हिन्दी और सिनेमा : किसी काम की नहीं...हट जाने दें ये दूरियाँ



साहित्य औऱ अभिव्यक्ति के अन्य कई क्षेत्रों का एक बेहद अनूठा सम्बन्ध रहा है। खासकर हिन्दी साहित्य का सम्बन्ध पत्रकारिता से तो बहुत ही गहरा है। कहने की जरूरत नहीं है कि हिन्दी पत्रकारिता का आरम्भिक काल साहित्य को साथ लेकर चला है। भारतेन्दु जितने सफल लेखक हैं, उतने ही अच्छे पत्रकार भी हैं। उन्होंने 'बाल विबोधिनी' पत्रिका, 'हरिश्चंद्र पत्रिका' और 'कविवचन सुधा' पत्रिकाओं का संपादन किया। इस कड़ी में बाल मुकुन्द गुप्त, उपेन्द्र नाथ 'अश्क' अज्ञेय समेत अनगिनत साहित्यकारों का नाम आता है।
कहने की जरूरत नहीं है कि हिन्दी साहित्य जब तक पत्रकारिता के साथ रहा, तब तक दोनों का ही स्वर्णिम काल रहा मगर हिन्दी की समस्या यह है कि इसे शुद्धतावादियों ने ऐसी अभिजात्यता से लाद दिया है कि हिन्दी का हाथ धीरे - धीरे सबसे छूटता गया। हिन्दी के बौद्धिक दिग्गजों ने इसकी सरलता को अपने अहंकार से काट डाला और हालत यह है कि असुरक्षा के बोध से लदे हिन्दी के साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवियों के अहंकार ने हिन्दी को उपेक्षित और अकेला कर दिया है। 
पत्रकारिता जैसी ही स्थिति हिन्दी सिनेमा और साहित्य की है मगर दिक्कत यह है कि पत्रकारिता के मसले पर गर्व के साथ हिन्दी साहित्य को जोड़ लिया जाता है मगर बात सिनेमा की हो तो उसे 'सस्ता' और 'बाजारू' जैसे विशेषण दिये जाते हैं और इस चक्कर में सिनेमा जैसे शानदार क्राफ्ट का तिरस्कार किया जाता है, किया जाता रहा है जबकि सिनेमा एक श्रमसाध्य और सामूहिक कार्य है। सिनेमा ने हमेशा से साहित्य का दामन थामा है मगर हिन्दी वालों की अभिजात्यता ने उसका हाथ झटका है।
अब जरा कड़वी बात की जाए..तो हिन्दी को सिनेमा का ग्लैमर पसन्द है, उसके जरिए प्रचार भी पसन्द है मगर उसे अपनाना पसन्द नहीं है जबकि सिनेमा ने अक्सर हिन्दी साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों को अपनाया है। समझने की जरूरत है कि हर क्राफ्ट का अपना एक गणित है...अपनी जरूरतें हैं और वह एक उद्योग है....साहित्य या पटकथा उसका आधार अवश्य है मगर उसके बाद एक लम्बी प्रक्रिया है..जिसे साहित्य समझ नहीं पाता या समझना नहीं चाहता। लेखक का काम एक किताब के प्रकाशन के बाद पूरा हो जाता है और प्रचार के नाम कुछ संगोष्ठियाँ मगर सिनेमा का काम इतने भर से नहीं चलता...। उद्योग तो साहित्य भी है मगर वे स्वीकार नहीं करना चाहते क्योंकि प्रचार का काम तो सम्बन्धों और मंचों से चल ही जाता है...। इस बात का दुःख है कि किताबें बिकती नहीं हैं मगर किताब के प्रचार पर धेला खर्च करने की जरूरत नहीं समझी जाती और इसके लिए प्रकाशक को भी दोष देकर लाभ नहीं है क्योंकि लेखक का काम अधिकतर मामलों में पांडुलिपि सौंपने औऱ इसके बाद रॉयल्टी की आस में दिन गिनना रह जाता है। अपने करीबियों और उच्च अधिकारियों, संस्थाओं और संगठनों तक पुस्तक पहुँचाने से हो जाता है...और न भी हो तो किताबों को आम जनता तक ले जाने के अन्य सृजनशील प्रयोग करने की जहमत वे  नहीं उठाते।
आपकी किताबों को सामने लाने का काम सिनेमा करता है..सिनेमा ने हमेशा से साहित्य को अपनाया है। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि किसी फिल्म और धारावाहिक के बाद ही किसी किताब की माँग अचानक बढ़ गयी मगर हिन्दी का परिष्कृत साहित्यिक वर्ग सिनेमा को ऐसी हेय दृष्टि से देखता है कि उसे कलाकार नचनिया  लगते हैं, गीत फूहड़, सस्ते और बाजारू लगते हैं मगर ऐसा क्यों हुआ...यह उनके विचार में नहीं आता। मेरा सीधा सवाल यह है कि क्या आज साहित्य का सिनेमा से सीधा रिश्ता होता और आज सिनेमा में इतनी गन्दगी होती जितनी आज दिख रही है...? साहित्य सबसे अधिक सम्वेदनशील, बड़ा औऱ पुराना है, आधार है इसलिए उसकी जिम्मेदारी सबसे अधिक है। आप तालाब को गन्दा कहकर उसे साफ करने की जिम्मेदारी से नहीं बच सकते मगर अफसोस की बात यह है आज साहित्य सिनेमा में हस्तक्षेप तो नहीं करता बल्कि उसे ताने जरूर मारता है। 
मजेदार बात यह है कि सिनेमा के गीतकारों को तुच्छ ठहराने और उनको साहित्य से अलग मान लेने पर भी साहित्यकार को यह कहने में गर्व ही होता है कि फलाने - फलाने निर्माता, फलानी किताब पर फलानी फिल्म बना रहे हैं...अब ये अजीब सा कॉम्प्लेक्स है...आप कमतर समझते हैं और उस दुनिया में अंश मात्र भी जुड़ जाने पर आपको बहुत अच्छा लगता है।
साहित्य और सिनेमा का रिश्ता गहरा ही नहीं बल्कि बहुत गहरा रहा है। इस बाबत हमें सिनेमा के इतिहास को समझना होगा। सिनेमा और साहित्य दो पृथक विधाएँ हैं लेकिन दोनों का पारस्परिक संबंध बहुत गहरा है। जब कहानी पर आधारित फिल्में बनने की शुरुआत हुई तो इनका आधार साहित्य ही बना। भारत में बनने वाली पहली फीचर फिल्म दादा साहब फाल्के ने बनाई जो भारतेंदु हरिशचंद्र के नाटक 'हरिशचंद्र' पर आधारित थी। गौर कीजिए कि पत्रकारिता के क्षेत्र में भी भारतेतन्दु पूरा युग हैं। जिस प्रकार हिन्दी साहित्य में फंतासी उपन्यासों का दौर रहा, वैसे ही बोलती फिल्मों का शुरुआती दौर पारसी थिएटर की विरासत भर था जहाँ अति नाटकीयता और गीत संगीत बहुत होता था। 
अब बात मुंशी जी की करते हैं। हिंदी साहित्य के सर्वाधिक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने यह सोचकर सिनेमा जगत में प्रवेश किया था कि वहां से होनेवाली आमदनी से उनकी आर्थिक दुश्वारियां खत्म हो जाएंगी, किंतु फिल्म लेखन में जिस प्रकार की पाबंदियां और निर्माताओं का दबाव होता है उसे उनका सजग और सरोकारी लेखकीय व्यक्तित्व स्वीकार नहीं कर सका. 1934 में वे फिल्में बनाने वाली कंपनी अजंता सिने टोन में बतौर लेखक 8 हजार रूपए सालाना वेतन पर नियुक्त हुए थे. उनकी लिखी पहली फिल्म मजदूर थी, जो की मिल मजदूरों की जिंदगी पर आधारित थी. लेकिन इसे सेंसर बोर्ड ने पास नहीं किया. करीब 11 महीने बाद इसी कहानी पर गरीब मजदूर नाम से फिल्म बनी, जिसमें यूनियन लीडर की भूमिका खुद प्रेमचंद ने निभाई थी. यह फिल्म काफी सफल रही. इसके बाद उन्होंने नवजीवन फिल्म की कहानी लिखी। सेवासदन में कहानी को तोड़ने - मोड़ने का पेश करने पर उनको दुःख हुआ और सिनेमा को उन्होंने अलविदा कह दिया। यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि सिनेमा का प्रेमचन्द से मोह भंग नहीं होता है।  वे ऐसे चंद साहित्याकारों में से थे, जिनकी कृतियों पर सर्वाधिक फिल्में बनीं. उनके निधन के दो साल बाद के. सुब्रमण्यम ने  1938 में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी. 1941 में उनके उपन्यास रंगभूमि पर इसी नाम से फिल्म बनी. इसके अलावा गोदान पर 1963 और गबन पर 1966 में फिल्में बनीं. उपन्यासों के अलावा प्रेमचंद की कई कहानियों पर भी फ़िल्में भी बनी हैं.  1941 में उनकी उर्दू कहानी औरत की फितरत पर स्वामी नाम की फिल्म बनी। 1953 में आई बिमल रॉय की दो बीघा जमीन की भी कहानी प्रेमचंद की ही थी. बलराज साहनी और निरूपा राय अभिनित हीरा और मोती भी प्रेमचंद की एक कहानी दो बैल पर आधारित थी. 70 के दशक में सत्यजीत रे ने प्रेमचंद की कहानी शतरंज के खिलाड़ी पर इसी नाम से फिल्म बनाई. सत्यजीत रे ने प्रेमचंद की एक और कहानी सद्गति पर भी 1981 में इसी नाम से फिल्म बनाई थी….  1977 में मृणाल सेन ने उनकी कहानी  कफ़न पर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से तेलुगु में फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगु फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. प्रेमचंद के मशहूर उपन्यास 80 के दशक में उनके उपन्यास निर्मला पर टीवी धारावाहिक का भी निर्माण हुआ जो काफी लोकप्रिय हुआ. नई सदी में गुलजार ने भी प्रेमचंद की कहानियों पर दूरदर्शन के लिए धारावाहिक बनाए। जाहिर है कि दूरी साहित्य ने ही बनायी...
ठीक है कि साहित्य समझौता नहीं कर सकता मगर क्या साहित्य सिनेमा में अपनी जगह नहीं बना सकता? हम गीतकारों और पटकथा लेखकों को साहित्यकार क्यों नहीं मान सकते...किसी कोलाज या नाटक में किसी फिल्म का कोई बढ़िया गीत क्यों नहीं आ सकता। रही बात सस्तेपन की तो जरा रीतिकाल उठाकर देख लीजिए...उपन्यासों में भी रति वर्णन ऐसा मिलता है कि हिन्दी फिल्में भी शरमा जाएँ और आप कहते हैं कि अलग हैं हम...विद्यापति के कई पद ऐसे भी थे जिनको भरी कक्षा में पढ़ाने में शिक्षकों को भी शर्म आ जाती है। फिल्मी गीतों में अपशब्द बर्दाश्त नहीं हैं मगर धूमिल की कविता में वह क्लासिक बन जाता है। किसी फिल्म में गालियाँ हों तो बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा और काशी का अस्सी में गालियाँ हों तो....अरे, वह तो प्रामाणिकता को बढ़ाता है...और बच्चों के लिए...उनके हिस्से में तो आपने कुछ रखा ही नहीं। तो बात सिनेमा की हो रही है। 
अच्छा साहित्य को लेकर जो फिल्में बनतीं हैं या बनीं हैं, आपने उसके प्रचार के लिए कुछ किया...नहीं किया क्योंकि किया होता तो अच्छी साहित्यिक फिल्में पिटतीं नहीं। आखिर फिल्मकारों को क्यों हार मान लेनी पड़ती है? सीधा कारण है कि साहित्यकारों ने कोई रुचि ही नहीं दिखायी और न ही फिल्मकार की विवशता को समझा है। 
   'तीसरी कसम' को भले ही श्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। लेकिन, ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह असफल हुई थी, जिसके कर्ज के बोझ तले निर्माता शैलेंद्र की तनाव में मौत हो गई! कई प्रशंसित कहानियाँ लिख चुके कहानीकार राजेंद्र सिंह बेदी की किताब 'एक चादर मैली सी' पर भी जब फिल्म बनी तो उसे दर्शकों ने नकार दिया। चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' पर बनी फिल्म भी नहीं चली! वहीं चित्रलेखा आज भी क्लासिक फिल्म मानी जाती है। जब भी फिल्म औऱ साहित्य के बीच समझ बनी है. उसके परिणाम हमेशा अच्छे रहे हैं। ! बासु चटर्जी बांग्ला भाषी थे लेकिन उन्होंने राजेंद्र यादव के उपन्यास 'सारा आकाश' पर फिल्म बनाई जो नहीं चली! लेकिन, मन्नू भंडारी की कहानी 'यही सच' पर 'रजनीगंधा' बनाई तो वह सफल हुई। हिंदी साहित्यकारों का फिल्मों में असर 70 के दशक में ही ज्यादा नजर आया। इस दौर को लाने का श्रेय कथाकार कमलेश्वर को दिया जाना चाहिए। उपेंद्रनाथ अश्क और अमृतलाल नागर के बाद कमलेश्वर ही वह साहित्यकार थे, जिन्होंने सिनेमा की भाषा और दर्शकों की मानसिकता को समझा। बड़े टेलीविजन सीरियल के बाद वे फिल्मों में भी लंबे समय तक टिके रहे। गुलजार ने कमलेश्वर की कथा पर जब 'आंधी' और 'मौसम' बनाई तो देखने वालों का ट्रेंड ही बदल गया। इसके लिए गुलजार भी जिन्हें श्रेय दिया जा सकता है। उन्होंने कहानी की संवेदना को गहराई से समझा और दोनों फिल्मों की पटकथा, संवाद और गीत खुद ही लिखे। । हिंदी साहित्यकारों का फिल्मों में असर 70 के दशक में ही ज्यादा नजर आया। इस दौर को लाने का श्रेय कथाकार कमलेश्वर को दिया जाना चाहिए। उपेंद्रनाथ अश्क और अमृतलाल नागर के बाद कमलेश्वर ही वह साहित्यकार थे, जिन्होंने सिनेमा की भाषा और दर्शकों की मानसिकता को समझा। बड़े टेलीविजन सीरियल के बाद वे फिल्मों में भी लंबे समय तक टिके रहे। 


 प्रेमचन्द की कहानी पर सत्यजीत राय ने शतरंज की खिलाड़ी बनायी थी औऱ वह आज भी बेहतरीन और सफल फिल्म के रूप में याद की जाती है। गिरीश कर्नाड एक अच्छे अभिनेता व निर्देशक रहे और कन्नड़ में बतौर साहित्यकार भी उनको पूरा सम्मान मिला मगर हिन्दी वालों ने सिनेमा से जुड़े साहित्यकारों को कभी नहीं अपनाया। कुछ साल पहले अमृता प्रीतम के उपन्यास पिंजर पर फिल्म बनी थी, इसके बाद हाल ही में पंचलैट आई और अच्छी बात यह रही है कि इसे साहित्य जगत ने अपनाया..मगर इसमें तेजी लाने की जरूरत है। 
वरिष्ठ पत्रकार जयराम शुक्ल लिखते हैं 'सिनेमा जितना उदार रहा साहित्य उतना ही आत्मकेंद्रित। सिनेमा ने सबके लिए बाँहें फैलाकर रखीं जबकि साहित्य ने महबूब,के.आसिफ,कमाल अमरोही और यहां तक कि गुरुदत्त जैसे महान फिल्मकारों की ऐसी इज्ज़त नहीं बख्सी जैसा कि सिनेमा ने खुद को दाँव पर लगाकर साहित्यकारों को सिर माथे पर लिया। चौकसे जी सिनेमा और साहित्य के गठबंधन हैं।उनका व्याख्यान सिनेमा को न सिर्फ साहित्यिक अपितु आध्यात्मिक और दार्शनिक नजरिए से समझने का नजरिया देता है।' 
अगर किसी प्रस्तुति को किसी गीत से मजबूती मिलती है तो उसका स्वागत होना ही चाहिए...आप जिस दुनिया को कोसते हैं, उसकी तमाम विशेषताएँ समाहित हैं...साहित्य से प्रेम करने वालों की रिंगटोन पर 'मुन्नी बदनाम हुई' जैसे गीत मिलते हैं। हमारा मानना है कि हिन्दी अगर सही मायनों में आम आदमी तक जाना चाहती है तो उसे आम आदमी की पसन्द, उसके चयन को समझना होगा, उस विधा को अपनाना होगा, अन्य माध्यमों को आत्मसात करना होगा। खुले हृदय से हर क्षेत्र को सम्मान देकर उसे दूसरे माध्यमों को अपनाना चाहिए, तभी हिन्दी का अधिकार होगा कि वह अन्य विधाओं से कुछ कह सके, सिनेमा से भी।
इनपुट - बात - बेबात,  हिन्दी समय में इकबाल रिजवी का आलेख व इंटरनेट पर अन्य सामग्री

script data-ad-client="ca-pub-1861745940350381" async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जमाना थाली के बैंगन का है

दिल्ली का वह सफर जिसने अपनी सीमाओं को तोड़ना सिखाया

गंगा की लहरें, मायूस चेहरे. विकास की बाट जोहते काकद्वीप से मुलाकात