हो सकता है कि जो लिखने जा रही हूँ वह
बहुतों को नागवार गुजरे, यह भी कहा जा सकता
है कि कुछ नियम ही ऐसे हैं मगर नियम जब आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने लगे, तब ऐसा ही होता है, कहकर खुद को समझाना बहुत कठिन होता है, कुछ
पेशेवर तकाजा भी है और हो सकता है कि यह दूतावासों से लेकर हवाई अड़्ों की
संस्कृति हो। बात अमेरिकन सेंटर की हो रही है, जहाँ
कई सालों से आना जाना होता रहा है। सुरक्षा के लिए जाँच भी तकाजा है, यह भी स्वीकार कर लिया जाए इसका तरीका बाध्य कर देता है कि यह सोचा जाए
कि क्या हम अपने ही देश में हैं। और हाँ, तो दूसरों के बनाए
नियम हम पर क्यों लागू होंगे। जाँच के नाम पर आपका सामान बिखेरकर तलाशी लेना,
और फिर आपको आपको पानी पीने को बाध्य करना, अनचाहे
ही शक का दायरा खड़ा करता है। सवाल यह है कि विदेशों में तो हमारे पूर्व
राष्ट्रपति से लेकर अभिनेताओं तक को तलाशी के नाम पर अपमान सहना पड़ा है तो फिर मैं क्यों शिकायत कर रही हूँ।
वैसे क्या बराक ओबामा को भी भारत आने पर
तलाशी देनी पड़ी होगी। हद तो तब हो जाती है जब कई बार आपको असमय दवा खाने
को कह दिया जाता है। बात विश्वास की है और जब विश्वास न हो तो ढोंग नहीं करना
चाहिए। एक ओर भारत और अमेरिका के रिश्ते मजबूत करने की दुहाई दी जाती है और दूसरी
ओर तलाशी के नाम पर संदिग्ध बनाया जा रहा है। अपने ही देश में कम से कम इस सम्मान
के हकदार तो हैं कि बुलाया जाए तो विश्वास भी किया जाए। गाँधी ने आंदोलन किया,
नमक कानून तोड़ा, उसके पहले दक्षिण
अफ्रीका में अंग्रेजों के कानून तोड़े, तो उनको यह सब नहीं करना चाहिए था क्यों कि देश पर शासन तो
अंग्रेजों का था, उन्होंने विरोध किया मगर हम वह भी नहीं
करेंगे क्योंकि हम भारतीय हैं और एक भारतीय होने के नाते यह नागवार गुजरा। मुझे लगता है कि जलियावाला बाग हत्याकांड के लिए जनरल डायर के साथ वे भारतीय सिपाही भी जिम्मेदार थे जिन्होंने गोलियाँ चलायीं। सुरक्षा लिए जाँच से आपत्ति नहीं है मगर सुरक्षा की जाँच के नाम पर अपमान पर आपत्ति
जरूर है। बापू को अब दक्षिण अफ्रीका की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि भारत में ही
अमरीका, ब्रिटेन औऱ अफ्रीका, तीनों
आ गये हैं। क्या करूँ, उनके नियम ही ऐसे हैं
जमाना थाली के बैंगन का है
बंगाल में चुनाव होने जा रहे हैं और दल - बदल का चलन अपने चरम पर है। किसी भी शासन से मुक्ति की चाह रखने वाले के लिए दल बदलने वाला नेता रातों -रात नायक और बेचारा, दोनों बन जाता है...सक्रिय पत्रकारिता में रहते हुए हम पत्रकार सब कुछ देखते हैं...मन ही मन हँसते हैं और ऐसा दिखाते हैं कि हमें कुछ फर्क ही नहीं पड़ा। फर्क तो पड़ता है...किसी नेता के पार्टी बदल लेने से बहुत फर्क पड़ता है। अब सवाल यह है कि दल -बदल होता क्यों है...अगर पुरानी पार्टी के समर्थकों की नजर से देखा जाये तो यह अवसरवादिता है...नेता ने पार्टी छोड़ी नहीं कि उसे घेरने की तैयारी होती है, उसे खत्म करने के लिए साजिशें की जाती हैं..मगर पार्टी हो या संस्थान, कोई भी ऐसे ही नहीं छोड़ता बल्कि कई बार उससे छुड़वा दिया जाता है...हम राजनीति को गालियाँ देते जरूर हैं मगर देखा जाये तो दल - बदल या यूँ कहें कि पाला बदल हर जगह है...अब इनको 'बेपेंदी का लोटा' कहिए या 'थाली के बैंगन'...ये किसी न किसी रूप में हर जगह हैं। थाली के बैंगन का चमत्कार कहिए या कुछ और...उसके पीछे सब बैंगन बन जाते हैं...एक के पीछे दूसरा बैंगन...और रसोई खत्म...
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