पुस्तक मेले का बदलता चेहरा

जब भी कोई हिन्दी पाठक पुस्तक मेले में जाता है तो उसके लिए पहली चुनौती तो हिन्दी के स्टॉल खोजना है। हिन्दी के चुनिंदा स्टॉल आनंद प्रकाशन,ज्ञानपीठ, राजकमल, जैसे नामों को छोड़ दिया जाए तो हिन्दी प्रकाशकों की रुचि पुस्तक मेले में दिख नहीं रही है। समस्या यह है कि हिन्दी तो साहित्य तक सिमटती जा रही है तो साहित्य में रुचि नहीं रखने वाले पाठकों के लिए लेखकों के पास कुछ खास नहीं रहता और है भी तो पाठकों तक वह पहुँच नहीं रहा। ऐसा नहीं है कि हिन्दी में पाठक नहीं है, पाठक जरूर हैं मगर ऊंची कीमतों पर किसी बड़े साहित्यकार की रचना को खरीदने और सजाने की उसकी स्थिति नहीं है। वह चाहे तो हजार रुपए का संकलन नहीं खरीद सकता और ये पुस्तकें पुस्तकालयों की शोभा बनकर रह जाती हैं। वैसे कड़वी सच्चाई यह है कि बंगाल की पुस्तक प्रेम वाली मानसिकता हिंदी की आम जनता नहीं है या इसे लेखकों की विफलता माना जाए कि वे सरल और रोचक शैली में गंभीर बात नहीं कह पा रहे हैं। अंग्रेजी का पाठक भी संभ्रांत वर्ग ही है और उसमें से अधिकतर युवा ही हैं। क्या वजह है कि हिन्दी का प्रसार केवल शिक्षण संस्थानों या गोष्ठियों तक सिमट गया है। कहीं यह अति बौद्धिकतावाद तो नहीं हैै जिसकी वजह से लेखकों और पाठकों के बीच दूरी आ गयी है। लेखक अब चौपाल और बाजार तक नहीं जाता, उसके अनुभवों से कहानी बनती तो है मगर जिस आम पाठक के लिए लिख रहा है, वहां तक पहुँच नहीं पा रही। हिन्दी को कार्यालयों या शिक्षण संस्थानों तक सिमटकर नहीं रहना, उसे घर के आंगन और चौपाल का सफर तय करना होगा, पुस्तक मेले में यह बात साफ हो गयी। वहीं इस बार विवेल, एनएसई के स्टॉल देेखकर यही लगा कि पुस्तक मेला कॉरपोरेट शक्ल ले रहा है। मस्ती और फूड कोर्ट के प्रति लगाव अधिक था मतलब समस्या हर भाषा के साहित्य के साथ है तो मुकाबला भी सभी को मिलकर करना होगा। साहित्य का चौपाल और आंगन तक पहुँचना जरूरी है। 

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