झड़ गए सब पीले पात.


सुषमा कनुप्रिया

चले जाओ, अब यहाँ दोबारा कदम मत रखना....वह गिरते - गिरते बचे...चेहरे पर मायूसी थी...हसरत से उस आलीशान इमारत को देख रहे थे...जिसकी नींव उन्होंने खुद तैयार की थी...उनके लिए यह सिर्फ इमारत नहीं थी...एक तपस्या थी...यहाँ टिके रहने के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दाँव पर लगा दिया था...सब कुछ छोड़ दिया था...घर...परिवार..रिश्ते...नाते....दोस्त...सालों तक अकेले रह गये और वह भी बगैर किसी शिकायत के...यह सिर्फ मकान नहीं था....पूरी जिन्दगी थी उनकी...। अक्सर लोग ताना मारते '....अरे...ये तो अंतिम साँस भी इसी मकान में लेने वाले हैं...दफ्तर थोड़ी न है...घर है इनका....।' ठाकुर साब के लिए यह भी उनका इनाम था...उनको इस उलाहने पर भी नाज होता....वह बड़े नाज से इस मकान को देखा करते थे...यह मकान जो शहर के बीचों - बीच खड़ा था...अब यहाँ सब कुछ बदला जा रहा था...कमरे...दीवारों के रंग...कारपेट और हाँ, लोग भी....ठाकुर साब आज उसी बदलाव की चपेट में थे जिसकी वकालत वे जिन्दगी भर करते रहे।
'अरे....हम तो कहते हैं कि आपको तो पहले ही रिटायर हो जाना चाहिए था...नये बच्चों को मौका दीजिए...लेकिन नहीं....पकड़े रहेंगे...कुर्सी...अरे क्या कुर्सी लिए श्मशान तक जाएंगे..?.' पान चबाते हुए ठाकुर साब के मुँह से जब भी ये उद्गार फूटते...लोग समझ जाते...कि दफ्तर के पेड़ से आज फिर कोई पुराना पत्ता झड़ने वाला है....ठाकुर साब को पुरानी चीजें पसन्द नहीं थीं...उम्र तो 55 की थी मगर हाव - भाव और बालों के रंग तक भी इस कदर सहेजते रहे कि उमर 35 को पार न कर सके। जिसने भी गलती से एक बार भी बुढ़ापे का एहसास कराया....समझ लीजिए कि वह ठाकुर साब के राडार पर आ गया....वह झल्लाकर पहले तो किसी बहाने बेचारे की मिट्टी पलीद कर देते.....और फिर कहते....'ठाकुर कभी बूढ़े नहीं होते....समझ लीजिए, हम आज भी रोज 500 दंड बैठक कर सकते हैं...दिल से जवान हैं हम...।' इसके बाद उनका पूरा सप्ताह अपनी तोंद को छुपाने के लिए पेट सीधे करने में बीतता.....कुछ दिन तक तो टी -शर्ट और जीन्स छोड़कर कुछ और पहनते तक नहीं थे...जीन्स और वह भी लो वेस्ट...आखिर एक दिन सेठ जी ने टोक दिया....ठाकुर साब प्रोफेशनल नहीं लगता....बस उस दिन से उन्होंने प्रोफेशनल बनने की तैयारी भी कर ली थी।
पूरे दफ्तर पर उनका राज था....सेठ जी भी बगैर उनकी परमिशन के कोई कदम नहीं उठाते थे...सब जानते थे कि सेठ जी तक पहुँचना हो तो ठाकुर साब को खुश रखो...और इसके लिए वे किसी भी हद तक जाकर उनको खुश रखते...दफ्तर में रिटायरमेंट के करीब आ पहुँचे... चौधरी जी की उम्र भले ही 70 पार हो मगर वे ठाकुर साब को भइया कहकर ही पुकारते और पुकारते समय आवाज में इतनी चीनी घोल देते कि सामने वाले को डायबिटिज होने का खतरा था। चौधरी जी के बाल धूप में सफेद नहीं हुए थे...वे हवा का रुख देखकर बात करते...जिस कर्मचारी को ठाकुर साब पसन्द करते...चौधरी जी भी उसे तेल लगाने का कोई मौका नहीं छोड़ते और जिस कर्मचारी के बारे में भनक लग जाती कि वह ठाकुर साब के निशाने पर है.....उसकी खोट एक - एक करके चींटियों की तरह बताते कि चीटियाँ भी सोच में पड़ जातीं....जाहिर सी बात है कि चौधरी जी और ठाकुर साब की अच्छी बनने लगी थी....बात ऐसी नहीं थी कि चौधरी जी को ठाकुर साब से प्रेम था....बल्कि वह भी जान रहे थे कि वह भी सूखों पत्तों की तरह हो गए हैं...और ठाकुर साब उनके लिए मजबूत तना भर थे...।
कुल मिलाकर पूरा दफ्तर भारतीय लोकतंत्र पार्टी में तब्दील हो चुका था और ठाकुर साब यहाँ के प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष, दोनों थे...सेठ जी की भूमिका राष्ट्रपति भर की तरह ही थी...जो अनुशंसा न आने तक न तो कुछ देखते थे, न सुनते थे....मगर कभी - कभार लगता कि बोलना जरूरी है तो अपने अस्तित्व का एहसास दिलाने के लिए बोला करते थे। सेठ जी देखते और सुनते भी उतना ही थे...जितना ठाकुर साब दिखाया करते थे...सेठ जी को ताकत, सत्ता और लोकप्रियता, तीनों की जरूरत थी और ठाकुर साब उनके लिए वह चाबी थे...जो इन तीनों का ताला खोल सकते थे...।
नतीजा यह हुआ कि दफ्तर में बस वही लोग रह गये जो कि दुम हिला भर सकते या फिर गाँधी जी के तीन बन्दरों की तरह तमाशा देखते...विरोध और प्रतिरोध करना तो दफ्तर की संस्कृति से खत्म ही हो गया था...अब तो दफ्तर की सीढ़ियों पर चढ़ने के लिए ठाकुर साब की इजाजत चाहिए थी...। एक बार झड़ा हुआ पत्ता गलती से राह भटककर दफ्तर रूपी पेड़ में झडने की कगार पर पहुँचा और ठाकुर साब ने उसे पटककर गिरवा दिया....तब से किसी पत्ते की हिम्मत न हुई कि वह मुँह भी खोले। बाहर का मौसम भले ही कुदरत तय करती हो मगर अन्दर का तापमान तो ठाकुर साब का मिजाज ही तय करता था। ठाकुर साब अपनी इस प्रतिभा को जानते थे और उनका ख्वाब इस देश का प्रधानमंत्री भर था...राजनीति में औपचारिक तौर पर उनकी इन्ट्री भले न हुई हो मगर ये काम तो वे पिछले 30 साल से करते ही आ रहे थे।
दफ्तर में उनकी नियुक्ति हुई तो लिपिक के तौर पर थी...मगर सीखने की क्षमता और मेहनत के साथ...तिल का ताड़ बनाने की कला उनको दफ्तर में शिखर पर लायी थी...उनको देखकर उनके वरिष्ठ और वयोवृद्ध सहयोगी कुढ़ते...कई तो पीठ -पीछे गालियाँ भी देते मगर ठाकुर साब के सामने जाने पर ऐसे रंग बदलते कि गिरगिट भी शर्मा जाए...ठाकुर साब की एक खासियत थी कि जिस पर दिल आ जाए...उस पर जान छिड़कते...उसके लिए पलक - पाँवड़े बिछाया करते...उसका सामान ढोया करते मगर तभी तक जब तक कि वह शख्स उनकी जी हुजूरी करता रहे...उनका स्नेह और प्रेम तभी तक सलामत रहता जब तक उनकी कुर्सी को कोई खतरा न हो...।
ठाकुर साब के जमाने से ही महिलाओं की नियुक्ति दफ्तर में होने लगी थी....अगर आपको लगता है कि ठाकुर साब महिलाओं को सशक्त बनाने में विश्वास रखते थे...तो असल कारण भी जान लीजिए..कारण यह था कि महिलाएं वेतन को लेकर ज्यादा....तोल - मोल नहीं करती थीं....दूसरे जबान नहीं खोलती थीं...खोलती भी तो इसलिए चाय - पानी पूछने....या किसी सफर से ठाकुर साब की पसन्द की कोई चीज या लंच परोसने के लिए। दफ्तर खूबसूरत चेहरों से भरा रहता था और बाहर से आने वाले लोग ठाकुर साब को महिला सशक्तीकरण का पुरोधा मान बैठते...। एक - दो बार इन्टरव्यू भी दे चुके थे और महिलाओं की नियुक्ति के पीछे उनकी वफादारी और निष्ठा के कसीदे काढ़ चुके थे। अब ये अलग बात है कि किसी पत्रकार ने ये नहीं पूछा कि दफ्तर में अनुभवी लोग क्यों काम नहीं करते.....6 महीने में ही उनके विभाग के दर्जन भर कर्मचारियों ने उनका साथ क्यों छोड़ दिया था, छोड़ते जा रहे थे।
तो हम बता रहे थे कि महिला कर्मी कान की कच्ची थीं..हर सुबह नियमित तौर पर पूरे विभाग के कर्मियों का रोजनामचा रखतीं....शिकायतें करतीं....और विशेष होने का तमगाा प्राप्त कर लेतीं। हालांकि यह पद भी अवधि विशेष के लिए था और कई महिलाएं इस पद की शोभा बढ़ाने के बाद दाल में मक्खी की तरह फेंकी जा चुकी थीं मगर कोई खास असर अब तक नहीं पड़ा था। ठाकुर साब की गालियों को मिश्री समझकर पचा लिया करती थीं। लड़कों के साथ ऐसा कुछ मुमकिन नहीं था...वे समझदार थे...और उनकी सियासत का हिस्सा नहीं बने थे...गए भी साथ गए और साथ काम करते भी रहे मगर लड़कियों के मामले में ठाकुर साब को सफलता हासिल थी....कुछ सनकी लड़कियों ने चीजों को बदलने की कोशिश की...कई साल उनको धता बताकर टिकी रहीं पर अन्ततः उनको भी जाना पड़ा।
दफ्तर में कभी कर्मियों के हित के लिए सोसायटी हुआ करती थी मगर निजी स्वार्थों में वह भी खत्म हो गयी थी। नतीजा यह था कि कर्मियों के हक के लिए लड़ने वाला अंतिम सहारा भी खत्म हो गया था। एक बार छंटनी हुई थी तो दफ्तर में नारे लगे थे....ठाकुर साब भी जाते....और घड़ी पर नजर रखते....जैसे ही सेठ जी के आने का समय होता....चुपके से अपनी कुर्सी पर बैठ जाते और काली पट्टियाँ ड्रॉअर में चली जातीं। उन्होंने बाकायदा दूसरे कर्मियों को निकलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी और विश्वस्त बनते चले गये।
दफ्तर में विभाग के अन्य लोग सब कुछ देखते और खामोश रहते...सहानुभूति के नाम पर समझौते की सलाह देते....ठंडी सांस भरते और शायद अपनी बारी आने का इन्तजार करते रहे। वफादारी और गुलामी के बीच जो रेखा है....वह बहुत महीन है.... कई बार लोग गुलामी को वफादारी समझकर अपना विवेक, आत्मा सब गिरवी रख देते हैं...पलायन और हीनता है...दफ्तर में दशकों से यह चला आ रहा है। सबका दम घुटता था मगर कोई आवाज नहीं उठती थी....एक बार वरिष्ठ मुनीम को भी धक्के देकर निकाला गया था और तब भी सब चुप रहे थे....कहते हैं कि कम्पनी को खड़ा करने में उन मुनीम जी की बड़ी भूमिका रही थी....उन्होंने कातरता से अपने उन सभी साथियों को देखा था कि कोई उनके लिए खड़ा हो....पर सभी पत्थर बने रहे। ऐसे बहुत से कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया गया था जो गलती से भी किसी और कम्पनी के दफ्तर में देख लिए गए। यहाँ तक कि अपने पुराने साथियों से मिलने की इजाजत भी नहीं थी...।
दफ्तर के बाहर किसी को बोलने की आजादी नहीं थी..। हुआ यह था कि...अपनी पूरी जिन्दगी एक कम्पनी को देने वाले एक वयोवृद्ध मुनीम जी......अपनी पुरानी टेक पर, आत्मसम्मान की जिद पर अड़े रहते थे...जाहिर था कि ठाकुर साब उनको फूटी आँख से भी देखना पसन्द न करते थे....बहाने की तलाश में थे...। इन पुराने मुनीम साब के अधीन काम करने वाला कर्मचारी भी प्रमोशन की राह देख रहा था तो एक दूसरी कम्पनी में काम कर रहे एक दूसरे कर्मचारी की नजर इस पद पर थी....दोनों के हित मिल रहे थे और राह का काँटा भी एक था...बस, मौका भी मिल गया.....।
उस बुजर्ग मुनीम की दिल से इज्जत करने वाला एक शख्स दूसरी कम्पनी में था....उसने एक रिपोर्टर से बात की और इन पर पूरा आलेख एक राष्ट्रीय पत्रिका में छपवा दिया...होता तो यह कि कम्पनी...उन बुजुर्ग के योगदान को सराहती जिनकी वजह से इनकी कम्पनी को पहचान गए थे....दूर - दूर से बधाइयाँ आ रही थीं....मगर उलटबाँसी बोलकर कोई चीज होती है.....ठाकुर साब समेत कई कर्मियों को यह तरक्की रास न आई। इन सबने सेठ जी को यह समझा दिया कि इस लेख में मुनीम ने अपनी जय जयकार करवा दी है और दूसरी कम्पनी से मिले हैं.....नतीजा यह हुआ कि बुर्जुग मुनीम जी को ठाकुर साब समेत अन्य कर्मियों की मेहरबानी से उस मकान से बाहर किया गया....जिसकी बुनियाद गढ़ने में उनकी पूरी मेहनत थी.....और पाठकों.....जैसा कि हमने बताया....यहाँ मौन व्रतधारी थे....जिनमें न तो आत्मा बची थी और न ही रीढ़ की हड्डी....वे अब भी तमाशा देखते रहे......किसी ने आवाज न उठायी....सबको अपनी नौकरी बचानी थी.....वे बुजुर्ग नम आँखों में दिल में आह लिए.....चले गए.....बस....कई बार पुरानी तस्वीरों को देखकर दिल भर लेते थे।
10 साल बाद.....वक्त भी पलटता है
मकान बदलता है तो वक्त भी बदलता है...इस कम्पनी का प्रबन्धन भी बदला...पुराने तरीके काम न आए....ठाकुर साब को खड़ा करने वाले लोग....उनके लिए आँसू बहाने वाले लोग कब के उनकी जिन्दगी से जा चुके हैं.....आज बदलाव की आँधी में ठाकुर साब खुद सूखे पत्ते की तरह झड़ चुके हैं....सेठ जी की नयी पीढ़ी ने कम्पनी के साथ मकान भी बेच दिया है और ठाकुर साब को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया....उमर हो चुकी है....ठीक से चला भी नहीं जाता.....। कहते हैं कि ईश्वर के घर में देर है, अन्धेर नहीं है....उसकी लाठी में आवाज नहीं होती....पर वह न्याय जरूर करता है।
जिस मकान में ठाकुर साब की मर्जी के बगैर एक पत्ता तक न हिलता था...आज उसी मकान से उनको धक्के देकर निकाला गया है। उन्होंने जब सुरक्षाकर्मी को नसीहत दी कि वह बुजुर्गों का लिहाज करना सीखे.....उनकी कहानियाँ सुन चुके उस कर्मी ने पलटकर कह दिया.....आपने सीखा था....? .इतनों की हाय ली है....जब बोया पेड़ बबूल का........ठाकुर साब के सारे हथियार खत्म हो चुके हैं....शरीर भला किसका हमेशा जवान रहा है.....ठाकुर साब अशक्त हो चुके हैं....रोज आते हैं.....उस मकान को देखते हैं.....जो कभी उनका था....जो उनकी जिन्दगी हुआ करता था....अब जब अकेले होते हैं...कलेजे में हूक सी उठती है, आवाज आती है. वह सब चेहरे दिखते हैं जिनको वह सूखा पीला पत्ता बताकर बाहर करते आ रहे हैं। आईने के सामने ठाकुर साब खुद को एक पीले पत्ते में तब्दील होते देखते हैं...घबराकर खुद को देखते हैं..वही हैं...सब तो ठीक है..मगर आईने के सामने ऐसा लग रहा है कि वह वह पत्ता बन चुके हैं....पीला पत्ता....सूखा पत्ता। आवाज आती है....बोया पेड़ बबूल का....तो आम कहाँ से होय।

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