दीदी, आपके राज्य में हिन्दी माध्यम विद्यालय उपेक्षित बच्चे हैं
प्रधानमन्त्री मोदी की तरह दीदी
भी इन दिनों मूड में हैं....प्रधानमंत्री जी रेडियो पर चौपाल जमाते हैं और दीदी? वह तो जहाँ जा रही हैं, चौपाल
वहीं बैठ जा रही है। कभी डॉक्टरों की, कभी प्रोफेसरों की, कभी प्रिंसिपलों की तो
कभी अधिकारियों के बाद हाल में शोधार्थियों की क्लास लगा दे रही हैं और हर क्लास
का अपना कनेक्शन है। ये ध्यान देने वाली बात है कि दीदी की क्लास में अधिकतर दीदी
बोलती हैं, बाकी लोग सुनते हैं, यदा – कदा बोलते भी हैं तो डरते हुए बोलते हैं।
गलती से एक या दो शब्द भी इधर – उधर हो जाए तो बस वहीं झाड़ पड़ जाएगी..पता नहीं
क्या – क्या सुनना पड़ जाए। दीदी राजनीतिक निष्पक्षता की कायल हैं, शिक्षण
संस्थानों में राजनीतिक भाषण सुनाया जाए उनको गवारा नहीं है मगर उनके हर मन्त्री
के कार्यालय और शिक्षण संस्थानों के यूनियन रूम में दीदी की तस्वीर होनी ही चाहिए।
दीदी कहती हैं कि शिक्षण संस्थानों में किसी राजनेता का राजनीतिक भाषण नहीं सुनाया
जाना चाहिए (वैसे कहा जा रहा है कि शायद वह भाषण मन की बात जैसा कार्यक्रम था) मगर
उनकी रैलियों में जो युवा जाते हैं, उनको कान में रुई लगाकर जानी चाहिए, ये सलाह
नहीं दी गयी। जिस तरह दुनिया गोल है और जहाज को उड़ा पंछी जहाज पर वापस आता है,
उसी तरह दीदी सौहार्द और गुणवत्ता के साथ बांग्ला को विश्व बांग्ला की चाहे जितनी
भी बातें कर लें मगर सब्जी में नमक की तरह मोदी, भाजपा, आरएसएस, माकपा और काँग्रेस
के जिक्र के बगैर फंड का रोना और केन्द्र को कोसना जारी रहता है और वही बच्चे भी
सुनते हैं। कई बार तो कक्षाओं से शिक्षक भी इन रैलियों में नजर आते हैं, तथाकथित
स्वशासित विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलरों से लेकर स्वायत्त कहे जाने वाले राज्य
शिक्षा परिषदों के शीर्ष अधिकारी भी रहते हैं। अब पार्थ बाबू भले ही शिक्षण
संस्थानों को गैर राजनीतिक बनाने की कितनी ही बातें करें मगर ऐसे माहौल में राजनीति
से दूरी कैसे होगी, वही जानें। जिस प्रकार किसी भी शुभ काम की शुरुआत गणेश वन्दना
के साथ होती है, उसी प्रकार उनके मन्त्री, मन्त्री ही नहीं, किसी स्वायत्त शिक्षा
परिषद के नतीजों की घोषणा या फिर किसी विश्वविद्यालय का कोई भी काम दीदी वन्दना के
साथ आरम्भ होता है जबकि उनका कोई राजनीतिक कनेक्शन दूर तक नहीं होता, यह बीमारी पूरे देश में है। ऐसे
में सीधे कहिए न कि आपकी पार्टी का भाषण ही रहेगा, किसी और की नहीं वरना क्या
जरूरत है कि शिक्षामंत्री विश्वविद्यालय में अपनी पार्टी की छात्र यूनियन के साथ
बैठक करें।
दीदी ने निजी स्कूलों के साथ बैठक की जिनमें मध्यम वर्गीय या उच्च
वर्गों या यूँ कहें कि मंत्रियों,अधिकारियों और कारोबारियों के बच्चे पढ़ते हैं,
दीदी को सबकी खबर मिलती रहती है, मतलब ये कि अँग्रेजीदाँ, क्रीमी लेयर जमात इन
स्कूलों में ही तैयार होती है। इन तमाम स्कूलों संरचना और सुविधाओं की कमी नहीं है,
फीस आसमान छू रही है, अभिभावक परेशान हैं, अच्छा किया। आपने क्लास ले ली मगर इनसे
स्कूलों में फीस कहाँ कम हुई या कहाँ तक होगी, यह सोचने वाली बात है। आपने कहा कि आप
चाहती हैं कि बंगाल की प्रतिभा और बढ़े। इसके लिए हमने(सरकार) ने एक सेल्फ
रेगुलेटरी कमिशन गठित करने का फैसला किया है। कमिशन में शिक्षा विभाग, पुलिस व महानगर के शैक्षणिक
संस्थानों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। कमिशन फी ट्रक्चर की निगरानी करेगा। हर जिले
से एक प्रतिनिधि कमिशन में होगा। आपने शिक्षण संस्थानों को अपनी वेबसाइट शुरू करने
का परामर्श देते हुए कहा कि इसके माध्यम से अभिभावक अपनी शिकायतें दर्ज कर सकेंगे।
अब क्या आपको पता नहीं है कि हर सम्पन्न स्कूल अपनी आय का अधिकतर हिस्सा वेबसाइट
पर ही खर्च करते हैं जो उनके प्रचार का महत्वपूर्ण अंग है। आपने फीस नियंत्रित
करने के लिए कमिशन बनाया और इसमें इन स्कूलों के ही लोग हैं, माने अपराधी भी वही
होंगे और फैसला भी वही सुनाएँगे। इस पर उम्मीद यह है कि बदलाव होगा, खुद को धोखा
देना है। आपको अँग्रेजी माध्यम स्कूलों पर इतना भरोसा है कि आप सेल्फ रेग्यूलेटरी
कमिशन बनाती हैं, इतना भरोसा हिन्दी माध्यम स्कूलों पर क्यों नहीं है? आपकी बैठक में फीस पर बात हुई और अभिभावकों की ओर से एक भी
प्रतिनिधि नहीं था।
वे स्कूल वेबसाइट पर इतना खर्च करते हैं, जितने में एक बेचारा
सरकारी हिन्दी माध्यम स्कूल कई महीनों के लिए अपना खर्च निकाल लेता है। इन स्कूलों
के पास चमचमाती इमारतें नहीं हैं, अधिकतर स्कूल किराए के मकानों में चलते हैं और
यही वजह है कि कई लोकप्रिय हिन्दी माध्यम स्कूल उच्च माध्यमिक का दर्जा नहीं पा
सके हैं। दीदी आप स्कूलों के विस्तार की बात कर रही हैं मगर इन हिन्दी माध्यम
स्कूलों को कई बीघे जमीन नहीं चाहिए, आप पास की कोई इमारत दे देंगी तो भी हर स्कूल
की क्षमता दुगनी हो जाएगी। मैंने जिन कॉलेजों (स्पेशल ऑनर्स किया है, इसलिए 2
कॉलेज हैं) से स्नातक और बाद में ऑनर्स किया, वहाँ पढ़ाई से लेकर गतिविधियाँ और
प्रोफेसर सब बहुत अच्छे हैं, मगर उनको आधारभूत संरचना के अभाव के कारण उनको नैक का
अच्छा ग्रेड नहीं मिल सकता। अधिकतर स्कूलों में शिक्षकों के पद खाली हैं, आपको
स्वच्छ भारत से एलर्जी है मगर निर्मल बांग्ला अभियान के तहत भी न तो सुरक्षा
कर्मियों के पद हैं और न सफाई कर्मियों के, स्कूल स्वच्छ कैसे रहेंगे? बेंचें हैं तो टूटी हुई हैं, बच्चे उड़ती रेत पर बैठकर मिड डे मिल
खाते हैं। जिस पृष्ठभूमि के साथ ये बच्चे इन स्कूलों में आते हैं, उनके पास साफ –सुथरे
कपड़े नहीं होते, पूरा साल बीतने को होता है तो किताबें मिलती हैं और जो किताबें
मिलती हैं, वो बांग्ला किताबों का घटिया अनुवाद भर होती हैं। इन स्कूलों की संचालन
समितियों में जो शिक्षक हैं, वह अभी आपकी पार्टी के समर्थक हैं, जब माकपा की थी,
तो उनके समर्थक हुआ करते थे। कहने का मतलब यह है कि हिन्दी माध्यम स्कूलों के
शिक्षक और प्रशासकों की कोई विचारधारा नहीं होती, वे बस विचारधारा की बातें करते
हैं, उनकी विचारधारा सत्ता के अनुसार बदलती रहती है। वे शिकायतें करते हैं मगर कभी
नहीं चाहते कि उनका नाम मीडिया में आए। वे कभी रैलियाँ नहीं करते, घेराव नहीं
करते, हम जैसे पत्रकार जब कहते हैं कि शिक्षक जब तक नहीं बोलते तो समस्याएँ कैसे
सुधरेंगी तो शिक्षक कहते हैं कि बस चल रहा है, क्या करेंगे...तकलीफ इस बात की है
उनमें तड़प नहीं है, दीदी, ये सब आपके हाथ में हैं इसलिए आप इन स्कूलों, शिक्षकों
और बच्चों को लेकर निश्चित हैं, आप जानती हैं कि मतदाताओं का बड़ा वोट बैंक
सुरक्षित है।
आप इनके साथ शायद बैठक कर भी लें मगर यह तो तय है कि यहाँ अदालत भी
आप होंगी और जज भी। इन स्कूलों से टॉपर कभी नहीं निकलते और निकलेंगे भी नहीं। पता
नहीं कैसे इस बार आदर्श मेधासूची में चौथे स्थान पर आ गया, आ गया क्योंकि वह जिस
स्कूल में है, वह भी इस शहर के नामचीन स्कूलों में है और उसका नाम और साक्षात्कार
भी स्थानीय मीडिया के लिए करेले के जूस की तरह था, नाम लेना था मगर परहेज के साथ।
उच्च माध्यमिक शिक्षा परिषद में तमाम भाषाओं के शीर्ष अंक पाने वालों के नाम बताए
गए मगर हिन्दी में अव्वल कौन रहा, यह हम नहीं जान सके। अध्यक्षा महोदया को हिन्दी
में दिलचस्पी नहीं थी। इन स्कूलों से विद्रोह तो दूर, किसी भी सरकार के खिलाफ
विरोध की आवाज तक नहीं निकलेगी। बैठकों में सत्ता को गाली देने वाले लोग सरकारी
जनप्रतिनिधियों के स्वागत में पलक – पाँवड़े बिछाए रहेंगे, मीडिया कुछ लिखे तो
गुजारिश करेंगे कि उनका नाम उनके ही बयान में नहीं आए और कल्पना करेंगे कि यह सूरत
बदले मगर उनको सीरत बदलने की जरूरत नहीं पड़े। आप यह कमजोरी जानती हैं और हर
पार्टी जानती है इसलिए आपकी पार्टी जीतेगी, आपकी सरकार बनेगी मगर हिन्दी माध्यम
स्कूलों की हालत कभी नहीं बदलेगी। दीदी, इस राज्य में जब सब बराबर है तो आपकी
त्रिभाषा नीति हर किसी पर बराबर रूप से लागू क्यों नहीं हो सकती? निजी स्कूलों में वह बोर्ड परीक्षाओं पर लागू नहीं होगा,
सिर्फ स्कूली स्तर पर लागू होगा जबकि इन स्कूलों के पास न साधन की कमी है और
सिखाने के तरीकों की, शिक्षकों की कमी भी नहीं होगी मगर जो हिन्दी माध्यम स्कूल
240 रुपए की फीस में अपनी स्कूल चला रहे हैं, जिनको लकड़ी की पट्टी लगाकर कक्षाएँ
अलग करनी पड़ रही हैं, जिनके पास पहले से ही शिक्षक नहीं हैं, उनको आपकी त्रिभाषा
नीति अपनानी पड़ेगी, क्या इसके लिए संरचना है? मगर सीख जाएँगे क्योंकि हिन्दी
माध्यम स्कूलों में भी तो बांग्ला के माध्यम से विषय पढ़ाए जा रहे हैं। अब सवाल यह
कि हिन्दी माध्यम स्कूलों को रवीन्द्रनाथ को पढ़ने से कोई आपत्ति नहीं है मगर क्या
बांग्ला माध्यम सरकारी स्कूलों में प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा, निर्मल वर्मा
को बोर्ड परीक्षाओं तक पढ़ाया जाएगा? अगर हाँ, तो यह स्वागत योग्य है
और नहीं तो यह एकतरफा फैसला क्यों? आप हिन्दी का स्वागत करती हैं और आपकी बैठक में हिन्दी
माध्यम स्कूल का एक भी प्रतिनिधि नहीं होता। होता भी है तो उसकी बात नहीं सुनी
जाती। लगभग हर प्रशासनिक बैठक में हिन्दीभाषियों की उपस्थिति न के बराबर है। उनकी
जुबान खुलती भी है तो आपकी प्रशस्ति के लिए।
आपको लगता है कि क्रीमी लेयर वाले 5
-10 प्रतिशत स्कूलों के प्रतिनिधि, मालिक और प्रिंसिपल पूरे हिन्दी समाज का
प्रतिनिधित्व कर रहे हैं तो ऐसा नहीं है। सरकारी बांग्ला माध्यम स्कूलों को जितना
अनुदान मिलता है, उसका आधा भी हिन्दी माध्यम स्कूलों को मिले तो उनको जीवनदान मिल
जाए। दरअसल इस राज्य में हिन्दी, हिन्दी भाषी और हिन्दी माध्यम दूसरे दर्जे के
नागरिक हैं और महज वोट बैंक हैं। हिन्दी माध्यम स्कूल इस राज्य में किसी उपेक्षित
बच्चे की तरह हैं। दीदी ने अस्पतालों की क्लास ली और फर्जी डॉक्टर राज्य भर से ऐसे
धराए जाने लगे। मतलब बिहार और बंगाल की दोस्ती यहाँ भी सलामत है, वहाँ टॉपर फर्जी,
यहाँ डॉक्टर फर्जी, हिसाब – किताब बराबर। इस राज्य के 12 हजार से अधिक स्कूलों में
लाखों विद्यार्थी आते हैं और इसमें एक बड़ा हिस्सा हिन्दी माध्यम में पढ़ने वाले
बच्चों का है, वे फीस देते हैं, आपकी बातें सुनते है क्योंकि सुनने के सिवाय वे
कुछ भी नहीं कर सकते क्योंकि जो दोयम दर्जे के हैं, वे फैसले नहीं सुना सकते। इन
स्कूलों से कभी टॉपर नहीं निकलेंगे, चाटुकार निकलेंगे मगर नेता नहीं निकलेंगे, आप
सुरक्षित हैं।
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