पत्रकारिता जगत में एक दशक तो हो गया, जब आयी थी तो हिन्दी अखबारों में महिलाएं देखने को नहीं मिलती थीं और आज हैं तो होकर भी जैसे नहीं हैं। अखबारों में जिस तरह से खबरों में उनको किसी मसालेदार सब्जी की तरह परोसा जाता है, उसे देखकर कोफ्त होती है। सच तो यह है कि भारतीय हिन्दी अखबार अभी तक पत्रकारिता क्षेत्र में महिलाओं की मौजूदगी को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। खासकर आपराधिक खबरों में तो या उनको अपराधी की तरह या फिर वस्तु की तरह पेश किया जा रहा है और कहीं कोई  प्रतिरोध नहीं है। कदम पर महिला पत्रकारों के मनोबल को तोड़ने का प्रयास चलता रहता है। वे मनोरंजन और जीवनशैली से लेकर शिक्षा स्तर और राजनीतिक स्तर पर कवरेज कर सकती हैं मगर निर्णय में उनकी भागीदारी हो सकती है, यह बात कोई समझने को तैयार नहीं है और तब तक यह बात नहीं समझी जाएगी जब तक महिलाएं उनको समझने पर मजबूर न कर दें।

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