महापुरुषों पर गर्व करते हैं तो उनकी विरासत को सहेजना भी सीख लेते
मेरे एक शिक्षक कहा करते थे...मनुष्य दो परम्पराओं में जीवित रहता है...वंश परम्परा और शिष्य परम्परा। आमतौर पर वंश परम्परा में विश्वास बहुत ज्यादा रहता है...हमारे समाज में विवाह और परिकल्पना के पीछे यह एक मजबूत कारण है लेकिन कई उदाहरण ऐसे सामने आ रहे हैं जिसे देखकर सोचना पड़ रहा है..क्या वाकई वंश परम्परा इतनी मजबूत होती है...? कई ऐसे उदाहरण हैं जिसे देखकर कहा जा सकता है कि शिष्य परम्परा की डोर वंश परम्परा की तुलना में कहीं अधिक मजबूत होती है क्योंकि परिवार अधिकतर मामलों में बाधक की भूमिका में ही अधिक रहता है और यह दावा नहीं किया जा सकता है कि किसी भी परिवार में व्यक्ति की सफलता से घर का एक सदस्य प्रसन्न ही होगा या इसे स्वीकार किया भी जायेगा। शिक्षण का क्षेत्र भी इसी वजह से चिर लोकप्रिय है। कई बार आपके बच्चों को और आपके परिवार को आपकी कद्र नहीं होती लेकिन आपके विद्यार्थी आपके लिए खड़े होते हैं...तब भी जब आपने उनसे ऐसी कोई शर्त या उम्मीद नहीं रखी होती...वह आपसे प्रेम करते हैं....और दिल से प्रेम करते हैं...जहाँ कोई तुलना न के बराबर ही रहती है...याद रखिए कि मैं अकादमिक स्तर पर किसी साधारण शिक्षण संस्थान के विद्यार्थी की बात नहीं कर रही...आप इसे जरा सा और ऊँचाई पर ले जाइए। शिष्यों ने अपने गुरु की परम्परा को आगे ले जाने के लिए अपना पूरा जीवन होम कर दिया...समाज और परिवार,,,सबको त्याग दिया या फिर उनके ताने आजीवन सहे...। स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद और स्वामी श्रद्धानंद और खुद सचिन तेंदुलकर भी इसका सीधा उदाहरण है। अपने गुरु विरजानंद के वचन को रखते हुए स्वामी दयानंद सरस्वती आजीवन उनके द्वारा दिखाये मार्ग पर चले और आज भी आर्य समाज की परम्परा विद्यमान है। सचिन तेंदुलकर अपने गुरु रमाकांत आचरेकर का कितना सम्मान करते थे...यह किसी से छिपा नहीं है मगर आज इस लेख की पृष्ठभूमि जो घटना है...वह खुद में अद्भुत है मगर कुछ ऐसे सवाल भी छोड़ गयी है जिनके बारे में हमने सोचा भी नहीं है और सोचना ही चाहते हैं...।
अभी हाल में स्वामी विवेकानंद के आवास की स्टोरी कवर करने की इच्छा पूरी हुई। स्वामी जी के इस पैतृक आवास की मूल इमारत ध्वस्त ही हो चली थी मगर रामकृष्ण मिशन ने इसे फिर से एक प्रकार से खोजकर खड़ा किया है। अब यह पैतृक आवास सह संग्रहालय तथा सांस्कृतिक केन्द्र भी है...बात इतनी सी ही नहीं है...आप इस पूरी प्रक्रिया को समझिए क्योंकि यह जगह मिशन को पूरे 30 साल की मुकदमेबाजी के बाद भी नहीं मिली थी, अतिक्रमण हटाने के लिए 54 परिवारों और व्यवसायिक केन्द्रों को पुनर्वास रामकृष्ण मिशन ने दिया है और इस प्रक्रिया में 7 साल लगे और इसके बाद बाकी 5 साल वर्तमान भवन के निर्माण में लगे...यह शिष्य परम्परा और स्वामी विवेकानंद के प्रति रामकृष्ण मिशन के उत्कट प्रेम का प्रतीक है...और यह गर्व का विषय है मगर हमारे लिए शर्म की बात होनी चाहिए।
मेरा सीधा सवाल यह है कि क्या यह सारी जिम्मेदारी रामकृष्ण मिशन की थी या होनी चाहिए? क्या स्वामी विवेकानंद सिर्फ मिशन के हैं या इस पूरे देश की जनता के हैं? क्या विचारधारा मेल नहीं खाती तो सम्मान कम हो जाता है..? यह सवाल राज्य सरकार के साथ केन्द्र सरकार से भी है...वैसे भी स्वामी जी जब जीवित थे...तब भी उनके परिवार को दरिद्रता देखनी पड़ी। माता भुवनेश्वरी के लिए खेतड़ी महाराज अजीत सिंह को पत्र लिखना पड़ा.....क्या उस समय बंगाल में रईसों का अकाल था...?
स्वामी विवेकानंद और खेतड़ी महाराज अजीत सिंह |
जिस घर के सामने सिर झुक जाना चाहिए...आखिर वहाँ पर अतिक्रमण कोई कैसे कर सकता है और हटाने पर आप मुकदमा करेंगे....ऐसी न जाने कितनी ही हमारी धरोहरें हैं जो अतिक्रमण का शिकार हैं...बंगाली समाज जब इतना जागरुक है तो यह अपने पूर्वजों के अधिकार और उसके सम्मान के लिए आवाज क्यों नहीं उठाता...क्यों नहीं जेयू और प्रेसिडेंसी के विद्यार्थी सुबोध मलिक के घर को बचाने के लिए सामने आते हैं...जो कि निरन्तर खत्म होता जा रहा है.... रामकृष्ण मिशन स्वामी जी के आवास का निर्माण करे..यह बात समझी जा सकती है मगर पुनर्वास का जिम्मा....क्या यह सरकारों और कॉरपोरेट घरानों की जिम्मेदारी नहीं थी..क्या यह स्थानीय लोगों की जिम्मेदारी नहीं है कि अपनी धरोहरों को अतिक्रमण से बचायें....इसके लिए क्या अलग से कानून बनाने की जरूरत है या आपके पास जमीर नाम की चीज है.....आज जब यह भवन बनकर तैयार है तो बड़ी शान से बंगाल के पर्यटन के मानचित्र पर इसे दर्ज किया गया है मगर जब यह लुप्त होने की ओर था...तब यह गौरव कहाँ था...लेकिन ठाकुर के शिष्य की परम्परा बहुत मजबूत है तभी तो रामकृष्ण मिशन ने इस भवन को फिर से खड़ा किया और आप जब भी इसे देखेंगे....विश्वास मजबूत होता रहेगा मगर इसके साथ ही जब खुद पर नजर डालेंगे तो शायद खुद से नजर भी न मिला सकें।
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