काम करता है मगर हिन्दी में इतनी एकता क्यों  नहीं है कि पाँच संगठन एक साथ मिलकर कोई बड़ा काम करें। आप बोलियों के विकास को रोककर हिन्दी का विकास करेंगे? अव्वल तो यह एक स्वार्थी और मध्ययुगीन मानसिकता है कि आप अकेले न रह जाएं इसलिए अपने बच्चों को बड़ा नहीं होने देंगे और आप अगर ऐसा करते भी हैं तो भी आपके हाथ कुछ नहीं आने वाला क्योंकि किसी को दबाकर जब कोई अपना विकास करता है तो उसे प्रेम कभी नहीं मिल सकता। अगर आप अपने बरगद के लिए जबरन बोलियों को बोनसाई बनाएंगे तो बोलियाँ विद्रोह करके हिन्दी से दूर चली जाएंगी और जब मन में खटास हो तो घरवापसी कभी नहीं होगी। आप इतने असुरक्षित हैं कि आपको संख्या बल की जरूरत है, आपमें इतना आत्मविश्वास क्यों नहीं है और इतनी शक्ति क्यों नहीं है कि आपके प्रेम में इतना जोर हो कि बोलियों के विकास को प्रश्रय दें, और हृदय के स्नेह के बल पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दें। संख्या बल से कभी प्रेम नहीं मिल सकता और मिलेगा तो वह कभी स्थायी नहीं होगा। जबरन आप बच्चों को साथ तो रख नहीं सकते, बोलियों को साथ रखेंगे? अगर रख सकते हैं तो दिखाइए। आप जानते हैं कि इसी मानसिकता के कारण आज परिवार भी टूट रहे हैं और भाषा भी बिखर रही है। हिन्दी को आप जबरन रास्ते का काँटा बनाएंगे तो आप उसे बोलियों का शत्रु बना रहे हैं और साजिश यही है क्योंकि जब हिन्दी कमजोर रहेगी तो आपकी गाड़ी भी चलती रहेगी मगर ऐसा नहीं होगा। हिन्दी को खतरा बोलियों को आँठवीं अनुसूची में शामिल होने से नहीं है बल्कि आपकी इस मानसिकता से है कि आप तो जीएंगे मगर दूसरों को मरने के लिए छोड़ देंगे। हिन्दी के कई शब्द अँग्रेजी को अपनाने पड़े हैं, गूगल को आज प्रेमचंद जयंती मनानी पड़ रही हैं, यह हिन्दी की ताकत है। डिस्कवरी चैनल को हिन्दी को विकल्प के तौर पर रखना पड़ रहा है, यह बाजार की माँग है और बाजार की माँग हिन्दी है। अगर भोजपुरी में स्पाइडर मैन आया और उसे सराहा जा रहा है तो उससे आपको क्यों तकलीफ हो रही है। हिन्दी को खतरा ऐसे कवियों से है जिनकी अश्लील कवितता को हमेशा एक औरत की देह की जरूरत पड़ती है, हिन्दी को खतरा ऐसे अधिकारियों से है जो अनुदान लेते हैं मगर कार्यालयों के बाहर हिन्दी के गलत साइनबोर्ड हटाना अपनी जिम्मेदारी नहीं समझते। हिन्दी को खतरा पैदा हो रहा है। यह थीम शाश्वत सी बन चली है। लेकिन तथ्य एकदम अलग बात कहते हैं। तथ्य यह है कि हिन्दी लगातार बढ़ रही है, फैल रही है और वह विश्वभाषा बन चली है। उसकी 'रीच' हर महाद्वीप में है और उसका बाजार हर कहीं है। हमारी फिल्मों के गानों के एलबम अमेरिका, अफ्रीका, एशिया, योरप कहीं भी मिल सकते हैं और फिल्में एक साथ विश्व की कई राजधानियों में रिलीज होती हैं। भारतवंशी हिन्दी मूल के लोग दुनिया के हर देश में रहते हैं और उनकी हिन्दी इस हिन्दी जैसी ही है। कहीं-कहीं उसकी लिपि रोमन है लेकिन हिन्दी सर्वत्र नजर आती है। चीनी भाषा के बाद दूसरी भाषा हिन्दी नजर आती है, ऐसे आंकड़े कई विद्वान दे चुके हैं। अब तो अमेरिकी प्रशासन अपने यहां हिन्दी को सिखाना चाहता है। ओबामा भारत आते हैं तो नमस्ते कहते हैं, जापान के प्रधानमंत्री आते हैं और वाराणसी के घाट पर बाकायदा आरती करते हैं और आप रो रहे हैं कि हिन्दी खत्म हो रही है। अगर आज जयललिता बिहार से उम्मीदवार उतारती हैं तो वे लाख हिन्दी से नफरत करें, बोलनी तो उनको हिन्दी ही होगी, राष्ट्रीय दर्जा पाना है तो आप हिन्दी को नजरअंदाज नहीं कर सकते, अगर करेंगे तो अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारेंगे और यही कारण है कि कैनन से लेकर मारुति तक और सोनी से लेकर सैमसंग तक सब विज्ञप्ति हिन्दी में जारी करते हैं और यही से जुड़ी है हिन्दी जानने वालों की माँग। अगर कैनन के अधिकारी गाँव में जाते हैं तो दुभाषिया लेकर जाते हैं और कई राष्ट्राध्यक्ष भी दुभाषिए साथ रखते हैं तो यहाँ पर भी अँग्रेजी स्थानीय भाषा के साथ हिन्दी की जरूरत पड़ी तो और यहाँ भी रोजगार है।

आज हिन्दी चालीस करोड़ से कुछ ही कम की मातृभाषा कही जा सकती है। हिन्दी का दूसरा स्तर हिन्दी बोलनेवालों का है, जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है। हिन्दी की व्याप्ति कितनी है इसका पता इसी बात से चल जाता है कि आप दक्षिणी प्रदेशों में जैसे केरल में हिन्दी को दूसरी भाषा की तरह बरता जाता देखते हैं। आंध्र, कर्नाटक में कन्नड़ के साथ हिन्दी मौजूद है। 

तमिलनाडु तक में अब हिन्दी का वैसा विरोध नहीं है जैसा कि सातवें दशक में हुआ था। अब तो तमिल सांसद हिन्दी सीखने की बात करने लगे हैं। मीडिया की मुख्य भाषा हिन्दी है। हिन्दी मीडिया अंगरेजी मीडिया से कहीं आगे है। राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण में पहले पांच सबसे ज्यादा बिकने वाले अखबार हिन्दी के हैं। एक अंगरेजी का है, एक मलयालम का है, एक मराठी का और एक तेलुगु का है। एक बंगला का भी है। हिन्दी के सकल मीडिया की रीच इन तमाम भाषाई मीडिया से कई गुनी ज्यादा है। हिन्दी की स्वीकृति अब सर्वत्र है। ऐसा हिन्दी दिवसों के जरिए नहीं हुआ, न हिन्दी को राजभाषा घोषित करने से हुआ है। ऐसा इसलिए हुआ है कि हिन्दी जनता और मीडिया का नया रिश्ता बना है। यह बाजार ने बनाया है जिसे हिन्दी के विद्वान कोसते नहीं थकते। 

मीडिया की हिन्दी संचार की जबर्दस्त हिन्दी है। इतिहास में इतने विकट, व्यापक एवं विविध स्तर के संचार की हिन्दी कभी नहीं रही। वह साहित्यिक हिन्दी रहकर संदेश, उपदेश और सुधार की भाषा भर बनी रही। प्रिंट मीडिया ने उसे एक विस्तार दिया, लेकिन साक्षरों के बीच ही। रेडियो, फिल्मों और टीवी ने उसे वहां पहुंचाया जहां हिन्दी का निरक्षर समाज रहता है, उसे एक नई भाषा दी है जो म्युजिकल है। 

जिसमें एक से एक हिट गाने आते हैं जिन्हें सुनकर पैर थिरकने लगते हैं। हिन्दी टीवी के समाचारों से लेकर मनोरंजन की सबसे बड़ी भाषा है। वह इंटरनेट, मोबाइली चैट में आकर गिटपिट की भाषा बनी है। भले उसकी वर्तनी रोमन हो चली हो। वहां हिन्दी-अंगरेजी का नया निराला मिक्स मिलता है। रही कसर एफएम चैनलों की हिन्दी ने पूरी कर दी है। अब वह तेज गति से दौड़ती हुई फर्राटेदार मनोरंजक भाषा है जिसमें चुटकुले मजाक, मस्त बातें और संगीत बजता है। 
इतनी बोली जाने वाली भाषा दूसरी नहीं है। इसका कारण हिन्दी का अपना लचीला स्वभाव है, उसमें दूसरी भाषाओं को समा लेने की अद्भुत क्षमता है। आज उसके कोश में मराठी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, तमिल, तेलुगू, कन्नाड़, मलयालम तक के शब्द मिक्स होकर आते-जाते हैं। 

रीमिक्स की भाषा बनकर उसने सिद्ध कर दिया है कि स्पानी या लेटिनी या अंगरेजी भाषा के साथ उसकी कोई समस्या नहीं है। वे संग-संग चल सकती हैं। और यह सब हिन्दी भाषा को एक नई व्याप्ति देता है, जो अभूतपूर्व है। वह हिन्दी के एक नए जन सांस्कृतिक क्षेत्र को बताता है। जिसमें एक मिक्स करती हिन्दी रहती है, जो शुद्ध नहीं है और जो बात उसके लिए लाभ कर रही है। शुद्ध भाषा मरणासन्न हो जाती है। बहता नीर अगर भाषा है तो उसमें बहुत कुछ मिलता रहता है और बहाव उसे साफ करता रहता है, मैला नीचे बैठ जाता है और काम का साफ पानी ऊपर रह जाता है हिन्दी इस मानी में नई सफाई लेकर आई है। 




साहित्यकार किस्म के लोग इस हिन्दी का खाते हैं लेकिन इसको दूषित बताते हैं। कारण है उनका सोच अभी तक हिन्दी को किताबी और साहित्यिक मानता है जबकि कोई भी भाषा जनसंचार की भाषा बने बिना आगे नहीं बढ़ती। वह जितना विविध संचार करने में क्षमतावान होगी उतनी ही बढ़ेगी। उसमें तमाम लोग संवाद करें ऐसी भाषा आगे ही बढ़ेगी। हिन्दी इसीलिए आगे बढ़ी है और बढ़ रही है। इसके पीछे हिन्दी भाषी जनता की जरूरतों का बल है। हिन्दी जनता सबसे बड़ी उपभोक्ता जमात है। उसे संबोधित करने के लिए कॉर्पोरेट दुनिया विज्ञापन हिन्दी में पहले बनवाती है। यही हिन्दी की गुरुत्वाकर्षकता है। 

वह कॉर्पोरेट के लिए आकर्षक और सबसे बड़ा बाजार देती है। कंपनियां उसमें संवाद करती हैं। ब्रांड करती हैं। इससे एक विनियम की नई हिन्दी बनी है। साहित्य भी मरा नहीं है, वह छोटी पत्रिकाओं में रह रहा है। वही उसकी जगह भी थी। साहित्यकार अब संख्या में ज्यादा हैं चाहे वे खराब हिन्दी ही लिखते हों। तब खतरे की लॉबी बनाना क्या तर्कसंगत है। हिन्दी दिवस मनाएं न मनाएं कम से कम इस पैरानॉइया से तो मुक्त हों जो हर वक्त हिन्दी पर खतरा मंडराता देखने का आदी है।
हिंदी में महारत और डिग्री रखने वाले उम्मीदवारों को केंद्र और राज्य सरकार के कार्यालयों में बतौर हिंदी भाषा अधिकारी, सूचना एवं जनसंपर्क अधिकारी, शिक्षक तथा अनुवादक के तौर पर कार्य करने का अवसर मिल सकता है। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र में लैंग्वेज इंटरप्रेटर, ट्रांसलेटर और हिंदी भाषी क्षेत्रों में लिंक ऑफिसर की भूमिका का निर्वाह करने का मौका मिलता है। प्राइवेट सेक्टर में इस भाषा के एक्सपर्ट्स के लिए ढेरों नए अवसर हैं, जहां वेबसाइट कंटेंट राइटर, कॉपी राइटर, ट्रांसलेटर, इंटरप्रेटर, स्क्रिप्ट राइटर, प्रूफ रीडर, हिंदी टेलीकॉलर और एजुकेशन के तौर पर करियर बनाने का अवसर मिलता है।
आज देश में मनोरंजन का सर्वाधिक प्रचलित साधन निःसंदेह भारतीय फिल्में हैं। देश के हर कोने में हिन्दी फिल्म देखी-दिखाई जाती है। अतः हम कह सकते हैं कि हिन्दी फिल्मों ने हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में काफी योगदान दिया है। 

भारत की सर्वप्रथम सवाक फिल्म 'आलमआरा' थी, जिसे सन्‌ 1931 में आर्देशिर ईरानी ने बनाया था। यह फिल्म हिन्दी में बनी थी। कहते गर्व होगा कि प्रथम भारतीय सवाक फिल्म हिन्दी में थी। अब हम यह तो आर्देशिर ईरानी से पूछने से रहे कि उन्होंने अपनी प्रथम फिल्म हिन्दी में क्यों बनाई? अगर यह पूछना संभव भी होता तो ईरानीजी निश्चित रूप से यह कहते कि 'कैसे मूर्ख हो? अरे! हिन्दी तो हिन्दुस्तान की भाषा है। यह तो जन-जन की भाषा है। मुझे अपनी फिल्म देश की 21 करोड़ आबादी तक पहुँचाना है।'

खैर, आज हिन्दी फिल्में जितनी लोकप्रिय हैं शायद ही किसी अन्य भाषा की फिल्में होंगी। विश्व में बनने वाली हर चौथी फिल्म हिन्दी होती है। भारत में निर्मित होने वाली 60 प्रतिशत फिल्में हिन्दी भाषा में बनती हैं और वे ही सबसे अधिक चलन में होती हैं, वे ही सर्वाधिक लोकप्रिय हैं, वे ही सर्वाधिक बिकाऊ हैं।

ऐसा नहीं है कि क्षेत्रीय भाषा की फिल्में चलती ही नहीं हैं। लेकिन असमी फिल्म असम में, तेलुगु फिल्म आंध्र में ही लोकप्रिय होती हैं। इसके विपरीत हिन्दी फिल्म सारे भारत में चलती है। जिस उत्साह से वह उत्तरी भारत में दिखाई जाती है उसी उत्साह से दक्षिण भारत में भी दिखाई जाती है। इसका एक कारण यह भी है कि हिन्दी हमारी संपर्क भाषा है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिन्दी लिखने, पढ़ने, बोलने वाले मिल जाएँगे।

इसी प्रकार हिन्दी फिल्मों के दर्शक और प्रशंसक भी आपको पूरे देश में मिल जाएँगे। अनेकता में एकता का जीवंत उदाहरण भारतीय फिल्मोंके अतिरिक्त दूसरा हो ही नहीं सकता। 

कुछ सीमा तक दक्षिण में हिन्दी का विरोध है, लेकिन हिन्दी फिल्में लोकप्रिय हैं। खासकर तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध किया जाता है, लेकिन इसी तमिलनाडु के तीन शहरों मदुरै, चेन्नाई और कोयंबटूर में हिन्दी फिल्म 'शोले' ने स्वर्ण जयंती मनाई थी! 'शोले' के अलावा 'हम आपके हैं कौन', 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे', 'बॉर्डर', 'दिल तो पागल है' भी पूरे देश में सफल रहीं। 'गदर' और 'लगान' जैसी कितनी ही फिल्में आई हैं जिन्होंने पूरे देश में सफलता के झंडे गाड़ दिए।

हिन्दी फिल्मों में अहिन्दी भाषी कलाकारों के योगदान के कारण भी हिन्दी को अहिन्दी भाषी प्रांतों में हमेशा बढ़ावा मिला है। सुब्बालक्ष्मी, बालसुब्रह्मण्यम, पद्मिनी, वैजयंती माला, रेखा, श्रीदेवी, हेमामालिनी, कमल हासन, चिरंजीवी, ए.आर. रहमान, रजनीकांत आदि प्रमुख सितारे हिन्दी में भी लोकप्रिय हैं। बंगाल की कई हस्तियाँ हिन्दी सिनेमा की महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रही हैं।

मसलन मन्ना डे, पंकज मलिक, हेमंत कुमार, सत्यजीत रे (शतरंज के खिलाड़ी), आर.सी. बोराल, बिमल रॉय, शर्मिला टैगोर, उत्त कुमार आदि। प्रसिद्ध अभिनेता डैनी डेंग्जोग्पा अहिन्दी राज्य सिक्किम से हैं, तो हिन्दी फिल्मों के प्रसिद्ध संगीतकार सचिन देवबर्मन तथा राहुल देव बर्मन मणिपुर के राजघराने से संबंधित थे।

इसी प्रकार हिन्दी फिल्मों के लोकप्रिय कलाकार जितेंद्र पंजाबी होने के बावजूद दक्षिण में लोकप्रिय हैं। हिन्दी फिल्मों की प्रसिद्ध हस्तियाँ स्व. पृथ्वीराज कपूर एवं उनका समस्त खानदान, दारासिंह, धर्मेन्द्र आदि पंजाब से हैं। इस प्रकार के और भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। 

हिन्दी फिल्में देश के साथ-साथ विदेशों में भी लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी हैं। इस प्रकार इन फिल्मों ने देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी हिन्दी को प्रोत्साहित किया है। राजकपूर की 'आवारा' और 'श्री 420' ने रूस में लोकप्रियता के झंडे गाड़ दिए थे। अमिताभ बच्चन, माधुरी दीक्षित, लता मंगेशकर एवं हिन्दी फिल्मों के अन्य कई कलाकार सारी दुनिया के बड़े-बड़े शहरों में अपने रंगमंचीय प्रदर्शन सफलतापूर्वक कर चुके हैं। आज भी ऑल इंडिया रेडियो के उर्दू कार्यक्रमों के फर्माइशकर्ता 90 प्रतिशत पाकिस्तानी श्रोता होते हैं। भारतीय फिल्में और गीत वहाँ सर्वाधिक प्रिय हैं। 

सिर्फ भारत के ही कलाकार विदेशों में लोकप्रिय नहीं, बल्कि कई विदेशी कलाकार हिन्दी फिल्मों की वजह से लोकप्रिय हो गए हैं। मेहँदी हसन व गुलाम अली (दोनों पाकिस्तानी गजल गायक) के हिन्दी गीत आज भारत में लोकप्रिय हैं। रूना लैला बांग्लादेश से आकर हिन्दी फिल्मों की वजह से लोकप्रिय बनीं, वहीं पाकिस्तानी अदाकारा जेबा को 'हिना' से लोकप्रियता मिली। इन सब तथ्यों से हम कह सकते हैं कि हिन्दी फिल्मों ने हिन्दी को सौ प्रतिशत प्रोत्साहन दिया है।


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