आखिरकार धमाकों और गोलियों के बीच निगम का चुनाव खत्म हुआ, अब नतीजों का इंतजार है मगर कल जो नजारा था, उसे लोकतंत्र के अनुकूल तो नहीं कहा जा सकता। लोकसभा चुनावों में जो उत्साह था और लगता तो ऐसा ही है कि बंगाल में चुनाव औपचारिकता मात्र ही हैं क्योंकि स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा जैसा शब्द राजनीति में अब प्रासंगिक नहीं रहा, एक ही टीम बैटिंग भी करती है, गेंदबाजी भी करती है, कैच भी पकड़ती है और फिर चोरी का रोना भी रोती है। इस टीम को विरोधी नही, लगता है कि उसके खिलाड़ी ही मात देंगे। एक साल में काफी कुछ बदल गया। बहरहाल जिंदगी ने मानों नया मोड़ लिया है और खुद से जूझने के बाद आखिरकार मैं कह सकती हूँ जो होता है, अच्छा होता है, काश यह बात हमारे राज्यवासियों पर और देश पर भी लागू हो पाती, पता नहीं अच्छे दिन कहाँ थम गये,
जमाना थाली के बैंगन का है
बंगाल में चुनाव होने जा रहे हैं और दल - बदल का चलन अपने चरम पर है। किसी भी शासन से मुक्ति की चाह रखने वाले के लिए दल बदलने वाला नेता रातों -रात नायक और बेचारा, दोनों बन जाता है...सक्रिय पत्रकारिता में रहते हुए हम पत्रकार सब कुछ देखते हैं...मन ही मन हँसते हैं और ऐसा दिखाते हैं कि हमें कुछ फर्क ही नहीं पड़ा। फर्क तो पड़ता है...किसी नेता के पार्टी बदल लेने से बहुत फर्क पड़ता है। अब सवाल यह है कि दल -बदल होता क्यों है...अगर पुरानी पार्टी के समर्थकों की नजर से देखा जाये तो यह अवसरवादिता है...नेता ने पार्टी छोड़ी नहीं कि उसे घेरने की तैयारी होती है, उसे खत्म करने के लिए साजिशें की जाती हैं..मगर पार्टी हो या संस्थान, कोई भी ऐसे ही नहीं छोड़ता बल्कि कई बार उससे छुड़वा दिया जाता है...हम राजनीति को गालियाँ देते जरूर हैं मगर देखा जाये तो दल - बदल या यूँ कहें कि पाला बदल हर जगह है...अब इनको 'बेपेंदी का लोटा' कहिए या 'थाली के बैंगन'...ये किसी न किसी रूप में हर जगह हैं। थाली के बैंगन का चमत्कार कहिए या कुछ और...उसके पीछे सब बैंगन बन जाते हैं...एक के पीछे दूसरा बैंगन...और रसोई खत्म...
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