खुद से पूछिए, विवेकानंद चाहिए तो क्या परमहंस बनने को तैयार हैं?

12 जनवरी आ रही है और देश में युवा दिवस मनाया जायेगा। युवाओं के साथ मैं कई सालों से काम कर रही हूँ, पत्रकारिता करते हुए युवाओं के साथ ही बात भी होती रही है और उनको समझना थोड़ा सा आसान हो गया है। हर बार मंच पर सबको यही कहते सुना है कि युवाओं को मौका मिलना चाहिए या देना चाहिए लेकिन युवाओं से हम उम्मीद यही रखते हैं कि वह आज्ञाकारी बने रहें, उनके सवालों के लिए हम तैयार नहीं रहते। जो करते हैं, वह खानापूर्ति से अधिक कुछ नहीं होता। उदाहरण के लिए अगर हम अपने कार्यक्रमों को लेकर ही बात करें तो वहाँ पर केन्द्रीय भाव इतना अधिक रहता है कि बाकी चीजें पीछे छूट जाती हैं। कहने का मतलब यह है कि कोई साहित्य पढ़े तो उसे विज्ञान से मतलब नहीं रखना चाहिए या कोई विज्ञान का विद्यार्थी है तो उसके लिए साहित्य पढ़ना एक अजूबा माना जाता है जबकि हकीकत यह है कि दोनों ही क्षेत्र से जुड़े लोगों की पसन्द उनकी शिक्षा या पाठ्यक्रम के विपरीत हो सकती है। जैसा कि पहले भी कहती रही हूँ कि हिन्दी में विशेष रूप से भाषा को सुधारने की बात होती है, भाषा को रोजगार से जोड़ने की बात होती है मगर साहित्य को रोजगार से जोड़ने की बात कम ही होती है। जिस तरह हिन्दी सिनेमा का मतलब बॉलीवुड मान लिया गया है, वैसे ही साहित्य का मतलब भी कविता या कथा साहित्य भर को मान लिया गया है। अधिकतर कार्यक्रम ऐसे होते हैं जिनमें दिग्गज ही बोलते हैं और युवाओं का काम सिर्फ सुनना होता है। ऐसा नहीं है कि युवाओं के विचार सुने नहीं जाते, सुने जाते हैं मगर बड़ों को उनकी असहमति का स्वर अब भी नहीं भाता। 

इसका एक सीधा कारण है बात करने का तरीका...सन्तुलित तरीके से अपनी बात रखना, विरोध करना या असहमति प्रकट करना हमारे युवा सीख नहीं पाये हैं। अपनी बात नहीं सुने जाने की खीझ ही नाराजगी बनती है और बात में विद्रोह और विद्रोह के नाम पर याद आती हैं राजनीतिक पार्टियाँ और उनके छात्र संगठन...जो आम युवाओं का इस्तेमाल अपनी ताकत बढ़ाने और दिखाने के लिए करते हैं। एक समय था जब छात्र राजनीति से बड़े दिग्गज नेता निकले।  सहमति और असहमति के बावजूद देश की राजनीति में उनका महत्व है। यह सोचने का विषय है कि धरने और प्रदर्शन की राजनीति की भरमार के बाद भी एक अच्छा नेता छात्र राजनीति क्यों नहीं दे सकी? उससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर हिन्दी भाषी विद्याथिर्यों में एक अच्छा नेतृत्व क्यों नहीं उभर पा रहा है? क्यों हिन्दीभाषियों का प्रतिनिधित्व किसी का झंडा उठाने या बाउंसर बनने तक सिमट गया है...इन सवालों की जड़ में जब आप जाते हैं तो जवाब एक ही मिलता है...युवाओं को बोलने ही नहीं दिया जाता और जब वे बोलते हैं तो आप सुनना नहीं चाहते, जब आप मन मारकर सुन लेते हैं तो उनकी बात मानने से आपके अहं को तकलीफ होती है। शायद यही कारण है कि किसी भी कार्यक्रम के अंत में प्रश्नों के लिए 10 - 15 मिनट होते तो हैं, मगर अधिकतर मामलों में वे समय़ की कमी की भेंट चढ़ जाते हैं। किसी युवा ने सवाल कर दिया तो आप खुद को अपमानित महसूस करते हैं और कई धुरन्धर तो ऐसे होते हैं कि सवाल करने वाले विद्यार्थी या युवा का जीवन और कॅरियर तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। यकीन न आये तो कभी अकादमियों, संस्थानों की कुर्सियों पर नजर डालकर देखिएगा....विनम्रता के नाम पर चाटुकारिता की परम्परा को घी पिलाकर जिज्ञासा और ज्ञान की परम्परा में मट्ठा डाल दिया गया है। अगर परम्परा की बात करते हैं तो यह भी याद करिएगा कि रामकृष्ण परमहंस को भी स्वामी विवेकानंद के संशय का समाधान करना पड़ा था...नरेन्द्र एक ही बार में आँख बंद करके पैर छूने वाले शिष्य नहीं थे मगर गुरु का धैर्य ऐसा था कि अन्त में शिष्य ने उनको स्वीकार किया...आप विवेकानन्द जैसे शिष्य बाद में खोज लें....पहले खुद से सवाल कीजिए...क्या आप रामकृष्ण परमहंस या स्वामी दयानन्द सरस्वती के गुरु विरजानंद बनने को तैयार हैं..? सोचिए और तब युवाओं का आकलन करिए।


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